॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०१)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
श्रीपरीक्षिदुवाच
–
निवृत्तिमार्गः
कथित आदौ भगवता यथा ।
क्रमयोगोपलब्धेन
ब्रह्मणा यदसंसृतिः ॥ १ ॥
प्रवृत्तिलक्षणश्चैव
त्रैगुण्यविषयो मुने ।
योऽसावलीनप्रकृतेः
गुणसर्गः पुनः पुनः ॥ २ ॥
अधर्मलक्षणा
नाना नरकाश्चानुवर्णिताः ।
मन्वन्तरश्च
व्याख्यात आद्यः स्वायम्भुवो यतः ॥ ३ ॥
प्रियव्रतोत्तानपदोः
वंशस्तत् चरितानि च ।
द्वीपवर्षसमुद्राद्रि
नद्युद्यान वनस्पतीन् ॥ ४ ॥
धरामण्डलसंस्थानं
भागलक्षणमानतः ।
ज्योतिषां
विवराणां च यथेदं असृजद्विभुः ॥ ५ ॥
अधुनेह
महाभाग यथैव नरकान्नरः ।
नानोग्रयातनान्नेयात्
तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ६ ॥
राजा
परीक्षित्ने कहा—भगवन् ! आप पहले (द्वितीय स्कन्धमें) निवृत्तिमार्गका वर्णन कर चुके हैं
तथा यह बतला चुके हैं कि उसके द्वारा अर्चिरादि मार्गसे जीव क्रमश: ब्रह्मलोकमें
पहुँचता है और फिर ब्रह्माके साथ मुक्त हो जाता है ॥ १ ॥ मुनिवर! इसके सिवा आपने
उस प्रवृत्तिमार्गका भी (तृतीय स्कन्धमें) भलीभाँति वर्णन किया है, जिससे त्रिगुणमय स्वर्ग आदि लोकोंकी प्राप्ति होती है और प्रकृतिका
सम्बन्ध न छूटनेके कारण जीवोंको बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें आना पड़ता है ॥ २
॥ आपने यह भी बतलाया कि अधर्म करनेसे अनेक नरकोंकी प्राप्ति होती है और (पाँचवें
स्कन्धमें) उनका विस्तारसे वर्णन भी किया। (चौथे स्कन्धमें) आपने उस प्रथम
मन्वन्तरका वर्णन किया, जिसके अधिपति स्वायम्भुव मनु थे ॥ ३
॥ साथ ही (चौथे और पाँचवें स्कन्धमें) प्रियव्रत और उत्तानपादके वंशों तथा
चरित्रोंका एवं द्वीप, वर्ष, समुद्र,
पर्वत, नदी, उद्यान और
विभिन्न द्वीपोंके वृक्षोंका भी निरूपण किया ॥ ४ ॥ भूमण्डलकी स्थिति, उसके द्वीप-वर्षादि विभाग, उनके लक्षण तथा परमिाण,
नक्षत्रोंकी स्थिति, अतल-वितल आदि भू-विवर
(सात-पाताल) और भगवान्ने इन सबकी जिस प्रकार सृष्टि की—उसका
वर्णन भी सुनाया ॥ ५ ॥ महाभाग ! अब मैं वह उपाय जानना चाहता हूँ, जिसके अनुष्ठानसे मनुष्योंको अनेकानेक भयङ्कर यातनाओंसे पूर्ण नरकोंमें न
जाना पड़े। आप कृपा करके उसका उपदेश कीजिये ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध –पहला अध्याय..(पोस्ट०२)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
श्रीशुक
उवाच –
न
चेदिहैवापचितिं यथांहसः
कृतस्य कुर्यान् मनौक्तपाणिभिः ।
ध्रुवं
स वै प्रेत्य नरकानुपैति
ये कीर्तिता मे भवतः तिग्मयातनाः ॥ ७ ॥
तस्मात्पुरैवाश्विह
पापनिष्कृतौ
यतेत मृत्योरविपद्यतात्मना ।
दोषस्य
दृष्ट्वा गुरुलाघवं यथा
भिषक्चिकित्सेत रुजां निदानवित् ॥ ८ ॥
श्रीराजोवाच
–
दृष्टश्रुताभ्यां
यत्पापं जानन् अपि आत्मनोऽहितम् ।
करोति
भूयो विवशः प्रायश्चित्तमथो कथम् ॥ ९ ॥
क्वचित्
निवर्तते अभद्रात् क्वचित् चरति तत्पुनः ।
प्रायश्चित्तमथोऽपार्थं
मन्ये कुञ्जरशौचवत् ॥ १० ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—मनुष्य मन, वाणी और शरीरसे पाप करता है। यदि वह उन
पापोंका इसी जन्ममें प्रायश्चित्त न कर ले, तो मरनेके बाद
