रविवार, 27 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
व्यास उवाच ।
इति संप्रश्नसंहृष्टो विप्राणां रौमहर्षणिः ।
प्रतिपूज्य वचस्तेषां प्रवक्तुं उपचक्रमे ॥ १ ॥
सूत उवाच ।
यं प्रव्रजन्तमनुपेतमपेतकृत्यं
द्वैपायनो विरहकातर आजुहाव ।
पुत्रेति तन्मयतया तरवोऽभिनेदुः
तं सर्वभूतहृदयं मुनिमानतोऽस्मि ॥ २ ॥
यः स्वानुभावमखिल श्रुतिसारमेकं
अध्यात्मदीपं अतितितीर्षतां तमोऽन्धम् ।
संसारिणां करुणयाऽऽह पुराणगुह्यं
तं व्याससूनुमुपयामि गुरुं मुनीनाम् ॥ ३ ॥
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ॥ ४ ॥
श्रीव्यासजी कहते हैं—शौनकादि ब्रह्मवादी ऋषियोंके ये प्रश्र सुनकर रोमहर्षणके पुत्र उग्रश्रवाको बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऋषियोंके इस मङ्गलमय प्रश्रका अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया ॥ १ ॥
सूतजीने कहा—जिस समय श्रीशुकदेवजीका यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, सुतरां लौकिक-वैदिक कर्मोंके अनुष्ठानका अवसर भी नहीं आया था, उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के उद्देश्यसे जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरहसे कातर होकर पुकारने लगे—‘बेटा ! बेटा !’ उस समय तन्मय होनेके कारण श्रीशुकदेवजीकी ओरसे वृक्षोंने उत्तर दिया। ऐसे सबके हृदयमें विराजमान श्रीशुकदेव मुनिको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २ ॥ यह श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय— रहस्यात्मक पुराण है। यह भगवत्स्वरूपका अनुभव करानेवाला और समस्त वेदोंका सार है। संसारमें फँसे हुए जो लोग इस घोर अज्ञानान्धकारसे पार जाना चाहते हैं, उनके लिये आध्यात्मिक तत्त्वोंको प्रकाशित करानेवाला यह एक अद्वितीय दीपक है। वास्तवमें उन्हींपर करुणा करके बड़े- बड़े मुनियोंके आचार्य श्रीशुकदेवजीने इसका वर्णन किया है। मैं उनकी शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ३ ॥ मनुष्योंमें सर्वश्रेष्ठ भगवान्‌के अवतार नर-नारायण ऋषियोंको, सरस्वती देवीको और श्रीव्यासदेवजीको नमस्कार करके तब संसार और अन्त:करणके समस्त विकारोंपर विजय प्राप्त करानेवाले इस श्रीमद्भागवत महापुराणका पाठ करना चाहिये ॥ ४ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
मुनयः साधु पृष्टोऽहं भवद्‌भिः लोकमङ्गलम् ।
यत्कृतः कृष्णसंप्रश्नो येनात्मा सुप्रसीदति ॥ ५ ॥
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे ।
अहैतुक्यप्रतिहता ययात्मा संप्रसीदति ॥ ६ ॥
वासुदेवे भगवति भक्तियोगः प्रयोजितः ।
जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यद् अहैतुकम् ॥ ७ ॥
धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेनकथासु यः ।
नोत्पादयेद् यदि रतिं श्रम एव हि केवलम् ॥ ८ ॥
सूत जी कहते हैं -ऋषियो ! आपने सम्पूर्ण विश्वके कल्याणके लिये यह बहुत सुन्दर प्रश्र किया है; क्योंकि यह प्रश्र श्रीकृष्णके सम्बन्धमें है और इससे भलीभाँति आत्मशुद्धि हो जाती है ॥ ५ ॥ मनुष्योंके लिये सर्वश्रेष्ठ धर्म वही है, जिससे भगवान्‌ श्रीकृष्णमें भक्ति हो—भक्ति भी ऐसी, जिसमें किसी प्रकारकी कामना न हो और जो नित्य-निरन्तर बनी रहे; ऐसी भक्तिसे हृदय आनन्दस्वरूप परमात्माकी उपलब्धि करके कृतकृत्य हो जाता है ॥ ६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णमें भक्ति होते ही, अनन्य प्रेमसे उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्यका आविर्भाव हो जाता है ॥ ७ ॥ धर्मका ठीक-ठीक अनुष्ठान करनेपर भी यदि मनुष्यके हृदयमें भगवान्‌की लीला-कथाओंके प्रति अनुरागका उदय न हो तो वह निरा श्रम-ही-श्रम है ॥ ८ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
धर्मस्य ह्यापवर्ग्यस्य नार्थोऽर्थायोपकल्पते ।
नार्थस्य धर्मैकान्तस्य कामो लाभाय हि स्मृतः ॥ ९ ॥
कामस्य नेन्द्रियप्रीतिः लाभो जीवेत यावता ।
जीवस्य तत्त्वजिज्ञासा नार्थो यश्चेह कर्मभिः ॥ १० ॥
वदन्ति तत् तत्त्वविदः तत्त्वं यत् ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥ ११ ॥
तत् श्रद्दधाना मुनयो ज्ञानवैराग्ययुक्तया ।
पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भक्त्या श्रुतगृहीतया ॥ १२ ॥
अतः पुम्भिः द्विजश्रेष्ठा वर्णाश्रमविभागशः ।
स्वनुष्ठितस्य धर्मस्य संसिद्धिः हरितोषणम् ॥ १३ ॥
तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा ॥ १४ ॥
धर्मका फल है मोक्ष । उसकी सार्थकता अर्थ-प्राप्तिमें नहीं है। अर्थ केवल धर्मके लिये है। भोगविलास उसका फल नहीं माना गया है ॥ ९ ॥ भोगविलासका फल इन्द्रियोंको तृप्त करना नहीं है, उसका प्रयोजन है केवल जीवन- निर्वाह। जीवनका फल भी तत्त्वजिज्ञासा है। बहुत कर्म करके स्वर्गादि प्राप्त करना उसका फल नहीं है ॥ १० ॥ तत्त्ववेत्तालोग ज्ञाता और ज्ञेयके भेदसे रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञानको ही तत्त्व कहते हैं। उसीको कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान्‌के नामसे पुकारते हैं ॥ ११ ॥ श्रद्धालु मुनिजन भागवत-श्रवणसे प्राप्त ज्ञान-वैराग्ययुक्त भक्तिसे अपने हृदयमें उस परमतत्त्वरूप परमात्माका अनुभव करते हैं ॥ १२ ॥ शौनकादि ऋषियो ! यही कारण है कि अपने-अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुसार मनुष्य जो धर्मका अनुष्ठान करते हैं, उसकी पूर्ण सिद्धि इसीमें है कि भगवान्‌ प्रसन्न हों ॥ १३ ॥ इसलिये एकाग्र मनसे भक्तवत्सल भगवान्‌का ही नित्य-निरन्तर श्रवण, कीर्तन, ध्यान और आराधन करना चाहिये ॥ १४ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०४)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
यदनुध्यासिना युक्ता: कर्मग्रन्थिनिबन्धनम् |
छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्यात् कथारतिम् ॥ १५ ॥
शुश्रूषोः श्रद्दधानस्य वासुदेवकथारुचिः ।
स्यान्महत्सेवया विप्राः पुण्यतीर्थनिषेवणात् ॥ १६ ॥
शृण्वतां स्वकथां कृष्णः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।
हृद्यन्तःस्थो ह्यभद्राणि विधुनोति सुहृत्सताम् ॥ १७ ॥
कर्मों की गाँठ बड़ी कड़ी है। विचारवान् पुरुष भगवान्‌के चिन्तन की तलवार से उस गाँठको काट डालते हैं। तब भला, ऐसा कौन मनुष्य होगा, जो भगवान्‌की लीलाकथामें प्रेम न करे ॥ १५ ॥
शौनकादि ऋषियो ! पवित्र तीर्थोंका सेवन करनेसे महत्सेवा, तदनन्तर श्रवणकी इच्छा, फिर श्रद्धा, तत्पश्चात् भगवत्-कथामें रुचि होती है ॥ १६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके यशका श्रवण और कीर्तन दोनों पवित्र करनेवाले हैं। वे अपनी कथा सुननेवालोंके हृदयमें आकर स्थित हो जाते हैं और उनकी अशुभ वासनाओंको नष्ट कर देते हैं; क्योंकि वे संतोंके नित्यसुहृद् हैं ॥ १७ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०५)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु नित्यं भागवतसेवया ।
भगवति उत्तमश्लोके भक्तिर्भवति नैष्ठिकी ॥ १८ ॥
तदा रजस्तमोभावाः कामलोभादयश्च ये ।
चेत एतैरनाविद्धं स्थितं सत्त्वे प्रसीदति ॥ १९ ॥
एवं प्रसन्नमनसो भगवद्भ्क्तियोगतः ।
भगवत् तत्त्वविज्ञानं मुक्तसङ्गस्य जायते ॥ २० ॥
भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि दृष्ट एवात्मनीश्वरे ॥ २१ ॥
अतो वै कवयो नित्यं भक्तिं परमया मुदा ।
वासुदेवे भगवति कुर्वन्त्यात्मप्रसादनीम् ॥ २२ ॥
जब श्रीमद्भागवत अथवा भगवद्भक्तोंके निरन्तर सेवनसे अशुभ वासनाएँ नष्ट हो जाती हैं, तब पवित्र- कीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति स्थायी प्रेमकी प्राप्ति होती है ॥ १८ ॥ तब रजोगुण और तमोगुणके भाव—काम और लोभादि शान्त हो जाते हैं और चित्त इनसे रहित होकर सत्त्वगुणमंो स्थित एवं निर्मल हो जाता है ॥ १९ ॥ इस प्रकार भगवान्‌की प्रेममयी भक्तिसे जब संसारकी समस्त आसक्तियाँ मिट जाती हैं, हृदय आनन्दसे भर जाता है, तब भगवान्‌के तत्त्वका अनुभव अपने-आप हो जाता है ॥ २० ॥ हृदयमें आत्मस्वरूप भगवान्‌का साक्षात्कार होते ही हृदयकी ग्रन्थि टूट जाती है, सारे सन्देह मिट जाते हैं और कर्मबन्धन क्षीण हो जाता है ॥ २१ ॥ इसीसे बुद्धिमान् लोग नित्य- निरन्तर बड़े आनन्दसे भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रति प्रेम-भक्ति करते हैं, जिससे आत्मप्रसादकी प्राप्ति होती है ॥ २२ ॥
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०६)
भगवत्कथा और भगवद्भक्ति का माहात्म्य
सत्त्वं रजस्तम इति प्रकृतेर्गुणास्तैः
युक्तः परः पुरुष एक इहास्य धत्ते ।
स्थित्यादये हरिविरिञ्चिहरेति संज्ञाः
श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्वतनोः नृणां स्युः ॥ २३ ॥
पार्थिवाद् दारुणो धूमः तस्मादग्निस्त्रयीमयः ।
तमसस्तु रजस्तस्मात् सत्त्वं यद् ब्रह्मदर्शनम् ॥ २४ ॥
भेजिरे मुनयोऽथाग्रे भगवन्तं अधोक्षजम् ।
सत्त्वं विशुद्धं क्षेमाय कल्पन्ते येऽनु तानिह ॥ २५ ॥
मुमुक्षवो घोररूपान् हित्वा भूतपतीनथ ।
नारायणकलाः शान्ता भजन्ति ह्यनसूयवः ॥ २६ ॥
रजस्तमःप्रकृतयः समशीला भजन्ति वै ।
पितृभूतप्रजेशादीन् श्रियैश्वर्यप्रजेप्सवः ॥ २७ ॥
प्रकृतिके तीन गुण हैं—सत्त्व, रज और तम। इनको स्वीकार करके इस संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और प्रलयके लिये एक अद्वितीय परमात्मा ही विष्णु, ब्रह्मा और रुद्र—ये तीन नाम ग्रहण करते हैं। फिर भी मनुष्योंका परम कल्याण तो सत्त्वगुण स्वीकार करनेवाले श्रीहरिसे ही होता है ॥ २३ ॥ जैसे पृथ्वीके विकार लकड़ीकी अपेक्षा धुआँ श्रेष्ठ है और उससे भी श्रेष्ठ है अग्रि— क्योंकि वेदोक्त यज्ञ-यागादिके द्वारा अग्रि सद्गति देनेवाला है—वैसे ही तमोगुणसे रजोगुण श्रेष्ठ है और रजोगुणसे भी सत्त्वगुण श्रेष्ठ है; क्योंकि वह भगवान्‌का दर्शन करानेवाला है ॥ २४ ॥ प्राचीन युगमें महात्मालोग अपने कल्याणके लिये विशुद्ध सत्त्वमय भगवान्‌ विष्णुकी ही आराधना किया करते थे। अब भी जो लोग उनका अनुसरण करते हैं, वे उन्हींके समान कल्याणभाजन होते हैं ॥ २५ ॥ जो लोग इस संसारसागरसे पार जाना चाहते हैं, वे यद्यपि किसीकी निन्दा तो नहीं करते, न किसीमें दोष ही देखते हैं, फिर भी घोररूपवाले—तमोगुणी-रजोगुणी भैरवादि भूतपतियोंकी उपासना न करके सत्त्वगुणी विष्णुभगवान्‌ और उनके अंश—कलास्वरूपोंका ही भजन करते हैं ॥ २६ ॥ परन्तु जिसका स्वभाव रजोगुणी अथवा तमोगुणी है, वे धन, ऐश्वर्य और संतान की कामना से भूत, पितर और प्रजापतियोंकी उपासना करते हैं; क्योंकि इन लोगोंका स्वभाव उन (भूतादि) से मिलता-जुलता होता है ॥ २७ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०७)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
वासुदेवपरा वेदा वासुदेवपरा मखाः ।
वासुदेवपरा योगा वासुदेवपराः क्रियाः ॥ २८ ॥
वासुदेवपरं ज्ञानं वासुदेवपरं तपः ।
वासुदेवपरो धर्मो वासुदेवपरा गतिः ॥ २९ ॥
स एवेदं ससर्जाग्रे भगवान् आत्ममायया ।
सद् असद् रूपया चासौ गुणमय्यागुणो विभुः ॥ ३० ॥
तया विलसितेष्वेषु गुणेषु गुणवानिव ।
अन्तःप्रविष्ट आभाति विज्ञानेन विजृम्भितः ॥ ३१ ॥
वेदोंका तात्पर्य श्रीकृष्ण में ही है। यज्ञों के उद्देश्य श्रीकृष्ण ही हैं। योग श्रीकृष्ण के लिये ही किये जाते हैं और समस्त कर्मों की परिसमाप्ति भी श्रीकृष्ण में ही है ॥ २८ ॥ ज्ञान से ब्रह्मस्वरूप श्रीकृष्ण की ही प्राप्ति होती है। तपस्या श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिये ही की जाती है। श्रीकृष्ण के लिये ही धर्मों का अनुष्ठान होता है और सब गतियाँ श्रीकृष्ण में ही समा जाती हैं ॥ २९ ॥ यद्यपि भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकृति और उसके गुणोंसे अतीत हैं, फिर भी अपनी गुणमयी मायासे, जो प्रपञ्चकी दृष्टिसे है और तत्त्वकी दृष्टिसे नहीं है—उन्होंने ही सर्गके आदिमें इस संसारकी रचना की थी ॥ ३० ॥ ये सत्त्व, रज और तम—तीनों गुण उसी मायाके विलास हैं; इनके भीतर रहकर भगवान्‌ इनसे युक्त-सरीखे मालूम पड़ते हैं। वास्तवमें तो वे परिपूर्ण विज्ञानानन्दघन हैं ॥ ३१ ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)
भगवत्कथा और भगवद्भक्तिका माहात्म्य
नानेव भाति विश्वात्मा भूतेषु च तथा पुमान् ॥ ३२ ॥
असौ गुणमयैर्भावैः भूत सूक्ष्मेन्द्रियात्मभिः ।
स्वनिर्मितेषु निर्विष्टो भुङ्क्ते भूतेषु तद्गु0णान् ॥ ३३ ॥
भावयत्येष सत्त्वेन लोकान्वै लोकभावनः ।
लीलावतारानुरतो देवतिर्यङ् नरादिषु ॥ ३४ ॥
अग्नि तो वस्तुत: एक ही है, परंतु जब वह अनेक प्रकारकी लकडिय़ोंमें प्रकट होती है तब अनेक-सी मालूम पड़ती है। वैसे ही सबके आत्मरूप भगवान्‌ तो एक ही हैं, परंतु प्राणियोंकी अनेकतासे अनेक-जैसे जान पड़ते हैं ॥ ३२ ॥ भगवान्‌ ही सूक्ष्म भूत—तन्मात्रा, इन्द्रिय तथा अन्त:करण आदि गुणोंके विकारभूत भावोंके द्वारा नाना प्रकारकी योनियोंका निर्माण करते हैं और उनमें भिन्न-भिन्न जीवोंके रूपमें प्रवेश करके उन-उन योनियोंके अनुरूप विषयोंका उपभोग करते-कराते हैं ॥ ३३ ॥ वे ही सम्पूर्ण लोकोंकी रचना करते हैं और देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य आदि योनियोंमें लीलावतार ग्रहण करके सत्त्वगुणके द्वारा जीवोंका पालन-पोषण करते हैं ॥ ३४ ॥
इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे नैमिषीयोपाख्याने द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से


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