॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
वर्षा
और शरद् ऋतु का वर्णन
एवं
वनं तद् वर्षिष्ठं पक्वखर्जुर जम्बुमत् ।
गोगोपालैर्वृतो
रन्तुं सबलः प्राविशद् हरिः ॥ २५ ॥
धेनवो
मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा ।
ययुर्भगवताऽऽहूता
द्रुतं प्रीत्या स्नुतस्तनीः ॥ २६ ॥
वनौकसः
प्रमुदिता वनराजीर्मधुच्युतः ।
जलधारा
गिरेर्नादाद् आसन्ना ददृशे गुहाः ॥ २७ ॥
क्वचिद्
वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति ।
निर्विश्य
भगवान् रेमे कन्दमूलफलाशनः ॥ २८ ॥
दध्योदनं
समानीतं शिलायां सलिलान्तिके ।
सम्भोजनीयैर्बुभुजे
गोपैः सङ्कर्षणान्वितः ॥ २९ ॥
शाद्वलोपरि
संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान् ।
तृप्तान्
वृषा वत्सतरान् गाश्च स्वोधोभरश्रमाः ॥ ३० ॥
प्रावृट्श्रियं
च तां वीक्ष्य सर्वभूतमुदावहाम् ।
भगवान्
पूजयांचक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम् ॥ ३१ ॥
एवं
निवसतोस्तस्मिन् रामकेशवयोर्व्रजे ।
शरत्
समभवद् व्यभ्रा स्वच्छाम्ब्वपरुषानिला ॥ ३२ ॥
शरदा
नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययुः ।
भ्रष्टानामिव
चेतांसि पुनर्योगनिषेवया ॥ ३३ ॥
व्योम्नोऽब्भ्रं
भूतशाबल्यं भुवः पङ्कमपां मलम् ।
शरत्
जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाशुभम् ॥ ३४ ॥
सर्वस्वं
जलदा हित्वा विरेजुः शुभ्रवर्चसः ।
यथा
त्यक्तैषणाः शान्ता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः ॥ ३५ ॥
गिरयो
मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम् ।
यथा
ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा ॥ ३६ ॥
नैवाविदन्
क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः ।
यथाऽऽयुरन्वहं
क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः ॥ ३७ ॥
गाधवारिचरास्तापं
अविन्दन् शरदर्कजम् ।
यथा
दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेन्द्रियः ॥ ३८ ॥
शनैः
शनैर्जहुः पङ्कं स्थलान्यामं च वीरुधः ।
यथाहंममतां
धीराः शरीराद् विष्वनात्मसु ॥ ३९ ॥
निश्चलाम्बुरभूत्
तूष्णीं समुद्रः शरदागमे ।
आत्मनि
उपरते सम्यङ् मुनिर्व्युपरतागमः ॥ ४० ॥
केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन्
कर्षका दृढसेतुभिः ।
यथा
प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः ॥ ४१ ॥
शरदर्कांशुजांस्तापान्
भूतानां उडुपोऽहरत् ।
देहाभिमानजं
बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम् ॥ ४२ ॥
खमशोभत
निर्मेघं शरद् विमलतारकम् ।
सत्त्वयुक्तं
यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम् ॥ ४३ ॥
अखण्डमण्डलो
व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी ।
यथा
यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि ॥ ४४ ॥
आश्लिष्य
समशीतोष्णं प्रसून वनमारुतम् ।
जनास्तापं
जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः ॥ ४५ ॥
गावो
मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाभवन् ।
अन्वीयमानाः
स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव ॥ ४६ ॥
उदहृष्यन्
वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद् विना ।
राज्ञा
तु निर्भया लोका यथा दस्यून् विना नृप ॥ ४७ ॥
पुरग्रामेष्वाग्रयणैः
इन्द्रियैश्च महोत्सवैः ।
बभौ
भूः पक्वसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः ॥ ४८ ॥
वणिङ्मुनि
नृपस्नाता निर्गम्यार्थान् प्रपेदिरे ।
वर्षरुद्धा
यथा सिद्धाः स्वपिण्डान् काल आगते ॥ ४९ ॥
वर्षा
ऋतुमें वृन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनोंसे भर रहा था।
उसी वनमें विहार करनेके लिये श्याम और बलरामने ग्वालबाल और गौओंके साथ प्रवेश किया
॥ २५ ॥ गौएँ अपने थनोंके भारी भारके कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं। जब भगवान्
श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर
जल्दी-जल्दी दौडऩे लगतीं। उस समय उनके थनोंसे दूधकी धारा गिरती जाती थी ॥ २६ ॥
भगवान्ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनन्दमग्र हैं। वृक्षोंकी पंक्तियाँ
मधुधारा उँड़ेल रही हैं। पर्वतोंसे झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं। उनकी आवाज
बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होनेपर छिपनेके लिये बहुत-सी गुफाएँ भी
हैं ॥ २७ ॥ जब वर्षा होने लगती, तब श्रीकृष्ण कभी किसी
वृक्षकी गोदमें या खोडऱमें जा छिपते। कभी-कभी किसी गुफामें ही जा बैठते और कभी
कन्दमूल-फल खाकर ग्वालबालोंके साथ खेलते रहते ॥ २८ ॥ कभी जलके पास ही किसी
चट्टानपर बैठ जाते और बलरामजी तथा ग्वालबालोंके साथ मिलकर घरसे लाया हुआ दही-भात
दाल-शाक आदिके साथ खाते ॥ २९ ॥ वर्षा ऋतुमें बैल, बछड़े और
थनोंके भारी भारसे थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देरमें भरपेट घास चर लेतीं और हरी-हरी
घासपर बैठकर ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहतीं। वर्षा ऋतुकी सुन्दरता अपार थी। वह
सभी प्राणियोंको सुख पहुँचा रही थी। इसमें सन्देह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़े—सब-के-सब भगवान्की लीलाके ही विलास थे। फिर भी उन्हें देखकर भगवान् बहुत
प्रसन्न होते और बार-बार उनकी प्रशंसा करते ॥ ३०-३१ ॥
इस
प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्दसे व्रजमें निवास कर रहे थे। इसी समय वर्षा
बीतनेपर शरद् ऋतु आ गयी। अब आकाशमें बादल नहीं रहे, जल निर्मल
हो गया, वायु बड़ी धीमी गतिसे चलने लगी ॥ ३२ ॥ शरद् ऋतुमें
कमलोंकी उत्पत्तिसे जलाशयोंके जलने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त कर ली—ठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुषोंका चित्त फिरसे
योगका सेवन करनेसे निर्मल हो जाता है ॥ ३३ ॥ शरद् ऋतुने आकाशके बादल, वर्षा-कालके बढ़े हुए जीव, पृथ्वीकी कीचड़ और जलके
मटमैलेपनको नष्ट कर दिया—जैसे भगवान् की भक्ति ब्रह्मचारी,
गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियोंके सब
प्रकारके कष्टों और अशुभोंका झटपट नाश कर देती है ॥ ३४ ॥ बादल अपने सर्वस्व जलका
दान करके उज्ज्वल कान्तिसे सुशोभित होने लगे—ठीक वैसे ही,
जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और
धन-सम्पत्तिसम्बन्धी चिन्ता और कामनाओंका परित्याग कर देनेपर संसारके बन्धनसे छूटे
हुए परम शान्त संन्यासी शोभायमान होते हैं ॥ ३५ ॥ अब पर्वतोंसे कहीं-कहीं झरने
झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जलको नहीं भी बहाते थे—जैसे ज्ञानी पुरुष समयपर अपने अमृतमय ज्ञानका दान किसी अधिकारीको कर देते
हैं और किसी-किसीको नहीं भी करते ॥ ३६ ॥ छोटे-छोटे गड्ढोंमें भरे हुए जलके जलचर यह
नहीं जानते कि इस गड्ढेका जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा है—जैसे
कुटुम्बके भरण-पोषणमें भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षण-क्षण क्षीण
हो रही है ॥ ३७ ॥ थोड़े जलमें रहनेवाले प्राणियोंको शरत्कालीन सूर्यकी प्रखर
किरणोंसे बड़ी पीड़ा होने लगी—जैसे अपनी इन्द्रियोंके वशमें
रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बीको तरह-तरहके ताप सताते ही रहते हैं ॥ ३८ ॥
पृथ्वी धीरे-धीरे अपना कीचड़ छोडऩे लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोडऩे लगे—ठीक वैसे ही, जैसे विवेकसम्पन्न साधक धीरे-धीरे शरीर
आदि अनात्म पदार्थोंमेंसे ‘यह मैं हूँ और यह मेरा है’
यह अहंता और ममता छोड़ देते हैं ॥ ३९ ॥ शरद् ऋतुमें समुद्रका जल
स्थिर, गम्भीर और शान्त हो गया—जैसे
मनके नि:संकल्प हो जानेपर आत्माराम पुरुष कर्मकाण्डका झमेला छोडक़र शान्त हो जाता
है ॥ ४० ॥ किसान खेतोंकी मेड़ मजबूत करके जलका बहना रोकने लगे-जैसे योगीजन अपनी
इन्द्रियोंको विषयोंकी ओर जानेसे रोककर, प्रत्याहार करके
उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञानकी रक्षा करते हैं ॥ ४१ ॥ शरद् ऋतुमें दिनके समय
बड़ी कड़ी धूप होती, लोगोंको बहुत कष्ट होता; परंतु चन्द्रमा रात्रिके समय लोगोंका सारा सन्ताप वैसे ही हर लेते—जैसे देहाभिमानसे होनेवाले दु:खको ज्ञान और भगवद्विरहसे होनेवाले
गोपियोंके दु:खको श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं ॥ ४२ ॥ जैसे वेदोंके अर्थको
स्पष्टरूपसे जाननेवाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद् ऋतुमें रातके समय मेघोंसे रहित निर्मल आकाश तारोंकी ज्योतिसे
जगमगाने लगा ॥ ४३ ॥ परीक्षित् ! जैसे पृथ्वीतलमें यदुवंशियोंके बीच यदुपति भगवान्
श्रीकृष्णकी शोभा होती है, वैसे ही आकाशमें तारोंके बीच
पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा ॥ ४४ ॥ फूलोंसे लदे हुए वृक्ष और लताओंमें होकर
बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक
गरम। उस वायुके स्पर्शसे सब लोगोंकी जलन तो मिट जाती, परंतु
गोपियोंकी जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके
हाथमें नहीं था, श्रीकृष्णने उसे चुरा लिया था ॥ ४५ ॥ शरद्
ऋतुमें गौएँ, हरिनियाँ, चिडिय़ाँ और
नारियाँ ऋतुमती—सन्तानोत्पत्तिकी कामनासे युक्त हो गयीं तथा
साँड़, हरिन, पक्षी और पुरुष उनका
अनुसरण करने लगे—ठीक वैसे ही, जैसे
समर्थ पुरुषके द्वारा की हुई क्रियाओंका अनुसरण उनके फल करते हैं ॥ ४६ ॥ परीक्षित्
! जैसे राजाके शुभागमनसे डाकू चोरोंके सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदयके कारण कुमुदिनी (कुँई या कोर्ईं) के अतिरिक्त और सभी
प्रकारके कमल खिल गये ॥ ४७ ॥ उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवोंमें नवान्नप्राशन और
इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे। खेतोमें अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान् श्रीकृष्ण
तथा बलरामजीकी उपस्थितिसे अत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥ ४८ ॥ साधना करके सिद्ध हुए
पुरुष जैसे समय आनेपर अपने देव आदि शरीरोंको प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा
और स्नातक—जो वर्षाके कारण एक स्थानपर रुके हुए थे— वहाँसे चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काजमें लग गये ॥ ४९ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे
पूर्वार्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
हरिः
ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से