शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

श्रीमद्भागवतमहापुराण पंचम स्कन्ध - पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण 
पंचम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

प्रियव्रत-चरित्र
नैवंविधः पुरुषकार उरुक्रमस्य
पुंसां तदङ्घ्रिरजसा जितषड्गुणानाम्
चित्रं विदूरविगतः सकृदाददीत
यन्नामधेयमधुना स जहाति बन्धम् ||३५||
स एवमपरिमितबलपराक्रम एकदा तु देवर्षिचरणानुशयनानुपतितगुणविसर्ग संसर्गेणानिर्वृतमिवात्मानं मन्यमान आत्मनिर्वेद इदमाह ||३६||
अहो असाध्वनुष्ठितं यदभिनिवेशितोऽहमिन्द्रियैरविद्यारचितविषमविषयान्धकूपे तदलमलममुष्या वनिताया विनोदमृगं मां धिग्धिगिति गर्हयांचकार ||३७||
परदेवताप्रसादाधिगतात्मप्रत्यवमर्शेनानुप्रवृत्तेभ्यः पुत्रेभ्य इमां यथादायं विभज्य भुक्तभोगां च महिषीं मृतकमिव सह महाविभूतिमपहाय स्वयं निहितनिर्वेदो हृदि गृहीतहरिविहारानुभावो भगवतो नारदस्य पदवीं पुनरेवानुससार ||३८||

तस्य ह वा एते श्लोकाः

प्रियव्रतकृतं कर्म को नु कुर्याद्विनेश्वरम्
यो नेमिनिम्नैरकरोच्छायां घ्नन्सप्त वारिधीन् ||३९||
भूसंस्थानं कृतं येन सरिद्गिरिवनादिभिः
सीमा च भूतनिर्वृत्यै द्वीपे द्वीपे विभागशः ||४०||
भौमं दिव्यं मानुषं च महित्वं कर्मयोगजम्
यश्चक्रे निरयौपम्यं पुरुषानुजनप्रियः ||४१||

राजन् ! जिन्होंने भगवच्चरणारविन्दों की रज के प्रभाव से शरीर के भूख-प्यास, शोक-मोह और जरा- मृत्यु—इन छ: गुणोंको अथवा मनके सहित छ: इन्द्रियोंको जीत लिया है, उन भगवद्भक्तोंका ऐसा पुरुषार्थ होना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है; क्योंकि वर्णबहिष्कृत चाण्डाल आदि नीच योनिका पुरुष भी भगवान्‌के नामका केवल एक बार उच्चारण करनेसे तत्काल संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥ ३५ ॥ इस प्रकार अतुलनीय बल-पराक्रमसे युक्त महाराज प्रियव्रत एक बार, अपनेको देवर्षि नारदके चरणोंकी शरणमें जाकर भी पुन: दैववश प्राप्त हुए प्रपञ्चमें फँस जानेसे अशान्त-सा देख, मन-ही- मन विरक्त होकर इस प्रकार कहने लगे ॥ ३६ ॥ ‘ओह ! बड़ा बुरा हुआ ! मेरी विषयलोलुप इन्द्रियोंने मुझे इस अविद्याजनित विषम विषयरूप अन्धकूपमें गिरा दिया। बस, ! बस ! बहुत हो लिया। हाय ! मैं तो स्त्रीका क्रीडामृग ही बन गया ! उसने मुझे बंदरकी भाँति नचाया ! मुझे धिक्कार है ! धिक्कार है !’ इस प्रकार उन्होंने अपनेको बहुत कुछ बुरा-भला कहा ॥ ३७ ॥ परमाराध्य श्रीहरिकी कृपासे उनकी विवेकवृत्ति जाग्रत् हो गयी। उन्होंने यह सारी पृथ्वी यथायोग्य अपने अनुगत पुत्रोंको बाँट दी और जिसके साथ उन्होंने तरह-तरहके भोग भोगे थे, उस अपनी राजरानीको साम्राज्यलक्ष्मी के सहित मृतदेह के समान छोड़ दिया तथा हृदय  में वैराग्य धारणकर भगवान्‌ की लीलाओंका चिन्तन करते हुए उसके प्रभावसे श्रीनारदजीके बतलाये हुए मार्गका पुन: अनुसरण करने लगे ॥ ३८ ॥ 
महाराज प्रियव्रतके विषयमें निम्नलिखित लोकोक्ति प्रसिद्ध है— ‘राजा प्रियव्रतने जो कर्म किये, उन्हें सर्वशक्तिमान् ईश्वर के सिवा और कौन कर सकता है ? उन्होंने रात्रिके अन्धकार को मिटाने का प्रयत्न करते हुए अपने रथके पहियों से बनी हुई लीकों से ही सात समुद्र बना दिये ॥ ३९ ॥ प्राणियोंके सुभीतेके लिये (जिससे उनमें परस्पर झगड़ा न हो) द्वीपोंके द्वारा पृथ्वीके विभाग किये और प्रत्येक द्वीपमें अलग-अलग नदी, पर्वत और वन आदिसे उसकी सीमा निश्चित कर दी ॥ ४० ॥ वे भगवद्भक्त नारदादिके प्रेमी भक्त थे। उन्होंने पाताललोक के, देवलोक के, मर्त्यलोक के तथा कर्म और योग की शक्तिसे प्राप्त हुए ऐश्वर्यको भी नरकतुल्य समझा था’ ॥ ४१ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां पञ्चमस्कन्धे प्रियव्रतविजये प्रथमोऽध्यायः

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


1 टिप्पणी:

  1. 🌹💟🥀जय श्री हरि: !!🙏
    ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
    नारायण नारायण नारायण नारायण

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