मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

वाराह अवतार की कथा

श्रीशुक उवाच ।
निशम्य वाचं वदतो मुनेः पुण्यतमां नृप ।
भूयः पप्रच्छ कौरव्यो वासुदेवकथादृतः ॥ १ ॥

विदुर उवाच ।
स वै स्वायम्भुवः सम्राट्‌ प्रियः पुत्रः स्वयम्भुवः ।
प्रतिलभ्य प्रियां पत्‍नीं किं चकार ततो मुने ॥ २ ॥
चरितं तस्य राजर्षेः आदिराजस्य सत्तम ।
ब्रूहि मे श्रद्दधानाय विष्वक्सेनाश्रयो ह्यसौ ॥ ३ ॥
श्रुतस्य पुंसां सुचिरश्रमस्य
    नन्वञ्जसा सूरिभिरीडितोऽर्थः ।
तत्तद्‍गुणानुश्रवणं मुकुन्द
    पादारविन्दं हृदयेषु येषाम् ॥ ४ ॥

श्रीशुक उवाच ।
इति ब्रुवाणं विदुरं विनीतं
    सहस्रशीर्ष्णश्चरणोपधानम् ।
प्रहृष्टरोमा भगवत्कथायां
    प्रणीयमानो मुनिरभ्यचष्ट ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहाराजन् ! मुनिवर मैत्रेय जी के मुख से यह परम पुण्यमयी कथा सुनकर श्रीविदुरजी ने फिर पूछा; क्योंकि भगवान्‌ की लीलाकथा में इनका अत्यन्त अनुराग हो गया था ॥ १ ॥
विदुरजीने कहामुने ! स्वयम्भू ब्रह्माजी के प्रिय पुत्र महाराज स्वायम्भुव मनु ने अपनी प्रिय पत्नी शतरूपा को पाकर फिर क्या किया ? ॥ २ ॥ आप साधुशिरोमणि हैं ! आप मुझे आदिराज राजर्षि स्वायम्भुव मनु का पवित्र चरित्र सुनाइये। वे श्रीविष्णुभगवान्‌ के शरणापन्न थे, इसलिये उनका चरित्र सुनने में मेरी बहुत श्रद्धा है ॥ ३ ॥ जिनके हृदय में श्रीमुकुन्द के चरणारविन्द विराजमान हैं, उन भक्तजनों के गुणों को श्रवण करना ही मनुष्यों के बहुत दिनों तक किये हुए शास्त्राभ्यास के श्रमका मुख्य फल है, ऐसा विद्वानों का श्रेष्ठ मत है ॥ ४ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! विदुरजी सहस्रशीर्षा भगवान्‌ श्रीहरिके चरणाश्रित भक्त थे। उन्होंने जब विनयपूर्वक भगवान्‌की कथाके लिये प्रेरणा की, तब मुनिवर मैत्रेयका रोम-रोम खिल उठा। उन्होंने कहा ॥ ५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

वाराह अवतार की कथा

मैत्रेय उवाच ।
यदा स्वभार्यया सार्धं जातः स्वायम्भुवो मनुः ।
प्राञ्जलिः प्रणतश्चेदं वेदगर्भमभाषत ॥ ६ ॥
त्वमेकः सर्वभूतानां जन्मकृत् वृत्तिदः पिता ।
तथापि नः प्रजानां ते शुश्रूषा केन वा भवेत् ॥ ७ ॥
तद्विधेहि नमस्तुभ्यं कर्मस्वीड्यात्मशक्तिषु ।
यत्कृत्वेह यशो विष्वक् अमुत्र च भवेद्‍गतिः ॥ ८ ॥

ब्रह्मोवाच
प्रीतस्तुभ्यमहं तात स्वस्ति स्ताद्वां क्षितीश्वर ।
यन्निर्व्यलीकेन हृदा शाधि मेत्यात्मनार्पितम् ॥ ९ ॥
एतावत्यात्मजैर्वीर कार्या ह्यपचितिर्गुरौ ।
शक्त्याप्रमत्तैर्गृह्येत सादरं गतमत्सरैः ॥ १० ॥
स त्वमस्यामपत्यानि सदृशान्यात्मनो गुणैः ।
उत्पाद्य शास धर्मेण गां यज्ञैः पुरुषं यज ॥ ११ ॥
परं शुश्रूषणं मह्यं स्यात्प्रजारक्षया नृप ।
भगवांस्ते प्रजाभर्तुः हृषीकेशोऽनुतुष्यति ॥ १२ ॥
येषां न तुष्टो भगवान् यज्ञलिङ्गो जनार्दनः ।
तेषां श्रमो ह्यपार्थाय यदात्मा नादृतः स्वयम् ॥ १३ ॥

श्रीमैत्रेयजी बोलेजब अपनी भार्या शतरूपाके साथ स्वायम्भुव मनुका जन्म हुआ, तब उन्होंने बड़ी नम्रतासे हाथ जोडक़र श्रीब्रह्माजीसे कहा॥ ६ ॥ भगवन् ! एकमात्र आप ही समस्त जीवोंके जन्मदाता और जीविका प्रदान करनेवाले पिता हैं। तथापि हम आपकी सन्तान ऐसा कौन-सा कर्म करें, जिससे आपकी सेवा बन सके ? ॥ ७ ॥ पूज्यपाद ! हम आपको नमस्कार करते हैं। आप हमसे हो सकने योग्य किसी ऐसे कार्यके लिये हमें आज्ञा दीजिये, जिससे इस लोकमें हमारी सर्वत्र कीर्ति हो और परलोकमें सद्गति प्राप्त हो सके॥ ८ ॥
श्रीब्रह्माजीने (स्वायम्भुव मनुको) कहा तात ! पृथ्वीपते ! तुम दोनोंका कल्याण हो। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ; क्योंकि तुमने निष्कपट भावसे मुझे आज्ञा दीजियेयों कहकर मुझे आत्मसमर्पण किया है ॥ ९ ॥ वीर ! पुत्रोंको अपने पिताकी इसी रूपमें पूजा करनी चाहिये। उन्हें उचित है कि दूसरोंके प्रति ईर्ष्या का भाव न रखकर जहाँतक बने, उनकी आज्ञाका आदरपूर्वक सावधानीसे पालन करें ॥ १० ॥ तुम अपनी इस भार्या से अपने ही समान गुणवती सन्तति उत्पन्न करके धर्मपूर्वक पृथ्वीका पालन करो और यज्ञों द्वारा श्रीहरि की आराधना करो ॥ ११ ॥ राजन् ! प्रजापालन से मेरी बड़ी सेवा होगी और तुम्हें प्रजा का पालन करते देखकर भगवान्‌ श्रीहरि भी तुमसे प्रसन्न होंगे। जिनपर यज्ञमूर्ति जनार्दन भगवान्‌ प्रसन्न नहीं होते, उनका सारा श्रम व्यर्थ ही होता है; क्योंकि वे तो एक प्रकार से अपने आत्मा का ही अनादर करते हैं ॥ १२-१३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

वाराह अवतार की कथा

मनुरुवाच ।

आदेशेऽहं भगवतो वर्तेयामीवसूदन ।
स्थानं त्विहानुजानीहि प्रजानां मम च प्रभो ॥ १४ ॥
यदोकः सर्वसत्त्वानां मही मग्ना महाम्भसि ।
अस्या उद्धरणे यत्‍नो देव देव्या विधीयताम् ॥ १५ ॥

मैत्रेय उवाच ।

परमेष्ठी त्वपां मध्ये तथा सन्नामवेक्ष्य गाम् ।
कथमेनां समुन्नेष्य इति दध्यौ धिया चिरम् ॥ १६ ॥
सृजतो मे क्षितिर्वार्भिः प्लाव्यमाना रसां गता ।
अथात्र किमनुष्ठेयं अस्माभिः सर्गयोजितैः ।
यस्याहं हृदयादासं स ईशो विदधातु मे ॥ १७ ॥

