इस ब्लॉग का ध्येय, सनातन धर्म एवं भारतीय संस्कृति का प्रसार करना तथा सन्तों के दुर्लभ प्रवचनों को जन-जन तक पहुंचाने का है | हम केवल धार्मिक और आध्यात्मिक विषयों पर प्रामाणिक जानकारियों को ही प्रकाशित करते हैं। आत्मकल्याण तथा दुर्लभ-सत्संग हेतु हमसे जुड़ें और अपने सभी परिवारजनों और मित्रों को इसके लाभ की बात बताकर सबको जोड़ने का प्रयास करें | भगवान् में लगना और दूसरों को लगाना ‘परम-सेवा’ है | अतः इसका लाभ उठाना चाहिए |
लेबल
- आसुरि
- गीता
- परलोक और पुनर्जन्म
- पुरुषसूक्त
- प्रश्नोत्तरी ‘मणिरत्नमाला’
- मानस में नाम-वन्दना
- विविध
- विवेक चूडामणि
- वैदिक सूक्त
- श्रीगर्ग-संहिता
- श्रीदुर्गासप्तशती
- श्रीमद्भगवद्गीता
- श्रीमद्भागवत महापुराण स्कन्ध 7 से 12
- श्रीमद्भागवतमहापुराण स्कंध 1 से 6
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्य
- श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् (स्कन्दपुराणान्तर्गत)
- स्तोत्र
गुरुवार, 31 अक्तूबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०५)
बुधवार, 30 अक्तूबर 2024
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०४)
मंगलवार, 29 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 02)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट
02)
अरिष्टासुर और व्योमासुर का वध तथा माधुर्यखण्ड का उपसंहार
श्रीनारद उवाच -
सोऽयं भीमरथो राजा मयदैत्यसुतोऽभवत् ।
श्रीकृष्णभुजवेगेन मुक्तिं प्राप विदेहराट् ॥ १४ ॥
एकदा गोपबालेषु दैत्योऽरिष्टो महाबलः ।
आगतो नादयन् खं गां तटान् शृङ्गैर्विदारयन् ॥ १५ ॥
गोप्यो गोपा गोगणाश्च वीक्ष्य तं दुद्रुवुर्भयात् ।
भगवान् दैत्यहा देवो मा भैष्टैत्यभयं ददौ ॥ १६ ॥
गृहीत्वा तं तु शृङ्गेषु नोदयामास माधवः ।
सोऽपि तं नोदयामास श्रीकृष्णं योजनद्वयम् ॥ १७ ॥
पुच्छे गृहीत्वा तं कृष्णो भ्रामयित्वा भुजौजसा ।
भूपृष्ठे पोथयामास कमण्डलुमिवार्भकः ॥ १८ ॥
अरिष्टः पुनरुत्थाय क्रोधसंरक्तलोचनः ।
शृङ्गैश्च रोहितं शैलं समुत्पाट्य महाखलः ॥ १९ ॥
गर्जयन्घनवद्वीरः कृष्णोपरि समाक्षिपत् ।
कृष्णः शैलं संगृहित्वा तस्योपरि समाक्षिपत् ॥ २० ॥
शैलस्यापि प्रहारेण किंचिद्व्याकुलमानसः ।
भूमौ तताड शृङ्गाग्रान्निर्गतं तैर्जलं भुवः ॥ २१ ॥
श्रीकृष्णस्तं च शृङ्गेषु गृहीत्वा भ्रामयन्मुहुः ।
भूपृष्ठे पोथयामास वातः पद्ममिवोद्धृतम् ॥ २२ ॥
तदैव वृषरूपत्वं त्यक्त्वा विप्रवपुर्धरः ।
नत्वा श्रीकृष्णपादाब्जं प्राह गद्गदया गिरा ॥ २३ ॥
द्विज उवाच -
बृहस्पतेश्च शिष्योऽहं वरतंतुर्द्विजोत्तमः ।
बृहस्पतिसमीपे च पठितुं गतवानहम् ॥ २४ ॥
पादौ कृत्वा स्थितोऽभूवं पश्यतस्तस्य संमुखे ।
तदा रुषाऽऽह स मुनिः वृषवत्वं स्थितः पुरः ॥ २५ ॥
गुरुहेलनकृत्तस्मात्त्वं बृषो भव दुर्मते ।
तस्य शापाद्वृषोऽभूवं बंगदेशेषु माधव ॥ २६ ॥
असुराणां प्रसंगेना सुरत्वं गतवानहम् ।
त्वत्प्रसादाद्विमुक्तोऽहं शापतोऽसुरभावतः ॥ २७ ॥
श्रीकृष्णाय नमस्तुभ्यं वासुदेवाय ते नमः ।
प्रणतक्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः ॥ २८ ॥
श्रीनारद उवाच -
इत्युक्त्वा श्रीहरिं नत्वा साक्षाच्छिष्यो बृहस्पतेः ।
द्योतयन्भुवनं राजन् विमानेन दिवं ययौ ॥ २९ ॥
इदं मया ते कथितं खण्डं माधुर्य्यमद्भुतम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं कृष्णप्राप्तिकरं परम् ॥ ३० ॥
कामदं पठतां शश्वत्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—विदेहराज ! वही यह राजा भीमरथ
मय दैत्यका पुत्र हुआ और श्रीकृष्णके बाहुबेग से मोक्ष को प्राप्त हुआ। एक दिन गोपबालकों के बीच में महाबली दैत्य अरिष्ट आया। वह अपने सिंहनाद से
पृथ्वी और आकाश को गुँजा रहा था और सींगों से
पर्वतीय तटों को विदीर्ण कर रहा था। उसे देखते ही गोपियाँ, गोप
तथा गौओंके समुदाय भयसे इधर- उधर भागने लगे। दैत्योंके नाशक भगवान् श्रीकृष्णने उन
सबको अभय देते हुए कहा- 'डरो मत।' माधवने उसके सींग पकड़ लिये और उसे पीछे ढकेल दिया।
उस राक्षसने भी श्रीकृष्णको ढकेलकर दो योजन पीछे कर दिया ॥ १४-१७ ॥
तब श्रीकृष्णने उसकी पूँछ पकड़ ली और बाहुवेगसे घुमाते
हुए उसे उसी प्रकार पृथ्वीपर पटक दिया, जैसे छोटा बालक कमण्डलुको फेंक दे। अरिष्ट फिर
उठा । क्रोधसे उसके नेत्र लाल हो रहे थे। उस महादुष्ट वीरने सींगोंसे लाल पत्थर उखाड़कर
मेघकी भाँति गर्जना करते हुए श्रीकृष्णके ऊपर फेंका। श्रीकृष्णने उस प्रस्तरको पकड़कर
उलटे उसीपर दे मारा ॥ १८-२० ॥
उस शिलाखण्ड के प्रहारसे वह मन-ही-मन कुछ व्याकुल हो
उठा। उसने अपने सींगोंके अग्रभागको पृथ्वीपर पीटना आरम्भ किया, इससे पृथ्वीके भीतरसे
पानी निकल आया। तब श्रीकृष्णने उसके सींग पकड़कर बार-बार घुमाते हुए उसे पृथ्वीपर उसी
प्रकार दे मारा, जैसे हवा कमलको उठाकर फेंक देती है। उसी समय वह वृषभका रूप त्यागकर
ब्राह्मणशरीर- धारी हो गया और श्रीकृष्णके चरणारविन्दोंमें प्रणाम करके गद्गद वाणीमें
बोला ॥। २१ - २३ ।।
ब्राह्मणने कहा - भगवन् ! मैं बृहस्पतिका
शिष्य द्विजश्रेष्ठ वरतन्तु हूँ । मैं बृहस्पतिजीके समीप पढ़ने गया था। उस समय उनकी
ओर पाँव फैलाकर उनके सामने बैठ गया था। इससे वे मुनि रोषपूर्वक बोले- 'तू मेरे आगे
बैलकी भाँति बैठा है, इससे गुरुकी अवहेलना हुई है; अतः दुर्बुद्धे ! तू बैल हो जा।'
माधव ! उस शापसे मैं वङ्गदेशमें बैल हो गया ॥ २४-२६ ॥
असुरोंके सङ्गमें रहनेसे मुझमें असुरभाव आ गया था।
अब आपके प्रसादसे मैं शाप और असुरभावसे मुक्त हो गया। आप श्रीकृष्णको नमस्कार है। आप
भगवान् वासुदेवको प्रणाम है। प्रणतजनोंके क्लेशका नाश करनेवाले आप गोविन्ददेवको बारंबार
नमस्कार है । २७ - २८ ॥
श्रीनारदजी कहते
हैं-राजन् ! यों कहकर श्रीहरिको नमस्कार करके बृहस्पतिके साक्षात् शिष्य वरतन्तु भुवनको
प्रकाशित करते हुए विमानसे दिव्यलोकको चले गये। इस प्रकार मैंने अद्भुत माधुर्यखण्डका
तुमसे वर्णन किया, जो सब पापोंको हर लेनेवाला, पुण्यदायक तथा श्रीकृष्णकी प्राप्ति
करानेवाला उत्तम साधन है। जो सदा इसका पाठ करते हैं, उनकी समस्त कामनाओंको यह देनेवाला
है और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ २९ - ३१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'व्योमासुर और अरिष्टासुरका वध' नामक चौबीसवाँ अध्याय
पूरा हुआ ॥ २४ ॥
॥ माधुर्यखण्ड सम्पूर्ण ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०३)
सोमवार, 28 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट 01)
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
चौबीसवाँ अध्याय (पोस्ट
01)
अरिष्टासुर और व्योमासुर का वध तथा माधुर्यखण्ड का उपसंहार
श्रीनारद उवाच -
एकदा शैलदेशेषु सबलो भगवान्हरिः ।
कृत्वा निलायनक्रीडां चौरपालकलक्षणाम् ॥ १ ॥
तत्र व्योमासुरो दैत्यो बालान्मेषायितान् बहून् ।
नीत्वा नीत्वाऽद्रिदर्यां च विनिक्षिप्य पुनः पुनः ॥ २ ॥
शिलया पिदधे द्वारं मयपुत्रो महाबलः ।
सत्यचौरं च तं ज्ञात्वा भगवान् मधुसूदनः ॥ ३ ॥
गृहीत्वा पातयामास भुजाभ्यां भूमिमंडले ॥ ४ ॥
तदा मृत्युं गतो दैत्यस्तज्ज्योतिर्निर्गतं स्फुरत् ।
दशदिक्षु भ्रमद्राजन् श्रीकृष्णे लीनतां गतम् ॥ ५ ॥
तदा जयजयारावो दिवि भूमौ बभूव ह ।
पुष्पाणि ववृषुर्देवाः परमानंदसंवृताः ॥ ६ ॥
बहुलाश्व उवाच -
कोऽयं पूर्वं कुशलकृद्व्योमो नामाथ तद्वद ।
येन कृष्णे घनश्यामे लीनोऽभूद्दामिनी यथा ॥ ७ ॥
श्रीनारद उवाच -
आसीत्काश्यां भीमरथो राजा दानपरायणः ।
यज्ञकृन्मानदो धन्वी विष्णुभक्तिपरायणः ॥ ८ ॥
राज्ये पुत्रं सन्निवेश्य जगाम मलयाचलम् ।
तपस्तत्र समारेभे वर्षाणां लक्षमेव हि ॥ ९ ॥
तस्याश्रमे पुलस्त्योऽसौ शिष्यवृन्दैः समागतः ।
तं दृष्ट्वा नोत्थितो मानी राजर्षिर्न नतोऽभवत् ॥ १० ॥
शापं ददौ पुलस्त्योऽपि दैत्यो भव महाखल ।
ततस्तच्चरणोपांते पतितं शरणागतम् ॥ ११ ॥
उवाच मुनिशार्दूलः पुलस्त्यो दीनवत्सलः ।
द्वापरान्ते माथुरे च पुण्ये श्रीव्रजमंडले ॥ १२ ॥
यदुवंशपतेः साक्षाच्छ्रीकृष्णस्य भुजौजसा ।
ईप्सिता योगिभिर्मुक्तिर्भविष्यति न संशयः ॥ १३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! एक दिन गोवर्धनके आस-पास
बलरामसहित भगवान् श्रीकृष्ण आँखमिचौनीका खेल खेलने लगे — जिसमें कोई चोर बनता है और
कोई रक्षक । वहाँ व्योमासुर नामक दैत्य आया । उस खेलमें कुछ लड़के भेड़ बनते थे और
कोई चोर बनकर उन भेड़ोंको ले जाकर कहीं छिपाता था। व्योमासुर ने
भेड़ बने हुए बहुत-से गोप-बालकों को बारी-बारीसे ले जाकर पर्वतकी कन्दरामें रखा और
एक शिलासे उसका द्वार बंद कर दिया। वह मयासुरका महान् बलवान् पुत्र था। यह तो सचमुच
चोर निकला, यह जानकर भगवान् मधुसूदनने उसे दोनों भुजाओंद्वारा पकड़ लिया और पृथ्वीपर
दे मारा। ॥ १-४ ॥
हे राजन् ! उस समय दैत्य मृत्युको
प्राप्त हो गया और उसके शरीरसे निकला हुआ प्रकाशमान तेज दसों दिशाओंमें घूमकर श्रीकृष्ण
में लीन हो गया। उस समय स्वर्गमें और पृथ्वीपर जय- जयकारकी ध्वनि होने लगी। देवता लोग
परम आनन्दमें मग्न होकर फूल बरसाने लगे ॥ ५-६ ॥
बहुलाश्वने पूछा
-मुने ! यह व्योम नामक असुर पूर्वजन्ममें कौन-सा पुण्यात्मा मनुष्य था, जिसने श्याम
घनमें बिजलीकी भाँति श्रीकृष्णमें विलय प्राप्त किया ॥ ७ ॥
नारदजी बोले
- राजन् काशीमें भीमरथ नामसे प्रसिद्ध एक राजा थे, जो सदा दान-पुण्यमें लगे रहते थे।
वे यज्ञकर्ता, दूसरोंको मान देनेवाले, धनुर्धर तथा विष्णु- भक्तिपरायण थे। वे राज्यपर
अपने पुत्रको बिठाकर स्वयं मलयाचलपर चले गये और वहाँ तपस्या आरम्भ करके एक लाख वर्षतक
उसीमें लगे रहे। उनके आश्रममें एक समय महर्षि पुलस्त्य शिष्योंके साथ आये । उनको देखकर
भी वे मानी राजर्षि न तो उठकर खड़े हुए और न उनके सामने प्रणत ही हुए ॥ ८-१० ॥
तब पुलस्त्य ने उन्हें शाप दे
दिया- 'ओ महादुष्ट भूपाल ! तू दैत्य हो जा।' तदनन्तर राजा जब उनके चरणों में पड़कर शरणागत हो गये, तब दीनवत्सल मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यने उनसे
कहा – 'द्वापर के अन्तमें मथुरा जनपदके पवित्र व्रजमण्डलमें साक्षात्
यदुवंशराज श्रीकृष्णके बाहुबलसे तुम्हें ऐसी मुक्ति प्राप्त होगी, जिसकी योगीलोग अभिलाषा
रखते हैं—इसमें संशय नहीं हैं' ॥११-१३॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०२)
रविवार, 27 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) तेईसवाँ अध्याय
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
तेईसवाँ अध्याय
अम्बिकावन में अजगर से नन्दराज की रक्षा तथा सुदर्शन नामक विद्याधर का उद्धार
श्रीनारद उवाच -
एकदा नृप गोपालाः शकटै रत्नपूरितैः ।
वृषभानूपनन्दाद्या आजग्मुश्चांबिकावनम् ॥ १ ॥
भद्रकालीं पशुपतिं पूजयित्वा विधानतः ।
ददुर्दानं द्विजातिभ्यः सुप्तास्तत्र सरित्तटे ॥ २ ॥
तत्रैको निर्गतो रात्रौ सर्पो नन्दं पदेऽग्रहीत् ।
कृष्ण कृष्णेति चुक्रोश नन्दोऽतिभयविह्वलः ॥ ३ ॥
तदोल्मुकैर्गोपबालास्तोदुराजगरं नृप ।
पदं सोऽपि न तत्याज सर्पोऽथ स्वमणिं यथा ॥ ४ ॥
तताड स्वपदा सर्पं भगवान् लोकपावनः ।
त्यक्त्त्वा तदैव सर्पत्वं भूत्वा विद्याधरः कृती ।
नत्वा कृष्णं परिक्रम्य कृतांजलिपुटोऽवदत् ॥ ५ ॥
सुदर्शन उवाच -
अहं सुदर्शनो नाम विद्याधरवरः प्रभो ।
अष्टावक्रं मुनिं दृष्ट्वा हसितोऽस्मि महाबलः ॥ ६ ॥
मह्यं शापं ददौ सोऽपि त्वं सर्पो भव दुर्मते ।
तच्छापादद्य मुक्तोऽहम् कृपया तव माधव ॥ ७ ॥
त्वत्पादपद्ममकरंदरजःकणानां
स्पर्शेन दिव्यपदवीं सहसागतोऽस्मि ।
तस्मै नमो भगवते भुवनेश्वराय
यो भूरिभारहरणाय भूवोऽवतारः ॥ ८ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति नत्वा हरिं कृष्णं राजन् विद्याधरस्तु सः ।
जगाम वैष्णवं लोकं सर्वोपद्रव वर्जितम् ॥ ९ ॥
नंदाद्या विस्मिताः सर्वे ज्ञात्वा कृष्णं परेश्वरम् ।
अंबिकावनतः शीघ्रमाययुर्व्रजमंडलम् ॥ १० ॥
इदं मया ते कथितं श्रीकृष्णचरितं शुभम् ।
सर्वपापहरं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ११ ॥
बहुलाश्व उवाच -
अहो श्रीकृष्णचन्द्रस्य चरितं परमाद्भुतम् ।
श्रुत्वा मनो मे तच्छ्रोतुमतृप्तं पुनरिच्छति ॥ १२ ॥
अग्रे चकार कां लीलां लीलया व्रजमंडले ।
हरिर्व्रजेशः परमो वद देवर्षिसत्तम ॥ १३ ॥
