॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०१)
ब्रह्मादि
देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
मैत्रेय
उवाच -
अथ
देवगणाः सर्वे रुद्रानीकैः पराजिताः ।
शूलपट्टिशनिस्त्रिंश
गदापरिघमुद्गरैः ॥ १ ॥
सञ्छिन्नभिन्नसर्वाङ्गाः
सर्त्विक्सभ्या भयाकुलाः ।
स्वयम्भुवे
नमस्कृत्य कार्त्स्न्येनैतन् न्यवेदयन् ॥ २ ॥
उपलभ्य
पुरैवैतद् भगवान् अब्जसम्भवः ।
नारायणश्च
विश्वात्मा न कस्याध्वरमीयतुः ॥ ३ ॥
तदाकर्ण्य
विभुः प्राह तेजीयसि कृतागसि ।
क्षेमाय
तत्र सा भूयात् नन्न प्रायेण बुभूषताम् ॥ ४ ॥
अथापि
यूयं कृतकिल्बिषा भवं
ये बर्हिषो भागभाजं परादुः ।
प्रसादयध्वं
परिशुद्धचेतसा
क्षिप्रप्रसादं प्रगृहीताङ्घ्रिपद्मम् ॥ ५
॥
आशासाना
जीवितमध्वरस्य
लोकः सपालः कुपिते न यस्मिन् ।
तमाशु
देवं प्रियया विहीनं
क्षमापयध्वं हृदि विद्धं दुरुक्तैः ॥ ६ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—विदुरजी ! इस प्रकार जब रुद्रके सेवकोंने समस्त देवताओंको हरा दिया और
उनके सम्पूर्ण अङ्ग-प्रत्यङ्ग भूत-प्रेतोंके त्रिशूल, पट्टिश,
खड्ग, गदा, परिघ और
मुद्गर आदि आयुधोंसे छिन्न-भिन्न हो गये तब वे ऋत्विज् और सदस्योंके सहित बहुत ही
डरकर ब्रह्माजीके पास पहुँचे और प्रणाम करके उन्हें सारा वृत्तान्त कह सुनाया ॥
१-२ ॥ भगवान् ब्रह्माजी और सर्वान्तर्यामी श्रीनारायण पहलेसे ही इस भावी उत्पातको
जानते थे, इसीसे वे दक्षके यज्ञमें नहीं गये थे ॥ ३ ॥ अब
देवताओंके मुखसे वहाँकी सारी बात सुनकर उन्होंने कहा, ‘देवताओ
! परम समर्थ तेजस्वी पुरुषसे कोई दोष भी बन जाय, तो भी उसके
बदलेमें अपराध करनेवाले मनुष्योंका भला नहीं हो सकता ॥ ४ ॥ फिर तुमलोगोंने तो
यज्ञमें भगवान् शङ्कर का प्राप्य भाग न देकर उनका बड़ा भारी अपराध किया है।
परन्तु शङ्करजी बहुत शीघ्र प्रसन्न होनेवाले हैं, इसलिये
तुमलोग शुद्ध हृदयसे उनके पैर पकड कर उन्हें प्रसन्न करो—उनसे
क्षमा माँगो ॥ ५ ॥
दक्षके
दुर्वचनरूपी बाणोंसे उनका हृदय तो पहलेसे ही बिंध रहा था, उसपर उनकी प्रिया सतीजीका वियोग हो गया। इसलिये यदि तुमलोग चाहते हो कि वह
यज्ञ फिरसे आरम्भ होकर पूर्ण हो, तो पहले जल्दी जाकर उनसे
