मंगलवार, 29 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

सूत उवाच ।
एवं कृष्णसखः कृष्णो भ्रात्र राज्ञाऽऽविकल्पितः ।
नानाशंकास्पदं रूपं कृष्णविश्लेषकर्षितः ॥१॥
शोकेन शुष्यद्वदनहृत्सरोजो हतप्रभः ।
विभुं तमेवानुध्यायन्नाशक्रोत्प्रतिभाषितुम् ॥२॥
कृच्छ्रेण संस्तभ्य शुचः पाणिनाऽऽमृज्य नेत्रयोः ।
परोक्षेण समुन्नद्धप्रणयौत्कण्ठ्यकातरः ॥३॥
सख्य मैत्रीं सौहृदं च सारथ्यादिषु संस्मरन् ।
नृपमग्रजमित्याह बाष्पगद्गदया गिरा ॥४॥

अर्जुन उवाच ।
वचिंतोऽहं महाराज हरिणा बन्धुरुपिणा ।
येन मेऽपहृतं तेजो देवविस्मापनं महत् ॥५॥
यस्य क्षणवियोगेन लोको ह्राप्रियदर्शनः ।
उक्थेन रहितो ह्योष मृतकः प्रोच्यते यथा ॥६॥
यत्संश्रयाद द्रुपदगेहमुपागतानां
राज्ञा स्वयंवरमुखे स्मरदुर्मदानाम् ।
तेजो हृतं खलु मयाभिहतश्च मत्स्यः
सज्जीकृतेन धनुष्याधिगता च कृष्णा ॥७॥

सूतजी कहते हैंभगवान्‌ श्रीकृष्णके प्यारे सखा अर्जुन एक तो पहले ही श्रीकृष्णके विरहसे कृश हो रहे थे, उसपर राजा युधिष्ठिरने उनकी विषादग्रस्त मुद्रा देखकर उसके विषयमें कई प्रकारकी आशङ्काएँ करते हुए प्रश्नों की झड़ी लगा दी ॥ १ ॥ शोकसे अर्जुनका मुख और हृदय-कमल सूख गया था, चेहरा फीका पड़ गया था। वे उन्हीं भगवान्‌ श्रीकृष्णके ध्यानमें ऐसे डूब रहे थे कि बड़े भाईके प्रश्रोंका कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ २ ॥ श्रीकृष्णकी आँखोंसे ओझल हो जानेके कारण वे बढ़ी हुई प्रेमजनित उत्कण्ठाके परवश हो रहे थे। रथ हाँकने, टहलने आदिके समय भगवान्‌ने उनके साथ जो मित्रता, अभिन्नहृदयता और प्रेमसे भरे हुए व्यवहार किये थे, उनकी याद-पर-याद आ रही थी; बड़े कष्टसे उन्होंने अपने शोकका वेग रोका, हाथसे नेत्रोंके आँसू पोंछे और फिर रुँधे हुए गलेसे अपने बड़े भाई महाराज युधिष्ठिर से कहा ॥ ३-४ ॥
अर्जुन बोलेमहाराज ! मेरे ममेरे भाई अथवा अत्यन्त घनिष्ठ मित्रका रूप धारणकर श्रीकृष्णने मुझे ठग लिया। मेरे जिस प्रबल पराक्रमसे बड़े-बड़े देवता भी आश्चर्यमें डूब जाते थे, उसे श्रीकृष्ण ने मुझसे छीन लिया ॥ ५ ॥ जैसे यह शरीर प्राणसे रहित होनेपर मृतक कहलाता है, वैसे ही उनके क्षणभरके वियोगसे यह संसार अप्रिय दीखने लगता है ॥ ६ ॥ उनके आश्रयसे द्रौपदी-स्वयंवरमें राजा द्रुपदके घर आये हुए कामोन्मत्त राजाओंका तेज मैंने हरण कर लिया, धनुषपर बाण चढ़ाकर मत्स्यवेध किया और इस प्रकार द्रौपदीको प्राप्त किया था ॥ ७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
              
श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

यत्संनिधावहमु खाण्डवमग्नयेऽदा-
मिन्द्रं च सामरगणं तरसा विजित्य ।
लब्धा सभ मयकृताद्भुतशिल्पमाया
दिग्भोऽहरन्नृपतयो बलिमध्वरे ते ॥८॥
यत्तेजसा नृपशिरोऽडघ्रिमहन्मखार्थे
आर्योऽनुजस्तव गजायुतसत्ववीर्यः ।
तेनाहृताः प्रमथनाथमखाय भूपा
यन्मोचितास्तदनयन बलिमध्वरे ते ॥९॥
पत्‍न्यास्तवधिमखक्लृप्तमहाभिषेक-
श्‍लाघिष्ठन्चारुकाबरं कितवैः सभायाम ।
स्पृष्टं विकीर्य पदयोः पतिताश्रुमुख्या
यस्तत्स्त्रियोऽकृत हतेशविमुक्तकेशाः ॥१०॥
यो नो जुगोप वनमेत्य दुरन्तकृच्छ्राद्
दुर्वाससोऽरिविहतादयुताग्रभुग् यः ।
शाकान्नशिशःटमुपयुज्य यतास्त्रिलोकीं
तृप्ताममंस्त सलिले विनिमंग्नसंघः ॥११॥

(अर्जुन युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) श्रीकृष्ण की सन्निधिमात्र से मैंने समस्त देवताओंके साथ इन्द्रको अपने बलसे जीतकर अग्निदेवको उनकी तृप्तिके लिये खाण्डव वनका दान कर दिया और मय दानवकी निर्माण की हुई, अलौकिक कलाकौशल से युक्त मायामयी सभा प्राप्त की और आपके यज्ञ में सब ओर से आ-आकर राजाओं ने अनेकों प्रकार की भेंटें समर्पित कीं ॥ ८ ॥ दस हजार हाथियों की शक्ति और बलसे सम्पन्न आपके इन छोटे भाई भीमसेन ने उन्हीं की  शक्तिसे राजाओं के सिर पर पैर रखनेवाले अभिमानी जरासन्धका वध किया था; तदनन्तर उन्हीं भगवान्‌ने उन बहुत-से राजाओंको मुक्त किया, जिनको जरासन्धने महाभैरव-यज्ञमें बलि चढ़ानेके लिये बंदी बना रखा था। उन सब राजाओंने आपके यज्ञमें अनेकों प्रकारके उपहार दिये थे ॥ ९ ॥ महारानी द्रौपदी राजसूय यज्ञके महान् अभिषेकसे पवित्र हुए अपने उन सुन्दर केशोंको, जिन्हें दुष्टोंने भरी सभामें छूनेका साहस किया था, बिखेरकर तथा आँखोंमें आँसू भरकर जब श्रीकृष्णके चरणोंमें गिर पड़ी, तब उन्होंने उसके सामने उसके उस घोर अपमानका बदला लेनेकी प्रतिज्ञा करके उन धूर्तोंकी स्त्रियोंकी ऐसी दशा कर दी कि वे विधवा हो गयीं और उन्हें अपने केश अपने हाथों खोल देने पड़े ॥ १० ॥ वनवासके समय हमारे वैरी दुर्योधनके षड्यन्त्रसे दस हजार शिष्योंको साथ बिठाकर भोजन करनेवाले महर्षि दुर्वासाने हमें दुस्तर संकटमें डाल दिया था। उस समय उन्होंने द्रौपदीके पात्रमें बची हुई शाककी एक पत्तीका ही भोग लगाकर हमारी रक्षा की। उनके ऐसा करते ही नदीमें स्नान करती हुई मुनिमण्डलीको ऐसा प्रतीत हुआ मानो उनकी तो बात ही क्या, सारी त्रिलोकी ही तृप्त हो गयी है [*] ॥ ११ ॥