नारदजी कहते हैं— नरेश्वर ! एक समय वृषभानु और उपनन्द
आदि गोपगण रत्नोंसे भरे हुए छकड़ोंपर सवार होकर अम्बिकावनमें आये ॥ १ ॥
वहाँ भगवती भद्रकाली और भगवान् पशुपतिका विधिपूर्वक
पूजन करके उन्होंने ब्राह्मणोंको दान दिया और रातको वहीं नदीके तटपर सो गये । वहाँ
रातमें एक सर्प निकला और उसने नन्दका पैर पकड़ लिया । नन्द अत्यन्त भयसे विह्वल हो
'कृष्ण-कृष्ण' पुकारने लगे। नरेश्वर ! उस समय ग्वाल-बालोंने जलती हुई लकड़ियाँ लेकर
उसीसे उस अजगरको मारना शुरू किया, तो भी उसने नन्दका पाँव उसी तरह नहीं छोड़ा, जैसे
मणिधर साँप अपनी मणिको नहीं छोड़ता । तब लोकपावन भगवान् - ने उस सर्पको तत्काल पैरसे
मारा। पैरसे मारते ही वह सर्पका शरीर त्यागकर कृतकृत्य विद्याधर हो गया। उसने श्रीकृष्णको
नमस्कार करके उनकी परिक्रमा की और हाथ जोड़कर कहा ॥ २ -५ ॥
सुदर्शन बोला- प्रभो ! मेरा नाम सुदर्शन है, मैं विद्याधरोंका
मुखिया हूँ । मुझे अपने बलका बड़ा
घमंड था और मैंने अष्टावक्र मुनिको देखकर उनकी हँसी
उड़ायी थी । तब उन्होंने मुझे शाप दे दिया— 'दुर्मते ! तू सर्प हो जा ।' माधव ! उनके
उस शापसे आज मैं आपकी कृपासे मुक्त हुआ हूँ । आपके चरण- कमलोंके मकरन्द एवं परागके
कणोंका स्पर्श पाकर मैं सहसा दिव्य पदवीको प्राप्त हो गया। जो भूतलका भूरि-भार- हरण
करनेके लिये यहाँ अवतीर्ण हुए हैं, उन भगवान् भुवनेश्वर को बारंबार नमस्कार है ।। ६–८ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णको
नमस्कार करके वह विद्याधर सब प्रकारके उपद्रवोंसे रहित वैष्णवलोकको चला गया। उस समय
श्रीकृष्णको परमेश्वर जानकर नन्द आदि गोप बड़े विस्मित हुए। फिर वे शीघ्र ही अम्बिकावनसे
व्रजमण्डलको चले गये। इस प्रकार मैंने तुमसे श्रीकृष्णके शुभ चरित्रका वर्णन किया,
जो पुण्यप्रद तथा सर्वपापहारी है। अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ ९ – ११ ॥
बहुलाश्व बोले- अहो ! श्रीकृष्णचन्द्र का चरित्र अत्यन्त अद्भुत है, उसे सुनकर मेरा मन पुनः उसे सुनना चाहता
है। देवर्षिसत्तम । व्रजेश्वर परमात्मा श्रीहरि ने व्रज-मण्डल में आगे चलकर कौन-सी लीला की ? ॥ १२-१३ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत 'सुदर्शनोपाख्यान' नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-तीसरा अध्याय..(पोस्ट०१)
शनिवार, 26 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) बाईसवाँ अध्याय
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
बाईसवाँ अध्याय
श्रीकृष्ण का नन्दराज को वरुणलोक से ले आना और गोप-गोपियों को वैकुण्ठधाम का दर्शन कराना
श्रीनारद उवाच -
एकदा नंदराजोऽसौ कृत्वा चैकादशीव्रतम् ।
द्वादश्यां यमुनां स्नातुं गोपालैर्जलमाविशत् ॥ १ ॥
तं गृहीत्वा पाशिभृत्यः पाशिलोकं जगाम ह ।
तदा कोलाहले जाते गोपानां मैथिलेश्वर ॥ २ ॥
आश्वास्य सर्वान् भगवान् गतवान् वारुणीं पुरीम् ।
भस्मीचकार सहसा पुरीदुर्गं हरिः स्वयम् ॥ ३ ॥
कोटिमार्तंडसंकाशं दृष्ट्वा प्रकुपितं हरिम् ।
नत्वा कृतांजलिः पाशी परिक्रम्याह धर्षितः ॥ ४ ॥
वरुण उवाच -
नमः श्रीकृष्णचंद्राय परिपूर्णतमाय च ।
असंख्यब्रह्मांडभृते गोलोकपतये नमः ॥ ५ ॥
चतुर्व्यूहाय महसे नमस्ते सर्वतेजसे ।
नमस्ते सर्वभावाय परस्मै ब्रह्मणे नमः ॥ ६ ॥
केनापि मूढेन ममानुगेन
कृतं परं हेलनमद्य एव ।
तत्क्षम्यतां भोः शरणं गतं मां
परेश भूमन् परिपाहि पाहि ॥ ७ ॥
श्रीनारद उवाच -
इति प्रसन्नो भगवान् नंदं नीत्वा सुजीवितम् ।
सौख्यं प्रकाशयन्बंधून् व्रजमंडलमाययौ ॥ ८ ॥
नन्दराजमुखाच्छ्रुत्वा प्रभावं श्रीहरेस्तु तम् ।
गोपीगोपगणा ऊचुः श्रीकृष्णं नन्दनंदनम् ॥ ९ ॥
यदि त्वं भगवान्साक्षाल्लोकपालैः सुपूजितः ।
दर्शयाशु परं लोकं वैकुण्ठं तर्हि नः प्रभो ॥ १० ॥
नीत्वा सर्वान् ततः कृष्ण एत्य वैकुण्ठमंदिरम् ।
दर्शयामास रूपं स्वं ज्योतिर्मंडलमध्यगम् ॥ ११ ॥
सहस्रभूजसंयुक्तं किरीटकटकोज्ज्वलम् ।
शंखचक्रगदापद्मवनमालाविराजितम् ॥ १२ ॥
असंख्यकोटिमार्तंड संकाशं शेषसंस्थितम् ।
चामरांदोलदिव्याभं ब्रह्माद्यैः परिसेवितम् ॥ १३ ॥
तदैव तान् गोपगणान् पार्षदास्ते गदाधराः ।
ऋजुं कृत्वा नतिं धृत्वा दूरे स्थाप्य प्रयत्नतः ॥ १४ ॥
चकितानिव तान्वीक्ष्य प्रोचुस्ते पार्षदा गिरा ।
रे रे तूष्णीं प्रभवत मा वक्तव्यं वनेचराः ॥ १५ ॥
भाषणं मा प्रकुरुत न दृष्ट्वा किं सभा हरेः ।
वेदा वदंति चात्रैव साक्षाद्देवे स्थिते प्रभौ ॥ १६ ॥
इति शिक्षां गता गोपा हर्षिता मौनमास्थिताः ।
मनस्यूचुरयं कृष्ण उच्चसिंहासने स्थितः ॥ १७ ॥
अस्मान् दूरादधःकृत्वा ऽस्माभिर्वक्ति न कर्हिचित् ।
तस्माद्व्रजाद्वरं नास्ति कोपि लोको न सौख्यदः ॥ १८ ॥
यत्रानेन स्वभ्रात्रापि वार्ता स्याद्धि परस्परम् ।
इतिप्रवदतस्तान्वै नीत्वा श्रीभगवान् हरिः ।
व्रजमागतवान् राजन् परिपूर्णतमः प्रभुः ॥ १९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- एक दिनकी बात है, नन्दराज एकादशीका
व्रत करके द्वादशीको निशीथ कालमें ही ग्वालोंके साथ यमुना स्नानके लिये गये और जलमें
उतरे । वहाँ वरुणका एक सेवक उन्हें पकड़कर वरुण-लोकमें ले गया। मैथिलेश्वर ! उस समय
ग्वालोंमें कुहराम मच गया; तब उन सबको आश्वासन दे भगवान् श्रीहरि वरुणपुरीमें पधारे
और उन्होंने सहसा उस पुरीके दुर्गको भस्म कर दिया। करोड़ों सूर्योक समान तेजस्वी श्रीहरिको
अत्यन्त कुपित हुआ देख वरुणने तिरस्कृत होकर उन्हें नमस्कार किया और उनकी परिक्रमा
करके हाथ जोड़कर कहा ।। १-४ ॥
वरुण बोले- श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है। परिपूर्णतम
परमात्मा तथा असंख्य ब्रह्माण्डोंका भरणपोषण करनेवाले गोलोकपतिको नमस्कार है। चतुर्व्यूहके
रूपमें प्रकट तेजोमय श्रीहरिको नमस्कार है। सर्वतेजःस्वरूप आप परमेश्वरको नमस्कार है
। सर्वस्वरूप आप परब्रह्म परमात्माको नमस्कार है। मेरे किसी मूर्ख सेवक ने यह पहली बार आपकी अवहेलना की है; उसके लिये आप मुझे क्षमा करें।
परेश ! भूमन् ! मैं आपकी शरणमें आया हूँ; आप मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये ॥ ५-७
॥
नारदजी कहते हैं- राजन् ! यह सुनकर प्रसन्न हुए भगवान्
श्रीकृष्ण नन्दजीको जीवित लेकर अपने बन्धुजनोंको सुख प्रदान करते हुए व्रजमण्डलमें
लौट आये ॥ ८ ॥
नन्दराजके मुखसे श्रीहरिके उस प्रभावको सुनकर गोपी
और गोप- समुदाय नन्दनन्दन श्रीकृष्णसे बोले- 'प्रभो! यदि आप लोकपालोंसे पूजित साक्षात्
भगवान् हैं तो हमें शीघ्र ही उत्तम वैकुण्ठ- लोकका दर्शन कराइये।' तब उन सबको लेकर
श्रीकृष्ण वैकुण्ठधाममें गये और वहाँ उन्होंने ज्योतिर्मण्डलके मध्यमें विराजमान अपने
स्वरूपका उन्हें दर्शन कराया ॥ ९-११ ॥
उनके सहस्र भुजाएँ थीं, किरीट और कटक आदि आभूषणोंसे
उनका स्वरूप और भी भव्य दिखायी देता था। वे शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और वनमाला से सुशोभित थे ॥ १२ ॥
असंख्य कोटि सूर्यों के समान
तेजस्वी स्वरूपसे वे शेषनागकी शय्यापर पौढ़े थे। चँवर डुलाये जानेसे उनकी आभा और भी
दिव्य जान पड़ती थी । ब्रह्मा आदि देवता उनकी सेवामें लगे थे ॥ १३ ॥
उस समय भगवान् के गदाधारी पार्षदोंने
उन गोपगणोंको सीधे करके उनसे प्रणाम करवाकर उन्हें प्रयत्नपूर्वक दूर खड़ा किया और
उन्हें चकित सा देख वे पार्षद बोले— 'अरे वनचरो ! चुप हो जाओ । यहाँ वक्तृता न दो,
भाषण न करो। क्या तुमने श्रीहरिकी सभा कभी नहीं देखी है ? यहीं सबके प्रभु देवाधिदेव
साक्षात् भगवान् स्थित होते हैं और वेद उनके गुण गाते हैं।' इस प्रकार शिक्षा देनेपर
वे गोप हर्षसे भर गये और चुपचाप खड़े हो गये। अब वे मन-ही-मन कहने लगे- 'अरे! यह ऊँचे
सिंहासनपर बैठा हुआ हमारा श्रीकृष्ण ही तो है ॥ १४-१७ ॥
हम समीप खड़े हैं, तो भी हमें नीचे खड़ा करके ऊँचे
बैठ गया है और हमसे क्षणभरके लिये बाततक नहीं करता । इसलिये व्रजसे बढ़कर न कोई श्रेष्ठ
लोक है और न उससे बढ़कर दूसरा कोई सुखदायक लोक है; क्योंकि व्रजमें तो यह हमारा भाई
रहा है और इसके साथ हमारी परस्पर बातचीत होती रही है।' राजन् ! इस प्रकार कहते हुए
उन गोपोंके साथ परिपूर्णतम प्रभु भगवान् श्रीहरि व्रजमें लौट आये ॥ १८-१९॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद- बहुलाश्व-संवादमें 'नन्द आदिका वैकुण्ठदर्शन' नामक बाईसवाँ अध्याय पूरा
हुआ ॥ २२ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) इक्कीसवाँ अध्याय
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
इक्कीसवाँ अध्याय
दावानल से गौओं और ग्वालों का छुटकारा
तथा विप्रपत्नियोंको श्रीकृष्ण का दर्शन
श्रीनारद उवाच -
अथ क्रीडाप्रसक्तेषु गोपेषु सबलेषु च ।
तृणलोभेन विविशुर्गावः सर्वा महद्वनम् ॥ १ ॥
ता आनेतुं गोपबालाः प्राप्ता मुंजाटवीं पराम् ।
संभूतस्तत्र दावाग्निः प्रलयाग्निसमो महान् ॥ २ ॥
गोभिर्गोपाः समेतास्ते श्रीकृष्णं सबलं हरिम् ।
वदन्तः पाहि पाहीति भयार्ताः शरणं गताः ॥ ३ ॥
वीक्ष्य वह्निभयं स्वानां कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।
न्यमीलयत मा भैष्ट लोचनानीत्यभाषत ॥ ४ ॥
तथाभूतेषु गोपेषु तमग्निं भयकारकम् ।
अपिबद्भगवान्देवो देवानां पश्यतां नृप ॥ ५ ॥
एवं पीत्वा महावह्निं नीत्वा गोपालगोगणम् ।
प्राप्तोऽभूत् यमुनापारे शुभाशोकवने हरिः ॥ ६ ॥
तत्र क्षुत्पीडिता गोपाः श्रीकृष्णं सबलं हरिम् ।
कृतांजलिपुटा ऊचुः क्षुधार्ताः स्मो वयं प्रभो ॥ ७ ॥
तदा तान्प्रेषयामास यज्ञ आंगिरसे हरिः ।
ते गत्वा तं यज्ञवरं नत्वोचुर्विमलं वच ॥ ८ ॥
गोपा ऊचुः -
गोपालबालैः सबलः समागतो
गाश्चारयन् श्रीव्रजराजनन्दनः ।
क्षुत्संयुतोऽस्मै सगणाय भूसुराः
प्रयच्छताश्वन्नमनंगमोहिने ॥ ९ ॥
श्रीनारद उवाच -
न किंचिदूचुस्ते सर्वे वचः श्रुत्वा द्विजा नृप ।
गोपा निराशा आगत्य इत्यूचुः सबलं हरिम् ॥ १० ॥
गोपा ऊचु -
त्वमस्यधीशो व्रजमंडले बली
श्रीगोकुले नन्दपुरोऽग्रदण्डधृक् ।
न वर्तते दण्डमलं मधोः पुरि
प्रचंडचंडांशुमहस्तव स्फुरत् ॥ ११ ॥
श्रीनारद उवाच -
पुनस्तान् प्रेषयामास तत्पत्नीभ्यो हरिः स्वयम् ।
यज्ञवाटं पुनर्गत्वा नत्वा विप्रप्रियास्तदा ।
कृतांजलिपुटा ऊचुर्गोपाः कृष्णप्रणोदिताः ॥ १२ ॥
गोपा ऊचुः -
गोपालबालैः सबलः समागतो
गाश्चारयन् श्रीव्रजराजनन्दनः ।
क्षुत्संयुतोऽस्मै सगणाय चांगनाः
प्रयच्छताश्वन्नमनंगमोहिने ॥ १३ ॥
श्रीनारद उवाच -
कृष्णं समागतं श्रुत्वा कृष्णदर्शनलालसाः ।
चक्रुस्तथाऽन्नं पात्रेषु नीत्वा सर्वा द्विजांगनाः ॥ १४ ॥
त्यक्त्वा सद्यो लोकलज्जां कृष्णपार्श्वं समाययुः ।
अशोकानां वने रम्ये कृष्णातीरे मनोहरे ॥ १५ ॥
यथा श्रुतं तथा दृष्टं श्रीहरेर्रूपमद्भुतम् ।
प्राप्यानंदं गताः सर्वास्तुरीयं योगिनो यथा ॥ १६ ॥
श्रीभगवानुवाच -
धन्या यूयं दशनार्थमागता हे द्विजांगनाः ।
प्रतियात गृहाञ्छीघ्रं निःशंका भूमिदेवताः ॥ १७ ॥
युष्माकं तु प्रभावेण पतयो वो द्विजातयः ।
सद्यो यज्ञफलं प्राप्य युष्माभिः सह निर्मलाः ॥ १८ ॥
गमिष्यंति परं धाम गोलोकं प्रकृतेः परम् ।
अथ नत्वा हरिं सर्वा आजग्मुर्यज्ञमण्डले ॥ १९ ॥
श्रीनारद उवाच -
ता दृष्ट्वा ब्राह्मणाः सर्वे स्वात्मानं धिक् प्रचक्रिरे ।
दिदृक्षवस्ते श्रीकृष्णं कंसाद्भीता न चागताः ॥ २० ॥
भुक्त्वाऽन्नं सबलः कृष्णो गोपालैः सह मैथिल ।
गाः पालयन्नाजगाम वृन्दारण्यं मनोहरम् ॥ २१ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! तदनन्तर श्रीबलरामसहित
समस्त ग्वाल-बाल खेलमें आसक्त हो गये। उधर सारी गौएँ घासके लोभ से
विशाल वनमें प्रवेश कर गयीं। उनको लौटा लानेके लिये ग्वाल- बाल बहुत बड़े मूँजके वनमें
जा पहुँचे। वहाँ प्रलयाग्निके समान महान् दावानल प्रकट हो गया। उस समय गौओंसहित समस्त
ग्वाल-बाल एकत्र हो बलरामसहित श्रीकृष्णको पुकारने लगे और भयसे आर्त हो, उनकी शरण ग्रहण
कर 'बचाओ, बचाओ !' यों कहने लगे ॥ १-३ ॥
अपने सखाओंके ऊपर अग्निका महान् भय देखकर योगेश्वरेश्वर
श्रीकृष्णने कहा- 'डरो मत; अपनी आँखें बंद कर लो।' नरेश्वर ! जब गोपोंने ऐसा कर लिया,
तब देवताओंके देखते-देखते भगवान् गोविन्ददेव उस भयकारक अग्निको पी गये। इस प्रकार उस
महान् अग्निको पीकर ग्वालों और गौओंकों साथ ले श्रीहरि यमुनाके उस पार अशोकवनमें जा
पहुँचे। वहाँ भूखसे पीड़ित ग्वाल-बाल बलरामसहित श्रीकृष्णसे हाथ जोड़कर बोले— 'प्रभो!