अपने अपराधोंके लिये क्षमा माँगो। नहीं तो, उनके कुपित
होनेपर लोकपालोंके सहित इन समस्त लोकोंका भी बचना असम्भव है ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०२)
ब्रह्मादि
देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
नाहं
न यज्ञो न च यूयमन्ये
ये देहभाजो मुनयश्च तत्त्वम् ।
विदुः
प्रमाणं बलवीर्ययोर्वा
यस्यात्मतन्त्रस्य क उपायं विधित्सेत् ॥ ७ ॥
स
इत्थमादिश्य सुरानजस्तैः
समन्वितः पितृभिः सप्रजेशैः ।
ययौ
स्वधिष्ण्यान्निलयं पुरद्विषः
कैलासमद्रिप्रवरं प्रियं प्रभोः ॥ ८ ॥
जन्मौषधितपोमन्त्र
योगसिद्धैर्नरेतरैः ।
जुष्टं
किन्नरगन्धर्वैः अप्सरोभिर्वृतं सदा ॥ ९ ॥
नानामणिमयैः
शृङ्गैः नानाधातुविचित्रितैः ।
नानाद्रुमलतागुल्मैः
नानामृगगणावृतैः ॥ १० ॥
नानामलप्रस्रवणैः
नानाकन्दरसानुभिः ।
रमणं
विहरन्तीनां रमणैः सिद्धयोषिताम् ॥ ११ ॥
मयूरकेकाभिरुतं
मदान्धालिविमूर्च्छितम् ।
प्लावितै
रक्तकण्ठानां कूजितैश्च पतत्त्रिणाम् ॥ १२ ॥
आह्वयन्तं
इवोद्धस्तैः द्विजान् कामदुघैर्द्रुमैः ।
व्रजन्तमिव
मातङ्गैः गृणन्तमिव निर्झरैः ॥ १३ ॥
मन्दारैः
पारिजातैश्च सरलैश्चोपशोभितम् ।
तमालैः
शालतालैश्च कोविदारासनार्जुनैः ॥ १४ ॥
चूतैः
कदम्बैर्नीपैश्च नागपुन्नाग चम्पकैः ।
पाटलाशोकबकुलैः
कुन्दैः कुरबकैरपि ॥ १५ ॥
स्वर्णार्णशतपत्रैश्च
वररेणुकजातिभिः ।
कुब्जकैर्मल्लिकाभिश्च
माधवीभिश्च मण्डितम् ॥ १६ ॥
पनसोदुम्बराश्वत्थ
प्लक्ष न्यग्रोधहिङ्गुभिः ।
भूर्जैरोषधिभिः
पूगै राजपूगैश्च जम्बुभिः ॥ १७ ॥
खर्जूराम्रातकाम्राद्यैः
प्रियाल मधुकेङ्गुदैः ।
द्रुमजातिभिरन्यैश्च
राजितं वेणुकीचकैः ॥ १८ ॥
(भगवान्
ब्रह्माजी कह रहे हैं कि) भगवान् रुद्र परम स्वतन्त्र हैं, उनके तत्त्व और शक्ति-सामर्थ्य को न तो कोई ऋषि-मुनि, देवता और यज्ञ-स्वरूप देवराज इन्द्र ही जानते हैं और न स्वयं मैं ही जानता
हूँ; फिर दूसरोंकी तो बात ही क्या है। ऐसी अवस्थामें उन्हें
शान्त करनेका उपाय कौन कर सकता है’ ॥ ७ ॥
देवताओंसे
इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी उनको, प्रजापतियोंको और पितरोंको साथ
ले अपने लोकसे पर्वतश्रेष्ठ कैलासको गये, जो भगवान् शङ्करका
