मंगलवार, 9 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४३)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४३)

अध्यास

अखण्डनित्याद्वयबोधशक्त्या 
स्फुरन्तमात्मानमनन्तवैभवम् 
समावृणोत्यावृतिशक्तिरेषा 
तमोमयी राहुरिवार्कविम्बम् ॥ १४१ ॥

(अखण्ड, नित्य और अद्वय बोध-शक्ति से स्फुरित होते हुए अखण्डैश्वर्यसम्पन्न आत्मतत्त्व को यह तमोमयी आवरणशक्ति इस प्रकार ढँक लेती है जैसे सूर्यमंडल को राहु)

तिरोभूत स्वात्मन्यमलतरतेजोवत पुमा-
ननात्मानं मोहादहमिति शरीरं कलयति ।
ततः कामक्रोधप्रभृतिभिरमुं बन्धनगुणैः 
परं विक्षेपाख्या रजस उरुशक्तिर्व्यथयति ॥ १४२ ॥

(अति निर्मल तेजोमय आत्मतत्त्व के तिरोभूत (अदृश्य) होने पर पुरुष अनात्मदेह को ही मोह से ‘मैं हूँ’ –ऐसा मनाने लगता है | तब रजोगुण की विक्षेप नाम वाली अति प्रबल शक्ति काम-क्रोधादि अपने बन्धनकारी गुणों से इसको व्यथित करने लगती है)

महामोहग्राहग्रसनगलितात्मावगमनो 
धियो नानावस्थाः स्वयमभिनयंस्तद्गुणतया ।
अपारे संसारे विषयविषपूरे जलनिधौ 
निमज्योन्मज्यायं भ्रमति कुमतिः कुत्सितगतिः ॥ १४३ ॥

(तब यह नाना प्रकार की नीच गतियोंवाला कुमति विषयरूपी विष से भरे हुए इस अपार संसार-समुद्र में डूबता-उछलता महामोहरूप ग्राह के पंजे में पड़कर आत्मज्ञान के नष्ट हो जाने से बुद्धि के गुणों का अभिमानी होकर उसकी नाना अवस्थाओं का अभिनय(नाट्य) करता हुआ भ्रमता रहता है)

भानुप्रभासञ्जनिताभ्रपङ्क्ति-
र्भानुं तिरोधाय विजृम्भते यथा ।
आत्मोदिताहङ्कृतिरात्मतत्त्वं 
तथा तिरोधाय विजृम्भते स्वयम् ॥ १४४ ॥

(जिस प्रकार सूर्य के तेज से उत्पन्न हुई मेघमाला सूर्य ही को ढँककर स्वयं फैल जाती है, उसी प्रकार आत्मा से प्रकट हुआ अहंकार आत्मा को ही आच्छादित करके स्वयं स्थित हो जाता है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में 
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४२)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४२)

अध्यास

अत्रानात्मन्यहमिति मतिर्बन्ध एषोऽस्य पुंसः
प्राप्तोऽज्ञानाज्जननमरणक्लेशसम्पातहेतुः ।
येनैवायं वपुरिदमसत्सत्यमित्यात्मबुद्ध्या
पुष्यत्युक्षत्यवति विषयैस्तन्तुभिः कोशकृद्वत् ॥ १३९ ॥

(पुरुष का अनात्म-वस्तुओं में ‘अहम्’- इस आत्मबुद्धि का होना ही जन्म-मरणरूपी क्लेशों की प्राप्ति कराने वाला अज्ञान से प्राप्त हुआ बन्धन है; जिसके कारण यह जीव असत् शरीर को सत्य समझकर इसमें आत्मबुद्धि हो जाने से, तन्तुओं से रेशम के कीड़े के समान, इसका विषयों द्वारा पोषण, मार्जन और रक्षण करता रहता है)

अतस्मिंस्तद्बुद्धिः प्रभवति विमूढस्य तमसा
विवेकाभावाद्वै स्फुरति भुजगे रज्जुधिषणा ।
ततोऽनर्थव्रातो निपतति समादातुरधिक-
स्ततो योऽसद्ग्राहः स हि भवति बन्धः श्रुणु सखे ॥ १४० ॥

(मूढ़ पुरुष को तमोगुण के कारण ही अन्य में अन्य-बुद्धि होती है, विवेक न होने से ही रज्जु में सर्प-बुद्धि होती है; ऐसी बुद्धि वाले को ही नाना प्रकार के अनर्थों का समूह आ घेरता है, अत: हे मित्र ! सुन , यह जो असद्ग्राह (असत् को सत्य मानना) है , वही बन्धन है)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४१)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४१)

आत्म निरूपण

अत्रैव सत्त्वात्मनि धीगुहाया-
मव्याकृताकाश उरुप्रकाशः ।
आकाश उच्चै रविवत्प्रकाशते
स्वतेजसा विश्वमिदं प्रकाशयन् ॥ १३४ ॥

(इस सत्त्वात्मा अर्थात् बुद्धिरूप गुहा में स्थित अव्यक्ताकाश के भीतर एक परमप्रकाशमय आकाश सूर्य के समान अपने तेज से इस सम्पूर्ण जगत् को देदीप्यमान करता हुआ बड़ी तीव्रता से प्रकाशमान हो रहा है)

ज्ञाता मनोऽहङ्कृतिविक्रियाणां
देहेन्द्रियप्राणकृतक्रियाणाम् ।
अयोऽग्निवत्ताननुवर्तमानो
न वेष्टते नो विकरोति किञ्चन ॥ १३५ ॥

(वह मन और अहंकाररूप विचारों का तथा देह,इन्द्रिय और प्राणों की क्रियाओं का ज्ञाता है | तथा तपाए हुए लोहपिण्ड के समान उनका अनुवर्तन करता हुआ भी न कुछ चेष्टा करता है और न विकार को ही प्राप्त होता है)

न जायते नो म्रियते न वर्धते
न क्षीयते नो विकरोति नित्यः ।
विलीयमानेऽपि वपुष्यमुष्मिन्
न लीयते कुम्भ इवाम्बरं स्वयम् ॥ १३६ ॥

(वह न जन्मता है, न मरता है, न बढता है, न घटता है और न विकार को प्राप्त होता है | वह नित्य है और शरीर के लीन होने पर भी घट के टूटने पर घटाकाश के समान लीन नहीं होता)

प्रकृतिविकृतिभिन्नः शुद्धबोधस्वभावः
सदसदिदमशेषं भासयन्निर्विशेषः ।
विलसति परमात्मा जाग्रदादिष्ववस्था-
स्वहमहमिति साक्षात् साक्षिरूपेण बुद्घेः ॥ १३७ ॥

(प्रकृति और उसके विकारों से भिन्न, शुद्ध ज्ञानस्वरूप , वह निर्विशेष परमात्मा सत्-असत् सबको प्रकाशित करता हुआ जाग्रत् आदि अवस्थाओं में अहंभाव से स्फुरित होता हुआ बुद्धि के साक्षीरूप से साक्षात् विराजमान है)

नियमितमनसामुं त्वं स्वमात्मानमत्म-
न्ययमहमिति साक्षाद्विद्धि बुद्धिप्रसादत् ।
जनिमरणतरङ्गापारसंसारसिन्धु
प्रतर भव कृर्तार्थो ब्रह्मरूपेण संस्थः ॥ १३८ ॥

(तू इस आत्मा को संयतचित्त होकर बुद्धि के प्रसन्न होने पर ‘यह मैं हूँ’—ऐसा अपने अंत:करण में साक्षात् अनुभव कर | और [इसप्रकार] जन्म-मरणरूपी तरंगों वाले इस अपार संसार-सागर को पार कर तथा ब्रह्मरूप से स्थित होकर कृतार्थ हो जा)

नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे


मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.४०)

आत्म निरूपण 

अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि स्वरूपं परमात्मनः ।
यद्विज्ञाय नरो बन्धान्मुक्तः कैवल्यमश्नुते ॥ १२६ ॥

(अब मैं तुझे परमात्मा का स्वरूप बताता हूँ जिसे जानकार मनुष्य बन्धन से छूटकर कैवल्यपद प्राप्त करता है)

अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यमहंप्रत्ययलम्बनः ।
अवस्थात्रयसाक्षी सन्पञ्चकोशविलक्षणः ॥ १२७ ॥

(अहं-प्रत्यय की आधार कोई स्वयं नित्य पदार्थ है, जो तीनों अवस्थाओं का साक्षी होकर भी पञ्चकोशातीत है)

यो विजनाति सकलं जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तिषु ।
बुद्धितद्वृत्तिसद्भावनमभावमहमित्ययम् ॥ १२८ ॥

(जो जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में बुद्धि और उसकी वृत्तियों के होने और न होने को ‘अहंभाव’ से स्थित हुआ जानता है)

यः पश्यति स्वयं सर्वं यं न पश्यति कश्चन ।
यश्चेतयति बद्ध्यादिं न तु यं चेतयत्ययम् ॥ १२९ ॥

(जो स्वयं सबको देखता है किन्तु जिसको कोई नहीं देख सकता, जो बुद्धि आदि को प्रकाशित करता है, किन्तु जिसको बुद्धि आदि प्रकाशित नहीं कर सकते)

येन विश्वमिदं व्यापतं यन्न व्याप्नोति किञ्चन ।
आभारूपमिदं सर्वं यं भान्तमनुभात्ययम् ॥ १३० ॥

(जिसने सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किया हुआ है, किन्तु जिस को कोई व्याप्त नहीं कर सकता तथा जिसके भासने पर यह आभासरूप सारा जगत भासित हो रहा है)

यस्य सन्निधिमात्रेण देहेन्द्रियमनोधियः ।
विषयेषु स्वकीयेषु वर्तन्ते प्रेरिता इव ॥ १३१ ॥

( जिसकी सन्निधिमात्र से देह, इन्द्रिय, मन और बुद्धि प्रेरित हुए- से अपने अपने विषयों में बर्तते हैं )

अहङ्कारादिदेहान्ता विषयाश्च सुखादयः ।
वेद्यन्ते घटवद्येन नित्यबोधस्वरूपिणा ॥ १३२ ॥

(अहंकार से लेकर देहपर्यन्त और सुख आदि समस्त विषय जिस नित्यज्ञानस्वरूप के द्वारा घट के समान जाने जाते हैं)

एषोऽन्तरात्मा पुरुषः पुराणो 
निरन्तराखण्डसुखानुभूतिः ।
सदैकरूपः प्रतिबोधमात्रो 
येनेषिता वागसवश्चरन्ति ॥ १३३ ॥

(यही नित्य अखण्डानन्दानुभवरूप अंतरात्मा पुराणपुरुष है, जो सदा एकरूप और बोधमात्र है तथा जिसकी प्रेरणा से वागादि इन्द्रियाँ और प्राणादि चलते हैं )

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३९)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३९)

अनात्म निरूपण 

देहेन्द्रियप्राणमनोऽहमादयः
सर्व विकारा विषयाः सुखादय ।
व्योमादिभूतान्यकिलं च विश्व-
मव्यक्तपर्यन्तमिदं ह्यनात्मा ॥ १२४ ॥

(देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि सारे विकार , सुखादि सम्पूर्ण विषय, आकाशादि भूत और अव्यक्त पर्यन्त निखिल विश्व- ये सभी अनात्मा है)

माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम् ।
असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ॥ १२५ ॥

(माया और महत्तत्व से लेकर देहपर्यन्त माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरुमरीचिका के समान असत् और अनात्मक जान)


नारायण ! नारायण !!

शेष आगामी पोस्ट में
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित “विवेक चूडामणि”..हिन्दी अनुवाद सहित(कोड-133) पुस्तकसे
 

अनात्म निरूपण 

देहेन्द्रियप्राणमनोऽहमादयः 
सर्व विकारा विषयाः सुखादय ।
व्योमादिभूतान्यकिलं च विश्व-
मव्यक्तपर्यन्तमिदं ह्यनात्मा ॥ १२४ ॥

(देह, इन्द्रिय, प्राण, मन और अहंकार आदि सारे विकार , सुखादि सम्पूर्ण विषय, आकाशादि भूत और अव्यक्त पर्यन्त निखिल विश्व- ये सभी अनात्मा है)

माया मायाकार्यं सर्वं महदादि देहपर्यन्तम् ।
असदिदमनात्मकं त्वं विद्धि मरुमरीचिकाकल्पम् ॥ १२५ ॥

(माया और महत्तत्व से लेकर देहपर्यन्त माया के सम्पूर्ण कार्यों को तू मरुमरीचिका के समान असत् और अनात्मक जान)


नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३८)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३८)

कारण शरीर 

अव्यक्तमेतत्त्रिगुणैर्निरुक्तं
तत्कारणं नाम शरीरमात्मनः ।
सुषुप्तिरेतस्य विभक्त्यवस्था
प्रलीनसर्वेन्द्रियबुद्धिवृत्तिः ॥ १२२ ॥

(इस प्रकार तीनों गुणों के निरूपण से यह अव्यक्त का वर्णन हुआ | यही आत्मा का कारण-शरीर है | इसकी अभिव्यक्ति की अवस्था सुषुप्ति है, जिसमें बुद्धि की सम्पूर्ण वृत्तियाँ लीन हो जाती हैं)

सर्वप्रकारप्रमितिप्रशान्ति-
र्बीजात्मनावस्थितिरेव बुद्धेः ।
सुषुप्तिरेतस्य किल प्रतीतिः
किञ्चिन्न वेद्मीति जगत्प्रसिद्धे ॥ १२३ ॥

(जहां सब प्रकार की प्रमा (ज्ञान) शान्त हो जाती है और बुद्धि बीजरूप से ही स्थिर रहती है, वह सुषुप्ति अवस्था है , इसकी प्रतीति ‘मैं कुछ नहीं जानता’ – ऐसी लोक-प्रसिद्ध उक्ति से होती है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३७)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३७)

सत्त्वगुण

सत्त्वं विशुद्धं जलवत्तथापि
ताभ्यां मिलित्वा सरणाय कल्पते ।
यत्रात्मबिम्बः प्रतिबिम्बितः सन्
प्रकाशयत्यर्क इवाखिलं जडम् ॥ ११९ ॥

(सत्त्वगुण जल के समान शुद्ध है, तथापि रज और तम से मिलने पर वह भी पुरुष की प्रवृत्ति का कारण होता है; इसमें प्रतिबिंबित होकर आत्मबिम्ब सूर्य के समान समस्त जड पदार्थों को प्रकाशित करता है)

मिश्रस्य सत्त्वस्य भवन्ति धर्मा-
स्त्वमानिताद्या नियमा यमाद्याः ।
श्रद्धा च भक्तिश्च मुमुक्षुता च
दैवी च सम्पत्तिरसन्निवृत्तिः ॥ १२० ॥

(अमानित्व आदि यम-नियमादि, श्रद्धा,भक्ति, मुमुक्षता, दैवी-सम्पत्ति तथा असत् का त्याग- ये मिश्र (रज-तम से मिले हुए) सत्त्वगुण के धर्म हैं)

विशुद्धसत्त्वस्य गुणाः प्रसादः
स्वात्मनुभूतिः परमा प्रशान्तिः ।
तृप्तिः प्रहर्षः परमात्मनिष्ठा
यया सदानन्दरसं समृच्छति ॥ १२१ ॥

(प्रसन्नता,आत्मानुभव, परमशांति, तृप्ति ,आत्यन्तिक आनन्द और परमात्मा में स्थिति- ये विशुद्ध सत्त्वगुण के धर्म हैं, जिनसे मुमुक्षु नित्यानन्दरस को प्राप्त करता है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३६)

||श्री परमात्मने नम: ||

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३६)

तमोगुण

अभावना वा विपरीतभावना-
सम्भावना विप्रतिपत्तिरस्याः ।
संसर्गयुक्तं न विमुञ्चति ध्रुवं
विक्षेपशक्तिः क्षपयत्यजस्रम् ॥ ११७ ॥

(तमोगुण की इस आवरण-शक्ति के संसर्ग से युक्त पुरुष को अभावना, विपरीतभावना, असम्भावना और विप्रतिपत्ति – ये तमोगुण की शक्तियां नहीं छोडतीं और विक्षेप-शक्ति भी उसे निरन्तर डावाँडोल ही रखती है) #

अज्ञानमालस्यजडत्वनिद्रा
प्रमादमूढत्वमुखास्तमोगुणाः ।
एतैः प्रयुक्तो न हि वेति किञ्चि-
न्निद्रालुवत्स्तम्भवदेव तिष्ठति ॥ ११८ ॥

(अज्ञान, आलस्य, जडता, निद्रा, प्रमाद, मूढता आदि तम के गुण हैं | इनसे युक्त हुआ पुरुष कुछ नहीं समझता; वह निद्रालु या स्तम्भ के समान [जडवत्] रहता है)
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#‘ ब्रह्म नहीं है’-जिससे ऐसा ज्ञान हो वह ‘अभावना’ कहलाती है | ‘मैं शरीर हूँ’-यह ‘विपरीत भावना’ है | किसी के होने में संदेह – ‘असम्भावना’ है और ‘है या नहीं’-इस तरह के संशय को ‘विप्रतिपत्ति’ कहते हैं | ‘प्रपञ्च का व्यवहार’ ही माया के ‘विक्षेप-शक्ति’ है |

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३५)


||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३५)

तमोगुण

एषावृतिर्नाम तमोगुणस्य
शक्तिर्यया वस्त्वभासतेऽन्यथा ।
सैषा निदानं पुरुष्य संसृते-
र्विक्षेपशक्तेः प्रसरस्य हेतुः ॥ ११५ ॥

(जिसके कारण वस्तु कुछ-की-कुछ प्रतीत होने लगती है वह तमोगुण की आवरणशक्ति है | यही पुरुष के (जन्म-मरण-रूप) संसार का आदि-कारण है और यही विक्षेपशक्ति के प्रसार का भी हेतु है)

प्रज्ञावानपि पण्डितोऽपि चतुरोऽप्यत्सन्तसूक्ष्मार्थदृक्
व्यालीढस्तमसा न वेत्ति बहुधा सम्बोधितोऽपि स्फुटम् ।
भ्रान्त्यारोपितमेव साधु कलयत्यालम्बते तद्गुणान्
हन्तासौ प्रबला दुरन्ततमसः शक्तिर्महत्यावृतिः ॥ ११६॥

(तम से ग्रस्त हुआ पुरुष अति बुद्धिमान्, विद्वान, चतुर और शास्त्र के अत्यन्त सूक्ष्म अर्थों को देखने वाला भी हो तो भी वह नाना प्रकार समझाने से भी अच्छी तरह नहीं समझता; वह भ्रम से आरोपित किये हुए पदार्थों को ही सत्य समझता है और उन्हीं के गुणों का आश्रय लेता है | अहो ! दुरन्त तमोगुण की यह महती आवरण-शक्ति बड़ी ही प्रबल है)

नारायण ! नारायण !!

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||श्री परमात्मने नम: || विवेक चूडामणि (पोस्ट.३४)

||श्री परमात्मने नम: || 

विवेक चूडामणि (पोस्ट.३४)

रजोगुण

विक्षेपशक्ती रजसः क्रियात्मिका
यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ।
रागदयोऽस्याः प्रभवन्ति नित्यं
दुःखादयो ये मनसोविकाराः ॥ ११३ ॥

(क्रियारूपा विक्षेपशक्ति रजोगुण की है जिससे सनातनकाल से समस्त क्रियाएँ होती आई हैं और जिससे रागादि और दु:खादि, जो मन के विकार हैं, सदा उत्पन्न होते हैं)

कामः क्रोधो लोभदम्भाद्यसूया-
हङ्कारेर्ष्यामत्सराद्यास्तु घोराः ।
धर्मा एते राजसाः पुम्प्रवृत्ति-
र्यस्मादेषा तद्रजो बन्धहेतुः ॥ ११४ ॥

(काम, क्रोध, लोभ, दंभ, असूया [गुणों में दोष ढूँढना], अभिमान, ईर्ष्या और मत्सर –ये घोर धर्म रजोगुण के ही हैं | अत: जिसके कारण जीव कर्मों में प्रवृत्त होता है , वह रजोगुण ही उसके बन्धन का हेतु है)

नारायण ! नारायण !!

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...