हमें बहुत भूख सता रही है ।' तब भगवान् ने उनको आङ्गिरस- यज्ञ में भेजा । वे उस श्रेष्ठ यज्ञमें जाकर नमस्कार करके निर्मल वचन बोले
॥ ४-८ ॥
गोपोंने कहा- ब्राह्मणो ! ग्वाल-बालों और बलरामजीके
साथ व्रजराजनन्दन श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए इधर आ निकले हैं, उन सबको भूख लगी है। अतः
आप सखाओंसहित उन मदनमोहन श्रीकृष्णके लिये शीघ्र ही अन्न प्रदान करें ।। ९ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं- नरेश्वर ! ग्वाल-बालोंकी वह बात
सुनकर वे ब्राह्मण कुछ नहीं बोले । तब
ग्वाल-बाल निराश लौट गये और आकर बलराम- सहित श्रीकृष्णसे
इस प्रकार बोले-- ॥ १० ॥
गोपों ने कहा- सखे! तुम व्रजमण्डलमें
ही अधीश बने हुए हो । गोकुलमें ही तुम्हारा बल चलता है और नन्दबाबाके आगे ही तुम कठोर
दण्डधारी बने हुए हो। प्रचण्ड सूर्यके समान तेजस्वी तुम्हारा प्रकाशमान दण्ड निश्चय
ही मथुरापुरीमें अपना प्रभाव नहीं प्रकट करता ॥ ११ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं— राजन् ! तब श्रीहरिने उन ग्वाल-बालोंको
पुनः यज्ञकर्ता ब्राह्मणोंकी पत्नियोंके पास भेजा। तब वे पुनः यज्ञशालामें गये और उन
ब्राह्मण पत्नियोंको नमस्कार करके वे श्रीकृष्णके भेजे हुए ग्वाल हाथ जोड़कर बोले ॥
१२ ॥
गोपोंने कहा- ब्राह्मणी देवियो ! ग्वाल-बालों और बलरामजीके
साथ गाय चराते हुए श्रीब्रजराज - नन्दन कृष्ण इधर आ गये हैं, उन्हें भूख लगी है। सखाओंसहित
उन मदनमोहनके लिये आपलोग शीघ्र ही अन्न प्रदान करें ।। १३ ।।
श्रीनारदजी कहते हैं- राजन् ! श्रीकृष्णका शुभागमन
सुनकर उन समस्त विप्रपत्त्रियोंके मनमें उनके दर्शनकी लालसा जाग उठी। उन्होंने विभिन्न
पात्रोंमें भोजनकी सामग्री रख लीं और तत्काल लोक-लाज छोड़कर वे श्रीकृष्णके पास चली
गयीं । रमणीय अशोकवनमें यमुनाके मनोरम तटपर विप्र- पत्नियोंने श्रीहरिका अद्भुत रूप
जैसा सुना था, वैसा ही देखा । दर्शन पाकर वे सब परमानन्दमें उसी प्रकार निमग्न हो गयीं,
जैसे योगीजन तुरीय ब्रह्मका साक्षात्कार करके आनन्दित हो उठते हैं ।। १४–१६ ॥
श्रीभगवान् बोले- विप्रपत्त्रियो ! तुमलोग धन्य हो,
जो मेरे दर्शनके लिये यहाँतक चली आयीं, अब शीघ्र ही घर लौट जाओ। ब्राह्मणलोग तुमपर
कोई संदेह नहीं करेंगे। तुम्हारे ही प्रभावसे तुम्हारे पतिदेवता ब्राह्मणलोग तत्काल
यज्ञका फल पाकर निर्मल हो, तुम्हारे साथ प्रकृतिसे परे विद्यमान परमधाम गोलोकको चले
जायँगे ।। १७-१८ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं-तब श्रीहरिको नमस्कार करके वे
सब स्त्रियाँ यज्ञशालामें चली आयीं, उन्हें देखकर सब ब्राह्मणोंने अपने-आपको धिक्कारा
। वे कंसके डरसे स्वयं श्रीकृष्णको देखनेके लिये नहीं जा सके थे । १९-२० ॥
मैथिल ! ग्वाल-बालों और बलरामजीके साथ वह अन्न खाकर
श्रीकृष्ण गौओंको चराते हुए मनोहर वृन्दावनमें चले गये ॥ २१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत नारद-बहुलाश्व-संवादमें 'दावानलसे गौओं और ग्वालोंका छुटकारा तथा विप्रपत्त्रियोंको
श्रीकृष्णका दर्शन' नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०९)
गुरुवार, 24 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) बीसवाँ अध्याय
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
बीसवाँ अध्याय
बलदेवजी के हाथ से प्रलम्बासुर का वध तथा उसके पूर्वजन्म का परिचय
श्रीनारद उवाच -
इति कृष्णस्तवं श्रुत्वा मान्धाता नृपसत्तमः ।
अयोध्यां प्रययौ वीरो नत्वा श्रीसौभरिं मुनिम् ॥ १ ॥
इदं मया ते कथितं गोपीनां चरितं शुभम् ।
महापापहररं पुण्यं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ २ ॥
बहुलाश्व उवाच -
श्रुतं तव मुखाद्ब्रह्मन् गोपीनां वर्णनं परम् ।
यमुनायाश्च पंचांगं महापातकनाशनम् ॥ ३ ॥
श्रीकृष्णः सबलः साक्षाद्गोलोकाधिपतिः प्रभुः ।
अग्रे चकार कं लीलां ललितां व्रजमंडले ॥ ४ ॥
श्रीनारद उवाच -
एकदा चारयन्गाः स्वाः सबलो गोपबालकैः ।
भांडीरे यमुनातीरे बाललीलां चकार ह ॥ ५ ॥
विहारं कारयन् बालैः वाह्यवाहकलक्षणम् ।
विजहार वने कृष्णो दर्शयन्गा मनोहराः ॥ ६ ॥
तत्रागतो गोपरूपी प्रलंबः कंसनोदितः ।
न ज्ञातो बालकैः सोपि हरिणा विदितोऽभवत् ॥ ७ ॥
विहारे विजयं रामं नेतुं कोऽपि न मन्यते ।
ऊवाह तं प्रलंबोऽसौ भांडीराद्यमुनातटम् ॥ ८ ॥
अवरोहरणतो दैत्यो मथुरां गंतुमुद्यतः ।
दधार घनवद्रूपं गिरीन्द्र इव दुर्गमः ॥ ९ ॥
बभौ बलो दैत्यपृष्ठे सुन्दरो लोलकुण्डलः ।
आकाशस्थः पूर्णचन्द्रः सतडिज्जलदो यथा ॥ १० ॥
दैत्यं भयंकरं वीक्ष्य बलदेवो महाबलः ।
रुषाऽहनन्मुष्टिना तं शिरस्यद्रिं यथाऽद्रिभित् ॥ ११ ॥
विशीर्णमस्तको दैत्यो यथा वज्रहतो गिरिः ।
पपात भूमौ सहसा चालयन् वसुधातलम् ॥ १२ ॥
तज्ज्योतिर्निर्गतं दीर्घं बले लीनं बभूव ह ।
तदैव ववृषुर्देवाः पुष्पैर्नन्दनसंभवैः ॥ १३ ॥
अभूज्जय जयारावो दिवी भूमौ नृपेश्वर ।
एवं श्रीबलदेवस्य चरितं परमाद्भुतम् ।
मया ते कथितं राजन् किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १४ ॥
बहुलाश्व उवाच -
कोऽयं दैत्यः पूर्वकाले प्रलंबो रणदुर्मदः ।
बलदेवस्य हस्तेन मुक्तिं प्राप कथं मुने ॥ १५ ॥
श्रीनारद उवाच -
शिवस्य पूजनार्थं हि यक्षराट् स्ववने शुभे ।
कारयामास पुष्पाणां रक्षां यक्षैरितस्ततः ॥ १६ ॥
तदप्यस्यापि जगृहुः पुष्पाणि प्रस्फुरंति च ।
ततः क्रुद्धो ददौ शापं यक्षराड् धनदो बली ॥ १७ ॥
ये गृह्णंत्यस्य पुष्पाणि स्वे चान्ये सुरमानवाः ।
भवितारोऽसुराः सर्वे मच्छापात् सहसा भुवि ॥ १८ ॥
हूहूसुतोऽथ विजयो विचरन् तीर्थभूमिषु ।
वनं चैत्ररथं प्राप्तो गायन् विष्णुगुणान्पथि ॥ १९ ॥
वीणापाणिरजानन्वै गन्धर्वः सुमनांसि च ।
गृहीत्वा सोऽसुरो जातो गन्धर्वत्वं विहाय तत् ॥ २० ॥
तदैव शरणं प्राप्तः कुबेरस्य महात्मनः ।
नत्वा तत्प्रार्थनां चक्रे कृतांजलिपुटः शनैः ॥ २१ ॥
तस्मै प्रसन्नो राजेन्द्र कुबेरोऽपि वरं ददौ ।
त्वं विष्णुभक्तः शांतात्मा मा शोकं कुरु मानद ॥ २२ ॥
द्वापरांते च ते मुक्तिः बलदेवस्य हस्ततः ।
भविष्यति न सन्देहो भांडीरे यमुनातटे ॥ २३ ॥
श्रीनारद उवाच -
हूहूसुतः स गन्धर्वः प्रलंबोऽभून्महासुरः ।
कुबेरस्य वराद्राजन् परं मोक्षं जगाम ह ॥ २४ ॥
श्रीनारदजी
कहते हैं- राजन् ! इस प्रकार यमुनाजी का सहस्रनामस्तोत्र सुनकर
वीरभूप- शिरोमणि मांधाता सौभरिमुनि को नमस्कार करके अयोध्यापुरी को चले गये। यह मैंने तुमसे गोपियोंके शुभ चरित्रका वर्णन किया, जो
महान् पापोंको हर लेनेवाला और पुण्यप्रद है । बताओ और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १-२
॥
बहुलाश्व बोले- ब्रह्मन् ! मैंने आपके मुखसे गोपियोंके
चरित्रका उत्तम वर्णन सुना। साथ ही यमुनाके पञ्चाङ्गका भी श्रवण किया, जो बड़े-बड़े
पातकोंका नाश करनेवाला है। साक्षात् गोलोकके अधिपति भगवान् श्रीकृष्णने बलरामजीके साथ
व्रजमण्डलमें आगे कौन-कौन-सी मनोहर लीलाएँ कीं, यह बताइये ॥ ३-४ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! एक दिन श्रीबलराम और ग्वाल-बालोंके
साथ अपनी गौएँ चराते हुए श्रीकृष्ण भाण्डीरवनमें यमुनाजीके तटपर बालोचित खेल खेलने
लगे ॥ ५ ॥
बालकों से बाह्य- वाहन का खेल करवाते हुए श्रीकृष्ण मनोहर गौओं की देख-भाल
करते हुए वनमें विहार करते थे। (इस खेलमें कुछ लड़के वाहन — घोड़ा आदि बनते और कुछ
उनकी पीठपर सवारी करते थे।) उस समय वहाँ कंसका भेजा हुआ असुर प्रलम्ब गोपरूप धारण करके
आया। दूसरे ग्वाल-बाल तो उसे न पहचान सके, किंतु भगवान् श्रीकृष्णसे उसकी माया छिपी
न रही । खेलमें हारनेवाला बालक जीतनेवालेको पीठपर चढ़ाता था; किंतु जब बलरामजी जीत
गये, तब उन्हें कोई भी पीठपर चढ़ानेको तैयार नहीं हुआ। उस समय प्रलम्बासुर ही उन्हें
भाण्डीरवनसे यमुनातटतक अपनी पीठपर चढ़ाकर ले जाने लगा ॥ ६-८ ॥
[एक निश्चित स्थान था,
जहाँ ढोकर ले जानेवाला बालक अपनी पीठपर चढ़े हुए बालकको उतार देता था; परंतु] प्रलम्बासुर उतारनेके स्थानपर पहुँचकर भी उन्हें उतारे बिना ही मथुरातक
ले जानेको उद्यत हो गया। उसने बादलोंकी घोर घटाकी भाँति भयानक रूप धारण कर लिया और
विशाल पर्वतके समान दुर्गम हो गया। उस दैत्यकी पीठपर बैठे हुए सुन्दर बलरामजीके कानोंमें
कान्तिमान् कुण्डल हिल रहे थे। ऐसा जान पड़ता था, मानो आकाशमें पूर्ण चन्द्रमा उदित
हुए हों अथवा मेघोंकी घटामें बिजली चमक रही हो ॥ ९-१० ॥
उस भयानक दैत्यको देखकर महाबली बलदेवजीको बड़ा क्रोध
हुआ । उन्होंने उसके मस्तकपर कसके एक मुक्का मारा, मानो इन्द्रने किसी पर्वतपर वज्रका
प्रहार किया हो। उस दैत्यका मस्तक वज्रसे आहत पहाड़की तरह फट गया और वह सहसा पृथ्वीको
कम्पित करता हुआ धराशायी हो गया। उसके शरीरसे एक विशाल ज्योति निकली और बलरामजीमें
विलीन हो गयी। उस समय देवता बलरामजीके ऊपर नन्दनवनके फूलोंकी वर्षा करने लगे। नृपेश्वर
! पृथ्वीपर और आकाशमें भी जय-जयकार होने लगी। राजन् ! इस प्रकार श्रीबलदेवजीके परम
अद्भुत चरित्रका मैंने तुम्हारे समक्ष वर्णन किया, अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥११– १४॥
बहुलाश्वने पूछा- मुने ! वह रण-दुर्मद दैत्य प्रलम्ब
पूर्वजन्ममें कौन था ? और बलदेवजीके हाथसे उसकी मुक्ति क्यों हुई ? ॥ १५ ॥
श्रीनारदजीने कहा- राजन् ! यक्षराज कुबेरने अपने सुन्दर
वनमें भगवान् शिवको पूजाके लिये फुलवारी लगा रखी थी और इधर-उधर यक्षोंको तैनात करके
उन फूलोंकी रक्षाका प्रबन्ध करवाया था; तथापि उस पुष्पवाटिकाके सुन्दर एवं चमकीले फूल
लोग तोड़ लिया करते थे। इससे कुपित हो बलवान् यक्षराज कुबेरने यह शाप दिया- 'जो यक्ष
इस फुलवारीके फूल लेंगे अथवा दूसरे भी जो देवता और मनुष्य आदि फूल तोड़नेका अपराध करेंगे,
वे सब सहसा मेरे शापसे भूतलपर असुर हो जायँगे।' ॥ १६-१८ ॥
एक दिन हूहू नामक गन्धर्वका बेटा 'विजय' तीर्थभूमियोंमें
विचरता तथा मार्गमें भगवान् विष्णुके गुणोंको गाता हुआ चैत्ररथ वनमें आया। उसके हाथमें
वीणा थी। बेचारा गन्धर्व शापकी बातको नहीं जानता था, अतः उसने वहाँसे कुछ फूल ले लिये।
फूल लेते ही वह गन्धर्वरूपको त्यागकर असुर हो गया। फिर तो वह तत्काल महात्मा कुबेरकी
शरण में गया और नमस्कार करके दोनों हाथ जोड़कर धीरे- धीरे शापसे छूटनेके लिये प्रार्थना
करने लगा । राजेन्द्र ! तब उसपर प्रसन्न होकर कुबेरने भी वर दिया- 'मानद ! तुम भगवान्
विष्णुके भक्त तथा शान्त-चित्त महात्मा हो, इसलिये शोक न करो । द्वापरके अन्तमें भाण्डीर-वनमें
यमुनाके तटपर बलदेवजीके हाथसे तुम्हारी मुक्ति होगी, इसमें संदेह नहीं है ॥ १९-२३ ॥
श्रीनारदजी कहते हैं—- राजन् ! हूहू
का पुत्र वह विजयनामक गन्धर्व ही महान् असुर प्रलम्ब
हुआ और कुबेर के वर से उसको परम मोक्ष की प्राप्ति हुई ॥ २४ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत श्रीनारद- बहुलाश्व-संवादमें 'प्रलम्ब-वध' नामक बीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥
२० ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-दूसरा अध्याय..(पोस्ट०८)
बुधवार, 23 अक्तूबर 2024
श्रीगर्ग-संहिता (माधुर्यखण्ड) उन्नीसवाँ अध्याय
#
श्रीहरि: #
श्रीगर्ग-संहिता
(माधुर्यखण्ड)
उन्नीसवाँ अध्याय
यमुना - सहस्रनाम (हिन्दी)
मांधाता बोले- मनुष्यश्रेष्ठ ! यमुनाजीका सहस्रनाम
समस्त सिद्धियोंकी प्राप्ति करानेवाला उत्तम साधन है, आप मुझे उसका उपदेश कीजिये; क्योंकि
आप सर्वज्ञ और निरामय (रोग-शोकसे रहित) हैं ॥ १ ॥
सौभरिने कहा-
मांधाता नरेश ! मैं तुमसे 'कालिन्दी सहस्रनाम' का वर्णन करता हूँ। वह समस्त
सिद्धियोंकी प्राप्ति करानेवाला, दिव्य तथा श्रीकृष्णको
वशीभूत करनेवाला है ॥ २ ॥
विनियोग
ॐ अस्य श्रीकालिन्दीसहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य सौभरिऋषिः,
श्रीयमुना देवता, अनुष्टुप्छन्दः, माया- बीजमिति कीलकम्, रमाबीजमिति शक्तिः, श्रीकलिन्दनन्दिनीप्रसाद
सिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः ।
उक्त वाक्य पढ़कर सहस्रनाम पाठ के
लिये विनियोग का जल छोड़े ।
ध्यान
जो श्यामा (श्यामवर्णा एवं षोडश वर्षकी अवस्थावाली)
हैं, जिनके नेत्र प्रफुल्ल कमल-दलकी शोभाको छीने लेते हैं, घनीभूत मेघके समान जिनकी
नील कान्ति है, जो रत्नोंद्वारा निर्मित बजते हुए नूपुर और झनकारती हुई करधनी एवं केयूर
आदि आभूषणोंसे युक्त हैं तथा कानोंमें सुवर्ण एवं मणिनिर्मित दो कुण्डल धारण करती हैं,
दीप्तिमती नीली साड़ीपर चमकते हुए गजमौक्तिक के चञ्चल हारका भार
वहन करनेसे अत्यन्त मनोहर जान पड़ती हैं, शरीरसे छिटकती हुई किरणोंकी राशिसे उद्दीप्त
होनेके कारण जिनकी प्रज्वलित दीपमालाके समान शोभा हो रही है, उन सूर्यनन्दिनी यमुनाजीका
मैं ध्यान करता हूँ ॥ ३ ॥
सहस्त्रनाम
१. ॐ कालिन्दी- सच्चिदानन्दस्वरूपा कलिन्दगिरि-नन्दिनी,
२. यमुना यमकी बहिन, ३. कृष्णा-कृष्णवर्णा, ४. कृष्णरूपा=कृष्णस्वरूपा अथवा कृष्णरूपवाली,
५. सनातनी नित्या, ६ कृष्णवामांससम्भूता श्रीकृष्णके बायें कंधेसे प्रकट हुई, ७. परमानन्दरूपिणी-
परमानन्दमयी ॥४॥
८. गोलोकवासिनी= गोलोकधाममें निवास करनेवाली, ९. श्यामा-श्यामवर्णा
अथवा षोडश वर्षकी अवस्थावाली, १०. वृन्दावनविनोदिनी वृन्दावनमें मनोरञ्जन करनेवाली,
११. राधासखी - श्रीराधाकी सहचरी, १२. रासलीला - रासमण्डलमें लीलापरयणा अथवा रासलीलास्वरूपा,
१३. रास- मण्डलमण्डिनी = रासमण्डलको अलंकृत करने- वाली ॥ ५ ॥
१४. निकुञ्जवासिनी-निकुञ्ज में
निवास करने- वाली, १५. वल्ली = लतास्वरूपा, १६. रङ्गवल्ली- रासरङ्गस्थली में वल्ली के समान शोभा पानेवाली अथवा रङ्गवल्ली
नाम की राधा - सखी गोपी से अभिन्नस्वरूपा,१७.