प्रिय धाम है ॥ ८ ॥ उस कैलास पर ओषधि, तप, मन्त्र तथा योग आदि उपायोंसे सिद्धिको प्राप्त हुए और जन्मसे ही सिद्ध
देवता नित्य निवास करते हैं; किन्नर, गन्धर्व
और अप्सरादि सदा वहाँ बने रहते हैं ॥ ९ ॥ उसके मणिमय शिखर हैं, जो नाना प्रकारकी धातुओंसे रंग-बिरंगे प्रतीत होते हैं। उसपर अनेक
प्रकारके वृक्ष, लता और गुल्मादि छाये हुए हैं, जिनमें झुंड-के-झुंड जंगली पशु विचरते रहते हैं ॥ १० ॥ वहाँ निर्मल जलके
अनेकों झरने बहते हैं और बहुत-सी गहरी कन्दरा और ऊँचे शिखरोंके कारण वह पर्वत अपने
प्रियतमोंके साथ विहार करती हुई सिद्धपत्नियोंका क्रीडा-स्थल बना हुआ है ॥ ११ ॥ वह
सब ओर मोरोंके शोर, मदान्ध भ्रमरोंके गुंजार, कोयलोंकी कुहू-कुहू ध्वनि तथा अन्यान्य पक्षियोंके कलरवसे गूँज रहा है ॥
१२ ॥ उसके कल्पवृक्ष अपनी ऊँची-ऊँची डालियोंको हिला-हिलाकर मानो पक्षियोंको बुलाते
रहते हैं। तथा हाथियोंके चलने-फिरनेके कारण वह कैलास स्वयं चलता हुआ-सा और झरनोंकी
कलकल-ध्वनिसे बातचीत करता हुआ-सा जान पड़ता है ॥ १३ ॥
मन्दार, पारिजात, सरल, तमाल, शाल, ताड़, कचनार, असन और अर्जुनके वृक्षोंसे वह पर्वत बड़ा ही सुहावना जान पड़ता है ॥ १४ ॥
आम, कदम्ब, नीप, नाग,
पुन्नाग, चम्पा, गुलाब,
अशोक, मौलसिरी, कुन्द,
कुरबक, सुनहरे शतपत्र कमल, इलायची और मालतीकी मनोहर लताएँ तथा कुब्जक, मोगरा और
माधवीकी बेलें भी उसकी शोभा बढ़ाती हैं ॥ १५-१६ ॥ कटहल, गूलर,
पीपल, पाकर, बड़,
गूगल, भोजवृक्ष, ओषध
जातिके पेड़ (केले आदि, जो फल आनेके बाद काट दिये जाते हैं),
सुपारी, राजपूग, जामुन,
खजूर, आमड़ा, आम,
पियाल, महुआ और लिसौड़ा आदि विभिन्न प्रकारके
वृक्षों तथा पोले और ठोस बाँसके झुरमुटोंसे वह पर्वत बड़ा ही मनोहर मालूम होता है
॥ १७-१८ ॥
शेष
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0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०३)
ब्रह्मादि
देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
कुमुदोत्पलकह्लार
शतपत्रवनर्द्धिभिः ।
नलिनीषु
कलं कूजत् खगवृन्दोपशोभितम् ॥ १९ ॥
मृगैः
शाखामृगैः क्रोडैः मृगेन्द्रैः ऋक्षशल्यकैः ।
गवयैः