उसे अवश्य ही उन भयङ्कर यातनापूर्ण नरकोंमें जाना पड़ता है, जिनका
वर्णन मैंने तुम्हें (पाँचवें स्कन्धके अन्तमें) सुनाया है ॥ ७ ॥ इसलिये बड़ी
सावधानी और सजगताके साथ रोग एवं मृत्युके पहले ही शीघ्र-से-शीघ्र पापोंकी गुरुता
और लघुतापर विचार करके उनका प्रायश्चित्त कर डालना चाहिये, जैसे
मर्मज्ञ चिकित्सक रोगोंका कारण और उनकी गुरुता-लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर
डालता है ॥ ८ ॥
राजा
परीक्षित्ने पूछा—भगवन्! मनुष्य राजदण्ड, समाजदण्ड आदि लौकिक और शास्त्रोक्त
नरकगमन आदि पारलौकिक कष्टोंसे यह जानकर भी कि पाप उसका शत्रु है, पापवासनाओंसे विवश होकर बार-बार वैसे ही कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाता है।
ऐसी अवस्थामें उसके पापोंका प्रायश्चित्त कैसे सम्भव है ? ॥
९ ॥ मनुष्य कभी तो प्रायश्चित्त आदिके द्वारा पापोंसे छुटकारा पा लेता है, कभी फिर उन्हें ही करने लगता है। ऐसी स्थितिमें मैं समझता हूँ कि जैसे
स्नान करनेके बाद धूल डाल लेनेके कारण हाथीका स्नान व्यर्थ हो जाता है, वैसे ही मनुष्यका प्रायश्चित्त करना भी व्यर्थ ही है ॥ १० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०३)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
श्रीशुक
उवाच –
कर्मणा
कर्मनिर्हारो न ह्यात्यन्तिक इष्यते ।
अविद्वदधिकारित्वात्
प्रायश्चित्तं विमर्शनम् ॥ ११ ॥
नाश्नतः
पथ्यमेवान्नं व्याधयोऽभिभवन्ति हि ।
एवं
नियमकृद् राजन् शनैः क्षेमाय कल्पते ॥ १२ ॥
तपसा
ब्रह्मचर्येण शमेन च दमेन च ।
त्यागेन
सत्यशौचाभ्यां यमेन नियमेन वा ॥ १३ ॥
देहवाग्बुद्धिजं
धीरा धर्मज्ञाः श्रद्धयान्विताः ।
क्षिपन्त्यघं
महदपि वेणुगुल्ममिवानलः ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजीने
कहा—वस्तुत: कर्म के द्वारा ही कर्म का निर्बीज नाश नहीं होता; क्योंकि कर्म का अधिकारी अज्ञानी है। अज्ञान रहते पापवासनाएँ सर्वथा नहीं
मिट सकतीं। इसलिये सच्चा प्रायश्चित्त तो तत्त्वज्ञान ही है ॥ ११ ॥ जो पुरुष केवल
सुपथ्य का ही सेवन करता है, उसे रोग अपने वश में नहीं कर
सकते। वैसे ही परीक्षित् ! जो पुरुष नियमों का पालन करता है, वह धीरे-धीरे पाप- वासनाओं
से मुक्त हो कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान प्राप्त करने में समर्थ
होता है ॥ १२ ॥ जैसे बाँसों के झुरमुट में लगी आग बाँसों को जला डालती है—वैसे ही धर्मज्ञ और श्रद्धावान् धीर पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य,
इन्द्रियदमन, मनकी स्थिरता, दान, सत्य, बाहर-भीतरकी
पवित्रता तथा यम एवं नियम—इन नौ साधनोंसे मन, वाणी और शरीरद्वारा किये गये बड़े-से-बड़े पापोंको भी नष्ट कर देते हैं ॥
१३-१४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०४)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
केचित्केवलया
भक्त्या वासुदेवपरायणाः ।
अघं
धुन्वन्ति कार्त्स्न्येन नीहारमिव भास्करः ॥ १५ ॥
न
तथा ह्यघवान् राजन् पूयेत तप आदिभिः ।
यथा
कृष्णार्पितप्राणः तत्पूरुषनिषेवया ॥ १६ ॥
सध्रीचीनो
ह्ययं लोके पन्थाः क्षेमोऽकुतोभयः ।
