बुधवार, 30 जनवरी 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

विदुरजीके प्रश्र

श्रीशुक उवाच -
एवं ब्रुवाणं मैत्रेयं द्वैपायनसुतो बुधः ।
प्रीणयन्निव भारत्या विदुरः प्रत्यभाषत ॥ १ ॥

विदुर उवाच ।
ब्रह्मन् कथं भगवतः चिन्मात्रस्याविकारिणः ।
लीलया चापि युज्येरन् निर्गुणस्य गुणाः क्रियाः ॥ २ ॥
क्रीडायां उद्यमोऽर्भस्य कामश्चिक्रीडिषान्यतः ।
स्वतस्तृप्तस्य च कथं निवृत्तस्य सदान्यतः ॥ ३ ॥
अस्राक्षीत् भगवान् विश्वं गुणमय्याऽऽत्ममायया ।
तया संस्थापयत्येतद् भूयः प्रत्यपिधास्यति ॥ ४ ॥
देशतः कालतो योऽसौ अवस्थातः स्वतोऽन्यतः ।
अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया कथम् ॥ ५ ॥
भगवानेक एवैष सर्वक्षेत्रेष्ववस्थितः ।
अमुष्य दुर्भगत्वं वा क्लेशो वा कर्मभिः कुतः ॥ ६ ॥
एतस्मिन्मे मनो विद्वन् खिद्यतेऽज्ञानसङ्कटे ।
तन्नः पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंमैत्रेयजी का यह भाषण सुनकर बुद्धिमान् व्यासनन्दन विदुरजी ने उन्हें अपनी वाणी से प्रसन्न करते हुए कहा ॥ १ ॥
विदुरजी ने पूछाब्रह्मन् ! भगवान्‌ तो शुद्ध बोधस्वरूप, निर्विकार और निर्गुण हैं; उनके साथ लीला से भी गुण और क्रिया का सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? ॥ २ ॥ बालक में तो कामना और दूसरों के साथ खेलने की इच्छा रहती है, इसी से वह खेलने के लिये प्रयत्न करता है; किन्तु भगवान्‌ तो स्वत: नित्यतृप्तपूर्णकाम और सर्वदा असङ्ग हैं, वे क्रीडा के लिये भी क्यों सङ्कल्प करेंगे ॥ ३ ॥ भगवान्‌ ने अपनी गुणमयी माया से जगत् की रचना की है, उसीसे वे इसका पालन करते हैं और फिर उसी से संहार भी करेंगे ॥ ४ ॥ जिनके ज्ञान का देश, काल अथवा अवस्था से, अपने-आप या किसी दूसरे निमित्त से भी कभी लोप नहीं होता, उनका मायाके साथ किस प्रकार संयोग हो सकता है ॥ ५ ॥ एकमात्र ये भगवान्‌ ही समस्त क्षेत्रों में  उनके साक्षीरूप से स्थित हैं, फिर इन्हें दुर्भाग्य या किसी प्रकारके कर्मजनित क्लेशकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ॥ ६ ॥ भगवन् ! इस अज्ञानसङ्कट में पडक़र मेरा मन बड़ा खिन्न हो रहा है, आप मेरे मनके इस महान् मोह को कृपा करके दूर कीजिये ॥ ७ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

विदुरजीके प्रश्र

श्रीशुक उवाच –

स इत्थं चोदितः क्षत्त्रा तत्त्वजिज्ञासुना मुनिः ।
प्रत्याह भगवच्चित्तः स्मयन्निव गतस्मयः ॥ ८ ॥