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[*] एक बार राजा दुर्योधनने महॢष दुर्वासाकी बड़ी सेवा की। उससे प्रसन्न होकर मुनिने दुर्योधनसे वर माँगनेको कहा। दुर्योधनने यह सोचकर कि ऋषिके शापसे पाण्डवोंको नष्ट करनेका अच्छा अवसर है, मुनिसे कहा—‘‘ब्रह्मन् ! हमारे कुलमें युधिष्ठिर प्रधान हैं, आप अपने दस सहस्र शिष्योंसहित उनका आतिथ्य स्वीकार करें। किंतु आप उनके यहाँ उस समय जायँ जबकि द्रौपदी भोजन कर चुकी हो, जिससे उसे भूखका कष्ट न उठाना पड़े।’’ द्रौपदीके पास सूर्यकी दी हुई एक ऐसी बटलोई थी, जिसमें सिद्ध किया हुआ अन्न द्रौपदीके भोजन कर लेनेसे पूर्व शेष नहीं होता था; किन्तु उसके भोजन करनेके बाद वह समाप्त हो जाता था। दुर्वासाजी दुर्योधनके कथनानुसार उसके भोजन कर चुकनेपर मध्याह्नमें अपनी शिष्यमण्डलीसहित पहुँचे और धर्मराजसे बोले—‘‘हम नदीपर स्नान करने जाते हैं, तुम हमारे लिये भोजन तैयार रखना।’’ इससे द्रौपदीको बड़ी चिन्ता हुई और उसने अति आर्त होकर आर्तबन्धु भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरण ली। भगवान्‌ तुरंत ही अपना विलासभवन छोडक़र द्रौपदीकी झोंपड़ीपर आये और उससे बोले—‘‘कृष्णे ! आज बड़ी भूख लगी है, कुछ खानेको दो।’’ द्रौपदी भगवान्‌की इस अनुपम दयासे गद्गद हो गयी और बोली ‘‘प्रभो ! मेरा बड़ा भाग्य है, जो आज विश्वम्भरने मुझसे भोजन माँगा; परन्तु क्या करूँ ? अब तो कुटीमें कुछ भी नहीं है।’’ भगवान्‌ने कहा—‘‘अच्छा, वह पात्र तो लाओ; उसमें कुछ होगा ही।’’ द्रौपदी बटलोई ले आयी; उसमें कहीं शाकका एक कण लगा था। विश्वात्मा हरिने उसीको भोग लगाकर त्रिलोकीको तृप्त कर दिया और भीमसेनसे कहा कि मुनिमण्डलीको भोजनके लिये बुला लाओ। किन्तु मुनिगण तो पहले ही तृप्त होकर भाग गये थे। (महाभारत)

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

यत्तेजसाथ भगवान युधि शुलपाणि-
र्विस्मापितः सगिरिजोऽस्त्रमदान्निजं मे ।
अन्येऽपि चाहममुनैव कलेवरेण
प्राप्तो महेन्द्रभवने महदासनार्धम् ॥१२॥
तत्रैव मे विहरतो भुजदण्डयुग्मं
गाण्डीवलक्षणमरातिवधाय देवाः ।
सेन्द्रा श्रिता यदनुभावितमाजमीढ
तेनाहमद्य मुषितः पुरुषेण भूम्र ॥१३॥
यद्वान्धवः कुरुबलाब्धिमनन्तपार-
मेको रथेन ततरेऽहमतार्यसत्त्वम् ।
प्रत्याहृतं बहु धनं च मयो परेषां
तेजास्पदं मणीमयं च हृतं शिरोभ्यः ॥१४॥
यो भीष्मकर्णगुरुशल्यमूष्वदभ्र-
रजन्यवर्यरथमण्डलमन्डितासु ।
अग्रेचरो मम विभो रथयूथपाना-
मायुर्मनांसि च दृशा सह ओज आर्च्छत् ॥१५॥
यद्दोष्षु मा प्राणीहितं गुरुभीष्मकर्ण-
नप्तृत्रिगर्तशलसैन्धवबाह्लिकाद्येः ।
अस्त्राण्यमोघमहिमानि निरूपितानि
नो पस्पृशुर्नृहरिदासमिवासुराणि ॥१६॥

(अर्जुन युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) उनके(श्रीकृष्ण के)  प्रतापसे मैंने युद्ध में पार्वतीसहित भगवान्‌ शङ्कर को आश्चर्यमें डाल दिया तथा उन्होंने मुझको अपना पाशुपत नामक अस्त्र दिया; साथ ही दूसरे लोकपालों ने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने अस्त्र मुझे दिये। और तो क्या, उनकी कृपासे मैं इसी शरीर से स्वर्गमें गया और देवराज इन्द्र की सभामें उनके बराबर आधे आसन पर बैठने का सम्मान मैंने प्राप्त किया ॥ १२ ॥ उनके आग्रह से जब मैं स्वर्ग में ही कुछ दिनोंतक रह गया, तब इन्द्रके साथ समस्त देवताओंने मेरी इन्हीं गाण्डीव धारण करनेवाली भुजाओंका निवातकवच आदि दैत्योंको मारनेके लिये आश्रय लिया। महाराज ! यह सब जिनकी महती कृपाका फल था, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णने मुझे आज ठग लिया ? ॥ १३ ॥ महाराज ! कौरवोंकी सेना भीष्म-द्रोण आदि अजेय महामत्स्योंसे पूर्ण अपार समुद्रके समान दुस्तर थी, परंतु उनका आश्रय ग्रहण करके अकेले ही रथपर सवार हो मैं उसे पार कर गया। उन्हींकी सहायतासे, आपको याद होगा, मैंने शत्रुओं से राजा विराट का सारा गोधन तो वापिस ले ही लिया, साथ ही उनके सिरों पर से चमकते हुए मणिमय मुकुट तथा अङ्गों के अलङ्कार तक छीन लिये थे ॥ १४ ॥ भाई जी ! कौरवोंकी सेना भीष्म, कर्ण, द्रोण, शल्य तथा अन्य बड़े-बड़े राजाओं और क्षत्रिय वीरों के रथोंसे शोभायमान थी। उसके सामने मेरे आगे-आगे चलकर वे अपनी दृष्टिसे ही उन महारथी यूथपतियों की आयु, मन, उत्साह और बलको छीन लिया करते थे ॥ १५ ॥ द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, भूरिश्रवा, सुशर्मा, शल्य, जयद्रथ और बाह्लीक आदि वीरों ने मुझपर अपने कभी न चूकनेवाले अस्त्र चलाये थे; परंतु जैसे हिरण्यकशिपु आदि दैत्योंके अस्त्र-शस्त्र भगवद्भक्त प्रह्लादका स्पर्श नहीं करते थे, वैसे ही उनके शस्त्रास्त्र मुझे छू तक नहीं सके। यह श्रीकृष्ण के भुजदण्डों की छत्रछाया में रहनेका ही प्रभाव था ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

