||श्री परमात्मने नम:||
भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 06
सहज-निवृत्तिरूप
वास्तविक तत्त्व
संसारमें
एक तो प्रवृत्ति (करना) होती है और एक निवृत्ति (न करना) होती है । जिसका आदि और
अन्त हो,
वह क्रिया अथवा अवस्था कहलाती है । प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही क्रियाएँ अथवा अवस्थाएँ हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे प्रवृत्ति
क्रिया है, वैसे ही निवृत्ति भी क्रिया है । प्रवृत्ति
निवृत्तिको और निवृत्ति प्रवृत्तिको जन्म देती है । क्रिया और अवस्थामात्र
प्रकृतिकी ही होती है; तत्त्वकी नहीं । इस दृष्टिसे
प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों प्रकृतिके राज्यमें ही हैं ।
निर्विकल्प समाधितक प्रकृतिका राज्य है; क्योंकि निर्विकल्प
समाधिसे भी ‘व्युत्थान’ होता है । अतएव
जागने, चलने, बोलने, देखने, सुनने आदिके समान सोना, बैठना, मौन होना, मूर्छित होना,
समाधिस्थ होना आदि भी क्रियाएँ अथवा अवस्थाएँ ही हैं ।
अवस्थासे
अतीत जो अक्रिय परमात्मतत्त्व है, उसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनों ही नहीं हैं । अवस्थाएँ बदलती हैं, पर वह
तत्त्व नहीं बदलता । वह वास्तविक तत्त्व सहज-निवृत्तिरूप है । उस तत्त्वमें
मनुष्यमात्रकी (स्वरूपसे) स्वाभाविक स्थिति है । वह परमतत्त्व सम्पूर्ण देश,
काल, घटना, परिस्थिति,
अवस्था आदिमें स्वाभाविकरूपसे ज्यों-का-त्यों विद्यमान रहता है ।
अतएव उस सहज-निवृत्तिरूप परमतत्त्वको जो चाहे, जब चाहे,
जहाँ चाहे प्राप्त कर सकता है । आवश्यकता केवल प्राकृत-दृष्टियोंके
प्रभावसे मुक्त होनेकी है ।
‘स्वयम्’ का प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध ही ‘अहम्’ कहलाता है । साधक प्रमादवश अपनी वास्तविक
सत्ताको (जहाँसे ‘अहम्’ उठता है अथवा
जो ‘अहम्’ का आधार है) भूलकर माने हुए ‘अहम्’ को ही (जो उत्पन्न होनेपर सत्तावान् है) अपनी
सत्ता या अपना स्वरूप मान लेता है । माना हुआ ‘अहम्’ बदलता रहता है, पर वास्तविक तत्त्व (स्वरूप) कभी
नहीं बदलता । इस माने हुए ‘अहम्’ को
भगवान्ने इदंतासे कहा है; जैसे‒‘अहङ्कार
इतीयम्’ (गीता ७ । ४) और ‘अपरा इयम्’
(गीता ७ । ५) । जबतक यह माना हुआ ‘अहम्’
रहता है तबतक साधकका प्रकृति-(प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप अवस्था-) से
सम्बन्ध बना रहता है, और उसमें साधक निवृत्तिको अधिक महत्त्व
देता रहता है । यह ‘अहम्’ प्रवृत्तिमें
‘कार्य’-रूपसे और निवृत्तिमें ‘कारण’-रूपसे रहता है । ‘अहम्’
का नाश होते ही प्रवृत्ति और निवृत्तिसे परे जो वास्तविक तत्त्व है,
उसमें अपनी स्वाभाविक स्थितिका अनुभव हो जाता है । फिर तत्त्वज्ञ
पुरुषका प्रवृत्ति और निवृत्ति‒दोनोंसे कोई सम्बन्ध नहीं
रहता । ऐसा होनेपर प्रवृत्ति और निवृत्तिका नाश नहीं होता, अपितु
उनका बाह्य चित्रमात्र रहता है । इस प्रकार वास्तविक तत्त्वमें अपनी स्वाभाविक
स्थितिके अनुभवको ही दार्शनिकोंने सहज-निवृत्ति, सहजावस्था,
सहज-समाधि आदि नामोंसे कहा है ।
प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप
संसारसे माने हुए प्रत्येक संयोगका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । कारण यह है कि
संसारसे माना हुआ संयोग अस्वाभाविक और उसका वियोग स्वाभाविक है । विचारपूर्वक देखा
जाय तो संयोगकालमें भी वियोग ही है अर्थात् संयोग है ही नहीं । परंतु संसारसे माने
हुए संयोगमें सद्भाव (सत्ता-भाव) कर लेनेसे वियोगका अनुभव नहीं हो पाता ।
तात्त्विक दृष्टिसे देखा जाय तो जिसका वियोग होता है, उस प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । जैसे,
बाल्यावस्थासे वियोग हो गया, तो अब उसकी सत्ता
कहाँ है ? जैसे वर्तमानमें भूतकालकी सत्ता नहीं है, वैसे ही वर्तमान और भविष्यत्कालकी भी सत्ता नहीं है । जहाँ भूतकाल चला गया,
वहीं वर्तमान जा रहा है और भविष्यत्काल भी वहीं चला जायगा । इसीलिये
भगवान्ने गीतामें कहा है‒
“नासतो
विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि
दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥“
...................(२ । १६)
‘असत्की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत्का अभाव विद्यमान नहीं है । इन
दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी महापुरुषोंके द्वारा देखा गया है ।’
प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप
संसारसे वियोगका अनुभव होनेपर सहज-निवृत्तिरूप वास्तविक तत्त्वका ज्ञान हो जाता है
और वियुक्त होनेवाले संसारकी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार न करनेसे वह तत्त्वज्ञान दृढ़
हो जाता है ।
नारायण
! नारायण !!
(शेष
आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास
जी की ‒”कल्याण-पथ” पुस्तकसे