मैत्रेय उवाच –

सेयं भगवतो माया यन्नयेन विरुध्यते ।
ईश्वरस्य विमुक्तस्य कार्पण्यमुत बन्धनम् ॥ ९ ॥
यदर्थेन विनामुष्य पुंस आत्मविपर्ययः ।
प्रतीयत उपद्रष्टुः स्वशिरश्छेदनादिकः ॥ १० ॥
यथा जले चन्द्रमसः कम्पादिस्तत्कृतो गुणः ।
दृश्यतेऽसन्नपि द्रष्टुः आत्मनोऽनात्मनो गुणः ॥ ११ ॥
स वै निवृत्तिधर्मेण वासुदेवानुकम्पया ।
भगवद्‍भक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह ॥ १२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंतत्त्वजिज्ञासु विदुरजी की यह प्रेरणा प्राप्तकर अहंकारहीन श्रीमैत्रेयजी ने भगवान्‌ का स्मरण करते हुए मुसकराते हुए कहा ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजीने कहाजो आत्मा सब का स्वामी और सर्वथा मुक्तस्वरूप है, वही दीनता और बन्धन को प्राप्त होयह बात युक्तिविरुद्ध अवश्य है; किन्तु वस्तुत: यही तो भगवान्‌ की माया है ॥ ९ ॥ जिस प्रकार स्वप्न देखने वाले पुरुष को अपना सिर कटना आदि व्यापार न होने पर भी अज्ञान के कारण सत्यवत् भासते हैं, उसी प्रकार इस जीव को बन्धनादि न होते हुए भी अज्ञानवश भास रहे हैं ॥ १० ॥ यदि यह कहा जाय कि फिर ईश्वर में इनकी प्रतीति क्यों नहीं होती, तो इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जलमें होनेवाली कम्प आदि क्रिया जलमें दीखनेवाले चन्द्रमाके प्रतिबिम्बमें न होनेपर भी भासती है, आकाशस्थ चन्द्रमामें नहीं, उसी प्रकार देहाभिमानी जीवमें ही देहके मिथ्या धर्मोंकी प्रतीति होती है, परमात्मामें नहीं ॥ ११ ॥
निष्कामभावसे धर्मोंका आचरण करनेपर भगवत्कृपासे प्राप्त हुए भक्ति-योगके द्वारा यह प्रतीति धीरे-धीरे निवृत्त हो जाती है ॥ १२ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

विदुरजीके प्रश्र

यदेन्द्रियोपरामोऽथ द्रष्ट्रात्मनि परे हरौ ।
विलीयन्ते तदा क्लेशाः संसुप्तस्येव कृत्स्नशः ॥ १३ ॥
अशेषसङ्क्लेशशमं विधत्ते
     गुणानुवादश्रवणं मुरारेः ।
किं वा पुनस्तच्चरणारविन्द
     परागसेवारतिरात्मलब्धा ॥ १४ ॥

विदुर उवाच -

सञ्छिन्नः संशयो मह्यं तव सूक्तासिना विभो ।
उभयत्रापि भगवन् मनो मे सम्प्रधावति ॥ १५ ॥
साध्वेतद् व्याहृतं विद्वन् आत्ममायायनं हरेः ।
आभात्यपार्थं निर्मूलं विश्वमूलं न यद्‍बहिः ॥ १६ ॥

जिस समय समस्त इन्द्रियाँ विषयों से हटकर साक्षी परमात्मा श्रीहरि में निश्चलभावसे स्थित हो जाती हैं, उस समय गाढ़ निद्रा में सोये हुए मनुष्य के समान जीव के राग-द्वेषादि सारे क्लेश सर्वथा नष्ट हो जाते हैं ॥ १३ ॥ श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन एवं श्रवण अशेष दु:खराशि को शान्त कर देता है; फिर यदि हमारे हृदय में उनके चरणकमल की रज के सेवन का प्रेम जग पड़े, तब तो कहना ही क्या है ? ॥ १४ ॥
विदुरजीने कहाभगवन् ! आपके युक्तियुक्त वचनोंकी तलवारसे मेरे सन्देह छिन्न-भिन्न हो गये हैं। अब मेरा चित्त भगवान्‌ की स्वतन्त्रता और जीव की परतन्त्रतादोनों ही विषयों में खूब प्रवेश कर रहा है ॥ १५ ॥ विद्वन् ! आपने यह बात बहुत ठीक कही कि जीवको जो क्लेशादिकी प्रतीति हो रही है, उसका आधार केवल भगवान्‌ की माया ही है। वह क्लेश मिथ्या एवं निर्मूल ही है; क्योंकि इस विश्वका मूल कारण ही मायाके अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥ १६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