सौत्ये वृतः कुमतिनाऽऽत्मद ईश्वरो मे
यत्पादपद्ममभवाय भजन्ति भव्याः ।
मां श्रान्तवाहमरयो रथिनो भुविष्ठं
न प्राहरन् यदनुभावनिरस्तचित्ता:: ॥१७॥
नर्माण्युदाररुचिरस्मितशोभितानि
हे पार्थ हेऽर्जुन सखे कुरुनन्दनेति ।
संजल्पितानि नरदेव हृदिस्पृशानि
स्मर्तुर्लुठन्ति हृदयं मम माधवस्य ॥१८॥
शय्यासनाटनविकत्थनभोजनादि-
ष्वैक्याद्वयस्य ऋतवानिति विप्रलब्धः ।
सख्युः सखेव पितृवत्तनयस्य सर्वं
सेहे महान्महितया कुमतेरघं मे ॥१९॥
सोऽहं नृपेन्द्र रहितः पुरुषोत्तमेन
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्यः ।
अध्वन्युरुक्रमपरिग्रहमंग रक्षन्
गोपैरसाद्भिबलेव विनिर्जितोऽस्मि ॥२०॥
तद्वै धनुस्त इषवः स रथो हयास्ते
सोऽहं रथी नॄपतयो यत आनमन्ति ।
सर्व क्षणेन तदभुदसदीशरिक्तं
भस्मन् हुतं कुहकराद्भमोवोत्पमुष्याम् ॥२१॥

(अर्जुन युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) श्रेष्ठ पुरुष संसारसे मुक्त होनेके लिये जिनके चरणकमलों का सेवन करते हैं, अपने-आप तक को दे डालनेवाले उन भगवान्‌ को मुझ दुर्बुद्धि ने सारथि तक बना डाला। अहा ! जिस समय मेरे घोड़े थक गये थे और मैं रथसे उतरकर पृथ्वीपर खड़ा था, उस समय बड़े-बड़े महारथी शत्रु भी मुझपर प्रहार न कर सके; क्योंकि श्रीकृष्णके प्रभावसे उनकी बुद्धि मारी गयी थी ॥ १७ ॥ महाराज ! माधवके उन्मुक्त और मधुर मुसकानसे युक्त, विनोदभरे एवं हृदयस्पर्शी वचन, और उनका मुझे पार्थ, अर्जुन, सखा, कुरुनन्दनआदि कहकर पुकारना, मुझे याद आनेपर मेरे हृदयमें उथल-पुथल मचा देते हैं ॥ १८ ॥ सोने, बैठने, टहलने और अपने सम्बन्धमें बड़ी-बड़ी बातें करने तथा भोजन आदि करनेमें हम प्राय: एक साथ रहा करते थे। किसी-किसी दिन मैं व्यंग्यसे उन्हें कह बैठता, ‘मित्र ! तुम तो बड़े सत्यवादी हो !उस समय भी वे महापुरुष अपनी महानुभावताके कारण, जैसे मित्र अपने मित्रका और पिता अपने पुत्रका अपराध सह लेता है उसी प्रकार, मुझ दुर्बुद्धिके अपराधोंको सह लिया करते थे ॥ १९ ॥ महाराज ! जो मेरे सखा, प्रिय मित्रनहीं-नहीं मेरे हृदय ही थे, उन्हीं पुरुषोत्तम भगवान्‌से मैं रहित हो गया हूँ। भगवान्‌ की पत्नियों को द्वारका से अपने साथ ला रहा था, परंतु मार्गमें दुष्ट गोपोंने मुझे एक अबला की भाँति हरा दिया और मैं उनकी रक्षा नहीं कर सका ॥ २० ॥ वही मेरा गाण्डीव धनुष है, वे ही बाण है, वही रथ है, वही घोड़े हैं और वही मैं रथी अर्जुन हूँ, जिसके सामने बड़े-बड़े राजा लोग सिर झुकाया करते थे। श्रीकृष्णके बिना ये सब एक ही क्षण में नहीं के समान सारशून्य हो गयेठीक उसी तरह, जैसे भस्ममें डाली हुई आहुति, कपटभरी सेवा और ऊसरमें बोया हुआ बीज व्यर्थ जाता है ॥ २१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०५)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

राजंस्त्वयाभिपृष्टानां सुहृदां न सुहृत्पुरेः ।
विप्रशापविमूढानां निघ्नतां मुष्टिभिर्मिथः ॥२२॥
वारुणीं मदिरां पीत्वा मदोन्मथितचेतसाम् ।
अजानतामिव्यान्योन्य चतुः पंचावशेषिताः ॥२३॥
प्रायेणैतद् भगवत ईश्वरस्य विचेष्टितम् ।
मिथो निघ्नन्ति भूतानि भावयन्ति च यन्मिथः ॥२४॥
जलौकसां जले यद्वन्महान्तोऽदन्त्यणीयसः ।
दुर्बलान्बलिनो राजन्महान्तो बलिनो मिथः ॥२५॥
एवं बलिष्ठैर्यदुभिर्महद्भिरितरान् विभुः ।
यदून् यदुभिरन्योन्यं भूभारान् संजहार ह ॥२६॥
देशकालार्थयुक्तानि हृत्तापोपशमानि च ।
हरन्ति स्मरताश्चित्तं गोविन्दाभिहितानि मे ॥२७॥

(अर्जुन युधिष्ठिरसे कह रहे हैं) राजन् ! आपने द्वारकावासी अपने जिन सुहृद् सम्बन्धियों की बात पूछी है, वे ब्राह्मणोंके शापवश मोहग्रस्त हो गये और वारुणी मदिराके पानसे मदोन्मत्त होकर अपरिचितोंकी भाँति आपसमें ही एक-दूसरेसे भिड़ गये और घूँसों से मार-पीट करके सबके-सब नष्ट हो गये। उनमें से केवल चार-पाँच ही बचे हैं ॥ २२-२३ ॥ वास्तवमें यह सर्वशक्तिमान् भगवान्‌की ही लीला है कि संसारके प्राणी परस्पर एक-दूसरेका पालन पोषण भी करते हैं और एक-दूसरेको मार भी डालते हैं ॥ २४ ॥ राजन् ! जिस प्रकार जलचरोंमें बड़े जन्तु छोटोंको, बलवान् दुर्बलों को एवं बड़े और बलवान् भी परस्पर एक-दूसरेको खा जाते हैं, उसी प्रकार अतिशय बली और बड़े यदुवंशियोंके द्वारा भगवान्‌ने दूसरे राजाओंका संहार कराया। तत्पश्चात् यदुवंशियों के द्वारा ही एक से दूसरे यदुवंशी का नाश कराके पूर्णरूप से पृथ्वी का भार उतार दिया ॥ २५-२६ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने मुझे जो शिक्षाएँ दी थीं, वे देश, काल और प्रयोजन के अनुरूप तथा हृदय के ताप को शान्त करनेवाली थीं; स्मरण आते ही वे हमारे चित्तका हरण कर लेती हैं ॥ २७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०६)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

