॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध - दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०१)
भगवान्
शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य
विदुर
उवाच -
भवे
शीलवतां श्रेष्ठे दक्षो दुहितृवत्सलः ।
विद्वेषं
अकरोत् कस्माद् अनादृत्यात्मजां सतीम् ॥ १ ॥
कस्तं
चराचरगुरुं निर्वैरं शान्तविग्रहम् ।
आत्मारामं
कथं द्वेष्टि जगतो दैवतं महत् ॥ २ ॥
एतदाख्याहि
मे ब्रह्मन् जामातुः श्वशुरस्य च ।
विद्वेषस्तु
यतः प्राणान् तत्यजे दुस्त्यजान्सती ॥ ३ ॥
मैत्रेय
उवाच -
पुरा
विश्वसृजां सत्रे समेताः परमर्षयः ।
तथामरगणाः
सर्वे सानुगा मुनयोऽग्नयः ॥ ४ ॥
तत्र
प्रविष्टमृषयो दृष्ट्वार्कमिव रोचिषा ।
भ्राजमानं
वितिमिरं कुर्वन्तं तन्महत्सदः ॥ ५ ॥
उदतिष्ठन्
सदस्यास्ते स्वधिष्ण्येभ्यः सहाग्नयः ।
ऋते
विरिञ्चां शर्वं च तद्भासाक्षिप्तचेतसः ॥ ६ ॥
सदसस्पतिभिर्दक्षो
भगवान् साधु सत्कृतः ।
अज
लोकगुरुं नत्वा निषसाद तदाज्ञया ॥ ७ ॥
प्राङ्निषण्णं
मृडं दृष्ट्वा नामृष्यत् तद् अनादृतः ।
उवाच
वामं चक्षुर्भ्यां अभिवीक्ष्य दहन्निव ॥ ८ ॥
विदुरजीने
पूछा—ब्रह्मन् ! प्रजापति दक्ष तो अपनी लड़कियोंसे बहुत ही स्नेह रखते थे,
फिर उन्होंने अपनी कन्या सतीका अनादर करके शीलवानोंमें सबसे श्रेष्ठ
श्रीमहादेवजीसे द्वेष क्यों किया ? ॥ १ ॥ महादेव जी भी चराचर
के गुरु, वैररहित, शान्तमूर्ति,
आत्माराम और जगत् के परम आराध्यदेव हैं। उनसे भला, कोई क्यों वैर करेगा ? ॥ २ ॥
भगवन्
! उन ससुर और दामाद में इतना विद्वेष कैसे हो गया, जिसके कारण
सतीने अपने दुस्त्यज प्राणोंतक की बलि दे दी ? यह आप मुझसे
कहिये ॥ ३ ॥
श्रीमैत्रेयजीने
कहा—विदुरजी ! पहले एक बार प्रजापतियोंके यज्ञमें सब बड़े-बड़े ऋषि, देवता, मुनि और अग्नि आदि अपने-अपने अनुयायियोंके
सहित एकत्र हुए थे ॥ ४ ॥ उसी समय प्रजापति दक्षने भी उस सभामें प्रवेश किया। वे
अपने तेजसे सूर्यके समान प्रकाशमान थे और उस विशाल सभाभवनका अन्धकार दूर किये देते
थे। उन्हें आया देख ब्रह्माजी और महादेवजीके अतिरिक्त अग्निपर्यन्त सभी सभासद्
उनके तेजसे प्रभावित होकर अपने-अपने आसनोंसे उठकर खड़े हो गये ॥ ५-६ ॥ इस प्रकार
समस्त सभासदोंसे भलीभाँति सम्मान प्राप्त करके तेजस्वी दक्ष जगत्पिता ब्रह्माजीको
प्रणाम कर उनकी आज्ञासे अपने आसनपर बैठ गये ॥ ७ ॥ परन्तु महादेवजीको पहलेसे ही
बैठा देख तथा उनसे अभ्युत्थानादि के रूपमें कुछ भी आदर न पाकर दक्ष उनका यह
व्यवहार सहन न कर सके। उन्होंने उनकी ओर टेढ़ी नजरसे इस प्रकार देखा मानो उन्हें
वे क्रोधाग्नि से जला डालेंगे। फिर कहने लगे— ॥ ८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध - दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०२)
