॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)
पुरञ्जनपुरीपर
चण्डवेगकी चढ़ाई तथा कालकन्याका चरित्र
नारद
उवाच –
इत्थं
पुरञ्जनं सध्र्यग् वशमानीय विभ्रमैः ।
पुरञ्जनी
महाराज रेमे रमयती पतिम् ॥ १ ॥
स
राजा महिषीं राजन् सुस्नातां रुचिराननाम् ।
कृतस्वस्त्ययनां
तृप्तां अभ्यनन्ददुपागताम् ॥ २ ॥
तयोपगूढः
परिरब्धकन्धरो
रहोऽनुमन्त्रैरपकृष्टचेतनः ।
न
कालरंहो बुबुधे दुरत्ययं
दिवा निशेति प्रमदापरिग्रहः ॥ ३ ॥
शयान
उन्नद्धमदो महामना
महार्हतल्पे महिषीभुजोपधिः ।
तामेव
वीरो मनुते परं यतः
तमोऽभिभूतो न निजं परं च यत् ॥ ४ ॥
तयैवं
रममाणस्य कामकश्मलचेतसः ।
क्षणार्धमिव
राजेन्द्र व्यतिक्रान्तं नवं वयः ॥ ५ ॥
तस्यां
अजनयत् पुत्रान् पुरञ्जन्यां पुरञ्जनः ।
शतान्येकादश
विराड् आयुषोऽर्धमथात्यगात् ॥ ॥ ६ ॥
दुहित्ईर्दशोत्तरशतं
पितृमातृयशस्करीः ।
शीलौदार्यगुणोपेताः
पौरञ्जन्यः प्रजापते ॥ ७ ॥
स
पञ्चालपतिः पुत्रान् पितृवंशविवर्धनान् ।
दारैः
संयोजयामास दुहितॄ सदृशैर्वरैः ॥ ८ ॥
पुत्राणां
चाभवन् पुत्रा एकैकस्य शतं शतम् ।
यैर्वै
पौरञ्जनो वंशः पञ्चालेषु समेधितः ॥ ९ ॥
तेषु
तद् रिक्थहारेषु गृहकोशानुजीविषु ।
निरूढेन
ममत्वेन विषयेष्वन्वबध्यत ॥ १० ॥
ईजे
च क्रतुभिर्घोरैः दीक्षितः पशुमारकैः ।
देवान्
पितॄन् भूतपतीन् नानाकामो यथा भवान् ॥ ११ ॥
युक्तेष्वेवं
प्रमत्तस्य कुटुम्बासक्तचेतसः ।
आससाद
स वै कालो योऽप्रियः प्रिययोषिताम् ॥ १२ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं—महाराज ! इस प्रकार वह सुन्दरी अनेकों नखरोंसे पुरञ्जनको पूरी तरह अपने
वशमें कर उसे आनन्दित करती हुई विहार करने लगी ॥ १ ॥ उसने अच्छी तरह स्नान कर अनेक
प्रकारके माङ्गलिक शृङ्गार किये तथा भोजनादिसे तृप्त होकर वह राजाके पास आयी।
राजाने उस मनोहर मुखवाली राजमहिषीका सादर अभिनन्दन किया ॥ २ ॥ पुरञ्जनीने राजाका
आलिङ्गन किया और राजाने उसे गले लगाया। फिर एकान्तमें मनके अनुकूल रहस्यकी बातें
करते हुए वह ऐसा मोहित हो गया कि उस कामिनीमें ही चित्त लगा रहनेके कारण उसे
दिन-रातके भेदसे निरन्तर बीतते हुए कालकी दुस्तर गतिका भी कुछ पता न चला ॥ ३ ॥
मदसे छका हुआ मनस्वी पुरञ्जन अपनी प्रियाकी भुजापर सिर रखे महामूल्य शय्यापर पड़ा
रहता । उसे तो वह रमणी ही जीवनका परम फल जान पड़ती थी। अज्ञानसे आवृत्त हो जानेके
कारण उसे आत्मा अथवा परमात्माका कोई ज्ञान न रहा ॥ ४ ॥
राजन्
! इस प्रकार कामातुर चित्तसे उसके साथ विहार करते-करते राजा पुरञ्जनकी जवानी आधे
क्षणके समान बीत गयी ॥ ५ ॥ प्रजापते ! उस पुरञ्जनीसे राजा पुरञ्जनके ग्यारह सौ
पुत्र और एक सौ दस कन्याएँ हुर्ईं, जो सभी माता-पिताका
सुयश बढ़ानेवाली और सुशीलता, उदारता आदि गुणोंसे सम्पन्न
थीं। ये पौरञ्जनी नामसे विख्यात हुर्ईं। इतनेमें ही उस सम्राट्की लंबी आयुका आधा
भाग निकल गया ॥ ६-७ ॥ फिर पाञ्चालराज पुरञ्जनने पितृवंशकी वृद्धि करनेवाले
पुत्रोंका वधुओंके साथ और कन्याओंका उनके योग्य वरोंके साथ विवाह कर दिया ॥ ८ ॥
पुत्रोंमेंसे प्रत्येकके सौ-सौ पुत्र हुए। उनसे वृद्धिको प्राप्त होकर पुरञ्जनका
