॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
सूर्यके
रथ और उसकी गतिका वर्णन
श्रीशुक उवाच
एतावानेव
भूवलयस्य सन्निवेशः प्रमाणलक्षणतो व्याख्यातः ||१||
एतेन
हि दिवो मण्डलमानं तद्विद उपदिशन्ति यथा द्विदलयोर्निष्पावादीनां ते
अन्तरेणान्तरिक्षं तदुभयसन्धितम् ||२||
यन्मध्यगतो
भगवांस्तपतां पतिस्तपन आतपेन त्रिलोकीं प्रतपत्यवभासयत्यात्मभासा स एष उदगयन
दक्षिणायन वैषुवतसंज्ञाभिर्मान्द्यशैघ्र्यसमानाभिर्गतिभिरारोहणावरोहणसमानस्थानेषु
यथासवनमभिपद्यमानो मकरादिषु राशिष्वहोरात्राणि दीर्घह्रस्वसमानानि विधत्ते ||३||
यदा
मेषतुलयोर्वर्तते तदाहोरात्राणि समानानि भवन्ति यदा वृषभादिषु पञ्चसु च राशिषु
चरति तदाहान्येव वर्धन्ते ह्रसति च मासि मास्येकैका घटिका रात्रिषु ||४||
यदा
वृश्चिकादिषु पञ्चसु वर्तते तदाहोरात्राणि विपर्ययाणि भवन्ति ||५||
यावद्दक्षिणायनमहानि
वर्धन्ते यावदुदगयनं रात्रयः||६||
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—राजन् ! परिमाण और लक्षणोंके सहित इस भूमण्डलका कुल इतना ही विस्तार है,
सो हमने तुम्हें बता दिया ॥ १ ॥ इसीके अनुसार विद्वान लोग द्युलोक का
भी परिमाण बताते हैं। जिस प्रकार चना-मटर आदि के दो दलोंमेंसे एकका स्वरूप जान
लेने से दूसरेका भी जाना जा सकता है, उसी प्रकार भूर्लोकके
परिमाणसे ही द्युलोकका भी परिमाण जान लेना चाहिये। इन दोनोंके बीचमें अन्तरिक्षलोक
है। यह इन दोनोंका सन्धिस्थान है ॥ २ ॥ इसके मध्यभागमें स्थित ग्रह और नक्षत्रोंके
अधिपति भगवान् सूर्य अपने ताप और प्रकाशसे तीनों लोकोंको तपाते और प्रकाशित करते
रहते हैं। वे उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत् नामवाली क्रमश:
मन्द, शीघ्र और समान गतियोंसे चलते हुए समयानुसार मकरादि
राशियोंमें ऊँचे-नीचे और समान स्थानोंमें जाकर दिन-रातको बड़ा, छोटा या समान करते हैं ॥ ३ ॥ जब सूर्यभगवान् मेष या तुला राशिपर आते हैं,
तब दिन-रात समान हो जाते हैं; जब वृषादि पाँच
राशियोंमें चलते हैं, तब प्रतिमास रात्रियोंमें एक-एक घड़ी
कम होती जाती है और उसी हिसाबसे दिन बढ़ते जाते हैं ॥ ४ ॥ जब वृश्चिकादि पाँच
राशियोंमें चलते हैं, तब दिन और रात्रियोंमें इसके विपरीत
परिवर्तन होता है ॥ ५ ॥ इस प्रकार दक्षिणायन आरम्भ होनेतक दिन बढ़ते रहते हैं और
उत्तरायण लगने तक रात्रियाँ ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
सूर्यके
रथ और उसकी गतिका वर्णन
एवं
नव कोटय एकपञ्चाशल्लक्षाणि योजनानां मानसोत्तरगिरि-परिवर्तनस्योपदिशन्ति
तस्मिन्नैन्द्रीं पुरीं पूर्वस्मान्मेरोर्देवधानीं नाम दक्षिणतो याम्यां संयमनीं
नाम पश्चाद्वारुणीं निम्लोचनीं नाम उत्तरतः सौम्यां विभावरीं नाम
तासूदयमध्याह्नास्तमयनिशीथानीति भूतानां प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्तानि समयविशेषेण
मेरोश्चतुर्दिशम् ||७||
तत्रत्यानां
दिवसमध्यङ्गत एव सदादित्यस्तपति सव्येनाचलं दक्षिणेन करोति ||८||