शरभैर्व्याघ्रै रुरुभिर्महिषादिभिः ॥ २० ॥
कर्णान्त्रैकपदाश्वास्यैः
निर्जुष्टं वृकनाभिभिः ।
कदलीखण्डसंरुद्ध
नलिनीपुलिनश्रियम् ॥ २१ ॥
पर्यस्तं
नन्दया सत्याः स्नानपुण्यतरोदया ।
विलोक्य
भूतेशगिरिं विबुधा विस्मयं ययुः ॥ २२ ॥
ददृशुस्तत्र
ते रम्यां अलकां नाम वै पुरीम् ।
वनं
सौगन्धिकं चापि यत्र तन्नाम पङ्कजम् ॥ २३ ॥
नन्दा
च अलकनन्दा च सरितौ बाह्यतः पुरः ।
तीर्थपादपदाम्भोज
रजसातीव पावने ॥ २४ ॥
ययोः
सुरस्त्रियः क्षत्तः अवरुह्य स्वधिष्ण्यतः ।
क्रीडन्ति
पुंसः सिञ्चन्त्यो विगाह्य रतिकर्शिताः ॥ २५ ॥
ययोः
तत्स्नानविभ्रष्ट नवकुङ्कुमपिञ्जरम् ।
वितृषोऽपि
पिबन्त्यम्भः पाययन्तो गजा गजीः ॥ २ ॥
तारहेम
महारत्न विमानशतसङ्कुलाम् ।
जुष्टां
पुण्यजनस्त्रीभिः यथा खं सतडिद्घनम् ॥ २७ ॥
हित्वा
यक्षेश्वरपुरीं वनं सौगन्धिकं च तत् ।
द्रुमैः
कामदुघैर्हृद्यं चित्रमाल्यफलच्छदैः ॥ २८ ॥
रक्तकण्ठखगानीक
स्वरमण्डितषट्पदम् ।
कलहंसकुलप्रेष्ठं
खरदण्डजलाशयम् ॥ २९ ॥
वनकुञ्जर
सङ्घृष्ट हरिचन्दनवायुना ।
अधि
पुण्यजनस्त्रीणां मुहुरुन्मथयन्मनः ॥ ३० ॥
उसके
(कैलास के) सरोवरों में कुमुद, उत्पल, कल्हार
और शतपत्र आदि अनेक जातिके कमल खिले रहते हैं। उनकी शोभासे मुग्ध होकर कलरव करते
हुए झुंड-के-झुंड पक्षियोंसे वह बड़ा ही भला लगता है ॥ १९ ॥ वहाँ जहाँ-तहाँ हरिन,
वानर, सूअर, सिंह,
रीछ, साही, नीलगाय,
शरभ, बाघ, कृष्णमृग,
भैंसे, कर्णान्त्र, एकपद,
अश्वमुख, भेडिय़े और कस्तूरी-मृग घूमते रहते
हैं तथा वहाँके सरोवरोंके तट केलोंकी पङ्क्तियोंसे घिरे होनेके कारण बड़ी शोभा
पाते हैं। उसके चारों ओर नन्दा नामकी नदी बहती है, जिसका
पवित्र जल देवी सतीके स्नान करनेसे और भी पवित्र एवं सुगन्धित हो गया है। भगवान्
भूतनाथके निवासस्थान उस कैलासपर्वतकी ऐसी रमणीयता देखकर देवताओंको बड़ा आश्चर्य
हुआ ॥ २०—२२ ॥
वहाँ
उन्होंने अलका नामकी एक सुरम्य पुरी और सौगन्धिक वन देखा, जिसमें सर्वत्र सुगन्ध फैलानेवाले सौगन्धिक नामके कमल खिले हुए थे ॥ २३ ॥
उस नगरके बाहरकी ओर नन्दा और अलकनन्दा नामकी दो नदियाँ हैं; वे
तीर्थपाद श्रीहरिकी चरण-रजके संयोगसे अत्यन्त पवित्र हो गयी हैं ॥ २४ ॥ विदुरजी !