भगवान्
शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य
श्रूयतां
ब्रह्मर्षयो मे सहदेवाः सहाग्नयः ।
साधूनां
ब्रुवतो वृत्तं न अज्ञानात् न च मत्सरात् ॥ ९ ॥
अयं
तु लोकपालानां यशोघ्नो निरपत्रपः ।
सद्भिः
आचरितः पन्था येन स्तब्धेन दूषितः ॥ १० ॥
एष
मे शिष्यतां प्राप्तो यन्मे दुहितुरग्रहीत् ।
पाणिं
विप्राग्निमुखतः सावित्र्या इव साधुवत् ॥ ११ ॥
गृहीत्वा
मृगशावाक्ष्याः पाणिं मर्कटलोचनः ।
प्रत्युत्थानाभिवादार्हे
वाचाप्यकृत नोचितम् ॥ १२ ॥
लुप्तक्रियायाशुचये
मानिने भिन्नसेतवे ।
अनिच्छन्नप्यदां
बालां शूद्रायेवोशतीं गिरम् ॥ १३ ॥
प्रेतावासेषु
घोरेषु प्रेतैर्भूतगणैर्वृतः ।
अटतु
उन्मत्तवत् नग्नो व्युप्तकेशो हसन् रुदन् ॥ १४ ॥
चिताभस्मकृतस्नानः
प्रेतस्रङ् अस्थिभूषणः ।
शिवापदेशो
ह्यशिवो मत्तो मत्तजनप्रियः ।
पतिः
प्रमथनाथानां तमोमात्रात्मकात्मनाम् ॥ १५ ॥
तस्मा
उन्मादनाथाय नष्टशौचाय दुर्हृदे ।
दत्ता
बत मया साध्वी चोदिते परमेष्ठिना ॥ १६ ॥
(प्रजापति
दक्ष कहरहे हैं) ‘देवता और अग्नियोंके सहित समस्त ब्रहमर्षिगण मेरी बात सुनें । मैं नासमझी
या द्वेषवश नहीं कहता, बल्कि शिष्टाचारकी बात कहता हूँ ॥ ९ ॥
यह निर्लज्ज महादेव समस्त लोकपालों की पवित्र कीर्ति को धूलमें मिला रहा है।
देखिये इस घमण्डी ने सत्पुरुषों के आचरण को लाञ्छित एवं मटियामेट कर दिया है ॥ १०
॥ बंदरके- से नेत्रवाले इसने सत्पुरुषों के समान मेरी सावित्री-सरीखी मृगनयनी
पवित्र कन्या का अग्नि और ब्राह्मणों के सामने पाणिग्रहण किया था, इसलिये यह एक प्रकार मेरे पुत्र के समान हो गया है। उचित तो यह था कि यह
उठकर मेरा स्वागत करता, मुझे प्रणाम करता; परन्तु इसने वाणी से भी मेरा सत्कार नहीं किया ॥११-१२ ॥ हाय ! जिस प्रकार
शूद्रको कोई वेद पढ़ा दे, उसी प्रकार मैंने इच्छा न होते हुए
भी भावीवश इसको अपनी सुकुमारी कन्या दे दी ! इसने सत्कर्म का लोप कर दिया, यह सदा अपवित्र रहता है, बड़ा घमण्डी है और धर्मकी
मर्यादा को तोड़ रहा है ॥ १३ ॥ यह प्रेतों के निवासस्थान भयङ्कर श्मशानोंमें
भूत-प्रेतोंको साथ लिये घूमता रहता है। पूरे पागलकी तरह सिरके बाल बिखेरे
नंग-धड़ंग भटकता है, कभी हँसता है, कभी
रोता है ॥ १४ ॥ यह सारे शरीर पर चिता की अपवित्र भस्म लपेटे रहता है, गले में भूतों के पहननेयोग्य नरमुण्डों की माला और सारे शरीर में हड्डियों
के गहने पहने रहता है । यह बस, नामभर का ही शिव है, वास्तवमें है पूरा अशिव— अमङ्गलरूप। जैसे यह स्वयं
मतवाला है, वैसे ही इसे मतवाले ही प्यारे लगते हैं।
भूत-प्रेत-प्रमथ आदि निरे तमोगुणी स्वभाववाले जीवोंका यह नेता है ॥ १५ ॥ अरे !
मैंने केवल ब्रह्माजीके बहकावेमें आकर ऐसे भूतोंके सरदार, आचारहीन
और दुष्ट स्वभाववाले को अपनी भोली-भाली बेटी ब्याह दी’ ॥ १६
॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध - दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान्
शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य
मैत्रेय
उवाच -
विनिन्द्यैवं
स गिरिशं अप्रतीपमवस्थितम् ।
दक्षोऽथाप
उपस्पृश्य क्रुद्धः शप्तुं प्रचक्रमे ॥ १७ ॥
अयं
तु देवयजन इन्द्रोपेन्द्रादिभिर्भवः ।
सह
भागं न लभतां देवैर्देवगणाधमः ॥ १८ ॥
निषिध्यमानः
स सदस्यमुख्यैः
दक्षो गिरित्राय विसृज्य शापम् ।
तस्माद्
विनिष्क्रम्य विवृद्धमन्युः
जगाम कौरव्य निजं निकेतनम् ॥ १९ ॥
विज्ञाय
शापं गिरिशानुगाग्रणीः
नन्दीश्वरो रोषकषायदूषितः ।
दक्षाय
शापं विससर्ज दारुणं
ये चान्वमोदन् तदवाच्यतां द्विजाः ॥ २० ॥
य
एतन्मर्त्यमुद्दिश्य भगवत्यप्रतिद्रुहि ।
द्रुह्यत्यज्ञः
पृथग्दृष्टिः तत्त्वतो विमुखो भवेत् ॥ २१ ॥
गृहेषु
कूटधर्मेषु सक्तो ग्राम्यसुखेच्छया ।
कर्मतन्त्रं
वितनुते वेदवादविपन्नधीः ॥ २२ ॥
बुद्ध्या
पराभिध्यायिन्या विस्मृतात्मगतिः पशुः ।
स्त्रीकामः
सोऽस्त्वतितरां दक्षो बस्तमुखोऽचिरात् ॥ २३ ॥
विद्याबुद्धिः
अविद्यायां कर्ममय्यामसौ जडः ।
संसरन्त्विह
ये चामुं अनु शर्वावमानिनम् ॥ २४ ॥
गिरः
श्रुतायाः पुष्पिण्या मधुगन्धेन भूरिणा ।
मथ्ना
चोन्मथितात्मानः सम्मुह्यन्तु हरद्विषः ॥ २५ ॥
सर्वभक्षा
द्विजा वृत्त्यै धृतविद्यातपोव्रताः ।
वित्तदेहेन्द्रियारामा
याचका विचरन्त्विह ॥ २६ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! दक्ष ने इस प्रकार महादेवजी को बहुत कुछ बुरा-भला कहा; तथापि उन्होंने इसका कोई प्रतीकार नहीं किया, वे
पूर्ववत् निश्चलभावसे बैठे रहे। इससे दक्षके क्रोध का पारा और भी ऊँचा चढ़ गया और
वे जल हाथ में लेकर उन्हें शाप देने को तैयार हो गये ॥ १७ ॥ दक्षने कहा, ‘यह महादेव देवताओंमें बड़ा ही अधम है। अबसे इसे इन्द्र-उपेन्द्र आदि
देवताओंके साथ यज्ञका भाग न मिले’ ॥ १८ ॥ उपस्थित
मुख्य-मुख्य सभासदोंने उन्हें बहुत मना किया, परन्तु
उन्होंने किसीकी न सुनी; महादेवजीको शाप दे ही दिया। फिर वे
अत्यन्त क्रोधित हो उस सभासे निकलकर अपने घर चले गये ॥ १९ ॥ जब श्रीशङ्करजी के
अनुयायियों में अग्रगण्य नन्दीश्वरको मालूम हुआ कि दक्षने शाप दिया है, तो वे क्रोधसे तमतमा उठे और उन्होंने दक्ष तथा उन ब्राह्मणोंको, जिन्होंने दक्षके दुर्वचनोंका अनुमोदन किया था, बड़ा
भयङ्कर शाप दिया ॥ २० ॥ वे बोले—‘जो इस मरण-धर्मा शरीर में
ही अभिमान करके किसी से भी द्रोह न करनेवाले भगवान् शङ्कर से द्वेष करता है,
वह भेद-बुद्धिवाला मूर्ख दक्ष, तत्त्वज्ञानसे
विमुख ही रहे ॥ २१ ॥ यह ‘चातुर्मास्य यज्ञ करनेवालेको अक्षय
पुण्य प्राप्त होता है’ आदि अर्थवादरूप वेदवाक्योंसे मोहित
एवं विवेकभ्रष्ट होकर विषयसुखकी इच्छासे कपटधर्ममय गृहस्थाश्रममें आसक्त रहकर
कर्मकाण्डमें ही लगा रहता है। इसकी बुद्धि देहादिमें आत्मभावका चिन्तन करनेवाली है;
उसके द्वारा इसने आत्मस्वरूपको भुला दिया है; यह
साक्षात् पशुके ही समान है, अत: अत्यन्त स्त्री-लम्पट हो और
शीघ्र ही इसका मुँह बकरे का हो जाय ॥ २२-२३ ॥ यह मूर्ख कर्ममयी अविद्याको ही
विद्या समझता है; इसलिये यह और जो लोग भगवान् शङ्करका अपमान
करनेवाले इस दुष्टके पीछे-पीछे चलनेवाले हैं, वे सभी
जन्म-मरणरूप संसारचक्रमें पड़े रहें ॥ २४ ॥ वेदवाणीरूप लता फलश्रुतिरूप पुष्पोंसे
सुशोभित है, उसके कर्मफलरूप मनोमोहक गन्धसे इनके चित्त
क्षुब्ध हो रहे हैं। इससे ये शङ्करद्रोही कर्मोंके जालमें ही फँसे रहें ॥ २५ ॥ ये
ब्राह्मणलोग भक्ष्याभक्ष्यके विचारको छोडक़र केवल पेट पालनेके लिये ही विद्या,
तप और व्रतादिका आश्रय लें तथा धन, शरीर और
इन्द्रियोंके सुखको ही सुख मानकर—उन्हींके गुलाम बनकर
दुनियामें भीख माँगते भटका करें’ ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध - दूसरा
अध्याय..(पोस्ट०४)
भगवान्
शिव और दक्षप्रजापति का मनोमालिन्य
तस्यैवं
वदतः शापं श्रुत्वा द्विजकुलाय वै ।
भृगुः
प्रत्यसृजच्छापं ब्रह्मदण्डं दुरत्ययम् ॥ २७ ॥
भवव्रतधरा
ये च ये च तान् समनुव्रताः ।
पाषण्डिनस्ते
भवन्तु सच्छास्त्रपरिपन्थिनः ॥ २८ ॥
नष्टशौचा
मूढधियो जटाभस्मास्थिधारिणः ।
विशन्तु
शिवदीक्षायां यत्र दैवं सुरासवम् ॥ २९ ॥
ब्रह्म
च ब्राह्मणांश्चैव यद्यूयं परिनिन्दथ ।
सेतुं
विधारणं पुंसां अतः पाषण्डमाश्रिताः ॥ ३० ॥
एष
