॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
देवासुर-संग्राम
चित्रध्वजपटै राजन्नातपत्रैः सितामलैः
महाधनैर्वज्रदण्डैर्व्यजनैर्बार्हचामरैः ॥ १३ ॥
वातोद्धूतोत्तरोष्णीषैरर्चिर्भिर्वर्मभूषणैः
स्फुरद्भिर्विशदैः शस्त्रैः सुतरां सूर्यरश्मिभिः ॥ १४ ॥
देवदानववीराणां ध्वजिन्यौ पाण्डुनन्दन
रेजतुर्वीरमालाभिर्यादसामिव सागरौ ॥ १५ ॥
वैरोचनो बलिः सङ्ख्ये सोऽसुराणां चमूपतिः
यानं वैहायसं नाम कामगं मयनिर्मितम् ॥ १६ ॥
सर्वसाङ्ग्रामिकोपेतं सर्वाश्चर्यमयं प्रभो
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यं दृश्यमानमदर्शनम् ॥ १७ ॥
आस्थितस्तद्विमानाग्र्यं सर्वानीकाधिपैर्वृतः
बालव्यजनछत्राग्र्यै रेजे चन्द्र इवोदये ॥ १८ ॥
तस्यासन्सर्वतो यानैर्यूथानां पतयोऽसुराः
नमुचिः शम्बरो बाणो विप्रचित्तिरयोमुखः ॥ १९ ॥
द्विमूर्धा कालनाभोऽथ प्रहेतिर्हेतिरिल्वलः
शकुनिर्भूतसन्तापो वज्रदंष्ट्रो विरोचनः ॥ २० ॥
हयग्रीवः शङ्कुशिराः कपिलो मेघदुन्दुभिः
तारकश्चक्रदृक्शुम्भो निशुम्भो जम्भ उत्कलः ॥ २१ ॥
अरिष्टोऽरिष्टनेमिश्च मयश्च त्रिपुराधिपः
अन्ये पौलोमकालेया निवातकवचादयः ॥ २२ ॥
अलब्धभागाः सोमस्य केवलं क्लेशभागिनः
सर्व एते रणमुखे बहुशो निर्जितामराः ॥ २३ ॥
सिंहनादान्विमुञ्चन्तः शङ्खान्दध्मुर्महारवान्
दृष्ट्वा सपत्नानुत्सिक्तान्बलभित्कुपितो भृशम् ॥ २४ ॥
ऐरावतं दिक्करिणमारूढः शुशुभे स्वराट्
यथा स्रवत्प्रस्रवणमुदयाद्रि महर्पतिः ॥ २५ ॥
तस्यासन्सर्वतो देवा नानावाहध्वजायुधाः
लोकपालाः सहगणैर्वाय्वग्निवरुणादयः ॥ २६ ॥
परीक्षित् ! उस समय रंग-बिरंगी पताकाओं, स्फटिकमणि के समान श्वेत निर्मल छत्रों, रत्नों से जड़े हुए दण्डवाले बहुमूल्य पंखों, मोरपंखों, चँवरों और
वायु से उड़ते हुए दुपट्टों, पगड़ी, कलँगी, कवच, आभूषण तथा सूर्य की किरणों से अत्यन्त दमकते हुए उज्ज्वल
शस्त्रों एवं वीरों की पंक्तियों के कारण देवता और असुरोंकी सेनाएँ ऐसी शोभायमान
हो रही थीं,
मानो जल-जन्तुओं से भरे हुए दो महासागर लहरा रहे हों ॥ १३—१५ ॥ परीक्षित् ! रणभूमि में दैत्यों के सेनापति
विरोचनपुत्र बलि मय दानवके बनाये हुए वैहायस नामक विमानपर सवार हुए। वह विमान
चलानेवाले की जहाँ इच्छा होती थी, वहीं चला जाता
था ॥ १६ ॥ युद्धकी समस्त सामग्रियाँ उसमें सुसज्जित थीं। परीक्षित्! वह इतना
आश्चर्यमय था कि कभी दिखलायी पड़ता तो कभी अदृश्य हो जाता। वह इस समय कहाँ है—जब इस बातका अनुमान भी नहीं किया जा सकता था, तब बतलाया तो कैसे जा सकता था ॥ १७ ॥ उसी श्रेष्ठ विमानपर
राजा बलि सवार थे। सभी बड़े-बड़े सेनापति उनको चारों ओरसे घेरे हुए थे। उनपर
श्रेष्ठ चमर डुलाये जा रहे थे और छत्र तना हुआ था। उस समय बलि ऐसे जान पड़ते थे, जैसे उदयाचलपर चन्द्रमा ॥ १८ ॥ उनके चारों ओर अपने-अपने
विमानोंपर सेनाकी छोटी-छोटी टुकडिय़ोंके स्वामी नमुचि, शम्बर, बाण, विप्रचित्ति, अयोमुख,
द्विमूर्धा, कालनाभ,
प्रहेति, हेति, इल्वल, शकुनि, भूतसन्ताप, वज्रदंष्ट्र, विरोचन, हयग्रीव, शङ्कुशिरा, कपिल, मेघदुन्दुभि, तारक,
चक्राक्ष, शुम्भ, निशुम्भ, जम्भ, उत्कल, अरिष्ट, अरिष्टनेमि, त्रिपुराधिपति मय,
पौलोम, कालेय और
निवातकवच आदि स्थित थे ॥ १९—२२ ॥ ये
सब-के-सब समुद्रमन्थनमें सम्मिलित थे। परंतु इन्हें अमृतका भाग नहीं मिला, केवल क्लेश ही हाथ लगा था। इन सब असुरोंने एक नहीं अनेक बार
युद्धमें देवताओंको पराजित किया था ॥ २३ ॥ इसलिये वे बड़े उत्साहसे सिंहनाद करते
हुए अपने घोर स्वरवाले शङ्ख बजाने लगे। इन्द्रने देखा कि हमारे शत्रुओंका मन बढ़
रहा है,
ये मदोन्मत्त हो रहे हैं; तब उन्हें बड़ा क्रोध आया ॥ २४ ॥ वे अपने वाहन ऐरावत नामक दिग्गजपर सवार हुए।
उसके कपोलोंसे मद बह रहा था। इसलिये इन्द्रकी ऐसी शोभा हुई, मानो भगवान् सूर्य उदयाचलपर आरूढ़ हों और उससे अनेकों झरने
बह रहे हों ॥ २५ ॥ इन्द्रके चारों ओर अपने-अपने वाहन, ध्वजा और आयुधोंसे युक्त देवगण एवं अपने-अपने गणोंके साथ
वायु,
अग्नि, वरुण आदि
लोकपाल हो लिये ॥ २६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से