यत्रोदेति
तस्य ह समानसूत्रनिपाते निम्लोचति यत्र क्वचन स्यन्देनाभितपति तस्य हैष
समानसूत्रनिपाते प्रस्वापयति तत्र गतं न पश्यन्ति ये तं समनुपश्येरन् ||९||
इस
प्रकार पण्डितजन मानसोत्तर पर्वतपर सूर्यकी परिक्रमाका मार्ग नौ करोड़, इक्यावन लाख योजन बताते हैं। उस पर्वतपर मेरुके पूर्वकी ओर इन्द्रकी
देवधानी, दक्षिणमें यमराजकी संयमनी, पश्चिममें
वरुणकी निम्लोचनी और उत्तरमें चन्द्रमाकी विभावरी नामकी पुरियाँ हैं। इन
पुरियोंमें मेरुके चारों ओर समय-समयपर सूर्योदय, मध्याह्न,
सायंकाल और अर्धरात्रि होते रहते हैं; इन्हींके
कारण सम्पूर्ण जीवोंकी प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है ॥ ७ ॥ राजन् ! जो लोग
सुमेरुपर रहते हैं उन्हें तो सूर्यदेव सदा मध्याह्नकालीन रहकर ही तपाते रहते हैं।
वे अपनी गतिके अनुसार अश्विनी आदि नक्षत्रोंकी ओर जाते हुए यद्यपि मेरुको बायीं ओर
रखकर चलते हैं तो भी सारे ज्योतिर्मण्डलको घुमानेवाली निरन्तर दायीं ओर बहती हुई
प्रवह वायुद्वारा घुमा दिये जानेसे वे उसे दायीं ओर रखकर चलते जान पड़ते हैं ॥ ८ ॥
जिस पुरीमें सूर्यभगवान्का उदय होता है, उसके ठीक दूसरी
ओरकी पुरीमें वे अस्त होते मालूम होंगे और जहाँ वे लोगोंको पसीने-पसीने करके तपा
रहे होंगे, उसके ठीक सामनेकी ओर आधी रात होनेके कारण वे
उन्हें निद्रावश किये होंगे। जिन लोगोंको मध्याह्नके समय वे स्पष्ट दीख रहे होंगे,
वे ही जब सूर्य सौम्यदिशामें पहुँच जायँ, तब
उनका दर्शन नहीं कर सकेंगे ॥ ९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
सूर्यके
रथ और उसकी गतिका वर्णन
यदा
चैन्द्र्याः पुर्याः प्रचलते पञ्चदशघटिकाभिर्याम्यां सपादकोटिद्वयं योजनानां
सार्धद्वादशलक्षाणि साधिकानि चोपयाति ||१०||
एवं
ततो वारुणीं सौम्यामैन्द्रीं च पुनस्तथान्ये च ग्रहाः सोमादयो नक्षत्रैः सह
ज्योतिश्चक्रे समभ्युद्यन्ति सह वा निम्लोचन्ति ||११||
एवं
मुहूर्तेन चतुस्त्रिंशल्लक्षयोजनान्यष्टशताधिकानि सौरो रथस्त्रयीमयोऽसौ चतसृषु
परिवर्तते पुरीषु ||१२||
यस्यैकं
चक्रं द्वादशारं षण्नेमि त्रिणाभि संवत्सरात्मकं समामनन्ति तस्याक्षो
मेरोर्मूर्धनि कृतो मानसोत्तरे कृतेतरभागो यत्र प्रोतं रविरथचक्रं
तैलयन्त्रचक्रवद्भ्रमन्मानसोत्तरगिरौ परिभ्रमति ||१३||
तस्मिन्नक्षे
कृतमूलो द्वितीयोऽक्षस्तुर्यमानेन सम्मितस्तैलयन्त्राक्षवद्ध्रुवे कृतोपरिभागः ||१४||
सूर्यदेव
जब इन्द्रकी पुरीसे यमराजकी पुरीको चलते हैं, तब पंद्रह घड़ीमें
वे सवा दो करोड़ और साढ़े बारह लाख योजनसे कुछ—पचीस हजार
योजन— अधिक चलते हैं ॥ १० ॥ फिर इसी क्रमसे वे वरुण और
चन्द्रमाकी पुरियोंको पार करके पुन: इन्द्रकी पुरीमें पहुँचते हैं। इस प्रकार
चन्द्रमा आदि अन्य ग्रह भी ज्योतिश्चक्रमें अन्य नक्षत्रोंके साथ-साथ उदित और अस्त
होते रहते हैं ॥ ११ ॥ इस प्रकार भगवान्सूर्यका वेदमय रथ एक मुहूत्र्तमें चौंतीस