विदुरजीके प्रश्र

यश्च मूढतमो लोके यश्च बुद्धेः परं गतः ।
तावुभौ सुखमेधेते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ १७ ॥
अर्थाभावं विनिश्चित्य प्रतीतस्यापि नात्मनः ।
तां चापि युष्मच्चरण सेवयाहं पराणुदे ॥ १८ ॥
यत्सेवया भगवतः कूटस्थस्य मधुद्विषः ।
रतिरासो भवेत्तीव्रः पादयोर्व्यसनार्दनः ॥ १९ ॥
दुरापा ह्यल्पतपसः सेवा वैकुण्ठवर्त्मसु ।
यत्रोपगीयते नित्यं देवदेवो जनार्दनः ॥ २० ॥

इस संसारमें दो ही प्रकार के लोग सुखी हैंया तो जो अत्यन्त मूढ़ (अज्ञानग्रस्त) हैं, या जो बुद्धि आदि से अतीत श्रीभगवान्‌ को प्राप्त कर चुके हैं। बीचकी श्रेणीके संशयापन्न लोग तो दु:ख ही भोगते रहते हैं ॥ १७ ॥ भगवन् ! आपकी कृपा से मुझे यह निश्चय हो गया कि ये अनात्म पदार्थ वस्तुत: हैं नहीं, केवल प्रतीत ही होते हैं । अब मैं आपके चरणों की सेवा के प्रभाव से उस प्रतीति को भी हटा दूँगा ॥ १८ ॥ इन श्रीचरणों की सेवा से नित्यसिद्ध भगवान्‌ श्रीमधुसूदन के चरणकमलों में  उत्कट प्रेम और आनन्दकी वृद्धि होती है, जो आवागमन की यन्त्रणाका नाश कर देती है ॥ १९ ॥ महात्मा लोग भगवत्प्राप्ति के साक्षात् मार्ग ही होते हैं, उनके यहाँ सर्वदा देवदेव श्रीहरि के गुणों का गान होता रहता है; अल्पपुण्य पुरुषको उनकी सेवाका अवसर मिलना अत्यन्त कठिन है ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

विदुरजीके प्रश्र

सृष्ट्वाग्रे महदादीनि सविकाराणि अनुक्रमात् ।
तेभ्यो विराजं उद्‌धृत्य तमनु प्राविशद्विभुः ॥ २१ ॥
यमाहुराद्यं पुरुषं सहस्राङ्घ्र्यूरुबाहुकम् ।
यत्र विश्व इमे लोकाः सविकाशं समासते ॥ २२ ॥
यस्मिन् दशविधः प्राणः सेन्द्रियार्थेन्द्रियः त्रिवृत् ।
त्वयेरितो यतो वर्णाः तद्‌विभूतीर्वदस्व नः ॥ २३ ॥
यत्र पुत्रैश्च पौत्रैश्च नप्तृभिः सह गोत्रजैः ।
प्रजा विचित्राकृतय आसन्याभिरिदं ततम् ॥ २४ ॥
प्रजापतीनां स पतिः चकॢपे कान् प्रजापतीन् ।
सर्गांश्चैवानुसर्गांश्च मनून् मन्वन्तराधिपान् ॥ २५ ॥

(विदुरजी कहते हैं) भगवन् ! आपने कहा कि सृष्टि के प्रारम्भ में भगवान्‌ ने क्रमश: महदादि तत्त्व और उनके विकारों को रचकर फिर उनके अंशों से विराट्को  उत्पन्न किया और इसके पश्चात् वे स्वयं उसमें प्रविष्ट हो गये ॥ २१ ॥ उन विराट्के हजारों पैर, जाँघें और बाँहें हैं; उन्हींको वेद आदिपुरुष कहते हैं; उन्हीं में ये सब लोक विस्तृतरूप से स्थित हैं ॥ २२ ॥ उन्हीं में इन्द्रिय, विषय और इन्द्रियाभिमानी  देवताओंके सहित दस प्रकार के प्राणों काजो इन्द्रियबल, मनोबल और शारीरिक बलरूप से तीन प्रकार के हैंआपने वर्णन किया है और उन्हीं से ब्राह्मणादि वर्ण भी उत्पन्न हुए हैं। अब आप मुझे उनकी ब्रह्मादि विभूतियोंका वर्णन सुनाइयेजिनसे पुत्र, पौत्र, नाती और कुटुम्बियोंके सहित तरह-तरहकी प्रजा उत्पन्न हुई और उससे यह सारा ब्रह्माण्ड भर गया ॥ २३-२४ ॥ वह विराट् ब्रह्मादि प्रजापतियोंका भी प्रभु है। उसने किन-किन प्रजापतियोंको उत्पन्न किया तथा सर्ग, अनुसर्ग और मन्वन्तरोंके अधिपति मनुओंकी भी किस क्रमसे रचना की ? ॥ २५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