उन नदियोंमें रतिविलाससे थकी हुई देवाङ्गनाएँ अपने-अपने निवासस्थानसे आकर
जलक्रीड़ा करती हैं और उसमें प्रवेशकर अपने प्रियतमोंपर जल उलीचती हैं ॥ २५ ॥
स्नानके समय उनका तुरंतका लगाया हुआ कुचकुङ्कुम धुल जानेसे जल पीला हो जाता है। उस
कुङ्कुममिश्रित जलको हाथी प्यास न होनेपर भी गन्धके लोभसे स्वयं पीते और अपनी
हथिनियोंको पिलाते हैं ॥ २६ ॥
अलकापुरीपर
चाँदी,
सोने और बहुमूल्य मणियोंके सैकड़ों विमान छाये हुए थे, जिनमें अनेकों यक्षपत्नियाँ निवास करती थीं। इनके कारण वह विशाल नगरी
बिजली और बादलोंसे छाये हुए आकाशके समान जान पड़ती थी ॥ २७ ॥ यक्षराज कुबेरकी
राजधानी उस अलकापुरीको पीछे छोडक़र देवगण सौगन्धिक वनमें आये। वह वन रंग-बिरंगे फल,
फूल और पत्तोंवाले अनेकों कल्पवृक्षोंसे सुशोभित था ॥ २८ ॥ उसमें
कोकिल आदि पक्षियोंका कलरव और भौंरोंका गुंजार हो रहा था तथा राजहंसोंके परमप्रिय
कमलकुसुमोंसे सुशोभित अनेकों सरोवर थे ॥ २९ ॥ वह वन जंगली हाथियोंके शरीरकी रगड़
लगनेसे घिसे हुए हरिचन्दन वृक्षोंका स्पर्श करके चलनेवाली सुगन्धित वायुके द्वारा
यक्षपत्नियोंके मनको विशेषरूपसे मथे डालता था ॥ ३० ॥
शेष
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0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०४)
ब्रह्मादि
देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
वैदूर्यकृतसोपाना
वाप्य उत्पलमालिनीः ।
प्राप्तं
किम्पुरुषैर्दृष्ट्वा ते आराद् ददृशुर्वटम् ॥ ३१ ॥
स
योजनशतोत्सेधः पादोनविटपायतः ।
पर्यक्कृताचलच्छायो
निर्नीडस्तापवर्जितः ॥ ३२ ॥
तस्मिन्
महायोगमये मुमुक्षुशरणे सुराः ।
ददृशुः
शिवमासीनं त्यक्तामर्षमिवान्तकम् ॥ ३३ ॥
सनन्दनाद्यैर्महासिद्धैः
शान्तैः संशान्तविग्रहम् ।
उपास्यमानं
सख्या च भर्त्रा गुह्यकरक्षसाम् ॥ ३४ ॥
विद्यातपोयोगपथं
आस्थितं तमधीश्वरम् ।
चरन्तं
विश्वसुहृदं वात्सल्यात् लोकमङ्गलम् ॥ ३५ ॥
लिङ्गं
च तापसाभीष्टं भस्मदण्डजटाजिनम् ।
अङ्गेन
सन्ध्याभ्ररुचा चन्द्रलेखां च बिभ्रतम् ॥ ३६ ॥
उपविष्टं
दर्भमय्यां बृस्यां ब्रह्म सनातनम् ।
नारदाय
प्रवोचन्तं पृच्छते शृण्वतां सताम् ॥ ३७ ॥
कृत्वोरौ
दक्षिणे सव्यं पादपद्मं च जानुनि ।
बाहुं
प्रकोष्ठेऽक्षमालां आसीनं तर्कमुद्रया ॥ ३८ ॥
तं
ब्रह्मनिर्वाणसमाधिमाश्रितं
व्युपाश्रितं गिरिशं योगकक्षाम् ।
सलोकपाला
मुनयो मनूनां
आद्यं मनुं प्राञ्जलयः प्रणेमुः ॥ ३९ ॥
स
तूपलभ्यागतमात्मयोनिं
सुरासुरेशैरभिवन्दिताङ्घ्रिः ।
उत्थाय
चक्रे शिरसाभिवन्दन
मर्हत्तमः कस्य यथैव विष्णुः ॥ ४० ॥
तथापरे