वंश सारे पाञ्चाल देशमें फैल गया ॥ ९ ॥ इन पुत्र, पौत्र,
गृह, कोश, सेवक और
मन्त्री आदिमें दृढ़ ममता हो जानेसे वह इन विषयोंमें ही बँध गया ॥ १० ॥ फिर
तुम्हारी तरह उसने भी अनेक प्रकारके भोगोंकी कामनासे यज्ञकी दीक्षा ले तरह-तरहके
पशुहिंसामय घोर यज्ञोंसे देवता, पितर और भूतपतियोंकी आराधना
की ॥ ११ ॥ इस प्रकार वह जीवनभर आत्माका कल्याण करनेवाले कर्मोंकी ओरसे असावधान और
कुटुम्ब पालनमें व्यस्त रहा। अन्तमें वृद्धावस्थाका वह समय आ पहुँचा, जो स्त्रीलंपट पुरुषोंको बड़ा अप्रिय होता है ॥ १२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
पुरञ्जनपुरीपर
चण्डवेगकी चढ़ाई तथा कालकन्याका चरित्र
चण्डवेग
इति ख्यातो गन्धर्वाधिपतिर्नृप ।
गन्धर्वास्तस्य
बलिनः षष्ट्युत्तरशतत्रयम् ॥ १३ ॥
गन्धर्व्यस्तादृशीरस्य
मैथुन्यश्च सितासिताः ।
परिवृत्त्या
विलुम्पन्ति सर्वकामविनिर्मिताम् ॥ १४ ॥
ते
चण्डवेगानुचराः पुरञ्जनपुरं यदा ।
हर्तुमारेभिरे
तत्र प्रत्यषेधत् प्रजागरः ॥ १५ ॥
स
सप्तभिः शतैरेको विंशत्या च शतं समाः ।
पुरञ्जनपुराध्यक्षो
गन्धर्वैर्युयुधे बली ॥ १६ ॥
क्षीयमाणे
स्वसंबन्धे एकस्मिन् बहुभिर्युधा ।
चिन्तां
परां जगामार्तः सराष्ट्रपुरबान्धवः ॥ १७ ॥
स
एव पुर्यां मधुभुक् पञ्चालेषु स्वपार्षदैः ।
उपनीतं
बलिं गृह्णन् स्त्रीजितो नाविदद्भयम् ॥ १८ ॥
कालस्य
दुहिता काचित्त्रिलोकीं वरमिच्छती ।
पर्यटन्ती
न बर्हिष्मन् प्रत्यनन्दत कश्चन ॥ १९ ॥
दौर्भाग्येनात्मनो
लोके विश्रुता दुर्भगेति सा ।
या
तुष्टा राजर्षये तु वृतादात्पूरवे वरम् ॥ २० ॥
कदाचिद्
अटमाना सा ब्रह्मलोकान् महीं गतम् ।
वव्रे
बृहद्व्रतं मां तु जानती काममोहिता ॥ २१ ॥
मयि
संरभ्य विपुलं अदात् शापं सुदुःसहम् ।
स्थातुमर्हसि
नैकत्र मद् याच्ञाविमुखो मुने ॥ २२ ॥
ततो
विहतसङ्कल्पा कन्यका यवनेश्वरम् ।
मयोपदिष्टमासाद्य
वव्रे नाम्ना भयं पतिम् ॥ २३ ॥
ऋषभं
यवनानां त्वां वृणे वीरेप्सितं पतिम् ।
सङ्कल्पस्त्वयि
भूतानां कृतः किल न रिष्यति ॥ २४ ॥
द्वौ
इमौ अनुशोचन्ति बालौ असदवग्रहौ ।
यल्लोकशास्त्रोपनतं
न राति न तदिच्छति ॥ २५ ॥
अथो
भजस्व मां भद्र भजन्तीं मे दयां कुरु ।
एतावान्
पौरुषो धर्मो यदार्तान् अनुकम्पते ॥ २६ ॥
कालकन्योदितवचो
निशम्य यवनेश्वरः ।
चिकीर्षुर्देवगुह्यं
स सस्मितं तामभाषत ॥ २७ ॥
मया
निरूपितस्तुभ्यं पतिरात्मसमाधिना ।
नाभिनन्दति
लोकोऽयं त्वां अभद्रां असम्मताम् ॥ २८ ॥
त्वं
अव्यक्तगतिर्भुङ्क्ष्व लोकं कर्मविनिर्मितम् ।
या
हि मे पृतनायुक्ता प्रजानाशं प्रणेष्यसि ॥ २९ ॥
प्रज्वारोऽयं
मम भ्राता त्वं च मे भगिनी भव ।
चराम्युभाभ्यां
लोकेऽस्मिन् अव्यक्तो भीमसैनिकः ॥ ३० ॥
राजन्
! चण्डवेग नामका एक गन्धर्वराज है। उसके अधीन तीन सौ साठ महाबलवान् गन्धर्व रहते
हैं ॥ १३ ॥ इनके साथ मिथुनभावसे स्थित कृष्ण और शुक्ल वर्णकी उतनी ही गन्धर्वियाँ
भी हैं। ये बारी-बारीसे चक्कर लगाकर भोग-विलासकी सामग्रियोंसे भरी-पूरी नगरीको
लूटती रहती हैं ॥ १४ ॥ गन्धर्वराज चण्डवेगके उन अनुचरोंने जब राजा पुरञ्जनका नगर
लूटना आरम्भ किया,