सुशीलाः
साधवो यत्र नारायणपरायणाः ॥ १७ ॥
प्रायश्चित्तानि
चीर्णानि नारायणपराङ्मुखम् ।
न
निष्पुनन्ति राजेन्द्र सुराकुम्भमिवापगाः॥ १८ ॥
सकृन्मनः
कृष्णपदारविन्दयोः
र्निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह ।
न
ते यमं पाशभृतश्च तद्भटान्
स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः ॥ १९
॥
भगवान्की
शरणमें रहनेवाले भक्तजन,
जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्तिके द्वारा
अपने सारे पापोंको उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य
कुहरेको ॥ १५ ॥ परीक्षित् ! पापी पुरुषकी जैसी शुद्धि भगवान्को आत्मसमर्पण
करनेसे और उनके भक्तोंका सेवन करनेसे होती है, वैसी तपस्या
आदिके द्वारा नहीं होती ॥ १६ ॥ जगत्में यह भक्तिका पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है; क्योंकि इस मार्गपर
भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं ॥ १७ ॥ परीक्षित् ! जैसे
शराबसे भरे घड़ेको नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं, वैसे ही
बड़े-बड़े प्रायश्चित्त बार-बार किये जानेपर भी भगवद्विमुख मनुष्यको पवित्र
करनेमें असमर्थ हैं ॥ १८ ॥ जिन्होंने अपने भगवद्गुणानुरागी मन मधुकरको भगवान्
श्रीकृष्णके चरणारविन्द-मकरन्दका एक बार पान करा दिया, उन्होंने
सारे प्रायश्चित्त कर लिये। वे स्वप्नमें भी यमराज और उनके पाशधारी दूतोंको नहीं
देखते। फिर नरककी तो बात ही क्या है ॥ १९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०५)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
अत्र
च उदाहरन्ति इमं इतिहासं पुरातनम् ।
दूतानां
विष्णुयमयोः संवादस्तं निबोध मे ॥ २० ॥
कान्यकुब्जे
द्विजः कश्चित् दासीपतिरजामिलः ।
नाम्ना
नष्टसदाचारो दास्याः संसर्गदूषितः ॥ २१ ॥
बन्द्यक्षैः
कैतवैश्चौर्यैः गर्हितां वृत्तिमास्थितः ।
बिभ्रत्कुटुम्बं
अशुचिः यातयामास देहिनः ॥ २२ ॥
एवं
निवसतस्तस्य लालयानस्य तत्सुतान् ।
कालोऽत्यगान्
महान् राजन् नष्टाशीत्यायुषः समाः ॥ २३ ॥
तस्य
प्रवयसः पुत्रा दश तेषां तु योऽवमः ।
बालो
नारायणो नाम्ना पित्रोश्च दयितो भृशम् ॥ २४ ॥
स
बद्धहृदयस्तस्मिन् अर्भके कलभाषिणि ।
निरीक्षमाणस्तल्लीलां
मुमुदे जरठो भृशम् ॥ २५ ॥
भुञ्जानः
प्रपिबन् खादन् बालकं स्नेहयन्त्रितः ।
भोजयन्
पाययन्मूढो न वेदागतमन्तकम् ॥ २६ ॥
(शुकदेव जी कहते हैं) परीक्षित् ! इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन
इतिहास कहा करते हैं। उसमें भगवान् विष्णु और यमराजके दूतोंका संवाद है। तुम
मुझसे उसे सुनो ॥ २० ॥ कान्यकुब्ज नगर (कन्नौज)में एक दासीपति ब्राह्मण रहता था। उसका
नाम था अजामिल। दासीके संसर्ग से दूषित होनेके कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था ॥
२१ ॥ वह पतित कभी बटोहियोंको बाँधकर उन्हें लूट लेता, कभी
लोगोंको जूएके छलसे हरा देता, किसीका धन धोखा-धड़ीसे ले लेता
तो किसीका चुरा लेता। इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्तिका आश्रय लेकर वह अपने
कुटुम्बका पेट भरता था और दूसरे प्राणियोंको बहुत ही सताता था ॥ २२ ॥ परीक्षित् !