सिद्धगणा महर्षिभिः
ये वै समन्तादनु नीललोहितम् ।
नमस्कृतः
प्राह शशाङ्कशेखरं
कृतप्रणामं प्रहसन्निवात्मभूः ॥ ४१ ॥
(कैलास
पर्वत पर) बावलियोंकी सीढिय़ाँ वैदूर्यमणिकी बनी हुई थीं। उनमें बहुत-से कमल खिले
रहते थे। वहाँ अनेकों किम्पुरुष जी बहलानेके लिये आये हुए थे। इस प्रकार उस वनकी
शोभा निहारते जब देवगण कुछ आगे बढ़े, तब उन्हें पास ही
एक वटवृक्ष दिखलायी दिया ॥ ३१ ॥
वह
वृक्ष सौ योजन ऊँचा था तथा उसकी शाखाएँ पचहत्तर योजनतक फैली हुई थीं। उसके चारों
ओर सर्वदा अविचल छाया बनी रहती थी, इसलिये घामका कष्ट
कभी नहीं होता था; तथा उसमें कोई घोंसला भी न था ॥ ३२ ॥ उस
महायोगमय और मुमुक्षुओंके आश्रयभूत वृक्षके नीचे देवताओंने भगवान् शङ्करको
विराजमान देखा। वे साक्षात् क्रोधहीन कालके समान जान पड़ते थे ॥ ३३ ॥ भगवान्
भूतनाथका श्रीअङ्ग बड़ा ही शान्त था। सनन्दनादि शान्त सिद्धगण और सखा—यक्ष- राक्षसोंके स्वामी कुबेर उनकी सेवा कर रहे थे ॥ ३४ ॥ जगत्पति
महादेवजी सारे संसारके सुहृद् हैं, स्नेहवश सबका कल्याण
करनेवाले हैं; वे लोकहितके लिये ही उपासना, चित्तकी एकाग्रता और समाधि आदि साधनोंका आचरण करते रहते हैं ॥ ३५ ॥
सन्ध्याकालीन मेघकी-सी कान्तिवाले शरीरपर वे तपस्वियोंके अभीष्ट चिह्न—भस्म, दण्ड, जटा और मृगचर्म
एवं मस्तकपर चन्द्रकला धारण किये हुए थे ॥ ३६ ॥ वे एक कुशासनपर बैठे थे और अनेकों
साधु श्रोताओंके बीचमें श्रीनारदजीके पूछनेसे सनातन ब्रह्मका उपदेश कर रहे थे ॥ ३७
॥ उनका बायाँ चरण दायीं जाँघपर रखा था। वे बायाँ हाथ बायें घुटनेपर रखे, कलाईमें रुद्राक्षकी माला डाले तर्कमुद्रासे[1] विराजमान
थे ॥ ३८ ॥ वे योगपट्ट (काठकी बनी हुई टेकनी)का सहारा लिये एकाग्र चित्तसे
ब्रह्मानन्दका अनुभव कर रहे थे। लोकपालोंके सहित समस्त मुनियोंने मननशीलोंमें
सर्वश्रेष्ठ भगवान् शङ्करको हाथ जोडक़र प्रणाम किया ॥ ३९ ॥ यद्यपि समस्त देवता और
दैत्योंके अधिपति भी श्रीमहादेवजीके चरणकमलोंकी वन्दना करते हैं, तथापि वे श्रीब्रह्माजीको अपने स्थानपर आया देख तुरंत खड़े हो गये और जैसे
वामनावतारमें परमपूज्य विष्णुभगवान् कश्यपजीकी वन्दना करते हैं, उसी प्रकार सिर झुकाकर उन्हें प्रणाम किया ॥ ४० ॥ इसी प्रकार शङ्करजीके
चारों ओर जो महर्षियोंसहित अन्यान्य सिद्धगण बैठे थे, उन्होंने
भी ब्रह्माजीको प्रणाम किया। सबके नमस्कार कर चुकनेपर ब्रह्माजीने चन्द्रमौलि
भगवान्से, जो अबतक प्रणामकी मुद्रामें ही खड़े थे, हँसते हुए कहा ॥ ४१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – छठा
अध्याय..(पोस्ट०५)