मनोहरा = मन को हर लेनेवाली, १८. श्रीः = लक्ष्मीस्वरूपा, १९
रासमण्डलीभूता = रासमण्डल स्वरूपा अथवा मण्डलाकार होकर रासमण्डलको अलंकृत करनेवाली,
२०. यूथीभूता= अपनी सहचरियोंके यूथसे संयुक्त, २१. हरिप्रिया- श्रीकृष्ण- की प्यारी
॥ ६ ॥
२२. गोलोकतटिनी- गोलोकधामकी नदी, २३. दिव्या दिव्यस्वरूपा,
२४. निकुञ्जतलवासिनी निकुञ्जके भीतर निवास करनेवाली, २५. दीर्घा = बहुत लंबे परिमाणकी,
२६. ऊर्मिवेगगम्भीरा = तरंगोंके वेगसे युक्त एवं गहरी, २७. पुष्पपल्लववाहिनी= फूलों
और पल्लवोंको बहानेवाली ॥ ७ ॥
२८. घनश्यामा-मेघके समान श्याम कान्ति- वाली, २९. मेघमाला-घनमालास्वरूपा,
बलाका- बकपङ्क्ति स्वरूपा, ३१. पद्ममालिनी- कमलोंकी मालासे अलंकृत, ३२. परिपूर्णतमा-
परिपूर्णतम भगवत्स्वरूपा, ३३. पूर्णा पूर्णस्वरूपा, ३४. पूर्णब्रह्मप्रिया - पूर्णब्रह्म
श्रीकृष्णकी प्रेयसी, ३५. परा- पराशक्तिस्वरूपा ॥ ८ ॥
३६. महावेगवती - बड़े वेगवाली, ३७. साक्षा- निकुञ्जद्वारनिर्गता-साक्षात्
निकुञ्जके द्वारसे निकली हुई, ३८. महानदी
- विशाल सरिता, ३९. मन्दगति- मन्दगतिसे बहनेवाली, ४०. विरजावेगभेदिनी = गोलोकधाम की विरजा नदी के वेग का
भेदन करने- वाली ॥ ९ ॥
४१. अनेकब्रह्माण्डगता
अनेकानेक ब्रह्माण्डों में व्याप्त, ४२. ब्रह्मद्रवसमाकुला - ब्रह्मद्रवस्वरूपा गङ्गाजीसे
मिली हुई, ४३. गङ्गामिश्रा - गङ्गाके जलसे मिश्रित जलवाली, ४४. निर्मलाभा=निर्मल आभावाली,
४५. निर्मला = सब प्रकारके मलोंसे रहित, ४६. सरितांवरा = नदियोंमें श्रेष्ठ ॥ १० ॥
४७. रत्नबद्धो भयतटी दोनों किनारोंकी तट- भूमिमें रत्नसे
आबद्ध, ४८. हंसपद्मादिसंकुला-हंसादि पक्षियों और कमल आदि पुष्पोंसे व्याप्त, ४९. नदी=
अव्यक्त शब्द, कलकल नाद करनेवाली, ५०. निर्मल- पानीया= स्वच्छ जलवाली, ५१. सर्वब्रह्माण्डपावनी-
समस्त ब्रह्माण्डों को पवित्र करनेवाली ॥ ५२. वैकुण्ठपरिखीभूता=
वैकुण्ठधामको चारों ओरसे घेरकर परिखा (खाईं) के समान सुशोभित, ५३. परिखा = खाईंस्वरूपा,
५४. पापहारिणी पापोंका नाश करनेवाली, ५५. ब्रह्मलोकगता-ब्रह्म- लोकमें पहुँची हुई,
५६. ब्राह्मी ब्रह्मशक्तिस्वरूपा, ५७. स्वर्गा-स्वर्गलोकस्वरूपा, ५८. स्वर्गनिवा- सिनी
स्वर्गलोकमें वास करनेवाली ॥ ११-१२ ॥
५९. उल्लसन्ती-तरङ्गोंद्वारा ऊपरकी ओर उठनेवाली, ६०.
प्रोत्पतन्ती- जोर-जोरसे उछलने- वाली, ६१. मेरुमाला-मेरुपर्वतको मालाकी भाँति अलंकृत
करनेवाली, ६२. महोज्ज्वला - अत्यन्त प्रकाशमाना, ६३. श्रीगङ्गाम्भः शिखरिणी- गङ्गाजीके जलको शिखरका रूप देनेवाली, ६४. गण्डशैल-
विभेदिनी-गण्डशैलोंका भेदन करनेवाली ॥ १३ ॥
६५. देशान् पुनन्ती = देशोंको पवित्र करनेवाली, ६६.
गच्छन्ती = गतिशीला, ६७. वहन्ती-प्रवहमाना, ६८. भूमिमध्यगा = धरतीके भीतर प्रवेश करनेवाली,
६९. मार्तण्डतनूजा - सूर्यपुत्री, ७०. पुण्यापुण्य- प्रदा, ७१. कलिन्दगिरिनन्दिनी
- कलिन्द पर्वतसे निकली हुई ॥ १४ ॥
७२. यमस्वसा यमराज की बहन, ७३.
मन्द- हासा- मन्द मन्द मुसकराने वाली, ७४. सुद्विजा= सुन्दर दाँतोंवाली,
७५. रचिताम्बरा = धरती के लिये आच्छादनवस्त्र के रूप में निर्मित, ७६. नीलाम्बरा = नील वस्त्र धारण करनेवाली, ७७ पद्ममुखी
- कमलवदना, ७८. चरन्ती- विचरने वाली, ७९. चारुदर्शना-मनोहर दृष्टिवाली
अथवा देखने में मनोहर ॥ १५ ॥
८०. भोरू = कदलीके खंबे-जैसे ऊरुद्वय धारण करनेवाली,
८१. पद्मनयना = कमललोचना, ८२. माधवी - माधवप्रिया, ८३. प्रमदा-यौवनशालिनी, ८४. उत्तमा=उत्तम,
८५. तपश्चरन्ती- श्रीकृष्ण- प्राप्तिके लिये तपस्या करनेवाली, ८६. सुश्रोणी- सुन्दर नितम्बको धारण करनेवाली,
८७. कूजन्नूपुरमेखला = बजते हुए नूपुरों और करधनीसे सुशोभित ॥ १६ ॥
८८. जलस्थिता=पानीमें निवास करनेवाली, ८९. श्यामलाङ्गी-श्यामल
अङ्गवाली, ९०. खाण्डवाभा= खाण्डववनकी शोभा, ९१. विहारिणी - विहारशीला, ९२. गाण्डीविभाषिणी-अपनी तपस्याका उद्देश्य
बतानेके लिये गाण्डीवधारी अर्जुनसे वार्तालाप करने- वाली, ९३. वन्या - बढ़े हुए प्रवाहवाली,
९४. श्रीकृष्णं वरमिच्छती - श्रीकृष्णको पति बनानेकी इच्छावाली ॥ १७ ॥
९५. द्वारकागमना - द्वारकामें आगमन करने- वाली, ९६.
राज्ञी रानी, ९७. पट्टराज्ञी-पटरानी, ९८.
परंगता-परमात्माको प्राप्त, ९९. महाराज्ञी-महारानी,
१००. रत्नभूषा - रत्ननिर्मित आभूषणोंसे विभूषित, १०१. गोमती-गौओंके समुदायसे युक्त
अथवा गोमती नदीस्वरूपा, १०२. तीरचारिणी-तटपर विचरनेवाली ॥ १८ ॥
१०३. स्वकीया = श्रीकृष्णकी अपनी विवाहिता पत्नी, १०४.
सुखा- सुखस्वरूपा, १०५. स्वार्था = अपने अभीष्ट अर्थको प्राप्त, १०६. स्वभक्तकार्य-
साधिनी-अपने भक्तोंका कार्य सिद्ध करनेवाली, १०७. नवलाङ्गा-नूतन अङ्गवाली, १०८. अबला
- स्त्रीरूपा, १०९. मुग्धा = भोली-भाली अथवा मुग्धा नायिका, ११०. वराङ्गा-सुन्दर अङ्गवाली,
१११. वामलोचना= बाँके नयनोंवाली ॥ १९ ॥
११२. अजातयौवना= अप्राप्त यौवना, ११३. अदीना दीनतारहित एवं उदारस्वरूपा, ११४.
प्रभा= प्रभास्वरूपा, ११५. कान्तिः कान्तिस्वरूपा, ११६. द्युतिः - द्युतिस्वरूपा, ११७.
छविः - छविस्वरूपा, ११८. सुशोभा-सुन्दर शोभावाली, परमा उत्कृष्टस्वरूपा, १२०. कीर्तिः
= कीर्तिस्वरूपा, १२१. कुशला = चतुरा, १२२. अज्ञातयौवना= अपने यौवनके आरम्भको न जाननेवाली
॥ २० ॥
१२३. नवोढा = नवविवाहिता नायिका, १२४. मध्यगा = मुग्धा
और प्रगल्भाके बीचकी अवस्थावाली, १२५. मध्या=मध्या नायिका, १२६. प्रौढिः = प्रौढतासे
युक्त, १२७. प्रौढा-प्रौढस्वरूपा, १२८. प्रगल्भका= प्रगल्भानायिका, १२९. धीरा = धीरस्वभावा,
१३०. अधीरा- भगवद्दर्शनके लिये अधीर रहनेवाली, १३१. धैर्यधरा - धैर्यधारिणी, १३२. ज्येष्ठा
= ज्येष्ठ
अवस्थावाली, १३३. श्रेष्ठा = गुणोंसे श्रेष्ठ, १३४.
कुलाङ्गना=कुलवधू ॥ २१ ॥
१३५. क्षणप्रभा-विद्युत्के समान कान्तिमती, १३६. चञ्चला
= वेगशालिनी,१३७.अर्च्या= पूजनीया, १३८. विद्युत्-विद्योतमाना,
१३९. सौदामनी - विद्युत्स्वरूपा, १४०. तडित् = घनश्यामके अङ्कमें विद्युल्लेखा - सी
शोभमाना, १४१. स्वाधीन पतिका - स्नेह और सद्व्यवहारसे पतिको वशमें रखने वाली, १४२.
लक्ष्मी - लक्ष्मीस्वरूपा, १४३. पुष्टा= पुष्ट अङ्गोंवाली अथवा अनुग्रहमयी, १४४. स्वाधीन
भर्तृका = स्वाधीनपतिका ॥ २२ ॥
१४५-कलहान्तरिता-प्रेम-
कलहके कभी-कभी प्रियतमके वियोगका कष्ट सहन करनेवाली नायिका, १४६. भीरुः - भीरु स्वभाववाली,
१४७. इच्छा-प्रियतमकी कामनाका विषय अथवा अभिलाषारूपिणी, १४८. प्रोत्कण्ठिता-प्रिय के दर्शन या मिलनके लिये उत्सुक रहनेवाली, १४९. आकुला - प्रेम-परिपूर्ण
अथवा प्रियतम की सेवाके कार्यमें व्यस्त, १५०. कशिपुस्था - शय्यापर
विराजित रहनेवाली, १५१. दिव्यशय्या – श्यामसुन्दर के लिये दिव्य
शय्या प्रस्तुत करनेवाली, १५२. गोविन्दहृत- मानसा = गोविन्द ने
जिन के मन को हर लिया है, ऐसी ॥२३॥
१५३. खण्डिता - खण्डिता - नायिकास्वरूपा, १५४. अखण्डशो
भाढ्या - अविकल शोभासे सम्पन्न, १५५. विप्रलब्धा विप्रलब्धा नायिका स्वरूपा, १५६. अभिसारिका
- प्रियतम श्रीकृष्णसे मिलनेके लिये संकेत-स्थानपर जानेवाली, १५७, विरहार्ता= प्रियतमके
विरहकी अनुभूतिसे पीड़ित, १५८. विरहिणी = वियोगिनी, १५९. नारी-नरावतार श्रीकृष्णकी
भार्या, १६०. प्रोषितभर्तृका - जिसका पति परदेशमें गया हो, ऐसी नायिका स्वरूपा ॥ २४
॥
१६१. मानिनी मानवती, १६२. मानदा -मान देनेवाली, १६३.
प्राज्ञा - विदुषी, १६४. मन्दारवन- वासिनी = कल्पवृक्षके काननमें निवास करनेवाली, १६५. झंकारिणी-चलते-फिरते या नृत्य करते समय
आभूषणोंकी झंकार फैलानेवाली, १६६. झणत्कारी = झणत्कारी या सिञ्जन-ध्वनि
करनेवाली, १६७. रणन्मञ्जीरनूपुरा - बजते हुए नूपुर और मञ्जीर धारण करनेवाली ॥ २५ ॥
१६८. मेखला - वृन्दावनकी नीलमणिमयी करधनीके समान सुशोभित,
१६९. अमेखला - साधारण अवस्थामें मेखलासे रहित, १७०. काञ्ची= 'काञ्ची' नामक आभूषणस्वरूपा, १७१. अकाञ्चनी= काञ्चनरहित, १७२.
काञ्चनामयी सुवर्णस्वरूपा, १७३. कञ्चुकी=कञ्चुकधारिणी, १७४. कञ्चक- मणिः = कञ्चुकमणिस्वरूपा,
१७५. श्रीकण्ठा= शोभायुक्त कण्ठवाली, १७६. आढ्या
- (श्रीकृष्ण- कारण रूप) सम्पत्तिशालिनी, १७७. महामणि:- महामणिस्वरूपा अथवा बहुमूल्य
मणि धारण करने- वाली ॥ २६ ॥
१७८.
श्रीहारिणी
- श्रीहारधारिणी, पद्महारा= कमलोंकी मालासे अलंकृत, १८०. मुक्ता = नित्यमुक्त, १८१.
मुक्तफलार्चिता-मुक्ताफलोंसे पूजित, १८२. रत्नकङ्कणकेयूरा - रत्ननिर्मित कंगन और केयूर
(भुजबंद) धारण करनेवाली, १८३. स्फुरदङ्गुलिभूषणा = जिनकी अङ्गुलियों
के भूषण उद्भासित हो रहे हैं, ऐसी ॥ २७ ॥
१८४. दर्पणा दर्पणस्वरूपा, १८५. दर्पणी- भूता- अपने
जलकी निर्मलताके कारण दर्पणका काम देनेवाली, १८६. दुष्टदर्पविनाशिनी दुष्टोंके घमंडको चूर करनेवाली, १८७. कम्बुग्रीवा -
शङ्खके समान सुन्दर कण्ठवाली, १८८. कम्बुधरा = शङ्खनिर्मित आभूषण धारण करनेवाली, १८९.
ग्रैवेयकविराजिता =कण्ठभूषणसे सुशोभित ॥ २८ ॥
१९०. ताटङ्किनी - 'ताटङ्क (तरकी)' नामक आभूषणविशेषको
धारण करनेवाली, १९१. दन्तधरा- दन्तधारिणी, १९२. हेमकुण्डलमण्डिता=काञ्चन- निर्मित कुण्डलोंसे
अलंकृत, १९३. शिखाभूषा = अपनी चोटीको विभूषित करनेवाली, १९४. भाल- पुष्पा ललाट देशमें
पुष्पमय शृङ्गार धारण करनेवाली, १९५. नासामौक्तिकशोभिता= नाकमें मोतीकी बुलाकसे शोभित
॥ २९ ॥
१९६. मणिभूमिगता - मणिमयी भूमिपर विचरने- वाली, १९७.
देवी- दिव्यस्वरूपा, १९८. रैवताद्रि- विहारिणी-श्रीकृष्णकी पटरानीके रूपमें रैवतक पर्वतपर
विहार करनेवाली, १९९. वृन्दावनगता = वृन्दावनमें विद्यमाना, २००. वृन्दा - वृन्दावनकी
अधिष्ठातृदेवी-स्वरूपा, २०१. वृन्दारण्यनिवासिनी = वृन्दावन में
निवास करनेवाली ॥ ३० ॥
२०२. वृन्दावनलता= वृन्दावनकी लताओंके साथ तादात्म्यको
प्राप्त हुई, २०३. माध्वी = मकरन्द- स्वरूपा, २०४. वृन्दारण्यविभूषणा - वृन्दावनको
विभूषित करनेवाली, २०५. सौन्दर्यलहरी लक्ष्मी: = सुन्दरताकी तरङ्गोंसे युक्त लक्ष्मीस्वरूपा,
२०६.लक्ष्मी:-लक्ष्मीस्वरूपा,
२०७.मथुरातीर्थवासिनी= मथुरापुरीरूप तीर्थ में निवास करनेवाली ॥ ३१
॥
२०८. विश्रान्तवासिनी = 'विश्रान्त'
तीर्थ (विश्रामघाट) में वास करनेवाली, २०९. काम्या - कमनीया,
२१०. रम्या - रमणीया, २११. गोकुल- वासिनी - गोकुलमें
निवास करनेवाली, २१२. रमणस्थलशोभाढ्या = रमणस्थलीकी शोभा बढ़ाने-
वाली, २१३. महावनमहानदी = 'महावन' नामक वनमें प्रवाहित होनेवाली
महती नदी ।। ३२ ॥
२१४. प्रणता-भक्तजनोंद्वारा वन्दिता,
२१५. प्रोन्नता= अत्यन्त उत्कृष्ट गोलोकधाममें स्थित अथवा ऊँची
लहरोंके कारण उन्नत, २१६. पुष्टा- प्रेमानुग्रहसे परिपुष्ट, २१७. भारती - भारतवर्षकी नदी, २१८. भरतार्चिता
- भरतके द्वारा पूजित, २१९. तीर्थ- राजगतिः = तीर्थराज प्रयागकी
आश्रयभूता, २२०. गोत्रा-गौओं का त्राण करनेवाली
अथवा गिरिस्वरूपा, २२१. गङ्गासागरसंगमा गङ्गा तथा सागरसे संगत
॥ ३३ ॥
२२२. सप्ताब्धिभेदिनी-सात समुद्रोंका
भेदन करनेवाली, २२३. लोला-लोल लहरोंवाली, २२४.
बलात्सप्तद्वीपगता=बलपूर्वक सातों द्वीपोंमें जाने- वाली, २२५.
लुठन्ती-धरतीपर लोटनेवाली, २२६. शैलभिद्यन्ती= पर्वतोंका भेदन
करनेवाली, २२७. स्फुरन्ती=स्फुरणशीला अथवा अपनी दिव्य प्रभा बिखेरनेवाली,
२२८. वेगवत्तरा- अतिशय वेग- शालिनी ।। ३४ ।।
२२९. काञ्चनी स्वर्णमयी, २३०. काञ्चनी- भूमिः = गोलोककी स्वर्णमयी भूमिपर प्रवाहित होने- वाली,
२३१. काञ्चनीभूमिभाविता = स्वर्णमयी भूमिपर प्रकट, २३२. लोकदृष्टि = जगत् को दिव्य- दृष्टि प्रदान
करनेवाली, २३३. लोकलीला - लोकमें लीला करनेवाली, २३४. लोकालोकाचलार्चिता= लोकालोकपर्वत पर पूजित
होनेवाली ॥ ३५ ॥
२३५. शैलोद्गता-कलिन्दपर्वतसे
निकली हुई, २३६. स्वर्गगता मन्दाकिनीरूप से
स्वर्गमें गयी हुई, २३७. स्वर्गार्चा स्वर्गमें अर्चित होनेवाली,
२३८. स्वर्गपूजिता = स्वर्गलोकमें पूजित, २३९.
वृन्दावनी- वृन्दावनकी अधिष्ठातृस्वरूपा देवी, २४०. वनाध्यक्षा
= वनकी स्वामिनी, २४१. रक्षा रक्षिता या रक्षारूपा २४२. कक्षा-वृन्दावनके लिये मेखलारूपा, २४३. तटीपटी-तटभूमिको
वस्त्रकी भाँति ढकने- वाली ॥ ३६ ॥
२४४. असिकुण्डगता-असिकुण्डमें
प्राप्त, २४५. कच्छा-कछारकी भूमिस्वरूपा, २४६. स्वच्छन्दा= स्वच्छन्दगामिनी, २४७. उच्छलिता
= (वेगसे) उछलने वाली, २४८. आदिजा- आदिभूत श्रीकृष्णके वामांससे
उद्भूत (अथवा 'अद्रिजा' पाठ माना जाय तो पर्वतसे उत्पन्न हुई), २४९.
कुहरस्था= सरस्वती- रूपसे भूछिद्र में अथवा भोगवतीरूपसे पाताल- विवरमें स्थित, २५०. रथ- प्रस्था - श्रीकृष्णकी पटरानीके रूप में रथपर यात्रा करनेवाली,
२५१. प्रस्था= प्रस्थानशीला, २५२. शान्ततरा=परम
शान्तिमयी, २५३. आतुरा- श्रीकृष्णदर्शनेनके लिये आतुर रहने- वाली
॥ ३७ ॥
२५४. अम्बुच्छटा=जलकी छटासे शोभित,
२५५. शीकराभा - कुहरोंसे सुशोभित होनेवाली, २५६.
दर्दुरा-मेढकोंका आश्रय, अथवा बादलके समान श्याम कान्तिवाली, २५७.
दार्दुरीधरा= अपने जलके कल-कल नादसे दादुरोंकी-सी ध्वनि धारण करनेवाली, २५८. पापाङ्कुशा= पापोंको नष्ट करनेके लिये अङ्कुशस्वरूपा,
२५९. पापसिंही= पापरूपी गजराजको नष्ट करनेके लिये सिंहीके तुल्य,
२६०. पापद्रुमकुठारिणी- पापरूपी वृक्षका उच्छेद करने के लिये कुठाररूपा ॥ ३८ ॥
२६१. पुण्यसंघा-पुण्यसमुदायरूपा,२६२.पुण्यकीर्तिः
पवित्र कीर्तिवाली अथवा जिनका कीर्तन पुण्य प्रदान करनेवाला है, ऐसी, २६३. पुण्यदा- पुण्यदायिनी, २६४. पुण्यवर्द्धिनी-अपने
दर्शनसे पुण्यकी वृद्धि करनेवाली, २६५. मधुवननदी= मधुवनमें बहनेवाली
नदी, २६६. मुख्या- एक प्रधान नदी, २६७.
अतुला- तुलनारहित, २६८. ताल- वनस्थिता=तालवनमें स्थित रहनेवाली
॥
२६९. कुमुद्वननदी- कुमुदवनकी
नदी, २७०. कुब्जा - टेढ़ी-मेढ़ी, २७१. कुमुदा
भगवती दुर्गा- स्वरूपा, २७२. अम्भोजवर्द्धिनी अपने जलमें कमलोंको
बढ़ानेवाली, २७३. प्लवरूपा=संसार- सागरसे पार होनेके लिये नौकास्वरूपा,
२७४. वेगवती-वेगशालिनी, २७५ सिंहसर्पादिवाहिनी
- अपने जलकी धारामें सिंहों तथा सर्पादि जन्तुओंको बहा ले जानेवाली ॥ ३९-४० ॥
२७६. बहुली - बहुलरूपवाली, २७७. बहुदा = बहुत देनेवाली, २७८. बह्वी - भूम
(ब्रह्म) स्वरूपा, २७९. बहुला - गोरूपा, २८०.
वनवन्दिता वनों द्वारा वन्दित, २८१. राधाकुण्डकला अपनी कलासे
राधाकुण्ड में स्थित, २८२. आराध्या आराधनके योग्य, २८३. कृष्णकुण्डजलाश्रिता- कृष्णकुण्ड के जलमें निवास करनेवाली ॥ २८४. ललिताकुण्डगा
– ललिताकुण्ड में व्याप्त, २८५. घण्टा-घण्टा-ध्वनिके
सदृश अनुरणनात्मक शब्द करनेवाली, २८६. विशाखा - विशाखा-सखी- स्वरूपा,
२८७. कुण्डमण्डिता-कुण्डों (हदों) से सुशोभित, २८८. गोविन्दकुण्डनिलया = गोविन्द- कुण्डमें निवास करनेवाली, २८९.गोपकुण्ड- तरंगिणी - गोपकुण्ड में तरंगित होनेवाली ॥
४१-४२ ॥
२९०. श्रीगङ्गा-श्रीगङ्गास्वरूपा,
२९१. मानसी- गङ्गा-मानसी-गङ्गास्वरूपा, २९२.
कुसुमाम्बर- कुसुमाम्बर- भाविनी - पुष्पमय वस्त्र से सुशोभित
अथवा कुसुम- सरोवर के अवकाश में प्रकट होनेवाली,
२९३. गोवर्द्धिनी – गोवर्धननाथ की शक्ति
अथवा गौओं की वृद्धि करनेवाली, २९४. गोधनाढ्या-गोधन से सम्पन्न, २९५. मयूरवरवर्णिनी- मोरोंके समान
सुन्दर वर्णवाली ॥ ४३ ॥
२९६. सारसी-सरोवरोंकी जल-सम्पत्ति
अथवा सारस पक्षियोंकी आश्रयभूता, २९७. नीलकण्ठाभा= नीलकण्ठ या
मयूरकी-सी आभावाली, २९८. कूजत्कोकिलपोतकी - जहाँ कोकिलकुमारियोंके
कल-कूजन होते रहते हैं, ऐसी, २९९. गिरिराज- प्रसूः - गिरिराज
हिमालयके कलिन्दपर्वतसे प्रकट, ३००. भूरिः=बहुवैभवशालिनी, ३०१. आतपत्रा= तटपर रहनेवाले
लोगोंकी धूपके कष्टसे रक्षा करने- वाली, ३०२. आतपत्रिणी-पटरानीके
रूपमें छत्र धारण करनेवाली ॥ ४४ ॥
३०३. गोवर्द्धनाङ्कगा-गोवर्धनगिरिकी
गोदमें मोदमाना, ३०४. गोदन्ती - हरतालके समान रंगवाले केसर आदिसे
आमोदित, ३०५. दिव्यौषधिनिधिः = दिव्य ओषधियोंकी निधि, ३०६. सृतिः - सद्गतिकी राह, ३०७. पारदी - भवसागरसे
पार कर देनेवाली दिव्य शक्ति, ३०८. पारदमयी पारदस्वरूपा, ३०९. नारदी - नार अर्थात् जल प्रदान करनेवाली, ३१०.
शारदी- शरत्कालीन शोभारूपा, ३११. भृतिः = भरण पोषणका साधन बनी
हुई ।। ३१२. श्रीकृष्णचरणाङ्कस्था-भगवान् श्रीकृष्णके चरणों के अङ्गमें विराजित, ३१३. अकामा-लौकिक कामनाओंसे
रहित (अथवा 'कामा' कामस्वरूपा), ३१४. कामवनाञ्चिता - कामवनमें
पूजित, ३१५. कामाटवी कामवनरूपा, - कामवनरूपा, ३१६. नन्दिनी सब को - आनन्दित करनेवाली, ३१७. नन्दग्राममही-नन्द- ग्रामस्थित भूमिरूपा, ३१८.
धरा = पृथ्वीरूपा || ४५-४६ ।।
३१९. बृहत्सानुद्युतिप्रोता-
'बृहत्सानु' पर्वतके शिखरकी शोभासे संयुक्त, ३२०. नन्दीश्वरसमन्विता-
नन्दगाँवके नन्दीश्वरगिरिसे समन्विता, ३२१. काकली=कोयलोंकी कुहू
ध्वनिरूपमें स्थित, ३२२. कोकिलमयी-कोयलसे व्याप्ता, ३२३. भाण्डीर- कुशकौशला भाण्डीरवनमें कुशोत्पाटनके कौशलसे युक्त ॥ ४७
॥
३२४. लोहार्गलप्रदा- श्रीकृष्ण के लिये अपने प्रेमके द्वारा लोह की अर्गला लगा
देनेवाली, ३२५.
कारा= (श्रीकृष्णको अपने प्रेमके द्वारा रोके रखनेके
लिये) कारारूपा, ३२६. काश्मीरवसना केसरके रंगमें रँगे हुए वस्त्र
धारण करनेवाली, ३२७. वृता = श्रीकृष्णके द्वारा स्वीकृता, ३२८. बर्हिषदी-बर्हिषदी- पुरीरूपा, ३२९. शोणपुरी
- शोणपुरीरूपा, ३३०. शूरक्षेत्रपुराधिका-शूरक्षेत्रपुरसे भी अधिक
माहात्म्य- वाली ॥ ४८ ॥
३३१. नानाभरणशोभाढ्या विविध प्रकारके
आभूषणोंकी शोभांसे सम्पन्न, ३३२. नानावर्ण- समन्विता = नाना प्रकारके
रंगोंसे युक्त, ३३३. नानानारीकदम्बाढ्या= नाना प्रकारकी स्त्रियोंके
समुदायसे युक्त, ३३४. नानारङ्गमहीरुहा - तटवर्ती विविध रंगके
वृक्षोंसे सुशोभित ॥ ३३५. नानालोकगता-नाना लोकोंमें पहुँची हुई,
३३६. अभ्यर्चि:- जिनकी तेजोराशि सब ओर फैली हुई है, ऐसी, ३३७. नानाजलसमन्विता - नाना नदियोंके मिले हुए जलसे युक्त, ३३८. स्त्रीरत्नम् = स्त्रियों में रत्नस्वरूपा,
३३९. रत्ननिलया - रत्ननिर्मित गृहमें निवास करनेवाली, ३४०. ललना-श्रीकृष्ण- कामिनी, ३४१. रत्नरञ्जिनी
- रत्नोंके द्वारा विविध रंगोंका प्रकाश फैलानेवाली ॥ ४९-५० ॥
३४२. रङ्गिणी-रङ्गस्थलमें रासके
रंगमें रँगी रहनेवाली, ३४३. रङ्गभूमाढ्या रंगके बाहुल्यसे युक्त,
३४४. रङ्गा-हर्षयुक्ता अथवा रङ्गानाम्नी नदीस्वरूपा, ३४५. रङ्गमहीरुहा - रंगीन वृक्षोंसे युक्त, ३४६. राजविद्या
- विद्याओंकी स्वामिनी, ३४७. राजगुह्या:- गुह्य वस्तुओंमें सबसे
श्रेष्ठ, ३४८. जगत्कीर्ति-जगत्के लिये कीर्तिमयी अथवा कीर्तनीया,
३४९. घना सघन प्रेमयुक्ता अथवा श्रीकृष्णके वंशीवादनके समय हिमवत्
घनीभूत हो जानेवाली, ३४९. अघना- प्रवहणशीला ॥ ३५०. विलोलघण्टा चञ्चल घंटाके समान नाद
करनेवाली, ३५१. कृष्णाङ्गा = कृष्णके समान अङ्ग वाली अथवा श्यामाङ्गी, ३५२. कृष्णदेहसमुद्भवा
= श्रीकृष्णके शरीरसे उत्पन्न, ३५३. नीलपङ्कजवर्णाभा - नील कमल के
समान वर्ण एवं आभा से युक्त, ३५५. नीलपङ्कजहारिणी
- नील कमलकी माला धारण करनेवाली ॥ ५१-५२ ॥
३५६. नीलाभा-नील कान्तिमती, ३५७. नील- पद्माढ्या = नील कमलोंकी सम्पदासे भरी-पूरी, ३५८. नीलाम्भोरुहवासिनी - नील कमलमें निवास करने- वाली, ३५९. नागवल्ली = ताम्बूललतास्वरूपा, ३६०. नागपुरी-नागोंकी
नगरी (अर्थात् कालिय आदि नागों की निवासभूमि), ३६१. नागवल्ली- दलार्चिता = ताम्बूलपत्रसे पूजित ॥ ५३ ॥
३६2. ताम्बूलचर्चिता-ताम्बूलसे
रञ्जित, ३६३. चर्चा - कस्तूरी-चन्दनादि आलेपमयी, ३६४. मकरन्द- मनोहरा = कमलादिके मकरन्दसे मनको हर लेनेवाली, ३६५. सकेशरा- केसरवती, ३६६. केशरिणी= केसर धारण
करनेवाली, ३६७. केशपाशाभि- शोभिता - केशपाशद्वारा सब ओरसे सुशोभित
॥ ५४ ॥
३६८. कज्जलाभा= काजलकी-सी काली
आभावाली, ३६९. कज्जलाक्ता-नेत्रोंमें काजलकी शोभासे युक्त अथवा
काजलकी रँगी हुई, ३७०. कज्जली-कजलीके समान काली, ३७१. कलिताञ्जना नेत्रोंमें अञ्जन धारण करनेवाली, ३७२.अलक्तचरणा-चरणोंमें
महावरका रंग लगानेवाली, ३७३. ताम्रा - ताम्रवर्णा, ३७४. लाला = लालनीया, ३७५. ताम्रीकृताम्बरा = ताँबेके
समान लाल रंगके वस्त्र धारण करनेवाली ॥ ५५ ॥
३७६. सिन्दूरिता – सीमन्त में सिन्दूर धारण करने- वाली, ३७७. अलिप्तवाणी-
जिसकी वाणी किसी दोषसे लिप्त नहीं होती, ऐसी, ३७८. सुश्री - उत्तम
शोभासे युक्त, ३७९. श्रीखण्डमण्डिता - चन्दनसे अलंकृत, ३८०. पाटीरपङ्कवसना = चन्दन-पङ्कमय वस्त्र धारण करनेवाली, ३८१. जटामांसी- जटा- मांसीके रूपमें स्थित, ३८२.
स्त्रगम्बरा= पुष्प- मालाओंको वस्त्ररूपमें धारण करनेवाली ॥ ५६ ॥
३८३. आगरी-आगर (अमावास्या) के
समान (कृष्ण) वर्णवाली, ३८४. अगुरुगन्धाक्ता - अगुरुकी गन्धसे
अभिषिक्त, ३८५. तगराश्रितमारुता जिसकी हवामें तगरको सुगन्ध समायी
हुई है, ऐसी, ३८६. सुगन्धितैलरुचिरा- सुगन्धित तैल (इत्र आदि)
से मनोहर, ३८७. कुन्तलालि:- जिनकी अलकोंपर (सुगन्धसे आकृष्ट)
भ्रमर मँडराते रहते हैं, ऐसी, ३८८. सकुन्तला=कुन्तल - राशि से
युक्त ॥ ५७ ॥
३८९. शकुन्तला - शकुन्तों पक्षियोंका
स्वागत करनेवाली, ३९०. अपांसुला पतिव्रता, ३९१.
पातिव्रत्यपरायणा=पतिव्रताधर्मके पालनमें तत्पर, ३९२. सूर्यप्रभा
- सूर्यके समान उद्भासित होनेवाली, ३९३. सूर्यकन्या- सूर्यकी
पुत्री, ३९४. सूर्यदेह- समुद्भवा = सूर्यके शरीरसे उत्पन्ना ।।
५८ ।।
३९५. कोटिसूर्यप्रतीकाशा-करोड़ों
सूर्योक समान तेजस्विनी, ३९६. सूर्यजा= सूर्यपुत्री, ३९७. सूर्यनन्दिनी - सूर्यदेवको आनन्द प्रदान करनेवाली, ३९८. संज्ञा=सम्यक् ज्ञानस्वरूपा, ३९९. संज्ञासुता
= संज्ञाकी पुत्री, ४००. स्वेच्छा-स्वाधीना, ४०१. संज्ञामोदप्रदायिनी आनन्द प्रदान करनेवाली
॥ ५९ ॥
४०२. संज्ञापुत्री-संज्ञाकी बेटी,
४०३. स्फुरच्छाया - उद्भासित कान्तिवाली, ४०४ तपती
तापकारिणी= (सौतेली बहिन) तपतीको ताप देने- बाली, ४०५. सावर्ण्यानुभवा-श्रीकृष्णके
साथ वर्ण- सादृश्यका अनुभव करनेवाली, ४०६. देवी-देव- कन्या, ४०७. वडवा- वडवारूपा, ४०८. सौख्य- दायिनी - सौख्य
प्रदान करनेवाली ॥ ६० ॥
४०९. शनैश्चरानुजा= शनैश्चरकी
छोटी बहिन ४१०. कीला=ज्वालामयी, ४११. चन्द्रवंश
विवर्द्धिनी = चन्द्रवंशकी वृद्धि करनेवाली, ४१२. चन्द्रवंशवधूः=चन्द्रवंशकी
बहू, ४१३. चन्द्रा- आह्लाद प्रदान करनेवाली, ४१४. चन्द्रावलि - सहायिनी = चन्द्रावली सखीकी सहायता करने वाली ॥ ६१
॥
४१५. चन्द्रावती- चन्द्रावतीस्वरूपा,
४१६. चन्द्रलेखा-चन्द्रलेखास्वरूपा, ४१७.
चन्द्रकान्ता = चन्द्रमाके समान कान्तिमती, ४१८. अनुगा- (सदा)
प्रियतमका अनुगमन करनेवाली, ४१९. अंशुका= उज्ज्वल - वस्त्रधारिणी,
४२०. भैरवी-भैरवप्रिया, ४२१. पिङ्गलाशङ्की-सूर्यके
पारिपार्श्वक पिङ्गलसे आशङ्कित होनेवाली, ४२२. लीलावती-भाँति-
भाँतिकी लीला करनेवाली, ४२३. आगरीमयी= अगरकी सुगन्धसे व्याप्त
।। ६२ ।।
४२४. धनश्री
धनलक्ष्मी या रागिनीविशेष, ४२५. देवगान्धारी - रागिनीविशेष, ४२६. स्वर्मणि:- स्वर्गलोककी मणि, ४२७. गुणवर्द्धिनी
- गुणोंकी वृद्धि करनेवाली, ४२८. व्रजमल्ला - व्रजमण्डलमें मल्ल-
स्वरूपा, ४२९. बन्धकारी विरोधियोंको बन्धनमें डालनेवाली, ४३०. विचित्रा - विचित्र रूप और शक्तिसे सम्पन्न, ४३१.
जयकारिणी - विजय प्राप्त करानेवाली ॥६३॥
४३२. गान्धारी, ४३३. मञ्जरी, ४३४. टोडी, ४३५.
गुर्जरी, ४३६. आशावरी, ४३७. जया, ४३८. कर्णाटी- गान्धारीसे लेकर कर्णाटीतक विशेष रागिनियोंके नाम हैं।
ये समस्त रागिनियाँ यमुनाजीसे अभिन्न हैं, ४३९. रागिणी - रागिनीस्वरूपा,
४४०. गौरी-गौरी नामकी रागिनी, ४४१. वैराटी= रागिनीविशेष,
४४२. गौरवाटिका - रागिनी - विशेष अथवा गौरतेजः-स्वरूपा श्रीराधाके
लिये उद्यान- रूपिणी ॥ ६४ ॥
४४३. चतुश्चन्द्रा, ४४४. कलाहेरी, ४४५ तैलङ्गी, ४४६.
विजयावती, ४४७. ताली- चतुश्चन्द्रासे लेकर तालीतक राग-रागिनियाँ
और तालके नाम हैं, ४४८. तलस्वरा-ताली बजाकर स्वरकी सूचना देनेवाली,
४४९. गाना गानस्वरूपा, ४५०. क्रियामात्रप्रकाशिनी-तालके
क्रियामात्रको प्रकाशित करनेवाली ॥ ६५ ॥
४५१. वैशाखी, ४५२. चञ्चला, ४५३. चारुः, ४५४.
माचारी, ४५५. घूघटी, ४५६. घटा, ४५७. वैरागरी, ४५८. सोरटी, ४५९.
ईशा, ४६०. कैदारी, ४६१. जलधारिका – वैशाखी से लेकर जलधारिकापर्यन्त सभी नामविशेष रागिनी आदिके सूचक हैं ॥ ६६
॥
४६२. कामाकरश्री, ४६३. कल्याणी, ४६४. गौडकल्याणमिश्रिता, ४६५. रामसंजीविनी, ४६६. हेला, ४६७.
मन्दारी, ४६८. कामरूपिणी सब भी विशेष प्रकार को
रागिनियाँ हैं ॥ ६७ ॥
४६९, सारङ्गी, ४७०. मारुती, ४७१. होढा, ४७२.
सागरी, ४७३. कामवादिनी, ४७४. वैभासी, ४७५. मङ्गला - ये भी रागिनियोंके ही नाम हैं । ४७६.
चान्द्री - रासपूर्णिमाकी चाँदनीस्वरूपा, ४७७. रासमण्डलमण्डना
= रासमण्डल को मण्डित करनेवाली ॥ ६८ ॥
४७८. कामधेनुः = कामधेनुकी भाँति
व्यक्तिकी मनोवाञ्छित कामनाको पूर्ण करनेवाली, ४७९. कामलता =
कामना पूर्ण करनेवाली कल्पलतास्वरूपा, ४८०. कामदा-अभीष्ट मनोरथ
देनेवाली, ४८१. कमनीयका कमनीया, ४८२. कल्पवृक्षस्थली
= कल्पवृक्षोंकी स्थानभूता ४८३. स्थूला स्थूल- रूपिणी, ४८४. क्षुधा बुभुक्षास्वरूपिणी, ४८५. सौधनिवासिनी
महलमें रहनेवाली ॥६९॥
४८६. गोलोकवासिनी - गोलोकधाममें
निवास करनेवाली, ४८७. सुश्रूः - सुन्दर भौंहोंवाली, ४८८. यष्टिभृत्-छड़ी धारण करनेवाली, ४८९ द्वार पालिका=द्वाररक्षिका,
४९०. शृङ्गारप्रकरा = शृङ्गार- साधन-सामग्री-समुदायरूपा, ४९१. शृङ्गा मन्मथो- द्भेदस्वरूपा, ४९२. स्वच्छा-विमलस्वरूपा,
४९३. शय्योपकारि का प्रिया-प्रियतम के लिये शय्या सुसज्जित करने में उपकारिणी ॥
७० ॥
४९४. पार्षदा श्रीराधा-कृष्ण की पार्षदस्वरूपा, ४९५.सुमुखी= सुन्दर मुख वाली, ४९६.सेव्या= सेवा करने योग्य,४९७.श्रीवृन्दावनपालिका – श्रीवृन्दावन की रक्षा करनेवाली, ४९८. निकुञ्जभृत्= निकुञ्ज का पोषण करनेवाली, ४९९. कुञ्जपुञ्जा=कुञ्जसमुदायस्वरूपा, ५००. गुञ्जाभरणभूषिता-गुञ्जा के आभूषणों से विभूषित ॥ ७१ ॥
५०१. निकुञ्जवासिनी - निकुञ्जमें निवास करने- वाली,
५०२. प्रोष्या- प्रवासिनी, ५०३. गोवर्द्धन तटीभवा- गोवर्धनकी उपत्यकामें मानसी गङ्गाके
रूपमें प्रकट, ५०४. विशाखा - विशाखासखीस्वरूपा, ५०५. ललिता = ललिता-सखीस्वरूपा अथवा
लालित्यशालिनी, ५०६. रामा - श्रीकृष्णरमणी, ५०७ नीरुजा - रोगरहित, ५०८. मधुमाधवी मधुमासकी
माधवी लतारूपिणी ।। ७२ ।।
५०९. एका = अद्वितीया, ५१०. नैकसखी=
अनेक सखियोंवाली,५११. शुक्ला - शुद्धस्वरूपा, ५१२. सखीमध्या - सखियोंके मध्यमें विराजमान,
५१३. महामनाः- विशालहृदया, ५१४. श्रुतिरूपा - गोपीरूपमें श्रुतिस्वरूपा, ५१५. ऋषिरूपा-ऋषि-
स्वरूपा गोपी, ५१६. मैथिला :- गोपीरूपमें उत्पन्न मिथिलावासिनी स्त्रियाँ, ५१७. कौशलाः
स्त्रियः= गोपीरूपमें उत्पन्न कौशलवासिनी स्त्रियाँ ॥ ७३ ॥
५१८. अयोध्यापुरवासिन्यः - गोपीरूपमें उत्पन्न अयोध्या
नगरकी स्त्रियाँ, ५१९. यज्ञसीता :- यज्ञ- सीतास्वरूपा गोपियाँ, ५२०. पुलिन्दकाः- गोपी-
भावको प्राप्त पुलिन्द - कन्याएँ, ५२१. रमावैकुण्ठ- वासिन्यः – लक्ष्मीजी के वैकुण्ठमें निवास करनेवाली स्त्रियाँ (जो गोपीरूपको प्राप्त हुई
थीं), ५२२. श्वेत- द्वीपसखीजना:- श्वेतद्वीप निवासिनी सखियाँ ॥ ७४ ॥
५२३. ऊर्ध्ववैकुण्ठवासिन्यः – ऊर्ध्ववैकुण्ठ में वास करनेवाली सखियाँ, ५२४. दिव्याजित- पदाश्रिताः = दिव्य अजित
पद के आश्रित सखियाँ, ५२५. श्रीलोकाचलवासिन्यः-श्रीलोकाचल में निवास करनेवाली सखियाँ, ५२६. सागरोद्भवाः श्रीसख्य: = समुद्र से उत्पन्न श्रीलक्ष्मीजीकी सखियाँ ॥ ७५ ॥
५२७. दिव्या:-दिव्यरूपा गोपियाँ, ५२८. अदिव्या:- मानवरूपिणी
गोपियाँ, ५२९. दिव्याङ्गाः- दिव्य अङ्गोंवाली, ५३०. व्याप्ताः = सर्वव्यापिनी, ५३१.
त्रिगुणवृत्तयः- त्रिगुणात्मक वृत्तिस्वरूपा, ५३२. भूमिगोप्यः - भूतलपर उत्पन्न गोपियाँ,
५३३. देवनार्यः = देवाङ्गनास्वरूपा गोपियाँ, ५३४. लता:= लतारूपिणी गोपियाँ, ५३५. ओषधिवीरुधः
- ओषधि एवं लता-झाड़ी आदिस्वरूपा गोपाङ्गनाएँ ॥ ७६ ॥
५३६. जालंधर्य :- गोपीभावको प्राप्त जालंधरी स्त्रियाँ,
५३७. सिन्धुसुताः - समुद्रकन्याएँ, ५३८. पृथुबर्हिष्मतीभवा: - राजा पृथुकी बर्हिष्मतीपुरीमें
होनेवाली स्त्रियाँ, जो गोपीभावको प्राप्त हुई थीं, ५३९. दिव्याम्बराः - दिव्यवस्त्रधारिणी
गोपियाँ, ५४०. अप्सरसः - गोपीभावको प्राप्त अप्सराएँ, ५४१. सौतलाः- सुतललोकवासिनी असुराङ्गनाएँ,
जिन्हें गोपीभावकी प्राप्ति हुई थी, ५४२. नागकन्यकाः नागकन्यास्वरूपा गोपियाँ ॥ ७७
॥
५४३.
परं
धाम परमधामस्वरूपा, ५४४. परं ब्रह्म=परब्रह्मस्वरूपा, ५४५. पौरुषा - पुरुषार्थस्वरूपा,
५४६. प्रकृतिः परा- पराप्रकृतिस्वरूपा, ५४७. तटस्था-तटस्थाशक्तिस्वरूपा,
५४८. गुणभूः = गुणोंकी जन्मभूमि, ५४९. गीता-सबके द्वारा
जिसका यशोगान होता हो, वह, अथवा भगवद्गीतास्वरूपा, ५५०. गुणागुणमयी= गुणागुणस्वरूपा,
५५१. गुणा= दिव्यगुणात्मिका ॥ ७८ ॥
५५२. चिद्घना - चिदानन्दघनस्वरूपा, ५५३. सदसन्माला=सदसत्-समूहात्मिका,
५५४. दृष्टि:- ज्ञानस्वरूपा अथवा दर्शनस्वरूपा, ५५५. दृश्या = दृश्यस्वरूपा, ५५६. गुणाकरी
- गुणोंकी निधिरूपा, ५५७. महत्तत्त्वम् समष्टि बुद्धिरूपा, ५५८. अहंकार:- अहंकारस्वरूपा,
५५९. मनः = मनः- स्वरूपा, ५६०. बुद्धि: - बुद्धिरूपा, ५६१. प्रचेतना= प्रकृष्ट चेतनास्वरूपा
॥ ७९ ॥
५६२. चेतो: - चित्तरूपा, ५६३. वृत्तिः - व्यवहार स्वरूपा,
५६४. स्वान्तरात्मा = निजान्तरात्मस्वरूपा, ५६५. चतुर्थी-जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्तिसे
अतीत तुरीयावस्थारूपा, ५६६. चतुरक्षरा=प्रणवके चार अक्षर - अकार, उकार, मकार और अर्धमात्रा
– ये जिसके स्वरूप हैं, वह, ५६७. चतुर्व्यूहा- वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध
— ये चार व्यूह जिसके स्वरूप हैं, वह, ५६८. चतुर्मूर्तिः- एकपदी, द्विपदी, त्रिपदी
और चतुष्पदी – इन चार मूर्तियोंवाली गायत्री अथवा चतुर्व्यूहस्वरूपा, ५६९. व्योम= आकाशरूपा,
५७०. वायुः = वायुरूपा, ५७१. अदः - दृश्य प्रपञ्चके रूपमें स्थित, ५७२. जलम् - जलस्वरूपा
॥ ८० ॥
५७३. मही- पृथ्वीरूपा, ५७४. शब्दः - शब्द- स्वरूपा,
५७५. रस: - रसस्वरूपा, ५७६. गन्ध: - गन्धस्वरूपा, ५७७. स्पर्श:-स्पर्शस्वरूपा, ५७८.
रूपम्=रूपस्वरूपा, ५७९. अनेकधा-नाना रूप- वाली, ५८०. कर्मेन्द्रियम्-कर्मेन्द्रियस्वरूपा,
५८१. कर्ममयी कर्मस्वरूपा, ५८२. ज्ञानम् ज्ञानमयी, ५८३. ज्ञानेन्द्रियम्- ज्ञानेन्द्रियस्वरूपा,
५८४. द्विधा = प्रकृति - पुरुषरूप दो शरीरवाली अथवा ज्ञानेन्द्रिय- कर्मेन्द्रिय-भेदसे
द्विविध इन्द्रियरूपा ॥ ८१ ॥
५८५. त्रिधा -क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम त्रिविध रूपवाली
अथवा अध्यात्म, अधिभूत, अधिदैव-भेदसे त्रिविध रूपवाली, ५८६. अधि- भूतम्-भौतिक सृष्टिमें
व्याप्त, ५८७. अध्यात्मम्- अध्यात्मस्वरूपा, ५८८. अधिदैवम्-आधिदैविक- रूपवाली, ५८९.
अधिष्ठितम् = सर्वरूपोंमें अधिष्ठित, ५९०. ज्ञानशक्तिः ज्ञानशक्ति)
५९१. क्रियाशक्तिः क्रियाशक्ति, ५९२. सर्वदेवाधिदेवता= समस्त
देवताओं की अधिदेवी ॥ ८२ ॥
५९३. तत्त्वसंघा-तत्त्वसमूहरूपा,
५९४. विराणू- मूर्तिः = विराट्स्वरूपा, ५९५. धारणा धारणाशक्ति, ५९६. धारणामयी धारणाशक्तिरूपा,
५९७. श्रुतिः वेदरूपा, ५९८. स्मृतिः = धर्मशास्त्ररूपा, ५९९. वेदमूर्तिः = वेदात्मिका,
६००. संहिता - संहितास्वरूपा, ६०१. गर्गसंहिता गर्गसंहितारूपा ॥ ८३ ॥
६०२. पाराशरी - पाराशरसंहिता (विष्णुपुराण) रूपा, ६०३.
सृष्टि:- सृष्टिरूपा अथवा पाराशरी- रचनारूपा, ६०४. पारहंसी- परमहंस - विद्यारूपा अथवा
परमहंससंहिता, ६०५. विधातृका - विधातृ- स्वरूपा अथवा ब्रह्मसंहिता, ६०६. याज्ञवल्की
= याज्ञवल्क्यस्मृतिरूपा, ६०७. भागवती- भगवान्की शक्ति अथवा वैष्णवागमरूपा, ६०८. श्रीमद्भाग-
वतार्चिता श्रीमद्भागवतके द्वारा पूजित- प्रशंसित ॥ ८४ ॥
६०९. रामायणमयी-वाल्मीकि रामायण अथवा प्राचेतससंहिता
अथवा रामचरितस्वरूपा ६१०. रम्या रमणीया, ६११. पुराणपुरुषप्रिया = पुराणपुरुष श्रीकृष्णकी
प्रिया, ६१२. पुराणमूर्त्तिः पुराणस्वरूपा, ६१३. पुण्याङ्गा= पुण्यशरीरवाली, ६१४. शास्त्रमूर्तिः=
शास्त्रस्वरूपा, ६१५. महोन्नता= परम उन्नत ॥ ८५ ॥
६१६. मनीषा - बुद्धिरूपा, ६१७. धिषणा-प्रज्ञा-रूपा
६१८. बुद्धिः - मेधारूपा, ६१९. वाणी वाग्देवता, ६२०. धी:- बुद्धिरूपा ६२१. शेमुषी-
बुद्धिरूपा, ६२२. मतिः - निश्चयरूपा, ६२३. गायत्री- गायत्रीमन्त्रस्वरूपा, ६२४. वेदसावित्री
- वेदोक्त गायत्री, ६२५. ब्रह्माणी = ब्रह्मशक्ति, ६२६. ब्रह्म- लक्षणा= वेदमन्त्रोंद्वारा
लक्षित होनेवाली ॥ ८६ ॥
६२७. दुर्गा दुर्गम्या अथवा दुर्गादेवी, ६२८. अपर्णा
तपस्विनी पार्वती, ६२९. सती दक्षकन्या सती, ६३०. सत्या - सत्यस्वरूपा अथवा सत्यभामा,
६३१. पार्वती - गिरिराज हिमालयकी पुत्री, ६३२. चण्डिका - असुरसंहारिणी शक्ति, ६३३.
अम्बिका= जगन्माता, ६३४. आर्या= श्रेष्ठस्वरूपा, ६३५. दाक्षायणी-दक्षप्रजापतिकी कन्या,
६३६. दाक्षी- दक्षपुत्री, ६३७. दक्षयज्ञविघातिनी= दक्ष-यज्ञ- विध्वंसमें कारणभूता ॥
८७ ॥
६३८. पुलोमजा = पुलोम दानवकी पुत्री शची- स्वरूपा,
६३९. शची-इन्द्रपत्नी, ६४०. इन्द्राणी- शची, ६४१. देवी - प्रकाशमाना, ६४२. देववरार्पिता=
देवेश्वर इन्द्रको अर्पित, ६४३. वायुना धारिणी-वायुके द्वारा धारण करनेवाली अथवा वयुना
ज्ञानस्वरूपा और धारिणी धारणशक्ति, ६४४. धन्या = धन्यवादके योग्य, ६४५. वायवी= वायुशक्ति,
६४६. वायुवेगगा= वायुवेगसे चलनेवाली ॥ ८८ ॥
६४७. यमानुजा= यमकी छोटी बहिन ६४८. संयमनी - संयमनशक्ति
अथवा संयमनीपुरी, ६४९. संज्ञा - सूर्यप्रिया संज्ञास्वरूपा, ६५०. छाया - संज्ञाकी छायाभूता
सवर्णा, ६५१. स्फुरद्युतिः- उद्दीप्त कान्तिवाली, ६५२. रत्नवेदी - रत्नवेदिकारूपा,
६५३. रत्नवृन्दा= रत्नसमूहरूपा, ६५४. तारा = तारामण्डलरूपा, ६५५. तरणिमण्डला= सूर्यमण्डल-स्वरूपा
।। ८९ ॥
६५६. रुचि:- प्रभा, ६५७. शान्तिः शान्ति रूपा, ६५८.
क्षमा- तितिक्षामयी अथवा पृथ्वी, ६५९. शोभा - छविमयी, ६६०. दया करुणामयी, ६६१. दक्षा-कुशला
या चतुरा, ६६२. द्युतिः कान्तिमयी, ६६३. त्रपा = लज्जा, ६६४. तलतुष्टिः = ताली बजानेसे
तुष्ट होनेवाली, ६६५. विभा - प्रभा, ६६६. पुष्टिः=पुष्टिरूपा, ६६७. संतुष्टिः = संतोषमयी,
६६८. पुष्टभावना - सुदृढ़ भावनावाली ॥ ९० ॥
६६९. चतुर्भुजा = चार भुजाएँ धारण करनेवाली (लक्ष्मी),
६७०. चारुनेत्रा - सुन्दर नेत्रवाली, ६७१. द्विभुजा - दो बाहुवाली ( कालिन्दी या श्रीराधा),
६७२. अष्टभुजा = आठ भुजावाली (सरस्वती), ६७३. अबला - बलका प्रदर्शन न करनेवाली, ६७४.
शङ्खहस्ता - हाथमें शङ्ख धारण करनेवाली (वैष्णवी मूर्ति), ६७५. पद्महस्ता हाथमें कमल
धारण करनेवाली (लक्ष्मी), ६७६. चक्रहस्ता हाथमें चक्र धारण करनेवाली वैष्णवी मूर्ति,
६७७. गदाधरा-गदा धारण करनेवाली ॥ ९१ ॥
६७८. निषङ्गधारिणी-तरकस धारण करनेवाली, ६७९. चर्मखड्गपाणि:
- हाथमें ढाल-तलवार लेने- वाली, ६८०. धनुर्धरा = धनुष धारण करनेवाली, ६८१. धनुष्टंकारिणी
- (दुर्गाके रूपमें) धनुषका टंकार करनेवाली, ६८२. योद्ध्री = युद्ध करनेवाली, ६८३. दैत्योद्भटविनाशिनी=
दैत्यसेनाके उद्घट योद्धाओंका विनाश करनेवाली ॥ ९२ ॥
६८४, रथस्था= रथपर बैठनेवाली, ६८५. गरुडा- रूढा - गरुडपर
आरूढ़ होनेवाली, ६८६. श्रीकृष्ण- हृदयस्थिता = श्रीकृष्णके हृदयरूपी सिंहासनपर आसीन,
६८७. वंशीधरा - कृष्णरूपसे वंशी धारण करनेवाली, ६८८. कृष्णवेषा-श्रीकृष्णका वेष धारण
करनेवाली, ६८९. स्रग्विणी-पुष्पोंके हारोंसे अलंकृत, ६९०. वनमालिनी = वनमाला करनेवाली
॥ ९३ ॥
६९१. किरीटधारिणी= मस्तकपर किरीट
धारण करनेवाली, ६९२. याना - यानस्वरूपा, ६९३.
मन्द- मन्दगतिः = धीरे-धीरे चलनेवाली, ६९४. गतिः- सद्गतिस्वरूपा अथवा गमनशक्तिरूपा
६९५. चन्द्र- कोटिप्रतीकाशा- कोटिचन्द्रतुल्या, ६९६. तन्वी = कृशाङ्गी, ६९७. कोमलविग्रहा
मृदुल शरीर- वाली ॥ ९४ ॥
६९८. भैष्मी - भीष्मपुत्री रुक्मिणीरूपा, ६९९. भीष्मसुता
राजा भीष्मककी पुत्री रुक्मिणी, ७००., अभीमा
- अभयंकर – सौम्यरूपवाली, ७०१. रुक्मिणी- श्रीकृष्णकी प्रमुख पटरानी, ७०२. रुक्मरूपिणी=
सुनहले रूपवाली, ७०३. सत्यभामा= सत्राजितकी पुत्री, श्रीकृष्णप्रिया, ७०४. जाम्बवती
जाम्बवान्द्वारा पोषित एवं उन्हींसे प्राप्त दिव्यरूपा पटरानी, ७०५. सत्या- 'सत्या'
नामवाली श्रीकृष्णकी पटरानी, ७०६. भद्रा - 'भद्रा' नामवाली पटरानी, ७०७ सुदक्षिणा परम
उदारस्वरूपा श्रीकृष्णकी पटरानी ॥ ९५ ॥
७०८. मित्रविन्दा- 'मित्रविन्दा' नामवाली पटरानी, ७०९. सखी - राधारानीकी सखी, ७१०. वृन्दा-वृन्दावनकी
अधिदेवी, ७११. वृन्दारण्यध्वजोर्ध्वगा - वृन्दावनकी ध्वजतुल्या - ऊर्ध्वगामिनी, ७१२.
शृङ्गारकारिणी - शृङ्गार करनेवाली, ७१३, शृङ्गा- शृङ्गस्वरूपा, ७१४. शृङ्गभूः = शिखरभूमि, ७१५. शृङ्गदा - शिखरपर स्थान देनेवाली, ७१६. खगा = आकाशचारिणी ॥ ९६ ॥
७१७. तितिक्षा
- क्षमा, ७१८. ईक्षा- ईक्षणस्वरूपा, ७१९. स्मृतिः - स्मरण शक्ति, ७२०. स्पर्धा
स्पर्धा- रूपा, ७२१. स्पृहा- अभिलाषा, ७२२. श्रद्धा = आस्तिक्य-बुद्धिस्वरूपा, ७२३.
स्वनिर्वृतिः = निजानन्दस्वरूपा, ७२४.
ईशा-ईशनकर्त्री, ७२५. तृष्णा = कामना, ७२६. भिदा-भेदस्वरूपा, ७२७. प्रीतिः - प्रेम
या प्रसन्नता, ७२८. हिंसा - हिंसावृत्तिरूपा, ७२९. याञ्चा-याचनारूपा, ७३०. क्लमा= क्लान्तिरूपा
अथवा अक्लमा क्लमरहिता, ७३१. कृषिः - कृषि (वार्ताका एक भेद)
॥ ९७ ॥
७३२. आशा = आशारूपिणी, ७३३. निद्रा- निद्राकी अधिष्ठात्री
या निद्रारूपा, ७३४. योगनिद्रा- योगनिद्रा,
जिसका आश्रय लेकर भगवान् विष्णु चार मासतक शयन करते हैं, ७३५. योगिनी योगिनीरूपा, ७३६. योगदा= योगदायिनी, ७३७. युगा-युग-स्वरूपा,
७३८. निष्ठा = परमगति, आश्रयशक्ति अथवा आधारस्वरूपा, ७३९. प्रतिष्ठा = प्रतिष्ठास्वरूपा, आश्रय अथवा अवलम्ब, ७४०. शमितिः = शमन-स्वरूपा, ७४१. सत्त्वप्रकृतिः
= सत्त्वगुणमयी प्रकृतिवाली, ७४२. उत्तमा- उत्कृष्टस्वरूपा ॥ ९८ ॥
७४३. तमः प्रकृतिदुर्मर्षी= तमोगुणमय
स्वभावको दुःखसे सहन करनेवाली, ७४४. रजः प्रकृतिः = रजोगुणप्रधान प्रकृतिरूपा, ७४५. आनतिः = सब ओरसे नमनशीला, ७४६. क्रिया-
क्रियाशक्ति, ७४७. अक्रिया - निष्क्रिय, ७४८. कृतिः = प्रयत्नरूपा, ७४९. ग्लानिः =
ग्लानिरूपिणी, ७५०. सात्त्विकी - सत्त्व- प्रधाना शक्ति, ७५९. आध्यात्मिकी- आध्यात्मिक
शक्ति, ७५२. वृषा = धर्मस्वरूपा ॥ ९९ ॥
७५३. सेवा-सेवारूपिणी, ७५४. शिखा= नदियोंकी शिखाभूता,
७५५. मणिः मणि-रत्न - स्वरूपा, ७५६. वृद्धिः - अभ्युदयकी हेतुभूता, ७५७. आहूतिः = आह्वानस्वरूपा,
७५८. सुमतिः- सद्बुद्धिस्वरूपिणी, ७५९. द्युः = द्युलोकरूपिणी, ७६०. भूः - पृथ्वीरूपा,
७६१. रज्जुर्द्विदाम्नी = दो तटोंवाली,
७६२. षड्वर्गा- षड्वर्गरूपिणी, ७६३. संहिता - वेदरूपिणी, ७६४. सौख्यदायिनी = सर्वसुखदा
॥ १०० ॥
७६५. मुक्ति: = मुक्तिरूपा, ७६६. प्रोक्तिः = श्रेष्ठवाणी-
रूपा, ७६७. देशभाषा - देशीयभाषा, ७६८. प्रकृतिः प्रकृतिरूपा, ७६९. पिङ्गलोद्भवा = पिङ्गला
नाड़ीसे उत्पन्न, ७७०. नागभाषा-नागोंकी भाषाको जाननेवाली अथवा नागों से भाषण करनेवाली,
७७१. नागभूषा = नागसे भूषित, ७७२. नागरी नागरी अर्थात् चतुरा, ७७३. नगरी - नगरस्वरूपा,
७७४. नगा- वृक्ष अथवा गिरिरूपा ॥ ७७५. नौ:-नाव, ७७६. नौका-नाव, ७७७. भवनौ: संसारसागरसे
पार उतारनेवाली नौका, ७७८. भाव्या =मनमें भावना (ध्यान) करनेयोग्य, ७७९. भवसागरसेतुका
= भवसागरसे पार जानेके लिये सेतुरूपा, भवसागरसेतुका=भवसागरसे ७८०. मनोमयी= मनःस्वरूपा, ७८१ दारुमयी-काष्ठकी बनी, ७८२. सैकती-सिकतासे
पूर्ण, ७८३, सिकतामयी = वालुकासे परिपूर्ण या वालुकामयी ॥१०१- १०२
॥
७८४. लेख्या- चित्रमयी, ७८५. लेप्या-मिट्टीकी प्रतिमा, ७८६.
मणिमयी-मणिनिर्मित प्रतिमा, ७८७. प्रतिमा हेमनिर्मिता सोनेकी बनी प्रतिमा, ७८८. शैली- शिलामयी प्रतिमा, ७८९. शैलभवा-पर्वतसे
प्रकट प्रतिमा, ७९०, शीला शीलयुक्ता अथवा शीलस्वरूपा, ७९१. शीकराभा - जलकणों अथवा जलकी
फुहारोंसे शोभित, ७९२. चला चलस्वरूपा, ७९३. अचला- अचलस्वरूपा ॥ ७९४. अस्थिता=अस्थिर,
७९५. सुस्थिता = सुस्थिर, ७९६. तूली - तूलिका, ७९७. वैदिकी- वेदोक्त पद्धति, ७९८. तान्त्रिकी=
तन्त्रोक्त पद्धति, ७९९. विधि:- विधिवाक्यस्वरूपा,
८००. संध्या = रात और दिनकी संधिवेला, ८०१. संध्याभ्रवसना-संध्या- कालिक बादल या आकाशकी
भाँति लाल वस्त्रवाली, ८०२. वेदसंधि:- वेदमन्त्रोंमें संधि (संहिता) स्वरूपा, ८०३.
सुधामयी अमृतमयी ।।१०३- १०४ ॥
८०४.
सायंतनी
सायंकालिकी शोभा, ८०५. शिखा = ज्वालामयी,
८०६. अवेध्या-अभेदनीया, ८०७. सूक्ष्मा-सूक्ष्मस्वरूपा, ८०८. जीवकला = जीवरूप भगवत्कला,
८०९. कृतिः = कृतिरूपा, ८१०. आत्मभूता =
सबकी आत्मस्वरूपा, ८११. भाविता - ध्यान या भावनाकी विषयभूता, ८१२. अण्वी सूक्ष्मस्वरूपा, ८१३. प्रह्वी-विनयशीला, ८१४. कमलकर्णिका -हृदय-कमलकी
कर्णिकामें ध्येया ॥ १०५ ॥
८१५. नीराजनी- आरती, ८१६. महाविद्या = तत्त्वसाक्षात्कार करानेवाली महावाक्यबोधात्मिका
महाविद्या, अथवा ब्रह्मविद्यारूपा महाविद्या, ८१७. कंदली - सुखकी अङ्करस्वरूपा, ८१८.
कार्यसाधनी = भक्तजनोंके अभीष्ट कार्यको सिद्ध करनेवाली, ८१९. पूजा- अर्चना, ८२०. प्रतिष्ठा
स्थापना, ८२१. विपुला = विपुलस्वरूपा, ८२२. पुनन्ती पवित्र करनेवाली, ८२३. पारलौकिकी-परलोकके
लिये हितकारिणी ॥ १०६ ॥
८२४ शुक्लशुक्तिः
= श्वेत सीपी या सितुहीकी उपलब्धिका स्थान, ८२५. मौक्तिका - मुक्तास्वरूपा, ८२६.