इसी प्रकार वह वहाँ रहकर दासीके बच्चोंका लालन-पालन करता रहा। इस प्रकार उसकी
आयुका बहुत बड़ा भाग-अट्ठासी वर्ष—बीत गया ॥ २३ ॥ बूढ़े
अजामिलके दस पुत्र थे। उनमें सबसे छोटेका नाम था ‘नारायण’। माँ-बाप उससे बहुत प्यार करते थे ॥ २४ ॥ वृद्ध अजामिल ने अत्यन्त मोहके
कारण अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायण को सौंप दिया था। वह अपने बच्चेकी
तोतली बोली सुन-सुनकर तथा बालसुलभ खेल देख-देखकर फूला नहीं समाता था ॥ २५ ॥ अजामिल
बालकके स्नेह बन्धनमें बँध गया था। जब वह खाता तब उसे भी खिलाता, जब पानी पीता तो उसे भी पिलाता। इस प्रकार वह अतिशय मूढ़ हो गया था,
उसे इस बातका पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिरपर आ पहुँची है ॥ २६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०६)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
स
एवं वर्तमानोऽज्ञो मृत्युकाल उपस्थिते ।
मतिं
चकार तनये बाले नारायणाह्वये ॥ २७ ॥
स
पाशहस्तान् त्रीन् दृष्ट्वा पुरुषान् अति दारुणान् ।
वक्रतुण्डान्
ऊर्ध्वरोम्ण आत्मानं नेतुमागतान् ॥ २८ ॥
दूरे
क्रीडनकासक्तं पुत्रं नारायणाह्वयम् ।
प्लावितेन
स्वरेणोच्चैः आजुहावाकुलेन्द्रियः ॥ २९ ॥
निशम्य
म्रियमाणस्य मुखतो हरिकीर्तनम् ।
भर्तुर्नाम
महाराज पार्षदाः सहसाऽपतन् ॥ ३० ॥
विकर्षतोऽन्तर्हृदयाद्
दासीपतिमजामिलम् ।
यमप्रेष्यान्
विष्णुदूता वारयामासुरोजसा ॥ ३१ ॥
वह
मूर्ख इसी प्रकार अपना जीवन बिता रहा था कि मृत्युका समय आ पहुँचा। अब वह अपने
पुत्र बालक नारायणके सम्बन्धमें ही सोचने-विचारने लगा ॥ २७ ॥ इतनेमें ही अजामिल ने
देखा कि उसे ले जानेके लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथोंमें
फाँसी है,
मुँह टेढ़े-टेढ़े हैं और शरीरके रोएँ खड़े हुए हैं ॥ २८ ॥ उस समय
बालक नारायण वहाँसे कुछ दूरी पर खेल रहा था।
यमदूतोंको
देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने बहुत ऊँचे स्वरसे पुकारा— ‘नारायण !’ ॥ २९ ॥ भगवान् के पार्षदों ने देखा कि यह
मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायण का नाम ले रहा है, उनके
नाम का कीर्तन कर रहा है; अत: वे बड़े वेगसे झटपट वहाँ आ पहुंचे
||३०|| उस समय यमराज के दूत दासीपति अजामिल के शरीर में से उसके सूक्ष्म शरीर
को खींच रहे थे। विष्णुदूतों ने उन्हें बलपूर्वक रोक
दिया ॥ ३१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०७)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
ऊचुर्निषेधितास्तांस्ते
वैवस्वतपुरःसराः ।
के
यूयं प्रतिषेद्धारो धर्मराजस्य शासनम् ॥ ३२ ॥
कस्य
वा कुत आयाताः कस्मादस्य निषेधथ ।
किं
देवा उपदेवा या यूयं किं सिद्धसत्तमाः ॥ ३३ ॥
सर्वे
पद्मपलाशाक्षाः पीतकौशेयवाससः ।
किरीटिनः
कुण्डलिनो लसत्पुष्करमालिनः ॥ ३४ ॥
सर्वे
च नूत्नवयसः सर्वे चारुचतुर्भुजाः ।
धनुर्निषङ्गासिगदा
शङ्खचक्राम्बुजश्रियः ॥ ३५ ॥
दिशो
वितिमिरालोकाः कुर्वन्तः स्वेन तेजसा ।
किमर्थं
धर्मपालस्य किङ्करान्नो निषेधथ ॥ ३६ ॥
उनके
(विष्णुदूतों के) रोकनेपर यमराजके दूतोंने उनसे कहा—‘अरे,
धर्मराज की आज्ञाका निषेध करनेवाले तुमलोग हो कौन ? ॥ ३२ ॥ तुम किसके दूत हो, कहाँसे आये हो और इसे ले