ब्रह्मादि
देवताओंका कैलास जाकर श्रीमहादेवजीको मनाना
ब्रह्मोवाच
-
जाने
त्वामीशं विश्वस्य जगतो योनिबीजयोः ।
शक्तेः
शिवस्य च परं यत्तद्ब्रह्मा निरन्तरम् ॥ ४२ ॥
त्वमेव
भगवन् एतत् शिवशक्त्योः स्वरूपयोः ।
विश्वं
सृजसि पास्यत्सि क्रीडन् ऊर्णपटो यथा ॥ ४३ ॥
त्वमेव
धर्मार्थदुघाभिपत्तये
दक्षेण सूत्रेण ससर्जिथाध्वरम् ।
त्वयैव
लोकेऽवसिताश्च सेतवो
यान्ब्राह्मणाः श्रद्दधते धृतव्रताः ॥ ४४ ॥
त्वं
कर्मणां मङ्गल मङ्गलानां
कर्तुः स्वलोकं तनुषे स्वः परं वा ।
अमङ्गलानां
च तमिस्रमुल्बणं
विपर्ययः केन तदेव कस्यचित् ॥ ४५ ॥
न
वै सतां त्वत् चरणार्पितात्मनां
भूतेषु सर्वेष्वभिपश्यतां तव ।
भूतानि
चात्मन्यपृथग्दिदृक्षतां
प्रायेण रोषोऽभिभवेद्यथा पशुम् ॥ ४६ ॥
पृथग्धियः
कर्मदृशो दुराशयाः
परोदयेनार्पितहृद्रुजोऽनिशम् ।
परान्
दुरुक्तैर्वितुदन्त्यरुन्तुदाः
तान्मावधीद् दैववधान् भवद्विधः ॥ ४७ ॥
यस्मिन्यदा
पुष्करनाभमायया
दुरन्तया स्पृष्टधियः पृथग्दृशः ।
कुर्वन्ति
तत्र ह्यनुकम्पया कृपां
न साधवो दैवबलात्कृते क्रमम् ॥ ४८ ॥
भवांस्तु
पुंसः परमस्य मायया
दुरन्तयास्पृष्टमतिः समस्तदृक् ।
तया
हतात्मस्वनुकर्मचेतः
स्वनुग्रहं कर्तुमिहार्हसि प्रभो ॥ ४९ ॥
कुर्वध्वरस्योद्धरणं
हतस्य भोः
त्वयासमाप्तस्य मनो प्रजापतेः ।
न
यत्र भागं तव भागिनो ददुः
कुयाजिनो येन मखो निनीयते ॥ ५० ॥
जीवताद्
यजमानोऽयं प्रपद्येताक्षिणी भगः ।
भृगोः
श्मश्रूणि रोहन्तु पूष्णो दन्ताश्च पूर्ववत् ॥ ५१ ॥
देवानां
भग्नगात्राणां ऋत्विजां चायुधाश्मभिः ।
भवतानुगृहीतानां
आशु मन्योऽस्त्वनातुरम् ॥ ५२ ॥
एष
ते रुद्र भागोऽस्तु यदुच्छिष्टोऽध्वरस्य वै ।
यज्ञस्ते
रुद्र भागेन कल्पतां अद्य यज्ञहन् ॥ ५३ ॥
श्रीब्रह्माजीने
(शङ्कर जी से) कहा—देव ! मैं जानता हूँ, आप सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं; क्योंकि
विश्वकी योनि शक्ति (प्रकृति) और उसके बीज शिव (पुरुष)-से परे जो एकरस परब्रह्म है,
वह आप ही हैं ॥ ४२ ॥ भगवन् ! आप मकड़ीके समान ही अपने स्वरूपभूत
शिव-शक्तिके रूपमें क्रीडा करते हुए लीलासे ही संसारकी रचना, पालन और संहार करते रहते हैं ॥ ४३ ॥ आपने ही धर्म और अर्थकी प्राप्ति
करानेवाले वेदकी रक्षाके लिये दक्षको निमित्त बनाकर यज्ञको प्रकट किया है। आपकी ही
बाँधी हुई ये वर्णाश्रमकी मर्यादाएँ हैं, जिनका नियमनिष्ठ
ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं ॥ ४४ ॥ मङ्गलमय महेश्वर ! आप शुभ कर्म
करनेवालोंको स्वर्गलोक अथवा मोक्षपद प्रदान करते हैं तथा पापकर्म करनेवालोंको घोर
नरकोंमें डालते हैं। फिर भी किसी- किसी व्यक्तिके लिये इन कर्मोंका फल उलटा कैसे
हो जाता है ? ॥ ४५ ॥
जो
महानुभाव आपके चरणोंमें अपनेको समर्पित कर देते हैं, जो समस्त
प्राणियोंमें आपकी ही झाँकी करते हैं और समस्त जीवोंको अभेददृष्टिसे आत्मामें ही
देखते हैं, वे पशुओंके समान प्राय: क्रोधके अधीन नहीं होते ॥
४६ ॥ जो लोग भेदबुद्धि होनेके कारण कर्मोंमें ही आसक्त हैं, जिनकी
नीयत अच्छी नहीं है, दूसरोंकी उन्नति देखकर जिनका चित्त
रात-दिन कुढ़ा करता है और जो मर्मभेदी अज्ञानी अपने दुर्वचनोंसे दूसरोंका चित्त
दुखाया करते हैं, आप-जैसे महापुरुषोंके लिये उन्हें भी मारना
उचित नहीं है; क्योंकि वे बेचारे तो विधाताके ही मारे हुए
हैं ॥ ४७ ॥ देवदेव ! भगवान् कमलनाभकी प्रबल मायासे मोहित हो जानेके कारण यदि किसी
पुरुषकी कभी किसी स्थानमें भेदबुद्धि होती है, तो भी साधु
पुरुष अपने परदु:खकातर स्वभावके कारण उसपर कृपा ही करते हैं; दैववश जो कुछ हो जाता है, वे उसे रोकनेका प्रयत्न
नहीं करते ॥ ४८ ॥
प्रभो
! आप सर्वज्ञ हैं,
परम पुरुष भगवान्की दुस्तर मायाने आपकी बुद्धिका स्पर्श भी नहीं
किया है। अत: जिनका चित्त उसके वशीभूत होकर कर्ममार्गमें आसक्त हो रहा है, उनके द्वारा अपराध बन जाय, तो भी उनपर आपको कृपा ही
करनी चाहिये ॥ ४९ ॥ भगवन् ! आप सबके मूल हैं। आप ही सम्पूर्ण यज्ञोंको पूर्ण
करनेवाले हैं। यज्ञभाग पानेका भी आपको पूरा अधिकार है। फिर भी इस दक्षयज्ञके
बुद्धिहीन याजकोंने आपको यज्ञभाग नहीं दिया। इसीसे यह आपके द्वारा विध्वस्त हुआ।
अब आप इस अपूर्ण यज्ञका पुनरुद्धार करनेकी कृपा करें ॥ ५० ॥ प्रभो ! ऐसा कीजिये,
जिससे यजमान दक्ष फिर जी उठे, भगदेवताको नेत्र
मिल जायँ, भृगुजीके दाढ़ी-मूँछ आ जायँ और पूषाके पहलेके ही
समान दाँत निकल आयें ॥ ५१ ॥ रुद्रदेव ! अस्त्र-शस्त्र और पत्थरोंकी बौछारसे जिन
देवता और ऋत्विजोंके अङ्ग-प्रत्यङ्ग घायल हो गये हैं, आपकी
कृपासे वे फिर ठीक हो जायँ ॥ ५२ ॥ यज्ञ सम्पूर्ण होनेपर जो कुछ शेष रहे, वह सब आपका भाग होगा। यज्ञविध्वंसक ! आज यह यज्ञ आपके ही भागसे पूर्ण हो ॥
५३ ॥
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तर्जनीको अंगूठेसे जोडक़र अन्य अंगुलियोंको आपसमें मिलाकर फैला
देनेसे जो बन्ध सिद्ध होता है, उसे ‘तर्कमुद्रा’
कहते हैं। इसका नाम ‘ज्ञानमुद्रा’ भी है।
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे
रुद्रसान्त्वनं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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