मनुजी ने कहापापका नाश करनेवाले पिताजी ! मैं आपकी आज्ञा का पालन अवश्य करूँगा; किन्तु आप इस जगत् में मेरे और मेरी भावी प्रजा के रहने के लिये स्थान बतलाइये ॥१४॥ देव ! सब जीवों का निवासस्थान पृथ्वी इस समय प्रलय के जल में डूबी हुई है। आप इस देवी के उद्धार का प्रयत्न कीजिये ॥ १५ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहापृथ्वीको इस प्रकार अथाह जलमें डूबी देखकर ब्रह्माजी बहुत देरतक मन में यह सोचते रहे कि इसे कैसे निकालूँ ॥ १६ ॥ जिस समय मैं लोकरचना में लगा हुआ था, उस समय पृथ्वी जल में डूब जाने से रसातल को चली गयी। हम लोग सृष्टिकार्य में नियुक्त हैं, अत: इसके लिये हमें क्या करना चाहिये ? अब तो, जिनके सङ्कल्पमात्र से मेरा जन्म हुआ है, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि ही मेरा यह काम पूरा करें॥ १७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

वाराह अवतार की कथा

इत्यभिध्यायतो नासा विवरात्सहसानघ ।
वराहतोको निरगाद् अङ्गुष्ठपरिमाणकः ॥ १८ ॥
तस्याभिपश्यतः खस्थः क्षणेन किल भारत ।
गजमात्रः प्रववृधे तदद्‍भुतं अभून्महत् ॥ १९ ॥
मरीचिप्रमुखैर्विप्रैः कुमारैर्मनुना सह ।
दृष्ट्वा तत्सौकरं रूपं तर्कयामास चित्रधा ॥ २० ॥
किमेतत्सौकरव्याजं सत्त्वं दिव्यमवस्थितम् ।
अहो बताश्चर्यमिदं नासाया मे विनिःसृतम् ॥ २१ ॥
दृष्टोऽङ्गुष्ठशिरोमात्रः क्षणाद्‍गण्डशिलासमः ।
अपि स्विद्‍भगवानेष यज्ञो मे खेदयन्मनः ॥ २२ ॥
इति मीमांसतस्तस्य ब्रह्मणः सह सूनुभिः ।
भगवान् यज्ञपुरुषो जगर्जागेन्द्रसन्निभः ॥ २३ ॥
ब्रह्माणं हर्षयामास हरिस्तांश्च द्विजोत्तमान् ।
स्वगर्जितेन ककुभः प्रतिस्वनयता विभुः ॥ २४ ॥
निशम्य ते घर्घरितं स्वखेद
    क्षयिष्णु मायामयसूकरस्य ।
जनस्तपःसत्यनिवासिनस्ते त्रिभिः
    पवित्रैर्मुनयोऽगृणन् स्म ॥ २५ ॥

निष्पाप विदुरजी ! ब्रह्माजी इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि उनके नासाछिद्र से अकस्मात् अँगूठे के बराबर आकार का एक वराह-शिशु निकला ॥ १८ ॥ भारत ! बड़े आश्चर्यकी बात तो यही हुई कि आकाशमें खड़ा हुआ वह वराह-शिशु ब्रह्माजीके देखते-ही-देखते बड़ा होकर क्षणभरमें हाथीके बराबर हो गया ॥ १९ ॥ उस विशाल वराह-मूर्तिको देखकर मरीचि आदि मुनिजन,सनकादि और स्वायम्भुव मनु के सहित श्रीब्रह्माजी तरह-तरहके विचार करने लगे॥ २०॥ अहो ! सूकर के रूप में आज यह कौन दिव्य प्राणी यहाँ प्रकट हुआ है ? कैसा आश्चर्य है ! यह अभी-अभी मेरी नाक से निकला था ॥ २१ ॥ पहले तो यह अँगूठे के पोरुए के बराबर दिखायी देता था, किन्तु एक क्षणमें ही बड़ी भारी शिलाके समान हो गया। अवश्य ही यज्ञमूर्ति भगवान्‌ हमलोगों के मनको मोहित कर रहे हैं ॥ २२ ॥ ब्रह्माजी और उनके पुत्र इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भगवान्‌ यज्ञपुरुष पर्वताकार होकर गरजने लगे ॥ २३ ॥ सर्वशक्तिमान् श्रीहरिने अपनी गर्जनासे दिशाओंको प्रतिध्वनित करके ब्रह्मा और श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको हर्षसे भर दिया ॥ २४ ॥ अपना खेद दूर करनेवाली मायामय वराहभगवान्‌ की घुरघुराहटको सुनकर वे जनलोक, तपलोक और सत्यलोकनिवासी मुनिगण तीनों वेदों के परम पवित्र मन्त्रों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

वाराह अवतार की कथा

तेषां सतां वेदवितानमूर्तिः
    ब्रह्मावधार्यात्मगुणानुवादम् ।
विनद्य भूयो विबुधोदयाय
    गजेन्द्रलीलो जलमाविवेश ॥ २६ ॥
उत्क्षिप्तवालः खचरः कठोरः
    सटा विधुन्वन् खररोमशत्वक् ।
खुराहताभ्रः सितदंष्ट्र ईक्षा
    ज्योतिर्बभासे भगवान्महीध्रः ॥ २७ ॥
घ्राणेन पृथ्व्याः पदवीं विजिघ्रन्
    क्रोडापदेशः स्वयमध्वराङ्गः ।
करालदंष्ट्रोऽप्यकरालदृग्भ्याम्
    उद्वीक्ष्य विप्रान् गृणतोऽविशत्कम् ॥ २८ ॥
स वज्रकूटाङ्गनिपातवेग
    विशीर्णकुक्षिः स्तनयन्नुदन्वान् ।
उत्सृष्टदीर्घोर्मिभुजैरिवार्तः
    चुक्रोश यज्ञेश्वर पाहि मेति ॥ २९ ॥

भगवान्‌ के स्वरूप का वेदों में विस्तारसे वर्णन किया गया है; अत: उन मुनीश्वरों ने जो स्तुति की, उसे वेदरूप मानकर भगवान्‌ बड़े प्रसन्न हुए और एक बार फिर गरजकर देवताओं के हित के लिये गजराजकी-सी लीला करते हुए जल में घुस गये ॥ २६ ॥ पहले वे सूकररूप भगवान्‌ पूँछ उठाकर बड़े वेगसे आकाशमें उछले और अपनी गर्दनके बालोंको फटकारकर खुरोंके आघातसे बादलोंको छितराने लगे। उनका शरीर बड़ा कठोर था, त्वचापर कड़े-कड़े बाल थे, दाढ़ें सफेद थीं और नेत्रोंसे तेज निकल रहा था, उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी ॥ २७ ॥ भगवान्‌ स्वयं यज्ञपुरुष हैं तथापि सूकररूप धारण करने के कारण अपने नाकसे सूँघ-सूँघकर पृथ्वीका पता लगा रहे थे। उनकी दाढ़ें बड़ी कठोर थीं। इस प्रकार यद्यपि वे बड़े क्रूर जान पड़ते थे, तथापि अपनी स्तुति करनेवाले मरीचि आदि मुनियोंकी ओर बड़ी सौम्य दृष्टिसे निहारते हुए उन्होंने जलमें प्रवेश किया ॥ २८ ॥ जिस समय उनका वज्रमय पर्वतके समान कठोर कलेवर जलमें गिरा, तब उसके वेगसे मानो समुद्रका पेट फट गया और उसमें बादलोंकी गडग़ड़ाहटके समान बड़ा भीषण शब्द हुआ। उस समय ऐसा जान पड़ता था मानो अपनी उत्ताल तरङ्गरूप भुजाओंको उठाकर वह बड़े आर्तस्वरसे हे यज्ञेश्वर ! मेरी रक्षा करो।इस प्रकार पुकार रहा है ॥ २९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

वाराह अवतार की कथा

खुरैः क्षुरप्रैर्दरयंस्तदाप
    उत्पारपारं त्रिपरू रसायाम् ।
ददर्श गां तत्र सुषुप्सुरग्रे
    यां जीवधानीं स्वयमभ्यधत्त ॥ ३० ॥
स्वदंष्ट्रयोद्धृत्य महीं निमग्नां
    स उत्थितः संरुरुचे रसायाः ।
तत्रापि दैत्यं गदयापतन्तं
    सुनाभसन्दीपिततीव्रमन्युः ॥ ३१ ॥
जघान रुन्धानमसह्यविक्रमं
    स लीलयेभं मृगराडिवाम्भसि ।
तद्रक्तपङ्काङ्‌कितगण्डतुण्डो
    यथा गजेन्द्रो जगतीं विभिन्दन् ॥ ३२ ॥
तमालनीलं सितदन्तकोट्या
    क्ष्मामुत्क्षिपन्तं गजलीलयाङ्ग ।
प्रज्ञाय बद्धाञ्जलयोऽनुवाकैः
    विरिञ्चिमुख्या उपतस्थुरीशम् ॥ ३३ ॥

तब भगवान्‌ यज्ञमूर्ति अपने बाणके समान पैने खुरों से जल को चीरते हुए उस अपार जलराशि के उस पार पहुँचे। वहाँ रसातल में उन्होंने समस्त जीवोंकी आश्रयभूता पृथ्वीको देखा, जिसे कल्पान्त में शयन करने के लिये उद्यत श्रीहरि ने स्वयं अपने ही उदरमें लीन कर लिया था ॥ ३० ॥
फिर, वे (वराहभगवान्‌) जलमें डूबी हुई पृथ्वीको अपनी दाढ़ोंपर लेकर रसातल से ऊपर आये। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। जलसे बाहर आते समय उनके मार्गमें विघ्र डालनेके लिये महापराक्रमी हिरण्याक्षने जलके भीतर ही उनपर गदासे आक्रमण किया। इससे उनका क्रोध चक्र के समान तीक्ष्ण हो गया और उन्होंने उसे लीलासे ही इस प्रकार मार डाला, जैसे सिंह हाथीको मार डालता है। उस समय उसके रक्तसे थूथनी तथा कनपटी सन जानेके कारण वे ऐसे जान पड़ते थे मानो कोई गजराज लाल मिट्टीके टीलेमें टक्कर मारकर आया हो ॥३१-३२॥ तात ! जैसे गजराज अपने दाँतोंपर कमल-पुष्प धारण कर ले, उसी प्रकार अपने सफेद दाँतोंकी नोकपर पृथ्वी को धारण कर जलसे बाहर निकले हुए, तमाल के समान नीलवर्ण वराहभगवान्‌ को देखकर ब्रह्मा, मरीचि आदि को निश्चय हो गया कि ये भगवान्‌ ही हैं । तब वे हाथ जोडक़र वेदवाक्यों से उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३३ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

वाराह अवतार की कथा

ऋषय ऊचुः

जितं जितं तेऽजित यज्ञभावन
    त्रयीं तनुं स्वां परिधुन्वते नमः ।
यद् रोमगर्तेषु निलिल्युरध्वराः
    तस्मै नमः कारणसूकराय ते ॥ ३४ ॥
रूपं तवैतन्ननु दुष्कृतात्मनां
    दुर्दर्शनं देव यदध्वरात्मकम् ।
छन्दांसि यस्य त्वचि बर्हिरोम-
    स्वाज्यं दृशि त्वङ्‌घ्रिषु चातुर्होत्रम् ॥ ३५ ॥
स्रुक्तुण्ड आसीत्स्रुव ईश नासयोः
    इडोदरे चमसाः कर्णरन्ध्रे ।
प्राशित्रमास्ये ग्रसने ग्रहास्तु ते
    यच्चर्वणं ते भगवन्नग्निहोत्रम् ॥ ३६ ॥

ऋषियोंने कहाभगवान्‌ अजित् ! आपकी जय हो, जय हो। यज्ञपते ! आप अपने वेदत्रयीरूप विग्रह को फटकार रहे हैं; आपको नमस्कार है। आपके रोम-कूपों में सम्पूर्ण यज्ञ लीन हैं। आपने पृथ्वीका उद्धार करने के लिये ही यह सूकररूप धारण किया है; आपको नमस्कार है ॥३४॥ देव ! दुराचारियों को आपके इस शरीर का दर्शन होना अत्यन्त कठिन है; क्योंकि यह यज्ञरूप है । इसकी त्वचामें गायत्री आदि छन्द, रोमावलीमें कुश, नेत्रोंमें घृत तथा चारों चरणोंमें होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्माइन चारों ऋत्विजोंके कर्म हैं ॥ ३५ ॥ ईश ! आपकी थूथनी (मुखके अग्रभाग)में स्रुक् है, नासिकाछिद्रों में स्रुवा है, उदरमें इडा (यज्ञीय भक्षणपात्र) है, कानोंमें चमस है, मुखमें प्राशित्र (ब्रह्मभागपात्र) है और कण्ठछिद्रमें ग्रह (सोमपात्र) है। भगवन् ! आपका जो चबाना है, वही अग्निहोत्र है ॥ ३६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

वाराह अवतार की कथा

दीक्षानुजन्मोपसदः शिरोधरं
    त्वं प्रायणीयोदयनीयदंष्ट्रः ।
जिह्वा प्रवर्ग्यस्तव शीर्षकं क्रतोः
    सभ्यावसथ्यं चितयोऽसवो हि ते ॥ ३७ ॥
सोमस्तु रेतः सवनान्यवस्थितिः
    संस्थाविभेदास्तव देव धातवः ।
सत्राणि सर्वाणि शरीरसन्धि-
    स्त्वं सर्वयज्ञक्रतुरिष्टिबन्धनः ॥ ३८ ॥
नमो नमस्तेऽखिलमन्त्रदेवता
    द्रव्याय सर्वक्रतवे क्रियात्मने ।
वैराग्यभक्त्यात्मजयानुभावित
    ज्ञानाय विद्यागुरवे नमो नमः ॥ ३९ ॥

बार-बार अवतार लेना यज्ञस्वरूप आपकी दीक्षणीय इष्टि है, गरदन उपसद (तीन इष्टियाँ) हैं; दोनों दाढ़ें प्रायणीय (दीक्षाके बादकी इष्टि) और उदयनीय (यज्ञसमाप्ति- की इष्टि) हैं; जिह्वा प्रवर्ग्य(प्रत्येक उपसदके पूर्व किया जानेवाला महावीर नामक कर्म) है, सिर सभ्य (होमरहित अग्नि) और आवसथ्य (औपासनाग्रि) हैं तथा प्राण चिति (इष्टकाचयन) हैं ॥ ३७ ॥ देव ! आपका वीर्य सोम है; आसन (बैठना) प्रात:सवनादि तीन सवन हैं; सातों धातु अग्रिष्टोम, अत्यग्रिष्टोम, उप्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम नामकी सात संस्थाएँ हैं तथा शरीरकी सन्धियाँ (जोड़) सम्पूर्ण सत्र हैं। इस प्रकार आप सम्पूर्ण यज्ञ (सोमरहित याग) और क्रतु (सोमसहित याग) रूप हैं। यज्ञानुष्ठानरूप इष्टियाँ आपके अङ्गोंको मिलाये रखनेवाली मांसपेशियाँ हैं ॥ ३८ ॥ समस्त मन्त्र, देवता, द्रव्य, यज्ञ और कर्म आपके ही स्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। वैराग्य, भक्ति और मनकी एकाग्रतासे जिस ज्ञानका अनुभव होता है, वह आपका स्वरूप ही है तथा आप ही सबके विद्यागुरु हैं; आपको पुन:-पुन: प्रणाम है ॥ ३९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

वाराह अवतार की कथा

दंष्ट्राग्रकोट्या भगवंस्त्वया धृता
    विराजते भूधर भूः सभूधरा ।
यथा वनान्निःसरतो दता धृता
    मतङ्गजेन्द्रस्य सपत्रपद्मिनी ॥ ४० ॥
त्रयीमयं रूपमिदं च सौकरं
    भूमण्डलेनाथ दता धृतेन ते ।
चकास्ति शृङ्गोढघनेन भूयसा
    कुलाचलेन्द्रस्य यथैव विभ्रमः ॥ ४१ ॥
संस्थापयैनां जगतां सतस्थुषां
    लोकाय पत्‍नीमसि मातरं पिता ।
विधेम चास्यै नमसा सह त्वया
    यस्यां स्वतेजोऽग्निमिवारणावधाः ॥ ४२ ॥

पृथ्वीको धारण करनेवाले भगवन् ! आपकी दाढ़ोंकी नोकपर रखी हुई यह पर्वतादि-मण्डित पृथ्वी ऐसी सुशोभित हो रही है, जैसे वनमें से निकलकर बाहर आये हुए किसी गजराज के दाँतों पर पत्रयुक्त कमलिनी रखी हो ॥ ४० ॥ आपके दाँतोंपर रखे हुए भूमण्डलके सहित आपका यह वेदमय वराहविग्रह ऐसा सुशोभित हो रहा है, जैसे शिखरोंपर छायी हुई मेघमालासे कुलपर्वतकी शोभा होती है ॥ ४१ ॥ नाथ ! चराचर जीवोंके सुखपूर्वक रहनेके लिये आप अपनी पत्नी इन जगन्माता पृथ्वीको जलपर स्थापित कीजिये। आप जगत् के पिता हैं और अरणि में अग्निस्थापन के समान आपने इसमें धारण- शक्तिरूप अपना तेज स्थापित किया है। हम आपको और इस पृथ्वीमाता को प्रणाम करते हैं ॥ ४२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

वाराह अवतार की कथा

कः श्रद्दधीतान्यतमस्तव प्रभो
    रसां गताया भुव उद्विबर्हणम् ।
न विस्मयोऽसौ त्वयि विश्वविस्मये
    यो माययेदं ससृजेऽतिविस्मयम् ॥ ४३ ॥
विधुन्वता वेदमयं निजं वपुः
    जनस्तपःसत्यनिवासिनो वयम् ।
सटाशिखोद्धूत शिवाम्बुबिन्दुभिः
    विमृज्यमाना भृशमीश पाविताः ॥ ४४ ॥
स वै बत भ्रष्टमतिस्तवैष ते
    यः कर्मणां पारमपारकर्मणः ।
यद्योगमायागुणयोगमोहितं
    विश्वं समस्तं भगवन्विधेहि शम् ॥ ४५ ॥

प्रभो ! रसातलमें डूबी हुई इस पृथ्वी को निकालने का साहस आपके सिवा और कौन कर सकता था। किन्तु आप तो सम्पूर्ण आश्चर्योंके आश्रय हैं, आपके लिये यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। आपने ही तो अपनी मायासे इस अत्याश्चर्यमय विश्वकी रचना की है ॥ ४३ ॥ जब आप अपने वेदमय विग्रहको हिलाते हैं, तब हमारे ऊपर आपकी गरदनके बालोंसे झरती हुई शीतल जलकी बूँदें गिरती हैं। ईश ! उनसे भीगकर हम जनलोक, तपलोक और सत्यलोकमें रहनेवाले मुनिजन सर्वथा पवित्र हो जाते हैं ॥ ४४ ॥ जो पुरुष आपके कर्मोंका पार पाना चाहता है, अवश्य ही उसकी बुद्धि नष्ट हो गयी है; क्योंकि आपके कर्मोंका कोई पार ही नहीं है। आपकी ही योगमायाके सत्त्वादि गुणोंसे यह सारा जगत् मोहित हो रहा है। भगवन् ! आप इसका कल्याण कीजिये ॥ ४५ ॥
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

वाराह अवतार की कथा

मैत्रेय उवाच ।

इत्युपस्थीयमानस्तैः मुनिभिर्ब्रह्मवादिभिः ।
    सलिले स्वखुराक्रान्त उपाधत्तावितावनिम् ॥ ४६ ॥
स इत्थं भगवानुर्वीं विष्वक्सेनः प्रजापतिः ।
    रसाया लीलयोन्नीतां अप्सु न्यस्य ययौ हरिः ॥ ४७ ॥
य एवमेतां हरिमेधसो हरेः
    कथां सुभद्रां कथनीयमायिनः ।
शृण्वीत भक्त्या श्रवयेत वोशतीं
    जनार्दनोऽस्याशु हृदि प्रसीदति ॥ ४८ ॥

श्रीमैत्रेयजी कहते हैंविदुरजी ! उन ब्रह्मवादी मुनियोंके इस प्रकार स्तुति करने पर सबकी रक्षा करनेवाले वराहभगवान्‌ ने अपने खुरों से जलको स्तम्भित कर उस पर पृथ्वी को स्थापित कर दिया ॥ ४६ ॥ इस प्रकार रसातल से लीलापूर्वक लायी हुई पृथ्वी को जलपर रखकर वे विष्वक्सेन प्रजापति भगवान्‌ श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥ ४७ ॥
विदुरजी ! भगवान्‌के लीलामय चरित्र अत्यन्त कीर्तनीय हैं और उनमें लगी हुई बुद्धि सब प्रकारके पाप-तापोंको दूर कर देती है। जो पुरुष उनकी इस मङ्गलमयी मञ्जुल कथा को भक्तिभावसे सुनता या सुनाता है, उसके प्रति भक्तवत्सल भगवान्‌ अन्तस्तलसे बहुत शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - तेरहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

वाराह अवतार की कथा

तस्मिन्प्रसन्ने सकलाशिषां प्रभौ
    किं दुर्लभं ताभिरलं लवात्मभिः ।
अनन्यदृष्ट्या भजतां गुहाशयः
    स्वयं विधत्ते स्वगतिं परः पराम् ॥ ४९ ॥
को नाम लोके पुरुषार्थसारवित्
    पुराकथानां भगवत्कथासुधाम् ।
आपीय कर्णाञ्जलिभिर्भवापहा-
    महो विरज्येत विना नरेतरम् ॥ ५० ॥

भगवान्‌ तो सभी कामनाओं को पूर्ण करनेमें समर्थ हैं, उनके प्रसन्न होने पर संसारमें क्या दुर्लभ है। किन्तु उन तुच्छ कामनाओं की आवश्यकता ही क्या है ? जो लोग उनका अनन्यभाव से भजन करते हैं, उन्हें तो वे अन्तर्यामी परमात्मा स्वयं अपना परम पद ही दे देते हैं ॥ ४९ ॥ अरे ! संसार में पशुओं को छोडक़र अपने पुरुषार्थ का सार जानने वाला ऐसा कौन पुरुष होगा, जो आवागमन से छुड़ा देनेवाली भगवान्‌ की प्राचीन कथाओं में से किसी भी अमृतमयी कथा का अपने कर्णपुटों से एक बार पान करके फिर उनकी ओर से मन हटा लेगा ॥ ५० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे वराहप्रादुर्भावानुवर्णनं त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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