जाने से हमें क्यों रोक रहे हो ? क्या तुमलोग कोई देवता,
उपदेवता अथवा सिद्धश्रेष्ठ हो ? ॥ ३३ ॥ हम
देखते हैं कि तुम सब लोगोंके नेत्र कमलदलके समान कोमलतासे भरे हैं, तुम पीले-पीले रेशमी वस्त्र पहने हो, तुम्हारे सिरपर
मुकुट, कानोंमें कुण्डल और गलोंमें कमलके हार लहरा रहे हैं ॥
३४ ॥ सबकी नयी अवस्था है, सुन्दर-सुन्दर चार-चार भुजाएँ हैं,
सभीके करकमलोंमें धनुष, तरकस, तलवार, गदा, शङ्ख, चक्र, कमल आदि सुशोभित हैं ॥ ३५ ॥ तुमलोगों की
अङ्गकान्ति से दिशाओंका अन्धकार और प्राकृत प्रकाश भी दूर हो रहा है। हम धर्मराजके
सेवक हैं। हमें तुमलोग क्यों रोक रहे हो ?’ ॥ ३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०८)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
श्रीशुक
उवाच –
इत्युक्ते
यमदूतैस्ते वासुदेवोक्तकारिणः ।
तान्
प्रत्यूचुः प्रहस्येदं मेघनिर्ह्रादया गिरा ॥ ३७ ॥
श्रीविष्णुदूता
ऊचुः -
यूयं
वै धर्मराजस्य यदि निर्देशकारिणः ।
ब्रूत
धर्मस्य नस्तत्त्वं यच्च धर्मस्य लक्षणम् ॥ ३८ ॥
कथं
स्विद् ध्रियते दण्डः किं वास्य स्थानमीप्सितम् ।
दण्ड्याः
किं कारिणः सर्वे आहो स्वित् कतिचिन्नृणाम् ॥ ३९ ॥
यमदूता
ऊचुः -
वेदप्रणिहितो
धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः ।
वेदो
नारायणः साक्षाय् स्वयम्भूः इति शुश्रुम ॥ ४० ॥
येन
स्वधाम्न्यमी भावा रजःसत्त्वतमोमयाः ।
गुणनामक्रियारूपैः
विभाव्यन्ते यथातथम् ॥ ४१ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब यमदूतोंने इस प्रकार कहा, तब भगवान्
नारायणके आज्ञाकारी पार्षदोंने हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनके प्रति यों कहा—
॥ ३७ ॥
भगवान्के
पार्षदोंने कहा—यमदूतो ! यदि तुमलोग सचमुच धर्मराजके आज्ञाकारी हो तो हमें धर्मका लक्षण
और धर्मका तत्त्व सुनाओ ॥ ३८ ॥ दण्ड किस प्रकार दिया जाता है ? दण्डका पात्र कौन है ? मनुष्योंमें सभी पापाचारी
दण्डनीय हैं अथवा उनमेंसे कुछ ही ? ॥ ३९ ॥
यमदूतोंने
कहा—वेदोंने जिन कर्मोंका विधान किया है, वे धर्म हैं और
जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान्के
स्वरूप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयंप्रकाश ज्ञान हैं—ऐसा हमने सुना है ॥ ४० ॥ जगत् के रजोमय, सत्त्वमय और
तमोमय—सभी पदार्थ, सभी प्राणी अपने परम
आश्रय भगवान्में ही स्थित रहते हैं। वेद ही उनके गुण, नाम,
कर्म और रूप आदिके अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं ॥ ४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट०९)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
सूर्योऽग्निः
खं मरुद्गावः सोमः सन्ध्याहनी दिशः ।
कं
कुः स्वयं धर्म इति ह्येते दैह्यस्य साक्षिणः ॥ ४२ ॥
एतैरधर्मो
विज्ञातः स्थानं दण्डस्य युज्यते ।
सर्वे
कर्मानुरोधेन दण्डमर्हन्ति कारिणः ॥ ४३ ॥
सम्भवन्ति
हि भद्राणि विपरीतानि चानघाः ।
कारिणां
गुणसङ्गोऽस्ति देहवान् न ह्यकर्मकृत् ४४ ॥
येन
यावान् यथाधर्मो धर्मो वेह समीहितः ।
स
एव तत्फलं भुङ्क्ते तथा तावदमुत्र वै ॥ ४५ ॥
यथेह
देवप्रवराः त्रैविध्यं उपलभ्यते ।
भूतेषु
गुणवैचित्र्यात् तथान्यत्रानुमीयते ॥ ४६ ॥
वर्तमानोऽन्ययोः
कालो गुणाभिज्ञापको यथा ।
एवं