विदुरजीके प्रश्र

एतेषामपि वंशांश्च वंशानुचरितानि च ।
उपर्यधश्च ये लोका भूमेर्मित्रात्मजासते ॥ २६ ॥
तेषां संस्थां प्रमाणं च भूर्लोकस्य च वर्णय ।
तिर्यङ्‌मानुषदेवानां सरीसृप पतत्त्रिणाम् ।
वद नः सर्गसंव्यूहं गार्भस्वेदद्विजोद्‌भिदाम् ॥ २७॥
गुणावतारैर्विश्वस्य सर्गस्थित्यप्ययाश्रयम् ।
सृजतः श्रीनिवासस्य व्याचक्ष्वोदारविक्रमम् ॥ २८ ॥
वर्णाश्रमविभागांश्च रूपशीलस्वभावतः ।
ऋषीणां जन्मकर्माणि वेदस्य च विकर्षणम् ॥ २९ ॥
यज्ञस्य च वितानानि योगस्य च पथः प्रभो ।
नैष्कर्म्यस्य च साङ्ख्यस्य तंत्रं वा भगवत्स्मृतम् ॥ ३० ॥
पाषण्डपथवैषम्यं प्रतिलोमनिवेशनम् ।
जीवस्य गतयो याश्च यावतीर्गुणकर्मजाः ॥ ३१ ॥

(विदुरजी कहरहे हैं) मैत्रेयजी ! उन मनुओं के वंश और वंशधर राजाओं के चरित्रों का, पृथ्वी के ऊपर और नीचे के लोकों तथा भूर्लोक के विस्तार और स्थिति का भी वर्णन कीजिये तथा यह भी बताइये कि तिर्यक्, मनुष्य, देवता, सरीसृप (सर्पादि रेंगनेवाले जन्तु) और पक्षी तथा जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भिज्जये चार प्रकारके प्राणी किस प्रकार उत्पन्न हुए ॥ २६-२७ ॥ श्रीहरिने सृष्टि करते समय जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और संहारके लिये अपने गुणावतार ब्रह्मा, विष्णु और महादेवरूपसे जो कल्याणकारी लीलाएँ कीं, उनका भी वर्णन कीजिये ॥ २८ ॥ वेष, आचरण और स्वभावके अनुसार वर्णाश्रमका विभाग, ऋषियोंके जन्म- कर्मादि, वेदोंका विभाग, यज्ञोंका विस्तार, योगका मार्ग, ज्ञानमार्ग और उसका साधन सांख्यमार्ग तथा भगवान्‌के कहे हुए नारदपाञ्चरात्र आदि तन्त्रशास्त्र, विभिन्न पाखण्डमार्गों के प्रचार से होनेवाली विषमता, नीचवर्ण के पुरुष से उच्चवर्ण की स्त्रीमें  होनेवाली सन्तानों के प्रकार तथा भिन्न-भिन्न गुण और कर्मोंके  कारण जीव की जैसी और जितनी गतियाँ, होती हैं, वे सब हमें सुनाइये ॥ २९३१ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

विदुरजीके प्रश्र

धर्मार्थकाममोक्षाणां निमित्तान्यविरोधतः ।
वार्ताया दण्डनीतेश्च श्रुतस्य च विधिं पृथक् ॥ ३२ ॥
श्राद्धस्य च विधिं ब्रह्मन् पितॄणां सर्गमेव च ।
ग्रहनक्षत्रताराणां कालावयवसंस्थितिम् ॥ ३३ ॥
दानस्य तपसो वापि यच्चेष्टापूर्तयोः फलम् ।
प्रवासस्थस्य यो धर्मो यश्च पुंस उतापदि ॥ ३४ ॥
येन वा भगवान् तुस्तुष्येद् धर्मयोनिर्जनार्दनः ।
सम्प्रसीदति वा येषां एतत् आख्याहि मेऽनघ ॥ ३५ ॥
अनुव्रतानां शिष्याणां पुत्राणां च द्विजोत्तम ।
अनापृष्टमपि ब्रूयुः गुरवो दीनवत्सलाः ॥ ३६ ॥
तत्त्वानां भगवन् तेषां कतिधा प्रतिसङ्क्रमः ।
तत्रेमं क उपासीरन् क उ स्विदनुशेरते ॥ ३७ ॥

