शनिवार, 19 अक्टूबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

राजा बलि की स्वर्गपर विजय

मघवांस्तमभिप्रेत्य बलेः परममुद्यमम्
सर्वदेवगणोपेतो गुरुमेतदुवाच ह ॥ २४ ॥
भगवन्नुद्यमो भूयान्बलेर्नः पूर्ववैरिणः
अविषह्यमिमं मन्ये केनासीत्तेजसोर्जितः ॥ २५ ॥
नैनं कश्चित्कुतो वापि प्रतिव्योढुमधीश्वरः
पिबन्निव मुखेनेदं लिहन्निव दिशो दश
दहन्निव दिशो दृग्भिः संवर्ताग्निरिवोत्थितः ॥ २६ ॥
ब्रूहि कारणमेतस्य दुर्धर्षत्वस्य मद्रिपोः
ओजः सहो बलं तेजो यत एतत्समुद्यमः ॥ २७ ॥

इन्द्रने देखा कि बलि ने युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की है। अत: सब देवताओं के साथ वे अपने गुरु बृहस्पतिजीके पास गये और उनसे बोले॥ २४ ॥ भगवन् ! मेरे पुराने शत्रु बलिने इस बार युद्धकी बहुत बड़ी तैयारी की है। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हमलोग उनका सामना नहीं कर सकेंगे। पता नहीं, किस शक्तिसे इनकी इतनी बढ़ती हो गयी है ॥ २५ ॥ मैं देखता हूँ कि इस समय बलिको कोई भी किसी प्रकारसे रोक नहीं सकता। वे प्रलयकी आगके समान बढ़ गये हैं और जान पड़ता है, मुखसे इस विश्व को पी जाँयगे, जीभ से दसों दिशाओं को चाट जायँगे और नेत्रोंकी ज्वालासे दिशाओंको भस्म कर देंगे ॥ २६ ॥ आप कृपा करके मुझे बतलाइये कि मेरे शत्रुकी इतनी बढ़तीका, जिसे किसी प्रकार भी दबाया नहीं जा सकता, क्या कारण है ? इसके शरीर, मन और इन्द्रियोंमें इतना बल और इतना तेज कहाँसे आ गया है कि इसने इतनी बड़ी तैयारी करके चढ़ाई की है॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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