सूत उवाच ।

एवं चिन्तयतो जिष्णोः कृष्णपादसरोरुहम ।
सौहार्देनातिगाढेन शान्ताऽऽसीद्विमला मतिः ॥२८॥
वासुदेवांघ्र्यनुध्यानपरिबृंहितरंहसा ।
भक्त्या निर्मथिताशेषकषायाधिषणोऽर्जुनः ॥२९॥
गीतं भगवता ज्ञान यत् तत् संग्राममूर्धनि ।
कालकर्मतमोरुद्धं पुनरध्यगमद् विभुः ॥३०॥
विशोको ब्रह्मसम्पत्या संछिन्नद्वैतसंशयः ।
लीनप्रकृतिनैर्गुण्यादलिंगत्वादसम्भवः ॥३१॥

सूतजी कहते हैंइस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम से भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरण-कमलों का चिन्तन करते- करते अर्जुन की चित्तवृत्ति अत्यन्त निर्मल और प्रशान्त हो गयी ॥ २८ ॥ उनकी प्रेममयी भक्ति भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरणकमलों के अहर्निश चिन्तन से अत्यन्त बढ़ गयी। भक्ति के वेगने उनके हृदय को मथकर उसमें से सारे विकारों को बाहर निकाल दिया ॥ २९ ॥ उन्हें युद्ध के प्रारम्भ में भगवान्‌ के द्वारा उपदेश किया हुआ गीता-ज्ञान पुन: स्मरण हो आया, जिसकी काल के व्यवधान और कर्मों के विस्तार के कारण प्रमादवश कुछ दिनों के लिये विस्मृति हो गयी थी ॥ ३० ॥ ब्रह्मज्ञान- की प्राप्ति से माया का आवरण भङ्ग होकर गुणातीत अवस्था प्राप्त हो गयी। द्वैत का संशय निवृत्त हो गया। सूक्ष्मशरीर भङ्ग हुआ। वे शोक एवं जन्म-मृत्युके चक्र से सर्वथा मुक्त हो गये ॥ ३१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०७)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

निशम्य भगवन्मार्गं संस्थां यदुकुलस्य च ।
स्वःपथाय मतिं चक्रे निभृतात्मा युधिष्ठिरः ॥३२॥
पृथाप्यनुश्रुत्य धनंजयोदितं
नाश यदूनां भगवद्गतिं च ताम् ।
एकान्तभक्त्या भगवत्यधोक्षजे
निवेशितात्मोपरराम संसृतेः ॥३३॥
ययाहरद् भुवो भारं तां तनुं विजहावजः ।
कण्टकं कण्टकेनेव द्वयं चापीशितु: समम् ॥३४॥
यथा मत्स्यादिरूपाणि धत्ते जह्याद् यथा नटः ।
भूभरः क्षपितो येन जहौ तच्च कलेवरम् ॥३५॥

भगवान्‌ के स्वधाम-गमन और यदुवंशके संहार का वृत्तान्त सुनकर निश्चलमति युधिष्ठिर ने स्वर्गारोहण का निश्चय किया ॥ ३२ ॥ कुन्ती ने भी अर्जुन के मुखसे यदुवंशियों के नाश और भगवान्‌के स्वधाम-गमनकी बात सुनकर अनन्य भक्तिसे अपने हृदयको भगवान्‌ श्रीकृष्णमें लगा दिया और सदाके लिये इस जन्म-मृत्युरूप संसारसे अपना मुँह मोड़ लिया ॥ ३३ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णने लोक-दृष्टिमें जिस यादवशरीर से पृथ्वी का भार उतारा था, उसका वैसे ही परित्याग कर दिया, जैसे कोई काँटे से काँटा निकालकर फिर दोनों को फेंक दे। भगवान्‌ की दृष्टि में दोनों ही समान थे ॥ ३४ ॥ जैसे वे नट के समान मत्स्यादि रूप धारण करते हैं और फिर उनका त्याग कर देते हैं वैसे ही उन्होंने जिस यादवशरीर से पृथ्वी का भार दूर किया था, उसे त्याग भी दिया ॥ ३५ ॥

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कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
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यदा मुकुन्दो भगवानिमां महीं
जहौ स्वतन्वा श्रवणीयसत्कथः ।
तदाहरेवाप्रतिबुद्धचेतसा-
मधर्महेतु: कलिरन्ववर्तत ॥३६॥
युधिष्ठिरस्तत्परिसर्पणं बुधः
पुरे च राष्ट्रे च गृहे तथाऽऽत्मनि ।
विभाव्य लोभानृतजिह्महिंसना-
द्यधर्मचक्रं गमनाय पर्यधात् ॥३७॥
स्वराट् पौत्रं विनयिनमात्मनः सुसमं गुणैः ।
तोयनीव्याः पतिं भूमेरभ्यषिंचद गजाह्वये ॥३८॥
मथुरायां तथा वज्रं शूरसेनपतिं ततः ।
प्राजापत्यां निरुप्योष्टिमग्नीनपिबदीश्वरः ॥३९॥

जिनकी मधुर लीलाएँ श्रवण करनेयोग्य हैं, उन भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने जब अपने मनुष्य के-से शरीर से इस पृथ्वी का परित्याग कर दिया, उसी दिन विचारहीन लोगों को अधर्म में फँसानेवाला कलियुग आ धमका ॥ ३६ ॥ महाराज युधिष्ठिरसे कलियुगका फैलना छिपा न रहा। उन्होंने देखादेशमें, नगरमें, घरोंमें और प्रणियोंमें लोभ, असत्य, छल, हिंसा आदि अधर्मोंकी बढ़ती हो गयी है। तब उन्होंने महाप्रस्थानका निश्चय किया ॥ ३७ ॥ उन्होंने अपने विनयी पौत्र परीक्षित्‌को, जो गुणोंमें उन्हींके समान थे, समुद्रसे घिरी हुई पृथ्वीके सम्राट् पदपर हस्तिनापुरमें अभिषिक्त किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने मथुरा में शूरसेनाधिपति के रूपमें अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का अभिषेक किया। इसके बाद समर्थ युधिष्ठिर ने प्राजापत्य यज्ञ करके आहवनीय आदि अग्नियोंको अपनेमें लीन कर दिया अर्थात् गृहस्थाश्रमके धर्मसे मुक्त होकर उन्होंने संन्यास ग्रहण किया ॥ ३९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०९)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

विसृज्य तत्र तत् सर्वं दुकूलवलयादिकम् ।
निर्ममो निरहंकारः संछिन्नाशेषबन्धनः ॥४०॥
वाचं जुहाव मनसि तत्प्राण इतरे च तम् ।
मृत्यावपानं सोत्सर्गं तं पंचत्वे ह्यजोहवीत् ॥४१॥
त्रित्वे हुत्वाथ पंचत्वं तच्चेकत्वेऽजुहोन्मुनिः ।
सर्वमात्मन्यजुहवीद् ब्रह्मण्यात्मानमव्यये ॥४२॥
चीरवासा निराहारो बद्धवाङ् मुक्तमूर्धजः ।
दर्शयन्नात्मनो रूपं जडोन्मत्तपिशाचवत् ॥४३॥
अनपेक्षमाणो निरगादश्रृण्वन्बधिरो यथा ।
उदीचीं प्रविवेशाशां गतपूर्वा महात्मभिः ।
हृदि ब्रह्मा परं ध्यायान्नवर्तेत यतो गतः ॥४४॥

युधिष्ठिरने अपने सब वस्त्राभूषण आदि वहीं छोड़ दिये एवं ममता और अहंकारसे रहित होकर समस्त बन्धन काट डाले ॥ ४० ॥ उन्होंने दृढ़ भावनासे वाणीको मनमें, मनको प्राणमें, प्राणको अपानमें और अपानको उसकी क्रियाके साथ मृत्युमें, तथा मृत्युको पञ्चभूतमय शरीरमें लीन कर लिया ॥ ४१ ॥ इस प्रकार शरीरको मृत्युरूप अनुभव करके उन्होंने उसे त्रिगुणमें मिला दिया, त्रिगुणको मूल प्रकृतिमें, सर्वकारणरूपा प्रकृतिको आत्मामें, और आत्माको अविनाशी ब्रह्ममें विलीन कर दिया। उन्हें यह अनुभव होने लगा कि यह सम्पूर्ण दृश्यप्रपञ्च ब्रह्मस्वरूप है ॥ ४२ ॥ इसके पश्चात् उन्होंने शरीरपर चीर-वस्त्र धारण कर लिया, अन्न-जलका त्याग कर दिया, मौन ले लिया और केश खोलकर बिखेर लिये। वे अपने रूपको ऐसा दिखाने लगे जैसे कोई जड, उन्मत्त या पिशाच हो ॥ ४३ ॥ फिर वे बिना किसीकी बाट देखे तथा बहरेकी तरह बिना किसीकी बात सुने, घरसे निकल पड़े। हृदयमें उस परब्रह्मका ध्यान करते हुए, जिसको प्राप्त करके फिर लौटना नहीं होता, उन्होंने उत्तर दिशाकी यात्रा की, जिस ओर पहले बड़े-बड़े महात्मा जन जा चुके हैं ॥ ४४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध-पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट १०)

कृष्णविरहव्यथित पाण्डवों का
परीक्षित्‌ को राज्य देकर स्वर्ग सिधारना

सर्वे तमनु निर्जग्मुर्भ्रातरः कृतनिश्चयाः ।
कलिनाधर्ममित्रेण दृष्टा स्पृष्टाः प्रजा भुवि ॥४५॥
ते साधुकृतसर्वार्था ज्ञात्वाऽऽत्यन्तिकमात्मनः ।
मनसा धारयामासुर्वैकुठचरणाम्बुजम् ॥४६॥
तद्धनोद्रिक्तया भक्त्या विशुद्धधिषणाः परे ।
तस्मिन् नारायणपदे एकान्तमतयो गतिम् ॥४७॥
अवापुर्दुरवापां ते असद्भिर्विषयात्मभिः ।
विधूतकल्मषास्थाने विरजेनात्मनैव हि ॥४८॥
विदुरोऽपि परित्यज्य प्रभासे देहमात्मवान् ।
कृष्णावेशेन तच्चित्तः पितृभिः स्वक्षयं ययौ ॥४९॥
द्रौपदी च तदाऽऽज्ञाय पतीनामनपेक्षताम् ।
वासुदेवे भगवति ह्येकान्तमतिराप तम् ॥५०॥
यः श्रद्धयैतद् भगवत्प्रियाणां
पाण्डोः सुतानामिती सम्प्रयाणम् ।
श्रुणोत्यलं स्वत्ययनं पवित्रं
लब्ध्या हरौ भक्तिमुपैति सिद्धिम् ॥५१॥

भीमसेन, अर्जुन आदि युधिष्ठिर के छोटे भाइयोंने भी देखा कि अब पृथ्वी में सभी लोगों को अधर्म के सहायक कलियुग ने प्रभावित कर डाला है; इसलिये वे भी श्रीकृष्ण चरणोंकी प्राप्तिका दृढ़ निश्चय करके अपने बड़े भाईके पीछे-पीछे चल पड़े ॥ ४५ ॥ उन्होंने जीवनके सभी लाभ भलीभाँति प्राप्त कर लिये थे; इसलिये यह निश्चय करके कि भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमल ही हमारे परम पुरुषार्थ हैं, उन्होंने उन्हें हृदयमें धारण किया ॥ ४६ ॥ पाण्डवोंके हृदयमें भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरण-कमलोंके ध्यानसे भक्ति-भाव उमड़ आया, उनकी बुद्धि सर्वथा शुद्ध होकर भगवान्‌ श्रीकृष्णके उस सर्वोत्कृष्ट स्वरूपमें अनन्य भावसे स्थिर हो गयी; जिसमें निष्पाप पुरुष ही स्थिर हो पाते हैं। फलत: उन्होंने अपने विशुद्ध अन्त:करणसे स्वयं ही वह गति प्राप्त की, जो विषयासक्त दुष्ट मनुष्योंको कभी प्राप्त नहीं हो सकती ॥ ४७-४८ ॥ संयमी एवं श्रीकृष्णके प्रेमावेशमें मुग्ध भगवन्मय विदुरजीने भी अपने शरीरको प्रभास-क्षेत्रमें त्याग दिया। उस समय उन्हें लेनेके लिये आये हुए पितरोंके साथ वे अपने लोक (यमलोक) को चले गये ॥ ४९ ॥ द्रौपदीने देखा कि अब पाण्डवलोग निरपेक्ष हो गये हैं; तब वे अनन्य प्रेमसे भगवान्‌ श्रीकृष्णका ही चिन्तन करके उन्हें प्राप्त हो गयीं ॥ ५० ॥

भगवान्‌ के प्यारे भक्त पाण्डवों के महाप्रयाणकी इस परम पवित्र और मङ्गलमयी कथाको जो पुरुष श्रद्धासे सुनता है, वह निश्चय ही भगवान्‌की भक्ति और मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ५१ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्या संहितायं प्रथमस्कन्धे पाण्डवस्वर्गाहणं नाम पंचदशोऽध्यायः ॥१५॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०१)

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और अर्जुन का द्वारका से लौटना

सूत उवाच ।
सम्प्रस्थिते द्वारकायां जिष्णौ बन्धुदिदृक्षया ।
ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ १ ॥
व्यतीताः कतिचिन्मासाः तदा नायात् ततोऽर्जुनः ।
ददर्श घोररूपाणि निमित्तानि कुरूद्वहः ॥ २ ॥
कालस्य च गतिं रौद्रां विपर्यस्तर्तुधर्मिणः ।
पापीयसीं नृणां वार्तां क्रोधलोभानृतात्मनाम् ॥ ३ ॥
जिह्मप्रायं व्यवहृतं शाठ्यमिश्रं च सौहृदम् ।
पितृमातृसुहृद्‍भ्रातृ दम्पतीनां च कल्कनम् ॥ ४ ॥
निमित्तान्यत्यरिष्टानि काले तु अनुगते नृणाम् ।
लोभादि अधर्मप्रकृतिं दृष्ट्वोवाचानुजं नृपः ॥ ५ ॥

युधिष्ठिर उवाच ।
सम्प्रेषितो द्वारकायां जिष्णुर्बन्धु दिदृक्षया ।
ज्ञातुं च पुण्यश्लोकस्य कृष्णस्य च विचेष्टितम् ॥ ६ ॥
गताः सप्ताधुना मासा भीमसेन तवानुजः ।
नायाति कस्य वा हेतोः नाहं वेदेदमञ्जसा ॥ ७ ॥
अपि देवर्षिणाऽऽदिष्टः स कालोऽयमुपस्थितः ।
यदाऽऽत्मनोऽङ्‌गमाक्रीडं भगवान् उत्सिसृक्षति ॥ ८ ॥
यस्मान्नः सम्पदो राज्यं दाराः प्राणाः कुलं प्रजाः ।
आसन् सपत्‍नविजयो लोकाश्च यदनुग्रहात् ॥ ९ ॥

सूतजी कहते हैंस्वजनोंसे मिलने और पुण्यश्लोक भगवान्‌ श्रीकृष्ण अब क्या करना चाहते हैंयह जाननेके लिये अर्जुन द्वारका गये हुए थे ॥ १ ॥ कई महीने बीत जानेपर भी अर्जुन वहाँसे लौटकर नहीं आये। धर्मराज युधिष्ठिरको बड़े भयंकर अपशकुन दीखने लगे ॥ २ ॥ उन्होंने देखा, काल की गति बड़ी विकट हो गयी है। जिस समय जो ऋतु होनी चाहिये, उस समय वह नहीं होती और उनकी क्रियाएँ भी उलटी ही होती हैं। लोग बड़े क्रोधी, लोभी और असत्यपरायण हो गये हैं। अपने जीवन-निर्वाहके लिये लोग पापपूर्ण व्यापार करने लगे हैं ॥ ३ ॥ सारा व्यवहार कपटसे भरा हुआ होता है, यहाँतक कि मित्रतामें भी छल मिला रहता है; पिता-माता, सगे सम्बन्धी, भाई और पति-पत्नीमें भी झगड़ा-टंटा रहने लगा है ॥ ४ ॥ कलिकाल के आजाने से लोगोंका स्वभाव ही लोभ, दम्भ आदि अधर्मसे अभिभूत हो गया है और प्रकृतिमें भी अत्यन्त अरिष्टसूचक अपशकुन होने लगे हैं, यह सब देखकर युधिष्ठिरने अपने छोटे भाई भीमसेन से कहा ॥ ५ ॥ युधिष्ठिरने कहाभीमसेन ! अर्जुनको हमने द्वारका इसलिये भेजा था कि वह वहाँ जाकर, पुण्यश्लोक भगवान्‌ श्रीकृष्ण क्या कर रहे हैंइसका पता लगा आये और सम्बन्धियोंसे मिल भी आये ॥ ६ ॥ तबसे सात महीने बीत गये; किन्तु तुम्हारे छोटे भाई अबतक नहीं लौट रहे हैं। मैं ठीक-ठीक यह नहीं समझ पाता हूँ कि उनके न आनेका क्या कारण है ॥ ७ ॥ कहीं देवर्षि नारदके द्वारा बतलाया हुआ वह समय तो नहीं आ पहुँचा है, जिसमें भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने लीला-विग्रहका संवरण करना चाहते हैं ? ॥ ८ ॥ उन्हीं भगवान्‌की कृपासे हमें यह सम्पत्ति, राज्य,स्त्री,प्राण,कुल,संतान,शत्रुओंपर विजय और स्वर्गादि लोकोंका अधिकार प्राप्त हुआ है ॥ ९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०२)

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और अर्जुन का द्वारका से लौटना

पश्योत्पातान् नरव्याघ्र दिव्यान् भौमान् सदैहिकान् ।
दारुणान्शंसतोऽदूराद् भयं नो बुद्धिमोहनम् ॥ १० ॥
ऊर्वक्षिबाहवो मह्यं स्फुरन्त्यङ्‌ग पुनः पुनः ।
वेपथुश्चापि हृदये आरात् दास्यन्ति विप्रियम् ॥ ११ ॥
शिवैषोद्यन्तं आदित्यं अभिरौति अनलानना ।
मामङ्‌ग सारमेयोऽयं अभिरेभत्यभीरुवत् ॥ १२ ॥
शस्ताः कुर्वन्ति मां सव्यं दक्षिणं पशवोऽपरे ।
वाहांश्च पुरुषव्याघ्र लक्षये रुदतो मम ॥ १३ ॥
मृत्युदूतः कपोतोऽयं उलूकः कम्पयन् मनः ।
प्रत्युलूकश्च कुह्वानैः अनिद्रौ शून्यमिच्छतः ॥ १४ ॥
धूम्रा दिशः परिधयः कम्पते भूः सहाद्रिभिः ।
निर्घातश्च महांस्तात साकं च स्तनयित्‍नुभिः ॥ १५ ॥
वायुर्वाति खरस्पर्शो रजसा विसृजंस्तमः ।
असृग् वर्षन्ति जलदा बीभत्सं इव सर्वतः ॥ १६ ॥

(युधिष्ठिर कहते हैं) भीमसेन ! तुम तो मनुष्यों में व्याघ्र के समान बलवान् हो; देखो तो सहीआकाशमें उल्कापातादि, पृथ्वीमें भूकम्पादि और शरीरों में रोगादि कितने भयंकर अपशकुन हो रहे हैं ! इनसे इस बातकी सूचना मिलती है कि शीघ्र ही हमारी बुद्धिको मोहमें डालनेवाला कोई उत्पात होनेवाला है ॥ १० ॥ प्यारे भीमसेन ! मेरी बायीं जाँघ, आँख और भुजा बार-बार फडक़ रही हैं। हृदय जोरसे धडक़ रहा है। अवश्य ही बहुत जल्दी कोई अनिष्ट होनेवाला है ॥ ११ ॥ देखो, यह सियारिन उदय होते हुए सूर्यकी ओर मुँह करके रो रही है। अरे ! उसके मुँहसे तो आग भी निकल रही है ! यह कुत्ता बिलकुल निर्भय-सा होकर मेरी ओर देखकर चिल्ला रहा है ॥ १२ ॥ भीमसेन ! गौ आदि अच्छे पशु मुझे अपने बायें करके जाते हैं और गधे आदि बुरे पशु मुझे अपने दाहिने कर देते हैं। मेरे घोड़े आदि वाहन मुझे रोते हुए दिखायी देते हैं ॥ १३ ॥ यह मृत्युका दूत पेडुखी, उल्लू और उसका प्रतिपक्षी कौआ रातको अपने कर्ण-कठोर शब्दोंसे मेरे मनको कँपाते हुए विश्वको सूना कर देना चाहते हैं ॥ १४ ॥ दिशाएँ धुँधली हो गयी हैं, सूर्य और चन्द्रमाके चारों ओर बार-बार मण्डल बैठते हैं। यह पृथ्वी पहाड़ोंके साथ काँप उठती है, बादल बड़े जोर-जोरसे गरजते हैं और जहाँ-तहाँ बिजली भी गिरती ही रहती है ॥ १५ ॥ शरीरको छेदनेवाली एवं धूलिवर्षासे अंधकार फैलानेवाली आँधी चलने लगी है। बादल बड़ा डरावना दृश्य उपस्थित करके सब ओर खून बरसाते हैं ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०३)

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और अर्जुन का द्वारका से लौटना

