॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
कश्यपजी के द्वारा अदिति को पयोव्रत का उपदेश
निर्वर्तितात्मनियमो देवं अर्चेत् समाहितः ।
अर्चायां स्थण्डिले सूर्ये जले वह्नौ गुरौ अपि ॥ २८ ॥
नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महीयसे ।
सर्वभूतनिवासाय वासुदेवाय साक्षिणे ॥ २९ ॥
नमोऽव्यक्ताय सूक्ष्माय प्रधानपुरुषाय च ।
चतुर्विंशद्गुणज्ञाय गुणसंख्यानहेतवे ॥ ३० ॥
नमो द्विशीर्ष्णे त्रिपदे चतुःश्रृंगाय तन्तवे ।
सप्तहस्ताय यज्ञाय त्रयीविद्यात्मने नमः ॥ ३१ ॥
नमः शिवाय रुद्राय नमः शक्तिधराय च ।
सर्वविद्याधिपतये भूतानां पतये नमः ॥ ३२ ॥
नमो हिरण्यगर्भाय प्राणाय जगदात्मने ।
योगैश्वर्यशरीराय नमस्ते योगहेतवे ॥ ३३ ॥
नमस्ते आदिदेवाय साक्षिभूताय ते नमः ।
नारायणाय ऋषये नराय हरये नमः ॥ ३४ ॥
नमो मरकतश्याम वपुषेऽधिगतश्रिये ।
केशवाय नमस्तुभ्यं नमस्ते पीतवाससे ॥ ३५ ॥
त्वं सर्ववरदः पुंसां वरेण्य वरदर्षभ ।
अतस्ते श्रेयसे धीराः पादरेणुं उपासते ॥ ३६ ॥
अन्ववर्तन्त यं देवाः श्रीश्च तत्पादपद्मयोः ।
स्पृहयन्त इवामोदं भगवान् मे प्रसीदताम् ॥ ३७ ॥
इसके बाद अपने नित्य और नैमित्तिक नियमोंको पूरा करके
एकाग्रचित्तसे मूर्ति,
वेदी, सूर्य, जल,
अग्नि और गुरुदेवके रूपमें भगवान्की पूजा करे ॥ २८ ॥ (और
इस प्रकार स्तुति करे—)
‘प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान् हैं। अन्तर्यामी और आराधनीय हैं।
समस्त प्राणी आपमें और आप समस्त प्राणियोंमें निवास करते हैं। इसीसे आपको ‘वासुदेव’ कहते हैं। आप
समस्त चराचर जगत् और उसके कारणके भी साक्षी हैं। भगवन् ! मेरा आपको नमस्कार है ॥
२९ ॥ आप अव्यक्त और सूक्ष्म हैं। प्रकृति और पुरुषके रूपमें भी आप ही स्थित हैं।
आप चौबीस गुणोंके जाननेवाले और गुणोंकी संख्या करनेवाले सांख्यशास्त्रके प्रवर्तक
हैं। आपको मेरा नमस्कार है ॥ ३० ॥ आप वह यज्ञ हैं, जिसके प्रायणीय और उदयनीय—ये दो कर्म
सिर हैं। प्रात:,
मध्याह्न और सायं—ये तीन सवन ही तीन पाद हैं। चारों वेद चार सींग हैं। गायत्री आदि सात छन्द ही
सात हाथ हैं। यह धर्ममय वृषभरूप यज्ञ वेदोंके द्वारा प्रतिपादित है और इसकी आत्मा
हैं स्वयं आप ! आपको मेरे नमस्कार हैं ॥ ३१ ॥ आप ही लोककल्याणकारी शिव और आप ही
प्रलयकारी रुद्र हैं। समस्त शक्तियोंको धारण करनेवाले भी आप ही हैं। आपको मेरा
बार-बार नमस्कार है। आप समस्त विद्याओंके अधिपति एवं भूतोंके स्वामी हैं। आपको
मेरा नमस्कार ॥ ३२ ॥ आप ही सबके प्राण और आप ही इस जगत्के स्वरूप भी हैं। आप योगके
कारण तो हैं ही स्वयं योग और उससे मिलनेवाला ऐश्वर्य भी आप ही हैं। हे हिरण्यगर्भ
! आपके लिये मेरे नमस्कार ॥ ३३ ॥ आप ही आदिदेव हैं। सबके साक्षी हैं। आप ही
नरनारायण ऋषिके रूपमें प्रकट स्वयं भगवान् हैं। आपको मेरे नमस्कार ॥ ३४ ॥ आपका
शरीर मरकतमणिके समान साँवला है। समस्त सम्पत्ति और सौन्दर्यकी देवी लक्ष्मी आपकी
सेविका हैं। पीताम्बरधारी केशव ! आपको मेरे बार-बार नमस्कार ॥ ३५ ॥ आप सब प्रकारके
वर देनेवाले हैं। वर देनेवालों में श्रेष्ठ हैं। तथा जीवोंके एकमात्र वरणीय हैं।
यही कारण है कि धीर विवेकी पुरुष अपने कल्याण के लिये आपके चरणोंकी रजकी उपासना
करते हैं ॥ ३६ ॥ जिनके चरणकमलों की सुगन्ध प्राप्त करने की लालसा से समस्त देवता
और स्वयं लक्ष्मीजी भी सेवा में लगी रहती हैं, वे भगवान् मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय 🙏🌹🌺🙏
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जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएंजय श्री सीताराम
जवाब देंहटाएंJay shree Krishna
जवाब देंहटाएं🌹🍂💐जय श्री हरि: 🙏🙏
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नारायण नारायण नारायण नारायण