तब उन्हें पाँच फनके सर्प प्रजागरने रोका ॥ १५ ॥ यह पुरञ्जनपुरीकी
चौकसी करनेवाला महाबलवान् सर्प सौ वर्षतक अकेला ही उन सात सौ बीस
गन्धर्व-गन्धर्वियोंसे युद्ध करता रहा ॥ १६ ॥ बहुत-से वीरोंके साथ अकेले ही युद्ध
करनेके कारण अपने एकमात्र सम्बन्धी प्रजागरको बलहीन हुआ देख राजा पुरञ्जनको अपने
राष्ट्र और नगरमें रहनेवाले अन्य बान्धवोंके सहित बड़ी चिन्ता हुई ॥ १७ ॥ वह इतने
दिनोंतक पाञ्चाल देशके उस नगरमें अपने दूतोंद्वारा लाये हुए करको लेकर
विषयभोगोंमें मस्त रहता था। स्त्रीके वशीभूत रहनेके कारण इस अवश्यम्भावी भयका उसे
पता ही न चला ॥ १८ ॥
बर्हिष्मन्
! इन्हीं दिनों कालकी एक कन्या वरकी खोजमें त्रिलोकी में भटकती रही, फिर भी उसे किसीने स्वीकार नहीं किया ॥ १९ ॥ वह कालकन्या (जरा) बड़ी
भाग्यहीना थी, इसलिये लोग उसे ‘दुर्भगा’
कहते थे। एक बार राजर्षि पुरुने पिताको अपना यौवन देनेके लिये अपनी
ही इच्छासे उसे वर लिया था, इससे प्रसन्न होकर उसने उन्हें
राज्यप्राप्तिका वर दिया था ॥ २० ॥ एक दिन मैं ब्रह्मलोकसे पृथ्वीपर आया, तो वह घूमती-घूमती मुझे भी मिल गयी। तब मुझे नैष्ठिक ब्रह्मचारी जानकर भी
कामातुरा होनेके कारण उसने वरना चाहा ॥ २१ ॥ मैंने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं
की। इसपर उसने अत्यन्त कुपित होकर मुझे यह दु:सह शाप दिया कि ‘तुमने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की, अत: तुम एक
स्थानपर अधिक देर न ठहर सकोगे’ ॥ २२ ॥ तब मेरी ओरसे निराश
होकर उस कन्याने मेरी सम्मतिसे यवनराज भयके पास जाकर उसका पतिरूपसे वरण किया ॥ २३
॥ और कहा, ‘वीरवर ! आप यवनोंमें श्रेष्ठ हैं, मैं आपसे प्रेम करती हूँ और पति बनाना चाहती हूँ। आपके प्रति किया हुआ
जीवोंका सङ्कल्प कभी विफल नहीं होता ॥ २४ ॥ जो मनुष्य लोक अथवा शास्त्रकी दृष्टिसे
देनेयोग्य वस्तुका दान नहीं करता और जो शास्त्रदृष्टिसे अधिकारी होकर भी ऐसा दान
नहीं लेता, वे दोनों ही दुराग्रही और मूढ़ हैं, अतएव शोचनीय हैं ॥ २५ ॥ भद्र ! इस समय मैं आपकी सेवामें उपस्थित हुई हूँ,
आप मुझे स्वीकार करके अनुगृहीत कीजिये। पुरुषका सबसे बड़ा धर्म
दीनोंपर दया करना ही है’ ॥ २६ ॥ कालकन्याकी बात सुनकर
यवनराजने विधाताका एक गुप्त कार्य करानेकी इच्छासे मुसकराते हुए उससे कहा ॥ २७ ॥ ‘मैंने योगदृष्टिसे देखकर तेरे लिये एक पति निश्चय किया है। तू सबका अनिष्ट
करनेवाली है, इसलिये किसीको भी अच्छी नहीं लगती और इसीसे लोग
तुझे स्वीकार नहीं करते। अत: इस कर्मजनित लोकको तू अलक्षित होकर बलात् भोग। तू
मेरी सेना लेकर जा; इसकी सहायतासे तू सारी प्रजाका नाश
करनेमें समर्थ होगी, कोई भी तेरा सामना न कर सकेगा ॥ २८-२९ ॥
यह प्रज्वार नामका मेरा भाई है और तू मेरी बहिन बन जा। तुम दोनोंके साथ मैं
अव्यक्त गतिसे भयङ्कर सेना लेकर सारे लोकोंमें विचरूँगा’ ॥
३० ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे
पुरंजनोपाख्याने सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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