सूर्यं हतप्रभं पश्य ग्रहमर्दं मिथो दिवि ।
ससङ्‌कुलैर्भूतगणैः ज्वलिते इव रोदसी ॥ १७ ॥
नद्यो नदाश्च क्षुभिताः सरांसि च मनांसि च ।
न ज्वलत्यग्निराज्येन कालोऽयं किं विधास्यति ॥ १८ ॥
न पिबन्ति स्तनं वत्सा न दुह्यन्ति च मातरः ।
रुदन्त्यश्रुमुखा गावो न हृष्यन्ति ऋषभा व्रजे ॥ १९ ॥
दैवतानि रुदन्तीव स्विद्यन्ति ह्युच्चलन्ति च ।
इमे जनपदा ग्रामाः पुरोद्यानाकराश्रमाः ।
भ्रष्टश्रियो निरानन्दाः किमघं दर्शयन्ति नः ॥ २० ॥
मन्य एतैर्महोत्पातैः नूनं भगवतः पदैः ।
अनन्यपुरुषश्रीभिः हीना भूर्हतसौभगा ॥ २१ ॥
इति चिन्तयतस्तस्य दृष्टारिष्टेन चेतसा ।
राज्ञः प्रत्यागमद् ब्रह्मन् यदुपुर्याः कपिध्वजः ॥ २२ ॥
तं पादयोः निपतितं अयथापूर्वमातुरम् ।
अधोवदनं अब्बिन्दून् सृजन्तं नयनाब्जयोः ॥ २३ ॥
विलोक्य उद्विग्नहृदयो विच्छायं अनुजं नृपः ।
पृच्छति स्म सुहृत् मध्ये संस्मरन् नारदेरितम् ॥ २४ ॥

(युधिष्ठिर भीम से कहते हैं) देखो ! सूर्यकी प्रभा मन्द पड़ गयी है। आकाशमें ग्रह परस्पर टकराया करते हैं। भूतों की घनी भीड़ में पृथ्वी और अन्तरिक्ष में आग-सी लगी हुई है ॥ १७ ॥ नदी, नद, तालाब, और लोगोंके मन क्षुब्ध हो रहे हैं। घीसे आग नहीं जलती। यह भयंकर काल न जाने क्या करेगा ॥ १८ ॥ बछड़े दूध नहीं पीते, गौएँ दुहने नहीं देतीं, गोशालामें गौएँ आँसू बहा-बहाकर रो रही हैं। बैल भी उदास हो रहे हैं ॥ १९ ॥ देवताओंकी मूर्तियाँ रो-सी रही हैं, उनमेंसे पसीना चूने लगता है और वे हिलती-डोलती भी हैं। भाई ! ये देश, गाँव, शहर, बगीचे, खानें और आश्रम श्रीहीन और आनन्दरहित हो गये हैं। पता नहीं ये हमारे किस दु:खकी सूचना दे रहे हैं ॥ २० ॥ इन बड़े-बड़े उत्पातोंको देखकर मैं तो ऐसा समझता हूँ कि निश्चय ही यह भाग्यहीना भूमि भगवान्‌के उन चरणकमलोंसे, जिनका सौन्दर्य तथा जिनके ध्वजा, वज्र, अंकुशादि- विलक्षण चिह्न और किसीमें भी कहीं भी नहीं हैं, रहित हो गयी है ॥ २१ ॥ शौनकजी ! राजा युधिष्ठिर इन भयंकर उत्पातोंको देखकर मन-ही-मन चिन्तित हो रहे थे कि द्वारकासे लौटकर अर्जुन आये ॥ २२ ॥ युधिष्ठिरने देखा, अर्जुन इतने आतुर हो रहे हैं जितने पहले कभी नहीं देखे गये थे। मुँह लटका हुआ है, कमल-सरीखे नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं और शरीरमें बिलकुल कान्ति नहीं है। उनको इस रूपमें अपने चरणोंमें पड़ा देखकर युधिष्ठिर घबरा गये। देवर्षि नारदकी बातें याद करके उन्होंने सुहृदोंके सामने ही अर्जुनसे पूछा ॥ २३-२४ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
प्रथम स्कन्ध--चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट ०४)

अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और अर्जुन का द्वारका से लौटना

युधिष्ठिर उवाच ।
कच्चिदानर्तपुर्यां नः स्वजनाः सुखमासते ।
मधुभोजदशार्हार्ह सात्वतान्धकवृष्णयः ॥ २५ ॥
शूरो मातामहः कच्चित् स्वस्त्यास्ते वाथ मारिषः ।
मातुलः सानुजः कच्चित् कुशल्यानकदुन्दुभिः ॥ २६ ॥
सप्त स्वसारस्तत्पत्‍न्यो मातुलान्यः सहात्मजाः ।
आसते सस्नुषाः क्षेमं देवकीप्रमुखाः स्वयम् ॥ २७ ॥
कच्चित् राजाऽऽहुको जीवति असत्पुत्रोऽस्य चानुजः ।
हृदीकः ससुतोऽक्रूरो जयन्तगदसारणाः ॥ २८ ॥
आसते कुशलं कच्चित् ये च शत्रुजिदादयः ।
कच्चिदास्ते सुखं रामो भगवान् सात्वतां प्रभुः ॥ २९ ॥
प्रद्युम्नः सर्ववृष्णीनां सुखमास्ते महारथः ।
गम्भीररयोऽनिरुद्धो वर्धते भगवानुत ॥ ३० ॥
सुषेणश्चारुदेष्णश्च साम्बो जाम्बवतीसुतः ।
अन्ये च कार्ष्णिप्रवराः सपुत्रा ऋषभादयः ॥ ३१ ॥
तथैवानुचराः शौरेः श्रुतदेवोद्धवादयः ।
सुनन्दनन्दशीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभाः ॥ ३२ ॥
अपि स्वस्त्यासते सर्वे रामकृष्ण भुजाश्रयाः ।
अपि स्मरन्ति कुशलं अस्माकं बद्धसौहृदाः ॥ ३३ ॥
भगवानपि गोविन्दो ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः ।
कच्चित्पुरे सुधर्मायां सुखमास्ते सुहृद्‌वृतः ॥ ३४ ॥
मङ्‌गलाय च लोकानां क्षेमाय च भवाय च ।
आस्ते यदुकुलाम्भोधौ आद्योऽनन्तसखः पुमान् ॥ ३५ ॥
यद्‍बाहुदण्डगुप्तायां स्वपुर्यां यदवोऽर्चिताः ।
क्रीडन्ति परमानन्दं महापौरुषिका इव ॥ ३६ ॥
यत् पादशुश्रूषणमुख्य कर्मणा
     सत्यादयो द्व्यष्टसहस्रयोषितः ।
निर्जित्य सङ्‌ख्ये त्रिदशांस्तदाशिषो
     हरन्ति वज्रायुधवल्लभोचिताः ॥ ३७ ॥
यद्‍बाहुदण्डाभ्युदयानुजीविनो
     यदुप्रवीरा ह्यकुतोभया मुहुः ।
अधिक्रमन्त्यङ्‌घ्रिभिराहृतां बलात्
     सभां सुधर्मां सुरसत्तमोचिताम् ॥ ३८ ॥

युधिष्ठिरने (अर्जुन से) कहा—‘भाई ! द्वारकापुरी में हमारे स्वजन-सम्बन्धी मधु, भोज, दशार्ह, आर्ह, सात्वत, अन्धक और वृष्णिवंशी यादव कुशलसे तो हैं ? ॥ २५ ॥ हमारे माननीय नाना शूरसेन जी प्रसन्न हैं ? अपने छोटे भाईसहित मामा वसुदेव जी तो कुशलपूर्वक हैं ? ॥ २६ ॥ उनकी पत्नियाँ हमारी मामी देवकी आदि सातों बहिनें अपने पुत्रों और बहुओंके साथ आनन्दसे तो हैं ? ॥ २७ ॥ जिनका पुत्र कंस बड़ा ही दुष्ट था, वे राजा उग्रसेन अपने छोटे भाई देवकके साथ जीवित तो हैं न ? हृदीक, उनके पुत्र कृतवर्मा, अक्रूर, जयन्त, गद, सारण तथा शत्रुजित् आदि यादव वीर सकुशल हैं न ? यादवोंके प्रभु बलरामजी तो आनन्दसे हैं ? ॥ २८-२९ ॥ वृष्णिवंशके सर्वश्रेष्ठ महारथी प्रद्युम्र सुखसे तो हैं ? युद्धमें बड़ी फुर्ती दिखलानेवाले भगवान्‌ अनिरुद्ध आनन्दसे हैं न ? ॥ ३० ॥ सुषेण, चारुदेष्ण, जाम्बवतीनन्दन साम्ब और अपने पुत्रोंके सहित ऋषभ आदि भगवान्‌ श्रीकृष्णके अन्य सब पुत्र भी प्रसन्न हैं न ? ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णके सेवक श्रुतदेव, उद्धव आदि और दूसरे सुनन्द-नन्द आदि प्रधान यदुवंशी, जो भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामके बाहुबलसे सुरक्षित हैं, सब-के-सब सकुशल हैं न ? हमसे अत्यन्त प्रेम करनेवाले वे लोग कभी हमारा कुशल-मङ्गल भी पूछते हैं ? ॥ ३२-३३ ॥ भक्तवत्सल ब्राह्मणभक्त भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने स्वजनोंके साथ द्वारकाकी सुधर्मा-सभामें सुखपूर्वक विराजते हैं न ? ॥ ३४ ॥ वे आदिपुरुष बलरामजीके साथ संसारके परम मङ्गल, परम कल्याण और उन्नतिके लिये यदुवंशरूप क्षीरसागरमें विराजमान हैं। उन्हींके बाहुबलसे सुरक्षित द्वारकापुरीमें यदुवंशीलोग सारे संसारके द्वारा सम्मानित होकर बड़े आनन्दसे विष्णुभगवान्‌के पार्षदोंके समान विहार कर रहे हैं ॥ ३५-३६ ॥ सत्यभामा आदि सोलह हजार रानियाँ प्रधानरूपसे उनके चरणकमलोंकी सेवामें ही रत रहकर उनके द्वारा युद्धमें इन्द्रादि देवताओंको भी हराकर इन्द्राणीके भोगयोग्य तथा उन्हींकी अभीष्ट पारिजातादि वस्तुओंका उपभोग करती हैं ॥ ३७ ॥ यदुवंशी वीर श्रीकृष्णके बाहुदण्डके प्रभावसे सुरक्षित रहकर निर्भय रहते हैं और बलपूर्वक लायी हुई बड़े-बड़े देवताओंके बैठने योग्य सुधर्मा सभाको अपने चरणोंसे आक्रान्त करते हैं ॥ ३८ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
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अपशकुन देखकर महाराज युधिष्ठिर का शंका करना
और अर्जुन का द्वारका से लौटना

कच्चित्तेऽनामयं तात भ्रष्टतेजा विभासि मे ।
अलब्धमानोऽवज्ञातः किं वा तात चिरोषितः ॥ ३९ ॥
कच्चित् नाभिहतोऽभावैः शब्दादिभिरमङ्‌गलैः ।
न दत्तमुक्तमर्थिभ्य आशया यत्प्रतिश्रुतम् ॥ ४० ॥
कच्चित्त्वं ब्राह्मणं बालं गां वृद्धं रोगिणं स्त्रियम् ।
शरणोपसृतं सत्त्वं नात्याक्षीः शरणप्रदः ॥ ४१ ॥
कच्चित्त्वं नागमोऽगम्यां गम्यां वासत्कृतां स्त्रियम् ।
पराजितो वाथ भवान् नोत्तमैर्नासमैः पथि ॥ ४२ ॥
अपि स्वित्पर्यभुङ्‌क्थास्त्वं सम्भोज्यान् वृद्धबालकान् ।
जुगुप्सितं कर्म किञ्चित् कृतवान्न यदक्षमम् ॥ ४३ ॥
कच्चित्प्रेष्ठतमेनाथ हृदयेनात्मबन्धुना ।
शून्योऽस्मि रहितो नित्यं मन्यसे तेऽन्यथा न रुक् ॥ ४४ ॥

(युधिष्ठिर कहते हैं) भाई अर्जुन ! यह भी बताओ कि तुम स्वयं तो कुशलसे हो न ? मुझे तुम श्रीहीन-से दीख रहे हो; वहाँ बहुत दिनोंतक रहे, कहीं तुम्हारे सम्मानमें तो किसी प्रकारकी कमी नहीं हुई ? किसीने तुम्हारा अपमान तो नहीं कर दिया ? ॥ ३९ ॥ कहीं किसीने दुर्भावपूर्ण अमङ्गल शब्द आदिके द्वारा तुम्हारा चित्त तो नहीं दुखाया ? अथवा किसी आशासे तुम्हारे पास आये हुए याचकोंको उनकी माँगी हुई वस्तु अथवा अपनी ओरसे कुछ देनेकी प्रतिज्ञा करके भी तुम नहीं दे सके ? ॥ ४० ॥ तुम सदा शरणागतोंकी रक्षा करते आये हो; कहीं किसी भी ब्राह्मण, बालक, गौ, बूढ़े, रोगी, अबला अथवा अन्य किसी प्राणीका, जो तुम्हारी शरणमें आया हो, तुमने त्याग तो नहीं कर दिया ? ॥ ४१ ॥ कहीं तुमने अगम्या स्त्रीसे समागम तो नहीं किया ? अथवा गमन करनेयोग्य स्त्रीके साथ असत्कारपूर्वक समागम तो नहीं किया ? कहीं मार्गमें अपनेसे छोटे अथवा बराबरीवालोंसे हार तो नहीं गये ? ॥ ४२ ॥ अथवा भोजन करानेयोग्य बालक और बूढ़ोंको छोडक़र तुमने अकेले ही तो भोजन नहीं कर लिया ? मेरा विश्वास है कि तुमने ऐसा कोई निन्दित काम तो नहीं किया होगा, जो तुम्हारे योग्य न हो ॥ ४३ ॥ हो-न-हो अपने परम प्रियतम अभिन्नहृदय परम सुहृद् भगवान्‌ श्रीकृष्णसे तुम रहित हो गये हो। इसीसे अपनेको शून्य मान रहे हो । इसके सिवा दूसरा कोई कारण नहीं हो सकता, जिससे तुमको इतनी मानसिक पीड़ा हो॥ ४४ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
प्रथमस्कन्धे युधिष्टिरवितर्को नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्ट संस्करण)  पुस्तक कोड 1535 से
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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...