जन्मान्ययोरेतद् धर्माधर्मनिदर्शनम् ॥ ४७ ॥
मनसैव
पुरे देवः पूर्वरूपं विपश्यति ।
अनुमीमांसतेऽपूर्वं
मनसा भगवानजः ॥ ४८ ॥
(यमदूत
कह रहे हैं) जीव शरीर अथवा मनोवृत्तियोंसे जितने कर्म करता है, उसके साक्षी रहते हैं—सूर्य, अग्नि,
आकाश, वायु, इन्द्रियाँ,
चन्द्रमा, सन्ध्या, रात,
दिन, दिशाएँ, जल,
पृथ्वी, काल और धर्म ॥४२॥ इनके द्वारा अधर्म का
पता चल जाता है और तब दण्डके पात्रका निर्णय होता है। पाप कर्म करनेवाले सभी
मनुष्य अपने-अपने कर्मोंके अनुसार दण्डनीय होते हैं ॥ ४३ ॥ निष्पाप पुरुषो ! जो
प्राणी कर्म करते हैं, उनका गुणोंसे सम्बन्ध रहता ही है।
इसीलिये सभीसे कुछ पाप और कुछ पुण्य होते ही हैं और देहवान् होकर कोई भी पुरुष
कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता ॥ ४४ ॥ इस लोकमें जो मुनष्य जिस प्रकारका और जितना
अधर्म या धर्म करता है, वह परलोकमें उसका उतना और वैसा ही फल
भोगता है ॥ ४५ ॥ देवशिरोमणियो ! सत्त्व, रज और तम—इन तीन गुणोंके भेदके कारण इस लोकमें भी तीन प्रकारके प्राणी दीख पड़ते
हैं—पुण्यात्मा, पापात्मा और पुण्य-पाप
दोनोंसे युक्त, अथवा सुखी, दुखी और
सुख-दु:ख दोनोंसे युक्त; वैसे ही परलोकमें भी उनकी
त्रिविधताका अनुमान किया जाता है ॥ ४६ ॥ वर्तमान समय ही भूत और भविष्यका अनुमान
करा देता है। वैसे ही वर्तमान जन्मके पाप-पुण्य भी भूत और भविष्य-जन्मोंके
पाप-पुण्यका अनुमान करा देते हैं ॥ ४७ ॥ हमारे स्वामी अजन्मा भगवान् सर्वज्ञ
यमराज सबके अन्त:करणोंमें ही विराजमान हैं। इसलिये वे अपने मनसे ही सबके
पूर्वरूपोंको देख लेते हैं। वे साथ ही उनके भावी स्वरूपका भी विचार कर लेते हैं ॥
४८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट१०)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
यथाज्ञस्तमसा
युक्त उपास्ते व्यक्तमेव हि ।
न
वेद पूर्वमपरं नष्टजन्मस्मृतिस्तथा ॥ ४९ ॥
पञ्चभिः
कुरुते स्वार्थान् पञ्च वेदाथ पञ्चभिः ।
एकस्तु
षोडशेन त्रीन् स्वयं सप्तदशोऽश्नुते ॥ ५० ॥
तदेतत्
षोडशकलं लिङ्गं शक्तित्रयं महत् ।
धत्तेऽनुसंसृतिं
पुंसि हर्षशोकभयार्तिदाम् ॥ ५१ ॥
(यमदूत
कह रहे हैं) जैसे सोया हुआ अज्ञानी पुरुष स्वप्नके समय प्रतीत हो रहे कल्पित
शरीरको ही अपना वास्तविक शरीर समझता है, सोये हुए अथवा
जागनेवाले शरीरको भूल जाता है, वैसे ही जीव भी अपने
पूर्वजन्मोंकी याद भूल जाता है और वर्तमान शरीरके सिवा पहले और पिछले शरीरोंके
सम्बन्धमें कुछ भी नहीं जानता ॥ ४९ ॥ सिद्धपुरुषो ! जीव इस शरीरमें पाँच
कर्मेन्द्रियोंसे लेना-देना, चलना-फिरना आदि काम करता है,
पाँच ज्ञानेन्द्रियोंसे रूप-रस आदि पाँच विषयोंका अनुभव करता है और
सोलहवें मनके साथ सत्रहवाँ वह स्वयं मिलकर अकेले ही मन, ज्ञानेन्द्रिय
और कर्मेन्द्रिय—इन तीनोंके विषयोंको भोगता है ॥ ५० ॥ जीवका
यह सोलह कला और सत्त्वादि तीन गुणोंवाला लिङ्गशरीर अनादि है। यही जीवको बार-बार
हर्ष, शोक, भय और पीड़ा देनेवाले
जन्म-मृत्युके चक्करमें डालता है ॥ ५१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट११)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
देह्यज्ञोऽजितषड्वर्गो
नेच्छन् कर्माणि कार्यते ।
कोशकार
इवात्मानं कर्मणाऽऽच्छाद्य मुह्यति ॥ ५२ ॥