एव हि लोकानां शिवः पन्थाः सनातनः ।
यं
पूर्वे चानुसन्तस्थुः यत्प्रमाणं जनार्दनः ॥ ३१ ॥
तद्ब्रह्म
परमं शुद्धं सतां वर्त्म सनातनम् ।
विगर्ह्य
यात पाषण्डं दैवं वो यत्र भूतराट् ॥ ३२ ॥
मैत्रेय
उवाच -
तस्यैवं
वदतः शापं भृगोः स भगवान्भवः ।
निश्चक्राम
ततः किञ्चित् विमना इव सानुगः ॥ ३३ ॥
तेऽपि
विश्वसृजः सत्रं सहस्रपरिवत्सरान् ।
संविधाय
महेष्वास यत्रेज्य ऋषभो हरिः ॥ ३४ ॥
आप्लुत्यावभृथं
यत्र गङ्गा यमुनयान्विता ।
विरजेनात्मना
सर्वे स्वं स्वं धाम ययुस्ततः ॥ ३५ ॥
नन्दीश्वरके
मुखसे इस प्रकार ब्राह्मणकुलके लिये शाप सुनकर उसके बदलेमें भृगुजीने यह दुस्तर
शापरूप ब्रह्मदण्ड दिया ॥ २७ ॥ ‘जो लोग शिवभक्त हैं तथा जो उन
भक्तोंके अनुयायी हैं, वे सत्-शास्त्रोंके विरुद्ध आचरण
करनेवाले और पाखण्डी हों ॥ २८ ॥ जो लोग शौचाचारविहीन, मन्दबुद्धि
तथा जटा, राख और हड्डियोंको धारण करनेवाले हैं—वे ही शैव-सम्प्रदायमें दीक्षित हों, जिसमें सुरा और
आसव ही देवताओंके समान आदरणीय हैं ॥ २९ ॥ अरे ! तुमलोग जो धर्ममर्यादाके संस्थापक
एवं वर्णाश्रमियोंके रक्षक वेद और ब्राह्मणोंकी निन्दा करते हो, इससे मालूम होता है तुमने पाखण्डका आश्रय ले रखा है ॥ ३० ॥ यह वेदमार्ग ही
लोगोंके लिये कल्याणकारी और सनातन मार्ग है। पूर्वपुरुष इसीपर चलते आये हैं और
इसके मूल साक्षात् श्रीविष्णुभगवान् हैं ॥ ३१ ॥ तुमलोग सत्पुरुषोंके परम पवित्र
और सनातन मार्गस्वरूप वेदकी निन्दा करते हो—इसलिये उस
पाखण्डमार्ग में जाओ, जिसमें भूतों के सरदार तुम्हारे
इष्टदेव निवास करते हैं’ ॥ ३२ ॥ श्रीमैत्रेयजी कहते हैं—विदुरजी ! भृगुऋषि के इस प्रकार शाप देने पर भगवान् शङ्कर कुछ खिन्न-से
हो वहाँ से अपने अनुयायियोंसहित चल दिये ॥ ३३ ॥ वहाँ प्रजापतिलोग जो यज्ञ कर रहे
थे, उसमें पुरुषोत्तम श्रीहरि ही उपास्यदेव थे। और वह यज्ञ
एक हजार वर्ष में समाप्त होनेवाला था । उसे समाप्त कर उन प्रजापतियों ने
श्रीगङ्गा-यमुना के सङ्गम में यज्ञान्त स्नान किया और फिर प्रसन्नमन से वे
अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥३४-३५ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे
दक्षशापो नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें