मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

मैत्रेय उवाच ।

चरमः सद्विशेषाणां अनेकोऽसंयुतः सदा ।
परमाणुः स विज्ञेयो नृणामैक्यभ्रमो यतः ॥ १ ॥
सत एव पदार्थस्य स्वरूपावस्थितस्य यत् ।
कैवल्यं परममहान् अविशेषो निरन्तरः ॥ २ ॥
एवं कालोऽप्यनुमितः सौक्ष्म्ये स्थौल्ये च सत्तम ।
संस्थानभुक्त्या भगवान् अव्यक्तो व्यक्तभुग्विभुः ॥ ३ ॥
स कालः परमाणुर्वै यो भुङ्क्ते परमाणुताम् ।
सतोऽविशेषभुग्यस्तु स कालः परमो महान् ॥ ४ ॥

श्रीमैत्रेय जी कहते हैंविदुरजी ! पृथ्वी आदि कार्यवर्गका जो सूक्ष्मतम अंश हैजिसका और विभाग नहीं हो सकता तथा जो कार्यरूपको प्राप्त नहीं हुआ है और जिसका अन्य परमाणुओं के साथ संयोग भी नहीं हुआ है उसे परमाणु कहते हैं। इन अनेक परमाणुओं के परस्पर मिलनेसे ही मनुष्यों को भ्रमवश उनके समुदायरूप एक अवयवीकी प्रतीति होती है ॥ १ ॥ यह परमाणु जिसका सूक्ष्मतम अंश है, अपने सामान्य स्वरूप में स्थित उस पृथ्वी आदि कार्योंकी एकता (समुदाय अथवा समग्ररूप) का नाम परम महान् है। इस समय उसमें न तो प्रलयादि अवस्थाभेद की स्फूर्ति होती है, न नवीन-प्राचीन आदि कालभेदका भान होता है और न घट-पटादि वस्तुभेद की ही कल्पना होती है ॥ २ ॥ साधुश्रेष्ठ ! इस प्रकार यह वस्तुके सूक्ष्मतम और महत्तम स्वरूपका विचार हुआ। इसीके सादृश्यसे परमाणु आदि अवस्थाओंमें व्याप्त होकर व्यक्त पदार्थोंको भोगने वाले सृष्टि आदिमें समर्थ, अव्यक्तस्वरूप भगवान्‌ कालकी भी सूक्ष्मता और स्थूलताका अनुमान किया जा सकता है ॥ ३ ॥ जो काल प्रपञ्चकी परमाणु-जैसी सूक्ष्म अवस्थामें व्याप्त रहता है, वह अत्यन्त सूक्ष्म है और जो सृष्टिसे लेकर प्रलयपर्यन्त उसकी सभी अवस्थाओंका भोग करता है, वह परम महान् है ॥ ४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

अणुर्द्वौ परमाणू स्यात् त्रसरेणुस्त्रयः स्मृतः ।
जालार्करश्म्यवगतः खमेवानुपतन्नगात् ॥ ५ ॥
त्रसरेणुत्रिकं भुङ्क्ते यः कालः स त्रुटिः स्मृतः ।
शतभागस्तु वेधः स्यात् तैस्त्रिभिस्तु लवः स्मृतः ॥ ६ ॥
निमेषस्त्रिलवो ज्ञेय आम्नातस्ते त्रयः क्षणः ।
क्षणान् पञ्च विदुः काष्ठां लघु ता दश पञ्च च ॥ ७ ॥
लघूनि वै समाम्नाता दश पञ्च च नाडिका ।
ते द्वे मुहूर्तः प्रहरः षड्यामः सप्त वा नृणाम् ॥ ८ ॥

दो परमाणु मिलकर एक अणुहोता है और तीन अणुओंके मिलनेसे एक त्रसरेणुहोता है, जो झरोखेमेंसे होकर आयी हुई सूर्यकी किरणोंके प्रकाशमें आकाशमें उड़ता देखा जाता है ॥ ५ ॥ ऐसे तीन त्रसरेणुओंको पार करनेमें सूर्यको जितना समय लगता है, उसे त्रुटिकहते हैं। इससे सौगुना काल वेधकहलाता है और तीन वेधका एक लवहोता है ॥ ६ ॥ तीन लवको एक निमेषऔर तीन निमेषको एक क्षणकहते हैं। पाँच क्षणकी एक काष्ठाहोती है और पंद्रह काष्ठाका एक लघु॥ ७ ॥ पंद्रह लघुकी एक नाडिका’ (दण्ड) कही जाती है, दो नाडिकाका एक मुहूत्र्तहोता है और दिनके घटने-बढऩेके अनुसार (दिन एवं रात्रिकी दोनों सन्धियोंके दो मुहूत्र्तोंको छोडक़र) छ: या सात नाडिकाका एक प्रहरहोता है। यह यामकहलाता है, जो मनुष्यके दिन या रातका चौथा भाग होता है ॥ ८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

द्वादशार्धपलोन्मानं चतुर्भिश्चतुरङ्गुलैः ।
स्वर्णमाषैः कृतच्छिद्रं यावत् प्रस्थजलप्लुतम् ॥ ९ ॥
यामाश्चत्वारश्चत्वारो मर्त्यानामहनी उभे ।
पक्षः पञ्चदशाहानि शुक्लः कृष्णश्च मानद ॥ १० ॥
तयोः समुच्चयो मासः पितॄणां तदहर्निशम् ।
द्वौ तावृतुः षडयनं दक्षिणं चोत्तरं दिवि ॥ ११ ॥
अयने चाहनी प्राहुः वत्सरो द्वादश स्मृतः ।
संवत्सरशतं नॄणां परमायुर्निरूपितम् ॥ १२ ॥

छ: पल ताँबेका एक ऐसा बरतन बनाया जाय जिसमें एक प्रस्थ जल आ सके और चार माशे सोनेकी चार अंगुल लंबी सलाई बनवाकर उसके द्वारा उस बरतनके पेंदेमें छेद करके उसे जलमें छोड़ दिया जाय। जितने समयमें एक प्रस्थ जल उस बरतनमें भर जाय, वह बरतन जलमें डूब जाय, उतने समयको एक नाडिकाकहते हैं ॥ ९ ॥ विदुरजी ! चार-चार पहरके मनुष्यके दिनऔर रातहोते हैं और पंद्रह दिन-रातका एक पक्षहोता है, जो शुक्ल और कृष्ण भेदसे दो प्रकारका माना गया है ॥ १० ॥ इन दोनों पक्षोंको मिलाकर एक मासहोता है, जो पितरोंका एक दिन-रात है। दो मासका एक ऋतुऔर छ: मासका एक अयनहोता है। अयन दक्षिणायनऔर उत्तरायणभेदसे दो प्रकारका है ॥ ११ ॥ ये दोनों अयन मिलकर देवताओंके एक दिन-रात होते हैं तथा मनुष्यलोकमें ये वर्षया बारह मास कहे जाते हैं। ऐसे सौ वर्षकी मनुष्यकी परम आयु बतायी गयी है ॥ १२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

ग्रहर्क्षताराचक्रस्थः परमाण्वादिना जगत् ।
संवत्सरावसानेन पर्येत्यनिमिषो विभुः ॥ १३ ॥
संवत्सरः परिवत्सर इडावत्सर एव च ।
अनुवत्सरो वत्सरश्च विदुरैवं प्रभाष्यते ॥ १४ ॥
यः सृज्यशक्तिमुरुधोच्छ्वसयन् स्वशक्त्या ।
    पुंसोऽभ्रमाय दिवि धावति भूतभेदः ।
कालाख्यया गुणमयं क्रतुभिर्वितन्वन् ।
    तस्मै बलिं हरत वत्सरपञ्चकाय ॥ १५ ॥

चन्द्रमा आदि ग्रह, अश्विनी आदि नक्षत्र और समस्त तारामण्डल के अधिष्ठाता कालस्वरूप भगवान्‌ सूर्य परमाणु से लेकर संवत्सरपर्यन्त काल में द्वादश राशिरूप सम्पूर्ण भुवनकोश की निरन्तर परिक्रमा किया करते हैं ॥ १३ ॥ सूर्य, बृहस्पति, सवन, चन्द्रमा और नक्षत्रसम्बन्धी महीनोंके भेदसे यह वर्ष ही संवत्सर, परिवत्सर, इडावत्सर, अनुवत्सर और वत्सर कहा जाता है ॥ १४ ॥ विदुरजी ! इन पाँच प्रकारके वर्षोंकी प्रवृत्ति करनेवाले भगवान्‌ सूर्यकी तुम उपहारादि समर्पित करके पूजा करो। ये सूर्यदेव पञ्चभूतों में से तेज:स्वरूप हैं और अपनी कालशक्ति से बीजादि पदार्थों की अंकुर उत्पन्न करने की शक्ति को अनेक प्रकार से कार्योन्मुख करते हैं। ये पुरुषों की मोहनिवृत्ति के लिये उनकी आयु का क्षय करते हुए आकाश में विचरते रहते हैं तथा ये ही सकाम-पुरुषों को यज्ञादि कर्मों से  प्राप्त होने वाले स्वर्गादि मङ्गलमय फलों का विस्तार करते हैं ॥ १५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

विदुर उवाच ।
पितृदेवमनुष्याणां आयुः परमिदं स्मृतम् ।
परेषां गतिमाचक्ष्व ये स्युः कल्पाद्‍बहिर्विदः ॥ १६ ॥
भगवान् वेद कालस्य गतिं भगवतो ननु ।
विश्वं विचक्षते धीरा योगराद्धेन चक्षुषा ॥ १७ ॥

मैत्रेय उवाच ।
कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।
दिव्यैर्द्वादशभिर्वर्षैः सावधानं निरूपितम् ॥ १८ ॥
चत्वारि त्रीणि द्वे चैकं कृतादिषु यथाक्रमम् ।
सङ्ख्यातानि सहस्राणि द्विगुणानि शतानि च ॥ १९ ॥

विदुरजीने कहामुनिवर ! आपने देवता, पितर और मनुष्यों की परमायु का वर्णन तो किया। अब जो सनकादि ज्ञानी मुनिजन त्रिलोकी से बाहर कल्प से भी अधिक कालतक रहनेवाले हैं, उनकी भी आयुका वर्णन कीजिये ॥ १६ ॥ आप भगवान्‌ काल की गति भलीभाँति जानते हैं; क्योंकि ज्ञानीलोग अपनी योगसिद्ध दिव्य दृष्टि से सारे संसार को देख लेते हैं ॥ १७ ॥
मैत्रेयजी ने कहाविदुरजी ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलिये चार युग अपनी सन्ध्या और सन्ध्यांशों के सहित देवताओं के बारह सहस्र वर्ष तक रहते हैं, ऐसा बतलाया गया है ॥ १८ ॥ इन सत्यादि चारों युगों में क्रमश: चार, तीन, दो और एक सहस्र दिव्य वर्ष होते हैं और प्रत्येक में जितने सहस्र वर्ष होते हैं उससे दुगुने सौ वर्ष उनकी सन्ध्या और सन्ध्यांशों में होते हैं[*] ॥ १९ ॥
........................................................
[*] अर्थात् सत्ययुगमें ४००० दिव्य वर्ष युग के और ८०० सन्ध्या एवं सन्ध्यांश केइस प्रकार ४८०० वर्ष होते हैं। इसी प्रकार त्रेता में ३६००, द्वापर में २४०० और कलियुग में १२०० दिव्यवर्ष होते हैं। मनुष्यों का एक वर्ष देवताओं का एक दिन होता है, अत: देवताओं का एक वर्ष मनुष्यों के ३६० वर्ष के बराबर हुआ। इस प्रकार मानवीय मान से कलियुग में ४३२००० वर्ष हुए तथा इससे दुगुने द्वापर में, तिगुने त्रेता में और चौगुने सत्ययुग में होते हैं।