न
हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते
ह्यवशः कर्म गुणैः स्वाभाविकैर्बलात् ॥ ५३ ॥
लब्ध्वा
निमित्तमव्यक्तं व्यक्ताव्यक्तं भवत्युत ।
यथायोनि
यथाबीजं स्वभावेन बलीयसा ॥ ५४ ॥
एष
प्रकृतिसङ्गेन पुरुषस्य विपर्ययः ।
आसीत्स
एव न चिराद् ईशसङ्गाद् विलीयते ॥ ५५ ॥
जो
जीव अज्ञानवश काम,
क्रोध, लोभ, मोह,
मद, मत्सर—इन छ:
शत्रुओंपर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए
भी विभिन्न वासनाओंके अनुसार अनेकों कर्म करने पड़ते हैं। वैसी स्थितिमें वह
रेशमके कीड़ेके समान अपनेको कर्मके जालमें जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों
मोहका शिकार बन जाता है ॥ ५२ ॥ कोई शरीरधारी जीव बिना कर्म किये कभी एक क्षण भी
नहीं रह सकता। प्रत्येक प्राणीके स्वाभाविक गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म
कराते हैं ॥ ५३ ॥ जीव अपने पूर्वजन्मोंके पाप-पुण्यमय संस्कारोंके अनुसार स्थूल और
सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है। उसकी स्वाभाविक एवं प्रबल वासनाएँ कभी उसे
माताके-जैसा (स्त्रीरूप) बना देती हैं, तो कभी पिताके- जैसा
(पुरुषरूप) ॥ ५४ ॥ प्रकृतिका संसर्ग होनेसे ही पुरुष अपनेको अपने वास्तविक
स्वरूपके विपरीत लिङ्गशरीर मान बैठा है। यह विपर्यय भगवान्के भजनसे शीघ्र ही दूर
हो जाता है ॥ ५५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट१२)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
अयं
हि श्रुतसम्पन्नः शीलवृत्तगुणालयः ।
धृतव्रतो
मृदुर्दान्तः सत्यवान् मंत्रविच्छुचिः ॥ ५६ ॥
गुर्वग्न्यतिथिवृद्धानां
शुश्रूषुर्निरहङ्कृतः ।
सर्वभूतसुहृत्साधुः
मिर्मितवागनसूयकः ॥ ॥ ५७ ॥
एकदासौ
वनं यातः पितृसन्देशकृद् द्विजः ।
आदाय
तत आवृत्तः फलपुष्पसमित्कुशान् ॥ ५८ ॥
ददर्श
कामिनं कञ्चित् शूद्रं सह भुजिष्यया ।
पीत्वा
च मधु मैरेयं मदाघूर्णितनेत्रया ॥ ५९ ॥
मत्तया
विश्लथन्नीव्या व्यपेतं निरपत्रपम् ।
क्रीडन्तं
अनुगायन्तं हसन्तमनयान्तिके ॥ ६० ॥
(यमदूत
कह रहे हैं) देवताओ ! आप जानते ही हैं कि यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद्गुणोंका तो यह खजाना ही था। ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ,
मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था ॥ ५६ ॥ इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्ध पुरुषों की सेवा की थी।
अहंकार तो इसमें था ही नहीं। यह समस्त प्राणियों का हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकता के अनुसार ही बोलता और किसी के
गुणों में दोष नहीं ढूँढ़ता था ॥ ५७ ॥ एक दिन यह ब्राह्मण अपने पिता के आदेशानुसार
वन में गया और वहाँसे फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घरके लिये
लौटा ॥ ५८ ॥ लौटते समय इसने देखा कि एक भ्रष्ट शूद्र, जो
बहुत कामी और निर्लज्ज है, शराब पीकर किसी वेश्या के साथ
विहार कर रहा है। वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। नशे के कारण उसकी आँखें
नाच रही हैं, वह अर्धनग्न अवस्था में हो रही है। वह शूद्र उस
वेश्या के साथ कभी गाता, कभी हँसता और कभी तरह-तरह की चेष्टाएँ
करके उसे प्रसन्न करता है ॥५९-६० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
षष्ठ
स्कन्ध – पहला
अध्याय..(पोस्ट१३)
अजामिलोपाख्यानका
प्रारम्भ
दृष्ट्वा
तां कामलिप्तेन बाहुना परिरम्भिताम् ।
जगाम
हृच्छयवशं सहसैव विमोहितः ॥ ६१ ॥
स्तम्भयन्
आत्मनात्मानं यावत्सत्त्वं यथाश्रुतम् ।
न
शशाक समाधातुं मनो मदनवेपितम् ॥ ६२ ॥
तन्निमित्तस्मरव्याज
ग्रहग्रस्तो विचेतनः ।
तामेव
मनसा ध्यायन् स्वधर्माद् विरराम ह ॥ ६३ ॥
तामेव
तोषयामास पित्र्येणार्थेन यावता ।
ग्राम्यैर्मनोरमैः
कामैः प्रसीदेत यथा तथा ॥ ६४ ॥
विप्रां
स्वभार्यामप्रौढां कुले महति लम्भिताम् ।
विससर्जाचिरात्पापः
स्वैरिण्यापाङ्गविद्धधीः ॥ ६५ ॥
यतस्ततश्चोपनिन्ये
न्यायतोऽन्यायतो धनम् ।
बभारास्याः
कुटुम्बिन्याः कुटुम्बं मन्दधीरयम् ॥ ६६ ॥
यदसौ
शास्त्रमुल्लङ्घ्य स्वैरचार्यतिगर्हितः ।
अवर्तत
चिरं कालं अघायुः अशुचिर्मलात् ॥ ६७ ॥
तत
एनं दण्डपाणेः सकाशं कृतकिल्बिषम् ।
नेष्यामोऽकृतनिर्वेशं
यत्र दण्डेन शुद्ध्यति ॥ ६८ ॥
(यमदूत
कह रहे हैं) निष्पाप पुरुषो ! शूद्रकी भुजाओंमें अङ्गरागादि कामोद्दीपक वस्तुएँ
लगी हुर्ई थीं और वह उनसे उस कुलटाका आलिङ्गन कर रहा था। अजामिल उन्हें इस
अवस्थामें देखकर सहसा मोहित और कामके वश हो गया ॥ ६१ ॥ यद्यपि अजामिलने अपने धैर्य
और ज्ञानके अनुसार अपने काम-वेगसे विचलित मनको रोकनेकी बहुत-बहुत चेष्टाएँ कीं, परन्तु पूरी शक्ति लगा देनेपर भी वह अपने मनको रोकनेमें असमर्थ रहा ॥ ६२ ॥
उस वेश्याको निमित्त बनाकर काम-पिशाचने अजामिलके मनको ग्रस लिया। इसकी सदाचार और
शास्त्रसम्बन्धी चेतना नष्ट हो गयी। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्या का चिन्तन करने लगा
और अपने धर्म से विमुख हो गया ॥ ६३ ॥ अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण आदि
वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले
आता। यहाँ तक कि इसने अपने पिता की सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटा को रिझाया। यह
ब्राह्मण उसी प्रकारकी चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न
हो ॥ ६४ ॥ उस स्वच्छन्दचारिणी कुलटा की तिरछी चितवनने इसके मनको ऐसा लुभा लिया कि
इसने अपनी कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नीतकका परित्याग कर दिया। इसके पापकी भी
भला कोई सीमा है ॥ ६५ ॥ यह कुबुद्धि न्यायसे, अन्यायसे जैसे
भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहींसे उठा लाता। उस वेश्याके
बड़े कुटुम्बका पालन करनेमें ही यह व्यस्त रहता ॥ ६६ ॥ इस पापीने शास्त्राज्ञाका
उल्लङ्घन करके स्वच्छन्द आचरण किया है। यह सत्पुरुषोंके द्वारा निन्दित है। इसने
बहुत दिनोंतक वेश्याके मल-समान अपवित्र अन्नसे अपना जीवन व्यतीत किया है, इसका सारा जीवन ही पापमय है ॥ ६७ ॥ इसने अबतक अपने पापोंका कोई
प्रायश्चित्त भी नहीं किया है। इसलिये अब हम इस पापीको दण्डपाणि भगवान् यमराजके
पास ले जायँगे। वहाँ यह अपने पापोंका दण्ड भोगकर शुद्ध हो जायगा ॥ ६८ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
षष्ठस्कन्धे
अजामिलोपाख्याने प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000000
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें