॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
जय-विजय को सनकादि का शाप
यच्च व्रजन्त्यनिमिषामृषभानुवृत्त्या ।
दूरे यमा ह्युपरि नः स्पृहणीयशीलाः ।
भर्तुर्मिथः सुयशसः कथनानुराग ।
वैक्लव्यबाष्पकलया पुलकीकृताङ्गाः ॥ २५ ॥
तद्विश्वगुर्वधिकृतं भुवनैकवन्द्यं ।
दिव्यं विचित्रविबुधाग्र्यविमानशोचिः ।
आपुः परां मुदमपूर्वमुपेत्य योग ।
मायाबलेन मुनयस्तदथो विकुण्ठम् ॥ २६ ॥
देवाधिदेव श्रीहरि का निरन्तर चिन्तन करते रहने के कारण जिनसे यमराज दूर रहते हैं, आपस में प्रभुके सुयशकी चर्चा चलने पर अनुरागजन्य विह्वलतावश जिनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है तथा शरीरमें रोमाञ्च हो जाता है और जिनके-से शील-स्वभावकी हमलोग भी इच्छा करते हैं—वे परमभागवत ही हमारे लोकोंसे ऊपर उस वैकुण्ठधाममें जाते हैं ॥ २५ ॥ जिस समय सनकादि मुनि विश्वगुरु श्रीहरि के निवासस्थान, सम्पूर्ण लोकों के वन्दनीय और श्रेष्ठ देवताओं के विचित्र विमानोंसे विभूषित उस परम दिव्य और अद्भुत वैकुण्ठधाम में अपने योगबल से पहुँचे, तब उन्हें बड़ा ही आनन्द हुआ ॥ २६ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
🌹💖🥀जय श्रीहरि:🙏🙏
जवाब देंहटाएंॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे गोविंद !! हे सर्वेश्वर !
हे करुणामय !! दीनदयाल !!
नारायण नारायण नारायण नारायण