॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०१)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
श्रीशुक
उवाच –
द्वारि
द्युनद्या ऋषभः कुरूणां
मैत्रेयमासीनमगाधबोधम् ।
क्षत्तोपसृत्याच्युतभावसिद्धः
पप्रच्छ सौशील्यगुणाभितृप्तः ॥ १ ॥
विदुर
उवाच –
सुखाय
कर्माणि करोति लोको
न तैः सुखं वान्यदुपारमं वा ।
विन्देत
भूयस्तत एव दुःखं
यदत्र युक्तं भगवान् वदेन्नः ॥ २ ॥
जनस्य
कृष्णाद् विमुखस्य दैवाद्
अधर्मशीलस्य सुदुःखितस्य ।
अनुग्रहायेह
चरन्ति नूनं
भूतानि भव्यानि जनार्दनस्य ॥ ३ ॥
तत्साधुवर्यादिश
वर्त्म शं नः
संराधितो भगवान् येन पुंसाम् ।
हृदि
स्थितो यच्छति भक्तिपूते
ज्ञानं सतत्त्वाधिगमं पुराणम् ॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परमज्ञानी मैत्रेय मुनि (हरिद्वारक्षेत्र में) विराजमान थे। भगवद्भक्ति से
शुद्ध हुए हृदयवाले विदुर जी उनके पास जा पहुँचे और उनके साधुस्वभाव से आप्यायित
होकर उन्होंने पूछा ॥ १ ॥
विदुरजीने
कहा—भगवन् ! संसारमें सब लोग सुखके लिये कर्म करते हैं; परन्तु
उनसे न तो उन्हें सुख ही मिलता है और न उनका दु:ख ही दूर होता है, बल्कि उससे भी उनके दु:खकी वृद्धि ही होती है। अत: इस विषयमें क्या करना
उचित है, यह आप मुझे कृपा करके बतलाइये ॥ २ ॥
जो
लोग दुर्भाग्यवश भगवान् श्रीकृष्णसे विमुख, अधर्मपरायण और
अत्यन्त दुखी हैं, उनपर कृपा करनेके लिये ही आप-जैसे
भाग्यशाली भगवद्भक्त संसारमें विचरा करते हैं ॥३॥ साधुशिरोमणे ! आप मुझे उस
शान्तिप्रद साधनका उपदेश दीजिये, जिसके अनुसार आराधना करनेसे
भगवान् अपने भक्तोंके भक्तिपूत हृदयमें आकर विराजमान हो जाते हैं और अपने
स्वरूपका अपरोक्ष अनुभव करानेवाला सनातन ज्ञान प्रदान करते हैं ॥ ४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०२)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
करोति
कर्माणि कृतावतारो
यान्यात्मतंत्रो भगवान् त्र्यधीशः ।
यथा
ससर्जाग्र इदं निरीहः
संस्थाप्य वृत्तिं जगतो विधत्ते ॥ ५ ॥
यथा
पुनः स्वे ख इदं निवेश्य
शेते गुहायां स निवृत्तवृत्तिः ।
योगेश्वराधीश्वर
एक एतद्
अनुप्रविष्टो बहुधा यथाऽऽसीत् ॥ ६ ॥
क्रीडन्
विधत्ते द्विजगोसुराणां
क्षेमाय कर्माण्यवतारभेदैः ।
मनो
न तृप्यत्यपि शृण्वतां नः
सुश्लोकमौलेश्चरितामृतानि ॥ ७ ॥
यैस्तत्त्वभेदैः
अधिलोकनाथो
लोकानलोकान् सह लोकपालान् ।
अचीकॢपद्यत्र
हि सर्वसत्त्व
निकायभेदोऽधिकृतः प्रतीतः ॥ ८ ॥
त्रिलोकीके
नियन्ता और परम स्वतन्त्र श्रीहरि अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ करते हैं; जिस प्रकार अकर्ता होकर भी उन्होंने कल्प के आरम्भ में इस सृष्टिकी रचना
की, जिस प्रकार इसे स्थापित कर वे जगत् के जीवों की जीविका का विधान करते हैं, फिर जिस प्रकार इसे अपने हृदयाकाश में लीनकर वृत्तिशून्य हो योगमाया का
आश्रय लेकर शयन करते हैं और जिस प्रकार वे योगेश्वरेश्वर प्रभु एक होने पर भी इस
ब्रह्माण्डमें अन्तर्यामीरूप से अनुप्रविष्ट होकर अनेकों रूपों में प्रकट होते हैं—वह सब रहस्य आप हमें समझाइये ॥ ५-६ ॥ ब्राह्मण, गौ
और देवताओं के कल्याणके लिये जो अनेकों अवतार धारण करके लीला से ही नाना प्रकारके
दिव्य कर्म करते हैं, वे भी हमें सुनाइये। यशस्वियोंके
मुकुटमणि श्रीहरि के लीलामृत का पान करते-करते हमारा मन तृप्त नहीं होता ॥ ७ ॥ हमें
यह भी सुनाइये कि उन समस्त लोकपतियोंके स्वामी श्रीहरिने इन लोकों, लोकपालों और लोकालोक-पर्वतसे बाहरके भागोंको, जिनमें
ये सब प्रकारके प्राणियोंके अधिकारानुसार भिन्न- भिन्न भेद प्रतीत हो रहे हैं,
किन तत्त्वोंसे रचा है ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०३)
विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
येन प्रजानामुत आत्मकर्म
रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।
नारायणो विश्वसृगात्मयोनिः
एतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥ ९ ॥
परावरेषां भगवन् व्रतानि
श्रुतानि मे व्यासमुखादभीक्ष्णम् ।
अतृप्नुम क्षुल्लसुखावहानां
तेषामृते कृष्णकथामृतौघात् ॥ १० ॥
कस्तृप्नुयात्तीर्थपदोऽभिधानात्
सत्रेषु वः सूरिभिरीड्यमानात् ।
यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातो
भवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥ ११ ॥
मुनिर्विवक्षुर्भगवद्गुणानां
सखापि ते भारतमाह कृष्णः ।
यस्मिन् नृणां ग्राम्यसुखानुवादैः
मतिर्गृहीता नु हरेः कथायाम् ॥ १२ ॥
(विदुरजी मैत्री जी से कह रहे हैं) द्विजवर ! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजाके स्वभाव, कर्म, रूप और नामोंके भेदकी किस प्रकार रचना की है ? भगवन् ! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्णकथामृत के प्रवाह को छोडक़र अन्य स्वल्पसुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है ॥ ९-१० ॥ उन तीर्थपाद श्रीहरिके गुणानुवादसे तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओंके समाजमें कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्योंके कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसारचक्र में डालनेवाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान् के गुणों का वर्णन करने की इच्छासे ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषयसुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान् की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है ॥ १२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०३)
विदुरजीका प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
येन प्रजानामुत आत्मकर्म
रूपाभिधानां च भिदां व्यधत्त ।
नारायणो विश्वसृगात्मयोनिः
एतच्च नो वर्णय विप्रवर्य ॥ ९ ॥
परावरेषां भगवन् व्रतानि
श्रुतानि मे व्यासमुखादभीक्ष्णम् ।
अतृप्नुम क्षुल्लसुखावहानां
तेषामृते कृष्णकथामृतौघात् ॥ १० ॥
कस्तृप्नुयात्तीर्थपदोऽभिधानात्
सत्रेषु वः सूरिभिरीड्यमानात् ।
यः कर्णनाडीं पुरुषस्य यातो
भवप्रदां गेहरतिं छिनत्ति ॥ ११ ॥
मुनिर्विवक्षुर्भगवद्गुणानां
सखापि ते भारतमाह कृष्णः ।
यस्मिन् नृणां ग्राम्यसुखानुवादैः
मतिर्गृहीता नु हरेः कथायाम् ॥ १२ ॥
(विदुरजी मैत्री जी से कह रहे हैं) द्विजवर ! उन विश्वकर्ता स्वयम्भू श्रीनारायण ने अपनी प्रजाके स्वभाव, कर्म, रूप और नामोंके भेदकी किस प्रकार रचना की है ? भगवन् ! मैंने श्रीव्यासजी के मुख से ऊँच-नीच वर्णों के धर्म तो कई बार सुने हैं। किन्तु अब श्रीकृष्णकथामृत के प्रवाह को छोडक़र अन्य स्वल्पसुखदायक धर्मों से मेरा चित्त ऊब गया है ॥ ९-१० ॥ उन तीर्थपाद श्रीहरिके गुणानुवादसे तृप्त हो भी कौन सकता है। उनका तो नारदादि महात्मागण भी आप-जैसे साधुओंके समाजमें कीर्तन करते हैं तथा जब ये मनुष्योंके कर्णरन्ध्रों में प्रवेश करते हैं, तब उनकी संसारचक्र में डालनेवाली घर-गृहस्थी की आसक्ति को काट डालते हैं ॥ ११ ॥ भगवन् ! आपके सखा मुनिवर कृष्णद्वैपायन ने भी भगवान् के गुणों का वर्णन करने की इच्छासे ही महाभारत रचा है। उसमें भी विषयसुखों का उल्लेख करते हुए मनुष्यों की बुद्धि को भगवान् की कथाओं की ओर लगाने का ही प्रयत्न किया गया है ॥ १२ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०४)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
सा
श्रद्दधानस्य विवर्धमाना
विरक्तिमन्यत्र करोति पुंसः ।
हरेः
पदानुस्मृतिनिर्वृतस्य
समस्तदुःखाप्ययमाशु धत्ते ॥ १३ ॥
तान्
शोच्यशोच्यान् अविदोऽनुशोचे
हरेः कथायां विमुखानघेन ।
क्षिणोति
देवोऽनिमिषस्तु येषां
आयुर्वृथावादगतिस्मृतीनाम् ॥ १४ ॥
तदस्य
कौषारव शर्मदातुः
हरेः कथामेव कथासु सारम् ।
उद्धृत्य
पुष्पेभ्य इवार्तबन्धो
शिवाय नः कीर्तय तीर्थकीर्तेः ॥ १५ ॥
स
विश्वजन्मस्थितिसंयमार्थे
कृतावतारः प्रगृहीतशक्तिः ।
चकार
कर्माण्यतिपूरुषाणि
यानीश्वरः कीर्तय तानि मह्यम् ॥ १६ ॥
यह
भगवत्कथाकी रुचि श्रद्धालु पुरुषके हृदयमें जब बढऩे लगती है, तब अन्य विषयोंसे उसे विरक्त कर देती है। वह भगवच्चरणोंके निरन्तर
चिन्तनसे आनन्दमग्र हो जाता है और उस पुरुषके सभी दु:खोंका तत्काल अन्त हो जाता है
॥ १३ ॥ मुझे तो उन शोचनीयोंके भी शोचनीय अज्ञानी पुरुषोंके लिये निरन्तर खेद रहता
है, जो अपने पिछले पापोंके कारण श्रीहरिकी कथाओंसे विमुख
रहते हैं। हाय ! कालभगवान् उनके अमूल्य जीवनको काट रहे हैं और वे वाणी, देह और मनसे व्यर्थ वाद-विवाद, व्यर्थ चेष्टा और
व्यर्थ चिन्तनमें लगे रहते हैं ॥ १४ ॥ मैत्रेयजी ! आप दीनोंपर कृपा करनेवाले हैं;
अत: भौंरा जैसे फूलोंमेंसे रस निकाल लेता है, उसी
प्रकार इन लौकिक कथाओंमेंसे इनकी सारभूता परम कल्याणकारी पवित्रकीर्ति श्रीहरिकी
कथाएँ छाँटकर हमारे कल्याणके लिये सुनाइये ॥ १५ ॥ उन सर्वेश्वरने संसारकी उत्पत्ति,
स्थिति और संहार करनेके लिये अपनी मायाशक्तिको स्वीकार कर
राम-कृष्णादि अवतारोंके द्वारा जो अनेकों अलौकिक लीलाएँ की हैं, वे सब मुझे सुनाइये ॥ १६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०५)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
श्रीशुक
उवाच -
स
एवं भगवान् पृष्टः क्षत्त्रा कौषारविर्मुनिः ।
पुंसां
निःश्रेयसार्थेन तमाह बहु मानयन् ॥ १७ ॥
मैत्रेय
उवाच -
साधु
पृष्टं त्वया साधो लोकान् साधु अनुगृह्णता ।
कीर्तिं
वितन्वता लोके आत्मनोऽधोक्षजात्मनः ॥ १८ ॥
नैतच्चित्रं
त्वयि क्षत्तः बादरायणवीर्यजे ।
गृहीतोऽनन्यभावेन
यत्त्वया हरिरीश्वरः ॥ १९ ॥
माण्डव्यशापाद्
भगवान् प्रजासंयमनो यमः ।
भ्रातुः
क्षेत्रे भुजिष्यायां जातः सत्यवतीसुतात् ॥ २० ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—जब विदुरजीने जीवोंके कल्याणके लिये इस प्रकार प्रश्न किया, तब तो मुनिश्रेष्ठ भगवान् मैत्रेयजी ने उनकी बहुत बड़ाई करते हुए यों कहा
॥ १७ ॥
श्रीमैत्रेयजी
बोले—साधुस्वभाव विदुर जी ! आपने सब जीवों पर अत्यन्त अनुग्रह करके यह बड़ी
अच्छी बात पूछी है। आपका चित्त तो सर्वदा श्रीभगवान् में ही लगा रहता है, तथापि इससे संसार में भी आपका बहुत सुयश फैलेगा ॥ १८ ॥ आप श्रीव्यासजी के
औरस पुत्र हैं; इसलिये आपके लिये यह कोई बड़ी बात नहीं है कि
आप अनन्यभाव से सर्वेश्वर श्रीहरि के ही आश्रित हो गये हैं ॥ १९ ॥ आप प्रजाको दण्ड
देनेवाले भगवान् यम ही हैं। माण्डव्य ऋषिका शाप होनेके कारण ही आपने
श्रीव्यासजीके वीर्यसे उनके भाई विचित्रवीर्यकी भोगपत्नी दासीके गर्भसे जन्म लिया
है ॥ २० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०६)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
भवान्
भगवतो नित्यं सम्मतः सानुगस्य ह ।
यस्य
ज्ञानोपदेशाय माऽऽदिशद्भगवान् व्रजन् ॥ २१ ॥
अथ
ते भगवल्लीला योगमायोरुबृंहिताः ।
विश्वस्थिति
उद्भवान्तार्था वर्णयामि अनुपूर्वशः ॥ २२ ॥
भगवान्
एक आसेदं अग्र आत्माऽऽत्मनां विभुः ।
आत्मेच्छानुगतावात्मा
नानामत्युपलक्षणः ॥ २३ ॥
स
वा एष तदा द्रष्टा नापश्यद् दृश्यमेकराट् ।
मेनेऽसन्तमिवात्मानं
सुप्तशक्तिः असुप्तदृक् ॥ २४ ॥
सा
वा एतस्य संद्रष्टुः शक्तिः सद् असदात्मिका ।
माया
नाम महाभाग ययेदं निर्ममे विभुः ॥ २५ ॥
(श्रीमैत्रेयजी
विदुरजी से कह रहे हैं) आप सर्वदा ही
श्रीभगवान् और उनके भक्तोंको अत्यन्त प्रिय हैं; इसीलिये
भगवान् निजधाम पधारते समय मुझे आपको ज्ञानोपदेश करनेकी आज्ञा दे गये हैं ॥ २१ ॥
इसलिये अब मैं जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और लयके लिये
योगमायाके द्वारा विस्तारित हुई भगवान्की विभिन्न लीलाओं का क्रमश: वर्णन करता
हूँ ॥ २२ ॥ सृष्टिरचना के पूर्व समस्त आत्माओं के आत्मा एक पूर्ण परमात्मा ही थे—न द्रष्टा था न दृश्य ! सृष्टिकाल में अनेक वृत्तियों के भेद से जो अनेकता
दिखायी पड़ती है, वह भी वही थे; क्योंकि
उनकी इच्छा अकेले रहने की थी ॥ २३ ॥ वे ही द्रष्टा होकर देखने लगे, परन्तु उन्हें दृश्य दिखायी नहीं पड़ा; क्योंकि उस
समय वे ही अद्वितीय रूप से प्रकाशित हो रहे थे। ऐसी अवस्था में वे अपने को असत् के
समान समझने लगे। वस्तुत: वे असत् नहीं थे,
क्योंकि उनकी शक्तियाँ ही सोयी थीं। उनके ज्ञान का लोप नहीं हुआ था
॥ २४ ॥ यह द्रष्टा और दृश्यका अनुसन्धान करनेवाली शक्ति ही—कार्यकारण-
रूपा माया है। महाभाग विदुरजी ! इस भावाभावरूप अनिर्वचनीय माया के द्वारा ही
भगवान् ने इस विश्वका निर्माण किया है ॥ २५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०७)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
कालवृत्त्या
तु मायायां गुणमय्यामधोक्षजः ।
पुरुषेणात्मभूतेन
वीर्यमाधत्त वीर्यवान् ॥ २६ ॥
ततोऽभवन्
महत्तत्त्वं अव्यक्तात् कालचोदितात् ।
विज्ञानात्माऽऽत्मदेहस्थं
विश्वं व्यञ्जन् तमोनुदः ॥ २७ ॥
सोऽप्यंशगुणकालात्मा
भगवद् दृष्टिगोचरः ।
आत्मानं
व्यकरोद् आत्मा विश्वस्यास्य सिसृक्षया ॥ २८ ॥
महत्तत्त्वाद्
विकुर्वाणाद् अहंतत्त्वं व्यजायत ।
कार्यकारणकर्त्रात्मा
भूतेन्द्रियमनोमयः ॥ २९ ॥
वैकारिकस्तैजसश्च
तामसश्चेत्यहं त्रिधा ।
अहंतत्त्वाद्
विकुर्वाणात् मनो वैकारिकात् अभूत् ।
वैकारिकाश्च
ये देवा अर्थाभिव्यञ्जनं यतः ॥ ३० ॥
तैजसानि
इन्द्रियाण्येव ज्ञानकर्ममयानि च ।
तामसो
भूतसूक्ष्मादिः यतः खं लिङ्गमात्मनः ॥ ३१ ॥
कालशक्ति
से जब यह त्रिगुणमयी माया क्षोभ को प्राप्त हुई, तब उन
इन्द्रियातीत चिन्मय परमात्मा ने अपने अंश पुरुषरूप से उसमें चिदाभासरूप बीज
स्थापित किया ॥ २६ ॥ तब काल की प्रेरणा से उस अव्यक्त माया से महत्तत्त्व प्रकट
हुआ। वह मिथ्या अज्ञान का नाशक होने के कारण विज्ञानस्वरूप और अपने में सूक्ष्मरूप
से स्थित प्रपञ्च की अभिव्यक्ति करनेवाला था ॥ २७ ॥ फिर चिदाभास, गुण और कालके अधीन उस महत्तत्त्वने भगवान्की दृष्टि पडऩेपर इस विश्वकी
रचनाके लिये अपना रूपान्तर किया ॥ २८ ॥ महत्तत्त्वके विकृत होनेपर अहंकारकी
उत्पत्ति हुई—जो कार्य (अधिभूत), कारण
(अध्यात्म) और कत्र्ता (अधिदैव) रूप होनेके कारण भूत, इन्द्रिय
और मनका कारण है ॥ २९ ॥ वह अहंकार वैकारिक (सात्त्विक), तैजस
(राजस) और तामस भेदसे तीन प्रकारका है; अत: अहंतत्त्वमें
विकार होनेपर वैकारिक अहंकारसे मन, और जिनसे विषयोंका ज्ञान
होता है वे इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवता हुए ॥ ३० ॥ तैजस अहंकारसे
ज्ञानेन्द्रियाँ और कर्मेन्द्रियाँ हुर्ईं तथा तामस अहंकारसे सूक्ष्म भूतोंका कारण
शब्दतन्मात्र हुआ, और उससे दृष्टान्तरूपसे आत्माका बोध
करानेवाला आकाश उत्पन्न हुआ ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०८)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
कालमायांशयोगेन
भगवद् वीक्षितं नभः ।
नभसोऽनुसृतं
स्पर्शं विकुर्वन् निर्ममेऽनिलम् ॥ ३२ ॥
अनिलोऽपि
विकुर्वाणो नभसोरुबलान्वितः ।
ससर्ज
रूपतन्मात्रं ज्योतिर्लोकस्य लोचनम् ॥ ३३ ॥
अनिलेन
अन्वितं ज्योतिः विकुर्वत् परवीक्षितम् ।
आधत्ताम्भो
रसमयं कालमायांशयोगतः ॥ ३४ ॥
ज्योतिषाम्भोऽनुसंसृष्टं
विकुर्वद् ब्रह्मवीक्षितम् ।
महीं
गन्धगुणां आधात् कालमायांशयोगतः ॥ ३५ ॥
भूतानां
नभआदीनां यद् यद् यद् भव्यावरावरम् ।
तेषां
परानुसंसर्गाद् यथा सङ्ख्यं गुणान् विदुः ॥ ३६ ॥
एते
देवाः कला विष्णोः कालमायांशलिङ्गिनः ।
नानात्वात्
स्वक्रियानीशाः प्रोचुः प्राञ्जलयो विभुम् ॥ ३७ ॥
(श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं) भगवान् की दृष्टि जब आकाशपर पड़ी, तब उससे फिर काल,
माया और चिदाभासके योगसे स्पर्शतन्मात्र
हुआ और उसके विकृत होनेपर उससे वायुकी उत्पत्ति हुई ॥ ३२ ॥ अत्यन्त बलवान् वायुने
आकाशके सहित विकृत होकर रूपतन्मात्रकी रचना की और उससे संसारका प्रकाशक तेज
उत्पन्न हुआ ॥ ३३ ॥ फिर परमात्माकी दृष्टि पडऩेपर वायुयुक्त तेजने काल, माया और चिदंशके योगसे विकृत होकर रसतन्मात्रके कार्य जलको उत्पन्न किया ॥
३४ ॥ तदनन्तर तेजसे युक्त जलने ब्रह्मका दृष्टिपात होनेपर काल, माया और चिदंशके योगसे गन्धगुणमयी पृथ्वीको उत्पन्न किया ॥ ३५ ॥ विदुरजी !
इन आकाशादि भूतोंमेंसे जो-जो भूत पीछे-पीछे उत्पन्न हुए हैं, उनमें क्रमश: अपने पूर्व-पूर्व भूतोंके गुण भी अनुगत समझने चाहिये ॥ ३६ ॥
ये महत्तत्त्वादिके अभिमानी विकार, विक्षेप और
चेतनांशविशिष्ट देवगण श्रीभगवान्के ही अंश हैं। किन्तु पृथक्-पृथक् रहनेके कारण
जब वे विश्वरचनारूप अपने कार्यमें सफल नहीं हुए, तब हाथ
जोडक़र भगवान्से कहने लगे ॥ ३७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट०९)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
देवा
ऊचुः –
नमाम
ते देव पदारविन्दं
प्रपन्नतापोपशमातपत्रम् ।
यन्मूलकेता
यतयोऽञ्जसोरु
संसारदुःखं बहिरुत्क्षिपन्ति ॥ ३८ ॥
धातर्यदस्मिन्
भव ईश जीवाः
तापत्रयेणाभिहता न शर्म ।
आत्मन्लभन्ते
भगवंस्तवाङ्घ्रि
च्छायां सविद्यामत आश्रयेम ॥ ३९ ॥
मार्गन्ति
यत्ते मुखपद्मनीडै-
श्छन्दःसुपर्णैः ऋषयो विविक्ते ।
यस्याघमर्षोदसरिद्वरायाः
पदं पदं तीर्थपदः प्रपन्नाः ॥ ४० ॥
यत्
श्रद्धया श्रुतवत्या च भक्त्या
सम्मृज्यमाने हृदयेऽवधाय ।
ज्ञानेन
वैराग्यबलेन धीरा
व्रजेम तत्तेऽङ्घ्रिसरोजपीठम् ॥ ४१ ॥
देवताओंने
कहा—देव ! हम आपके चरणकमलों की वन्दना करते हैं। ये अपनी शरणमें आये हुए
जीवोंका ताप दूर करनेके लिये छत्रके समान हैं तथा इनका आश्रय लेनेसे यतिजन अनन्त
संसार- दु:खको सुगमतासे ही दूर फेंक देते हैं ॥ ३८ ॥ जगत् कर्ता जगदीश्वर ! इस
संसारमें तापत्रयसे व्याकुल रहनेके कारण जीवोंको जरा भी शान्ति नहीं मिलती। इसलिये
भगवन् ! हम आपके चरणोंकी ज्ञान- मयी छायाका आश्रय लेते हैं ॥ ३९ ॥ मुनिजन एकान्त
स्थानमें रहकर आपके मुखकमलका आश्रय लेनेवाले वेदमन्त्ररूप पक्षियों के द्वारा
जिनका अनुसन्धान करते रहते हैं तथा जो सम्पूर्ण पापनाशिनी नदियोंमें श्रेष्ठ
श्रीगङ्गाजीके उद्गमस्थान हैं, आपके उन परम पावन पादपद्मोंका
हम आश्रय लेते हैं ॥ ४० ॥ हम आपके चरणकमलोंकी उस चौकीका आश्रय ग्रहण करते हैं,
जिसे भक्तजन श्रद्धा और श्रवणकीर्तनादिरूप भक्तिसे परिमार्जित
अन्त:करणमें धारण करके वैराग्यपुष्ट ज्ञानके द्वारा परम धीर हो जाते हैं ॥ ४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट१०)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
विश्वस्य
जन्मस्थितिसंयमार्थे
कृतावतारस्य पदाम्बुजं ते ।
व्रजेम
सर्वे शरणं यदीश
स्मृतं प्रयच्छत्यभयं स्वपुंसाम् ॥ ४२ ॥
यत्सानुबन्धेऽसति
देहगेहे
ममाहं इति ऊढ दुराग्रहाणाम् ।
पुंसां
सुदूरं वसतोऽपि पुर्यां
भजेम तत्ते भगवन् पदाब्जम् ॥ ४३ ॥
तान्
वै ह्यसद्वृत्तिभिरक्षिभिर्ये
पराहृतान्तर्मनसः परेश ।
अथो
न पश्यन्ति उरुगाय नूनं
ये ते पदन्यासविलासलक्ष्याः ॥ ४४ ॥
ईश
! आप संसारकी उत्पत्ति,
स्थिति और संहारके लिये ही अवतार लेते हैं; अत:
हम सब आपके उन चरणकमलोंकी शरण लेते हैं, जो अपना स्मरण
करनेवाले भक्तजनोंको अभय कर देते हैं ॥ ४२ ॥ जिन पुरुषोंका देह, गेह तथा उनसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य तुच्छ पदार्थोंमें अहंता, ममताका दृढ़ दुराग्रह है, उनके शरीरमें (आपके
अन्तर्यामीरूपसे) रहनेपर भी जो अत्यन्त दूर हैं—उन्हीं आपके
चरणारविन्दोंको हम भजते हैं ॥ ४३ ॥ परम यशस्वी परमेश्वर ! इन्द्रियोंके विषयाभिमुख
रहनेके कारण जिनका मन सर्वदा बाहर ही भटका करता है, वे
पामरलोग आपके विलासपूर्ण पादविन्यासकी शोभाके विशेषज्ञ भक्तजनोंका दर्शन नहीं कर
पाते; इसीसे वे आपके चरणोंसे दूर रहते हैं ॥ ४४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट११)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
पानेन
ते देव कथासुधायाः
प्रवृद्धभक्त्या विशदाशया ये ।
वैराग्यसारं
प्रतिलभ्य बोधं
यथाञ्जसान् वीयुरकुण्ठधिष्ण्यम् ॥ ४५ ॥
तथापरे
चात्मसमाधियोग
बलेन जित्वा प्रकृतिं बलिष्ठाम् ।
त्वामेव
धीराः पुरुषं विशन्ति
तेषां श्रमः स्यान्न तु सेवया ते ॥ ४६ ॥
देव
! आपके कथामृतका पान करनेसे उमड़ी हुई भक्तिके कारण जिनका अन्त:करण निर्मल हो गया
है,
वे लोग—वैराग्य ही जिसका सार है—ऐसा आत्मज्ञान प्राप्त करके अनायास ही आपके वैकुण्ठधामको चले जाते हैं ॥
४५ ॥ दूसरे धीर पुरुष चित्तनिरोधरूप समाधिके बलसे आपकी बलवती मायाको जीतकर आपमें
ही लीन तो हो जाते हैं, पर उन्हें श्रम बहुत होता है;
किन्तु आपकी सेवाके मार्गमें कुछ भी कष्ट नहीं है ॥ ४६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय
स्कन्ध - पाँचवा
अध्याय..(पोस्ट१२)
विदुरजीका
प्रश्न और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन
तत्ते
वयं लोकसिसृक्षयाद्य
त्वयानुसृष्टास्त्रिभिरात्मभिः स्म ।
सर्वे
वियुक्ताः स्वविहारतन्त्रं
न शक्नुमस्तत् प्रतिहर्तवे ते ॥ ४७ ॥
यावद्बलिं
तेऽज हराम काले
यथा वयं चान्नमदाम यत्र ।
यथोभयेषां
त इमे हि लोका
बलिं हरन्तोऽन्नमदन्त्यनूहाः ॥ ४८ ॥
त्वं
नः सुराणामसि सान्वयानां
कूटस्थ आद्यः पुरुषः पुराणः ।
त्वं
देव शक्त्यां गुणकर्मयोनौ
रेतस्त्वजायां कविमादधेऽजः ॥ ४९ ॥
ततो
वयं मत्प्रमुखा यदर्थे
बभूविमात्मन् करवाम किं ते ।
त्वं
नः स्वचक्षुः परिदेहि शक्त्या
देव क्रियार्थे यदनुग्रहाणाम् ॥ ५० ॥
(देवता
कहते हैं) आदिदेव ! आपने सृष्टि-रचना की इच्छा से हमें त्रिगुणमय रचा है। इसलिये
विभिन्न स्वभाववाले होनेके कारण हम आपसमें मिल नहीं पाते और इसीसे आपकी क्रीडाके
साधनरूप ब्रह्माण्डकी रचना करके उसे आपको समर्पित करनेमें असमर्थ हो रहे हैं ॥ ४७
॥ अत: जन्मरहित भगवन् ! जिससे हम ब्रह्माण्ड रचकर आप को सब प्रकार के भोग समय पर
समर्पित कर सकें और जहाँ स्थित होकर हम भी अपनी योग्यताके अनुसार अन्न ग्रहण कर
सकें तथा ये सब जीव भी सब प्रकार की विघ्नबाधाओं से दूर रहकर हम और आप दोनों को
भोग समर्पित करते हुए अपना-अपना अन्न भक्षण कर सकें, ऐसा कोई
उपाय कीजिये ॥ ४८ ॥ आप निर्विकार पुराणपुरुष ही अन्य कार्यवर्ग के सहित हम
देवताओंके आदि कारण हैं। देव ! पहले आप अजन्मा ही ने सत्त्वादि गुण और जन्मादि
कर्मों की कारणरूपा मायाशक्ति में चिदाभासरूप वीर्य स्थापित किया था ॥ ४९ ॥
परमात्मदेव ! महत्तत्त्वादिरूप हम देवगण जिस कार्यके लिये उत्पन्न हुए हैं,
उसके सम्बन्ध में हम क्या करें ? देव ! हम पर
आप ही अनुग्रह करने वाले हैं । इसलिये ब्रह्माण्डरचना के लिये आप हमें क्रियाशक्ति
के सहित अपनी ज्ञानशक्ति भी प्रदान कीजिये ॥ ५० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे
विदुरोद्धवसंवादे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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