ब्रह्मन् ! धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्तिके परस्पर अविरोधी साधनोंका, वाणिज्य, दण्डनीति और शास्त्रश्रवणकी विधियोंका, श्राद्धकी विधिका, पितृगणोंकी सृष्टिका तथा कालचक्रमें ग्रह, नक्षत्र और तारागणकी स्थितिका भी अलग-अलग वर्णन कीजिये ॥ ३२-३३ ॥ दान, तप तथा इष्ट और पूर्त कर्मों का क्या फल है ? प्रवास और आपत्तिके समय मनुष्यका क्या धर्म होता है ? ॥ ३४ ॥ निष्पाप मैत्रेयजी ! धर्मके मूल कारण श्रीजनार्दन भगवान्‌ किस आचरणसे सन्तुष्ट होते हैं और किनपर अनुग्रह करते हैं, यह वर्णन कीजिये ॥ ३५ ॥ द्विजवर ! दीनवत्सल गुरुजन अपने अनुगत शिष्यों और पुत्रोंको बिना पूछे भी उनके हितकी बात बतला दिया करते हैं ॥ ३६ ॥ भगवन् ! उन महदादि तत्त्वोंका प्रलय कितने प्रकारका है ? तथा जब भगवान्‌ योगनिद्रामें शयन करते हैं, तब उनमेंसे कौन-कौन तत्त्व उनकी सेवा करते हैं और कौन उनमें लीन हो जाते हैं ? ॥ ३७ ॥
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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

विदुरजीके प्रश्र

पुरुषस्य च संस्थानं स्वरूपं वा परस्य च ।
ज्ञानं च नैगमं यत्तद् गुरुशिष्यप्रयोजनम् ॥ ३८ ॥
निमित्तानि च तस्येह प्रोक्तान्यनघसूरिभिः ।
स्वतो ज्ञानं कुतः पुंसां भक्तिर्वैराग्यमेव वा ॥ ३९ ॥
एतान्मे पृच्छतः प्रश्नान् हरेः कर्मविवित्सया ।
ब्रूहि मेऽज्ञस्य मित्रत्वात् अजया नष्टचक्षुषः ॥ ४० ॥
सर्वे वेदाश्च यज्ञाश्च तपो दानानि चानघ ।
जीवाभयप्रदानस्य न कुर्वीरन् कलामपि ॥ ४१ ॥

श्रीशुक उवाच –

स इत्थं आपृष्टपुराणकल्पः
     कुरुप्रधानेन मुनिप्रधानः ।
प्रवृद्धहर्षो भगवत्कथायां
     सञ्चोदितस्तं प्रहसन्निवाह ॥ ४२ ॥

जीवका तत्त्व, परमेश्वरका स्वरूप, उपनिषत्-प्रतिपादित ज्ञान तथा गुरु और शिष्यका पारस्परिक प्रयोजन क्या है ? ॥ ३८ ॥ पवित्रात्मन् विद्वानोंने उस ज्ञानकी प्राप्तिके क्या-क्या उपाय बतलाये हैं ? क्योंकि मनुष्योंको ज्ञान, भक्ति अथवा वैराग्यकी प्राप्ति अपने-आप तो हो नहीं सकती ॥ ३९ ॥ ब्रह्मन् ! माया-मोहके कारण मेरी विचार-दृष्टि नष्ट हो गयी है। मैं अज्ञ हूँ, आप मेरे परम सुहृद् हैं; अत: श्रीहरिलीलाका ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छासे मैंने जो प्रश्र किये हैं, उनका उत्तर मुझे दीजिये ॥ ४० ॥ पुण्यमय मैत्रेयजी ! भगवत्तत्त्वके उपदेशद्वारा जीवको जन्म-मृत्युसे छुड़ाकर उसे अभय कर देनेमें जो पुण्य होता है, समस्त वेदोंके अध्ययन, यज्ञ, तपस्या और दानादिसे होनेवाला पुण्य उस पुण्यके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं हो सकता ॥ ४१ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! जब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने मुनिवर मैत्रेयजी से इस प्रकार पुराणविषयक प्रश्र किये, तब भगवच्चर्चा के लिये प्रेरित किये जानेके कारण वे बड़े प्रसन्न हुए और मुसकराकर उनसे कहने लगे ॥ ४२ ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०१)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