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

संध्यांशयोरन्तरेण यः कालः शतसङ्ख्ययोः ।
तमेवाहुर्युगं तज्ज्ञा यत्र धर्मो विधीयते ॥ २० ॥
धर्मश्चतुष्पान्मनुजान् कृते समनुवर्तते ।
स एवान्येष्वधर्मेण व्येति पादेन वर्धता ॥ २१ ॥
त्रिलोक्या युगसाहस्रं बहिराब्रह्मणो दिनम् ।
तावत्येव निशा तात यन्निमीलति विश्वसृक् ॥ २२ ॥
निशावसान आरब्धो लोककल्पोऽनुवर्तते ।
यावद्दिनं भगवतो मनून् भुञ्जंश्चतुर्दश ॥ २३ ॥

युगकी आदि में सन्ध्या होती है और अन्त में सन्ध्यांश। इनकी वर्ष-गणना सैकड़ों की संख्या में बतलायी गयी है। इनके बीचका जो काल होता है, उसीको कालवेत्ताओं ने युग कहा है। प्रत्येक युग में एक-एक विशेष धर्म का विधान पाया जाता है ॥ २० ॥ सत्ययुग के मनुष्यों में धर्म अपने चारों चरणोंसे रहता है; फिर अन्य युगोंमें अधर्म की वृद्धि होने से उसका एक-एक चरण क्षीण होता जाता है ॥ २१ ॥ प्यारे विदुरजी ! त्रिलोकीसे बाहर महर्लोकसे ब्रह्मलोकपर्यन्त यहाँ की एक सहस्र चतुर्युगी का एक दिन होता है और इतनी ही बड़ी रात्रि होती है, जिसमें जगत् कर्ता ब्रह्माजी शयन करते हैं ॥ २२ ॥ उस रात्रिका अन्त होनेपर इस लोक का कल्प आरम्भ होता है; उसका क्रम जब तक ब्रह्माजी का दिन रहता है, तबतक चलता रहता है। उस एक कल्पमें चौदह मनु हो जाते हैं ॥ २३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

स्वं स्वं कालं मनुर्भुङ्क्ते साधिकां ह्येकसप्ततिम् ।
मन्वन्तरेषु मनवः तद् वंश्या ऋषयः सुराः ।
भवन्ति चैव युगपत् सुरेशाश्चानु ये च तान् ॥ २४ ॥
एष दैनन्दिनः सर्गो ब्राह्मस्त्रैलोक्यवर्तनः ।
तिर्यङ्नृपितृदेवानां सम्भवो यत्र कर्मभिः ॥ २५ ॥
मन्वन्तरेषु भगवान् बिभ्रत्सत्त्वं स्वमूर्तिभिः ।
मन्वादिभिरिदं विश्वं अवत्युदितपौरुषः ॥ २६ ॥

प्रत्येक मनु इकहत्तर चतुर्युगी से कुछ अधिक काल (७१ चतुर्युगी) तक अपना अधिकार भोगता है। प्रत्येक मन्वन्तर में भिन्न-भिन्न मनुवंशी राजालोग, सप्तर्षि, देवगण, इन्द्र और उनके अनुयायी गन्धर्वादि साथ-साथ ही अपना अधिकार भोगते हैं ॥ २४ ॥ यह ब्रह्मा जी की प्रतिदिन की सृष्टि है, जिसमें तीनों लोकों की रचना होती है। उसमें अपने-अपने कर्मानुसार पशु-पक्षी, मनुष्य, पितर और देवताओं की उत्पत्ति होती है ॥ २५ ॥ इन मन्वन्तरों में भगवान्‌ सत्त्वगुण का आश्रय ले, अपनी मनु आदि मूर्तियों के द्वारा पौरुष प्रकट करते हुए इस विश्व का पालन करते हैं ॥२६॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

तमोमात्रामुपादाय प्रतिसंरुद्धविक्रमः ।
कालेनानुगताशेष आस्ते तूष्णीं दिनात्यये ॥ २७ ॥
तमेवान्वपि धीयन्ते लोका भूरादयस्त्रयः ।
निशायां अनुवृत्तायां निर्मुक्तशशिभास्करम् ॥ २८ ॥
त्रिलोक्यां दह्यमानायां शक्त्या सङ्कर्षणाग्निना ।
यान्त्यूष्मणा महर्लोकात् जनं भृग्वादयोऽर्दिताः ॥ २९ ॥
तावत् त्रिभुवनं सद्यः कल्पान्तैधितसिन्धवः ।
प्लावयन्त्युत्कटाटोप चण्डवातेरितोर्मयः ॥ ३० ॥
अन्तः स तस्मिन् सलिल आस्तेऽनन्तासनो हरिः ।
योगनिद्रानिमीलाक्षः स्तूयमानो जनालयैः ॥ ३१ ॥
एवंविधैरहोरात्रैः कालगत्योपलक्षितैः ।
अपक्षितमिवास्यापि परमायुर्वयःशतम् ॥ ३२ ॥

कालक्रमसे जब ब्रह्माजी का दिन बीत जाता है, तब वे तमोगुण के सम्पर्क को स्वीकार कर अपने सृष्टिरचनारूप पौरुष को स्थगित करके निश्चेष्टभाव से स्थित हो जाते हैं ॥ २७ ॥ उस समय सारा विश्व उन्हीं में लीन हो जाता है। जब सूर्य और चन्द्रमादि से रहित वह प्रलयरात्रि आती है, तब वे भू:, भुव:, स्व:तीनों लोक उन्हीं ब्रह्माजीके शरीरमें छिप जाते हैं ॥ २८ ॥ उस अवसर पर तीनों लोक शेषजी के मुख से निकली हुई अग्रिरूप भगवान्‌ की शक्ति से जलने लगते हैं। इसलिये उसके तापसे व्याकुल होकर भृगु आदि मुनीश्वरगण महर्लोक से जनलोक को चले जाते हैं ॥ २९ ॥ इतनेमें ही सातों समुद्र प्रलयकालके प्रचण्ड पवनसे उमडक़र अपनी उछलती हुई उत्ताल तरङ्गोंसे त्रिलोकीको डुबो देते हैं ॥ ३० ॥ तब उस जलके भीतर भगवान्‌ शेषशायी योगनिद्रासे नेत्र मूँदकर शयन करते हैं। उस समय जनलोकनिवासी मुनिगण उनकी स्तुति किया करते हैं ॥ ३१ ॥ इस प्रकार कालकी गतिसे एक-एक सहस्र चतुर्युगके रूपमें प्रतीत होनेवाले दिन-रातके हेर-फेरसे ब्रह्माजीकी सौ वर्षकी परमायु भी बीती हुई-सी दिखायी देती है ॥ ३२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

यदर्धमायुषस्तस्य परार्धमभिधीयते ।
पूर्वः परार्धोऽपक्रान्तो ह्यपरोऽद्य प्रवर्तते ॥ ३३ ॥
पूर्वस्यादौ परार्धस्य ब्राह्मो नाम महानभूत् ।
कल्पो यत्राभवद्‍ब्रह्मा शब्दब्रह्मेति यं विदुः ॥ ३४ ॥
तस्यैव चान्ते कल्पोऽभूद् यं पाद्ममभिचक्षते ।
यद्धरेर्नाभिसरस आसीत् लोकसरोरुहम् ॥ ३५ ॥

ब्रह्माजीकी आयु के आधे भाग को परार्ध कहते हैं। अबतक पहला परार्ध तो बीत चुका है, दूसरा चल रहा है ॥ ३३ ॥ पूर्व परार्ध के आरम्भ में ब्राह्म नामक महान् कल्प हुआ था। उसी में ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई थी। पण्डितजन इन्हें शब्दब्रह्म कहते हैं ॥ ३४ ॥ उसी परार्धके अन्तमें जो कल्प हुआ था, उसे पाद्मकल्प कहते हैं। इसमें भगवान्‌ के नाभिसरोवरसे सर्वलोकमय कमल प्रकट हुआ था ॥ ३५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - ग्यारहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

मन्वन्तरादि कालविभाग का वर्णन

अयं तु कथितः कल्पो द्वितीयस्यापि भारत ।
वाराह इति विख्यातो यत्रासीत् शूकरो हरिः ॥ ३६ ॥
कालोऽयं द्विपरार्धाख्यो निमेष उपचर्यते ।
अव्याकृतस्यानन्तस्य अनादेर्जगदात्मनः ॥ ३७ ॥
कालोऽयं परमाण्वादिः द्विपरार्धान्त ईश्वरः ।
नैवेशितुं प्रभुर्भूम्न ईश्वरो धाममानिनाम् ॥ ३८ ॥
विकारैः सहितो युक्तैः विशेषादिभिरावृतः ।
आण्डकोशो बहिरयं पञ्चाशत्कोटिविस्तृतः ॥ ३९ ॥
दशोत्तराधिकैर्यत्र प्रविष्टः परमाणुवत् ।
लक्ष्यतेऽन्तर्गताश्चान्ये कोटिशो ह्यण्डराशयः ॥ ४० ॥
तदाहुरक्षरं ब्रह्म सर्वकारणकारणम् ।
विष्णोर्धाम परं साक्षात् पुरुषस्य महात्मनः ॥ ४१ ॥

विदुरजी ! इस समय जो कल्प चल रहा है, वह दूसरे परार्धका आरम्भक बतलाया जाता है। यह वाराहकल्प नाम से विख्यात है, इसमें भगवान्‌ ने सूकररूप धारण किया था ॥ ३६ ॥ यह दो परार्धका काल अव्यक्त, अनन्त, अनादि, विश्वात्मा श्रीहरिका एक निमेष माना जाता है ॥ ३७ ॥ यह परमाणुसे लेकर द्विपरार्धपर्यन्त फैला हुआ काल सर्वसमर्थ होनेपर भी सर्वात्मा श्रीहरिपर किसी प्रकारकी प्रभुता नहीं रखता। यह तो देहादिमें अभिमान रखनेवाले जीवोंका ही शासन करनेमें समर्थ है ॥ ३८ ॥ प्रकृति, महत्तत्त्व, अहंकार और पञ्चतन्मात्रइन आठ प्रकृतियों के सहित दस इन्द्रियाँ, मन और पञ्चभूतइन सोलह विकारों से मिलकर बना हुआ यह ब्रह्माण्डकोश भीतर से पचास करोड़ योजन विस्तारवाला है तथा इसके बाहर चारों ओर उत्तरोत्तर दस-दस गुने सात आवरण हैं। उन सब के सहित यह जिस में परमाणु के समान पड़ा हुआ दीखता है और जिस में ऐसी करोड़ों ब्रह्माण्ड- राशियाँ हैं, वह इन प्रधानादि समस्त कारणों का कारण अक्षर ब्रह्म कहलाता है और यही पुराणपुरुष परमात्मा श्रीविष्णुभगवान्‌ का श्रेष्ठ धाम (स्वरूप) है ॥ ३९४१ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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