प्रतीतिः प्रतीतिस्वरूपा, ८२७. परमेश्वरी
= परमेश्वरप्रिया, ८२८. विरजा-निर्मला,
८२९. उष्णिक् = वैदिक छन्द- विशेष, ८३०. विराड्-विराट्- रूपा, ८३१. वेणी-त्रिवेणीरूपा,
८३२. वेणुका - वंशीरूपिणी, ८३३. वेणुनादिनी वेणु नाद करनेवाली - बाँसुरीकी तान छेड़नेवाली
॥ १०७ ॥
८३४.आवर्तिनी - भँवरोंसे युक्ता,
८३५. वार्तिकदा- वार्तिकदायिनी, ८३६. वार्ता - कृषि, गोरक्षा और वाणिज्यके भेदसे त्रिविध
वार्ता, ८३७. वृत्तिः - जीविकारूपा, ८३८. विमानगा-विमानपर
यात्रा करने-वाली, ८३९. रासाढ्या रासजनित
सुखसे सम्पन्न, ८४०. रासिनी - रासपरायणा,
८४१. रासा= रासस्वरूपा, ८४२. रासमण्डलवर्तिनी - रासमण्डलमें वर्तमान ॥ १०८ ॥
८४३. गोपगोपीश्वरी-गोपों तथा गोपाङ्गनाओंकी आराध्या
ईश्वरी, ८४४. गोपी गोपीरूपा, ८४५. गोपी- गोपालवन्दिता=गोपियों और ग्वालोंसे वन्दित,
८४६. गोचारिणी - अपने तटपर गौओंको चरनेके
लिये स्थान और सुविधा देनेवाली, ८४७. गोपनदी - गोपोंकी नदी, ८४८. गोपानन्दप्रदायिनी - गोपोंको आनन्द प्रदान करनेवाली ॥ १०९ ॥
८४९. पशव्यदा= पशुओंके लिये हितकर
घास प्रदान करनेवाली, ८५०. गोपसेव्या= गोपोंके द्वारा सेवनीया,
८५१. कोटिशो गोगणावृता-करोड़ों गौओंके समुदायसे घिरी हुई, ८५२. गोपानुगा = गोपगण जिनका
अनुगमन हुई, ८५२. गोपानुगा- गोपगण जिनका अनुगमन करते हैं या गोप जिनके सेवक हैं, ऐसी,
८५३. गोपवती-गोपोंसे युक्त, ८५४. गोविन्दपदपादुका- गोविन्द चरणोंकी पादुकास्वरूपा ॥
११० ॥
८५५. वृषभानुसुता = वृषभानुनन्दिनी राधासे अभिन्न,
८५६. राधा = श्रीकृष्णकी आराध्या राधा-स्वरूपा, ८५७. श्रीकृष्णवशकारिणी= श्रीकृष्णको
वशमें कर लेनेवाली, ८५८. कृष्णप्राणाधिका= श्रीकृष्णको प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय, ८५९.
शश्वद्रसिका नित्यरसिका, ८६०.
रसिकेश्वरी= रसिकोंकी ईश्वरी
॥ १११ ॥
८६१. अवटोदा-अवटोदा नामकी नदी, ८६२. ताम्रपर्णी- ताम्रपर्णी
नामकी नदी, ८६३. कृतमाला = इसी नामवाली
नदी, ८६४. विहायसी-विहायसी नदी, ८६५. कृष्णा
कृष्णा नदी, ८६६. वेणी-वेणी नामकी नदी, ८६७. भीमरथी- भीमा नामकी नदी, ८६८. तापी-तपती नामकी नदी ८६९. रेवा नर्मदा,
८७०. महापगा- विशाल नदी अथवा महानदी नामकी नदी ॥
८७१. वैयासकी-वैयासकी (व्यास) नदी, ८७२. कावेरी=कावेरी
नदी, ८७३. तुङ्गभद्रा = तुङ्गभद्रा नामकी नदी, ८७४. सरस्वती सरस्वती नदी, ८७५. चन्द्रभागा
= चिनाब नदी, ८७६. वेत्रवती = बेतबा नदी, ८७७ ऋषिकुल्या- इसी नामकी नदी, ८७८. ककुद्मिनी
= ककुद्मिनी नदी ॥११२-११३ ॥
८७९. गौतमी गोदावरी, ८८०. कौशिकी-कोसी नदी, ८८९. सिन्धुः
= सिन्धु नदी, ८८२. बाण- गङ्गा-अर्जुनके
बाणसे प्रकट हुई पातालगङ्गा, ८८३. अतिसिद्धिदा
अत्यन्त सिद्धि प्रदान करनेवाली, ८८४. गोदावरी-गौतमी, ८८५. रत्नमाला नदी, ८८६.
गङ्गा-गङ्गा नदी, ८८७. मन्दाकिनी आकाश-गङ्गा, ८८८. बला= बला नामकी नदी ॥ ११४ ॥
८८९.
स्वर्णदी= स्वर्गलोककी नदी गङ्गा, ८९०. जाह्नवी = जह्नुनन्दिनी गङ्गा, ८९१. वेला-वेला
नदी, ८९२. वैष्णवी विष्णुकुल्या, ८९३.
मङ्गलालया=मङ्गलका आवास, ८९४. बाला- बाला नदी, ८९५. विष्णुपदी- गङ्गा, ८९६.
सिन्धुसागरसंगता गङ्गासागर-संगम- स्वरूपा ॥
८९७. गङ्गासागरशोभाढ्या - गङ्गा और सागरके संगमकी शोभासे
सम्पन्न, ८९८. सामुद्री समुद्रप्रिया, ८९९. रत्नदा-रत्न प्रदान करनेवाली, ९००. धुनी
नदीरूपा, ९०१. भागीरथी = राजा भगीरथके
द्वारा लायी गयी गङ्गा, ९०२. स्वर्धुनीभूः – गङ्गा के प्राकट्य-
की भूमि, ९०३. श्रीवामनपदच्युता= श्रीवामन के
चरणों से च्युत हुई ॥ ११५-११६ ॥
९०४. लक्ष्मीः=लक्ष्मीस्वरूपा, ९०५. रमा - पद्मा, ९०६.
रमणीया= रमणीयतासे
युक्त, ९०७. भार्गवी - भृगुपुत्री, ९०८. विष्णुवल्लभा
भगवान् विष्णुकी प्रिया, ९०९. सीता= सीतास्वरूपा, ९१०. अर्चि : = अग्निज्वालारूपिणी, ९११. जानकी जनक- नन्दिनी, ९१२. माता जगज्जननी,
९१३. कलङ्क-रहिता- निष्कलङ्का, ९१४. कला-भगवत्कला-स्वरूपा ॥ ११७ ॥
९१५. कृष्णपादाब्जसम्भूता श्रीकृष्णके चरणारविन्दों-
से प्रकट हुई, ९१६. सर्वा= सर्वस्वरूपा, ९१७. त्रिपथगामिनी = त्रिपथगा गङ्गा, ९१८.
धरा - धरणी- स्वरूपा, ९१९. विश्वम्भरा = विश्वका भरण-पोषण करनेवाली, ९२०. अनन्ता= अन्तरहिता,
९२१. भूमिः = आधारभूमिस्वरूपा, ९२२. धात्री = धाय, ९२३. क्षमामयी क्षमास्वरूपा ॥ ११८
॥
९२४. स्थिरा-स्थिरस्वरूपा, ९२५. धरित्री- धारण करनेवाली,
९२६. धरणी लोकधारणी पृथ्वी, ९२७. उर्वी भूमि, ९२८. शेषफणस्थिता - शेषनागके फणोंपर रहनेवाली,
९२९. अयोध्या-जिसके साथ युद्ध न किया जा सके, ऐसी अजेय पुरी, ९३०. राघवपुरी - राघवेन्द्रकी
नगरी, ९३१. कौशिकी-कुशिकवंशजा, ९३२. रघुवंशजा - रघुकुलमें उत्पन्न होनेवाली ॥ ११९
॥
९३३.
मथुरा-मथुरा-नगरी, ९३४. माथुरी मथुरा- मण्डलमें प्रकट, ९३५.
पन्था - मार्गस्वरूपा, ९३६. यादवी यदुवंशियोंकी नगरी, ९३७. ध्रुवपूजिता-ध्रुवसे प्रशंसित,
९३८. मयायुः= मयासुरको आयु प्रदान करने-
वाली, ९३९. बिल्वनीलोदा-बिल्वके समान नील रंगके जलवाली, ९४०. गङ्गाद्वारविनिर्गता-हरद्वारसे
निकली हुई ॥ १२० ॥
९४१.
कुशावर्तमयी कुशावर्तनामक तीर्थस्वरूपा, ९४२.धौव्या- ध्रुवत्वसे
युक्त, ९४३. ध्रुवमण्डलमध्यगा -ध्रुवमण्डलके बीचसे निकली हुई, ९४४. काशी- वाराणसी,
९४५. शिवपुरी - शिवकी नगरी, ९४६. शेषा-शेषस्वरूपा, ९४७. विन्ध्या= विन्ध्यस्वरूपा,
९४८. वाराणसी काशी, ९४९. शिवा- शिवास्वरूपा ॥ १२१ ॥
९५०. अवन्तिका = मालव प्रदेशकी राजधानी और महाकालकी
नगरी, ९५१. देवपुरी-देवनगरी, ९५२. प्रोज्ज्वला - प्रकृष्ट शोभासे सम्पन्न, ९५३. उज्जयिनी
= उज्जैन, ९५४. जिता-जितस्वरूपा, ९५५. द्वारावती
= द्वारकापुरी, ९५६. द्वारकामा- द्वारकी कामनावाली, ९५७. कुशभूता - कुशके प्रकट
होनेका स्थान, ९५८. कुशस्थली- कुशोंकी उत्पत्ति-स्थली द्वारका ॥ १२२ ॥
९५९. महापुरी - महानगरी, ९६०. सप्तपुरी-सप्त- पुरीस्वरूपा,
९६१. नन्दिग्रामस्थलस्थिता - नन्दिग्रामके स्थलमें स्थित सरयू अथवा यमुना, ९६२. शालग्राम-
शिलादित्या शालग्रामशिलाकी उत्पत्तिका स्थान गण्डकी नदी, ९६३. सम्भलग्राममध्यगा=सम्भल
ग्रामके मध्यमें गयी हुई ॥ १२३ ॥
९६४. वंशगोपालिनी- वंशगोपाल- मन्त्रसे युक्त, ९६५.
क्षिप्ता- क्षिप्तस्वरूपा, ९६६. हरिमन्दिरवर्तिनी= भगवान् के मन्दिरमें विद्यमान, ९६७.
बर्हिष्मती - बर्हिष्मती नामकी नगरी, ९६८. हस्तिपुरी- हस्तिनापुर- नगरी, ९६९. शक्रप्रस्थनिवासिनी
इन्द्रप्रस्थ (देहली) में निवास करनेवाली ॥ १२४ ॥
९७०. दाडिमी - दाड़िमफलस्वरूपा, ९७१. सैन्धवी-सिन्धुप्रिया,
९७२. जम्बूः = जम्बूनदीरूपा, ९७३. पौष्करी= पुष्करद्वीपसे सम्बन्ध रखनेवाली, ९७४. पुष्करप्रसूः-
पुष्करकी उत्पत्तिका स्थान, ९७५. उत्पलावर्तगमना-उत्पलावर्त
तीर्थमें जानेवाली, ९७६. नैमिषी= नैमिषारण्यवासिनी ॥ १२५ ॥
९७७. अनिमिषादृता- देवपूजिता, ९७८. कुरुजाङ्गलभूः कुरुजाङ्गलदेशमें प्रकट,
९७९.
काली
कृष्णवर्णा
अथवा काली गङ्गा, ९८०. हैमवती - हिमालयसे उत्पन्न, ९८१. आर्बुदी = आबूमें प्रकट, ९८२.
बुधा=विदुषी, ९८३. शूकरक्षेत्र- विदिता = शूकरक्षेत्रमें
प्रसिद्ध, ९८४. श्वेतवाराह- धारिता-श्वेतवाराहके
द्वारा धारित ॥ १२६ ॥
९८५. सर्वतीर्थमयी-
सर्वतीर्थस्वरूपा, ९८६. तीर्था - तीर्थभूता,
९८७. तीर्थानां तीर्थकारिणी तीर्थोंको
तीर्थ बनानेवाली, ९८८. हारिणी सर्वदोषाणाम्-सब
दोषोंको हर लेनेवाली, ९८९. दायिनी सर्वसम्पदाम् सब सम्पत्तियोंको देनेवाली ॥
१२७ ॥
९९०. वर्धिनी तेजसाम् तेजको बढ़ानेवाली, ९९१. साक्षात्
= प्रत्यक्ष प्रकट, ९९२. गर्भवास निकृन्तनी=
माताके गर्भमें वास करनेके कष्टका उच्छेद करनेवाली, ९९३. गोलोकधाम = गोलोककी प्रकाश-रूपा,
९९४. धनिनी= धनसे सम्पन्न, ९९५. निकुञ्ज-निजमञ्जरी=
निकुञ्जमें अपनी मञ्जरियोंके साथ रहनेवाली ॥ १२८ ॥
९९६. सर्वोत्तमा = सबसे उत्तम, ९९७. सर्वपुण्या सर्वाधिक
पुण्यशालिनी, ९९८. सर्वसौन्दर्यशृङ्खला = सम्पूर्ण सुन्दरताको बाँध रखनेवाली, ९९९,
सर्वतीर्थोपरिगता-सब तीर्थोंके ऊपर पहुँची हुई, १०००. सर्वतीर्थाधिदेवता = सम्पूर्ण
तीर्थोंकी अधिदेवी ॥ १२९ ॥
कालिन्दी के सहस्रनाम का वर्णन कीर्ति देनेवाला तथा उत्तम कामपूरक है। यह बड़े-बड़े पापोंको
हर लेता, पुण्य देता और आयुको बढ़ानेवाला श्रेष्ठ साधन है। रातमें एक बार इसका पाठ
कर ले तो चोरोंसे भय नहीं होता । रास्तेमें दो बार पढ़ ले तो डाकू और लुटेरोंसे कहीं
भय नहीं होता । द्विजको चाहिये कि वह द्वितीयासे पूर्णिमातक प्रतिदिन कालिन्दी देवीका
ध्यान करके भक्तिभावसे दस बार इस सहस्रनामका पाठ करे; ऐसा करनेसे यदि रोगी हो तो रोगसे
छूट जाता है, कैदमें पड़ा हो तो वहाँके बन्धन से मुक्त हो जाता है, गर्भिणी नारी हो
तो वह पुत्र पैदा करती है और विद्यार्थी हो तो वह पण्डित होता है । मोहन, स्तम्भन,
वशीकरण, उच्चाटन, मारण, शोषण, दीपन, उन्मादन, तापन, निधिदर्शन आदि जो-जो वस्तु मनुष्य
मनमें चाहता है, उस-उसको वह प्राप्त कर लेता है ॥ १३० - १३५ ॥
इसके पाठसे ब्राह्मण ब्रह्मतेजसे सम्पन्न होता है,
क्षत्रिय पृथ्वीका आधिपत्य प्राप्त करता है, वैश्य खजानेका मालिक होता है और शूद्र
इसको सुनकर निर्मल- शुद्ध हो जाता है ॥ १३६ ॥
जो पूजाकालमें प्रतिदिन भक्तिभावसे इसका पाठ करता है,
वह जलसे अलिप्त रहनेवाले कमलपत्रकी भाँति पापोंसे कभी लिप्त नहीं होता ॥ १३७ ॥
जो लोग एक वर्षतक पटल और पद्धतिकी विधिका पालन करके
प्रतिदिन इस सहस्रनामका सौ बार पाठ करते हैं और उसके बाद स्तोत्र और कवच पढ़ते हैं,
वे सातों द्वीपोंसे युक्त पृथिवीका राज्य प्राप्त कर लेंगे, इसमें संशय नहीं है। जो
यमुनाजीमें भक्तिभाव रखकर निष्कामभावसे इसका पाठ करता है, वह पुण्यात्मा धर्म-अर्थ-काम-
इस त्रिवर्गको पाकर इस जीवनमें ही जीवन्मुक्त हो जाता है। जो इस प्रसङ्गका पाठ करता
है, वह निकुञ्जलीलासे ललित, मनोहर तथा कालिन्दीतटके लता-समुदायोंसे विलसित वृन्दावनके
मतवाले भ्रमरोंसे अनुनादित गोलोकधाममें पहुँच जाता है ।। १३८ - १४१ ॥
इस प्रकार श्रीगर्गसंहितामें माधुर्यखण्डके
अन्तर्गत श्रीसौभरि और मांधाताके संवादमें 'यमुना-सहस्रनामका वर्णन' नामक उन्नीसवाँ
अध्याय पूरा हुआ ।। १९ ।।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीगर्ग-संहिता पुस्तक कोड 2260 से
श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-चौथा अध्याय..(पोस्ट१०)
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - चौथा अध्याय..(पोस्ट१०) उद्धवजीसे विदा होकर विदुरजीका मैत्रेय ऋषिके पास जाना व...
-
सच्चिदानन्द रूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे | तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नुमः श्रीमद्भागवत अत्यन्त गोपनीय — रहस्यात्मक पुरा...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण एकादश स्कन्ध— पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) भक्तिहीन पुरुषों की गति और भगवान् की पूजाविधि ...
-
हम लोगों को भगवान की चर्चा व संकीर्तन अधिक से अधिक करना चाहिए क्योंकि भगवान् वहीं निवास करते हैं जहाँ उनका संकीर्तन होता है | स्वयं भगवान...
-
||ॐश्रीपरमात्मने नम:|| प्रश्नोत्तरी (स्वामी श्रीशंकराचार्यरचित ‘मणिरत्नमाला’) वक्तव्य श्रीस्वामी शंकराचार्य जी ...
-
|| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय || “ सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भागवती कथा | यस्या: श्रवणमात्रेण हरिश्चित्तं समाश्रयेत् ||” श्रीमद्भाग...
-
निगमकल्पतरोर्गलितं फलं , शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम् | पिबत भागवतं रसमालयं , मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः || महामुनि व्यासदेव के द्वारा न...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०२) समुद्रसे अमृतका प्रकट होना और भगवान्...
-
☼ श्रीदुर्गादेव्यै नम: ☼ क्षमा-प्रार्थना अपराध सहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया । दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरी ।। 1...
-
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम्- पहला अध्याय परीक्षित् और वज्रनाभ का समागम , शाण्डिल...
-
शिवसंकल्पसूक्त ( कल्याणसूक्त ) [ मनुष्यशरीर में प्रत्येक इन्द्रियका अपना विशिष्ट महत्त्व है , परंतु मनका महत्त्व सर्वोपरि है ; क्यो...