लाख आठ सौ योजनके हिसाबसे चलता हुआ इन चारों पुरियोंमें घूमता रहता है ॥ १२ ॥
इसका
संवत्सर नामका एक चक्र (पहिया) बतलाया जाता है। उसमें मासरूप बारह अरे हैं, ऋतुरूप छ: नेमियाँ(हाल) हैं, तीन चौमासेरूप तीन नाभि
(आँवन) हैं। इस रथकी धुरीका एक सिरा मेरुपर्वतकी चोटीपर है और दूसरा मानसोत्तर
पर्वतपर। इसमें लगा हुआ यह पहिया कोल्हूके पहियेके समान घूमता हुआ मानसोत्तर
पर्वतके ऊपर चक्कर लगाता है ॥ १३ ॥ इस धुरीमें—जिसका मूल भाग
जुड़ा हुआ है, ऐसी एक धुरी और है। वह लंबाईमें इससे चौथाई
है। उसका ऊपरी भाग तैलयन्त्र के धुरे के समान ध्रुवलोकसे लगा हुआ है ॥ १४ ॥
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
पंचम
स्कन्ध – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
सूर्यके
रथ और उसकी गतिका वर्णन
रथनीडस्तु
षट्त्रिंशल्लक्षयोजनायतस्तत्तुरीयभागविशालस्तावान्रविरथयुगो यत्र हयाश्छन्दोनामानः
सप्तारुणयोजिता वहन्ति देवमादित्यम् ||१५||
पुरस्तात्सवितुररुणः
पश्चाच्च नियुक्तः सौत्ये कर्मणि किलास्ते ||१६||
तथा
वालखिल्या ऋषयोऽङ्गुष्ठपर्वमात्राः षष्टिसहस्राणि पुरतः सूर्यं सूक्तवाकाय
नियुक्ताः संस्तुवन्ति ||१७||
तथान्ये
च ऋषयो गन्धर्वाप्सरसो नागा ग्रामण्यो यातुधाना देवा इत्येकैकशो गणाः सप्त चतुर्दश
मासि मासि भगवन्तं सूर्यमात्मानं नानानामानं पृथङ्नानानामानः
पृथक्कर्मभिर्द्वन्द्वश उपासते ||१८||
लक्षोत्तरं
सार्धनवकोटियोजनपरिमंडलं भूवलयस्य क्षणेन सगव्यूत्युत्तरं द्विसहस्रयोजनानि स
भुङ्क्ते ||१९||
इस
रथमें बैठनेका स्थान छत्तीस लाख योजन लंबा और नौ लाख योजन चौड़ा है। इसका जूआ भी
छत्तीस लाख योजन ही लंबा है। उसमें अरुण नामके सारथि ने गायत्री आदि छन्दों के-से
नामवाले सात घोड़े जोत रखे हैं, वे ही इस रथपर बैठे हुए भगवान्
सूर्य को ले चलते हैं ॥ १५ ॥ सूर्यदेवके आगे उन्हींकी ओर मुँह करके बैठे हुए अरुण
उनके सारथि का कार्य करते हैं ॥ १६ ॥ भगवान् सूर्यके आगे अँगूठेके पोरुएके बराबर
आकारवाले वालखिल्यादि साठ हजार ऋषि स्वस्ति- वाचनके लिये नियुक्त हैं। वे उनकी
स्तुति करते रहते हैं ॥ १७ ॥ इनके अतिरिक्त ऋषि, गन्धर्व,
अप्सरा, नाग, यक्ष,
राक्षस और देवता भी—जो कुल मिलाकर चौदह हैं,
किन्तु जोड़ेसे रहनेके कारण सात गण कहे जाते हैं—प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न नामोंवाले होकर अपने भिन्न-भिन्न कर्मोंसे
प्रत्येक मासमें भिन्न-भिन्न नाम धारण करनेवाले आत्मस्वरूप भगवान् सूर्यकी दो-दो
मिलकर उपासना करते हैं ॥ १८ ॥ इस प्रकार भगवान् सूर्य भूमण्डलके नौ करोड़,
इक्यावन लाख योजन लंबे घेरेमेंसे प्रत्येक क्षणमें दो हजार दो
योजनकी दूरी पार कर लेते हैं ॥ १९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे
ज्योतिश्चक्रसूर्यरथमण्डलवर्णनं नामैकविंशोऽध्यायः
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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