ऋषिरुवाच -

इति तासां स्वशक्तीनां सतीनामसमेत्य सः ।
प्रसुप्तलोकतन्त्राणां निशाम्य गतिमीश्वरः ॥ १ ॥
कालसञ्ज्ञां तदा देवीं बिभ्रत् शक्तिमुरुक्रमः ।
त्रयोविंशति तत्त्वानां गणं युगपदाविशत् ॥ २ ॥
सोऽनुप्रविष्टो भगवान् चेष्टारूपेण तं गणम् ।
भिन्नं संयोजयामास सुप्तं कर्म प्रबोधयन् ॥ ३ ॥
प्रबुद्धकर्म दैवेन त्रयोविंशतिको गणः ।
प्रेरितोऽजनयत्स्वाभिः मात्राभिः अधिपूरुषम् ॥ ४ ॥
परेण विशता स्वस्मिन् मात्रया विश्वसृग्गणः ।
चुक्षोभान्योन्यमासाद्य यस्मिन् लोकाश्चराचराः ॥ ५ ॥

श्रीमैत्रेय ऋषि ने कहासर्वशक्तिमान् भगवान्‌ ने जब देखा कि आपस में संगठित न होने के कारण ये मेरी महत्तत्त्व आदि शक्तियाँ विश्व-रचना के कार्य में असमर्थ हो रही हैं, तब वे कालशक्ति को स्वीकार करके एक साथ ही महत्तत्त्व, अहंकार, पञ्चभूत, पञ्चतन्मात्रा और मनसहित ग्यारह इन्द्रियाँ इन तेईस तत्त्वोंके समुदायमें प्रविष्ट हो गये ॥ १-२ ॥ उनमें प्रविष्ट होकर उन्होंने जीवों के सोये हुए अदृष्ट को जाग्रत् किया और परस्पर विलग हुए उस तत्त्वसमूह को अपनी क्रियाशक्ति के द्वारा आपस में मिला दिया ॥ ३ ॥ इस प्रकार जब भगवान्‌ ने अदृष्ट को कार्योन्मुख किया, तब उस तेईस तत्त्वों के समूह ने भगवान्‌ की प्रेरणा से अपने अंशों द्वारा अधिपुरुषविराट्को उत्पन्न किया ॥ ४ ॥ अर्थात् जब भगवान्‌ ने अंशरूप से अपने उस शरीर में प्रवेश किया, तब वह विश्वरचना करनेवाला महत्तत्त्वादि का समुदाय एक-दूसरे से मिलकर परिणामको प्राप्त हुआ। यह तत्त्वोंका परिणाम ही विराट् पुरुष है, जिसमें चराचर जगत् विद्यमान है ॥ ५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०२)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

हिरण्मयः स पुरुषः सहस्रपरिवत्सरान् ।
आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबृंहितः ॥ ६ ॥
स वै विश्वसृजां गर्भो देवकर्मात्मशक्तिमान् ।
विबभाजात्मनात्मानं एकधा दशधा त्रिधा ॥ ७ ॥
एष ह्यशेषसत्त्वानां आत्मांशः परमात्मनः ।
आद्योऽवतारो यत्रासौ भूतग्रामो विभाव्यते ॥ ८ ॥
साध्यात्मः साधिदैवश्च साधिभूत इति त्रिधा ।
विराट्प्राणो दशविध एकधा हृदयेन च ॥ ९ ॥

जलके भीतर जो अण्डरूप आश्रयस्थान था, उसमें वह हिरण्यमय विराट् पुरुष सम्पूर्ण जीवों को साथ लेकर एक हजार दिव्य वर्षों तक रहा ॥ ६ ॥ वह विश्वरचना करने वाले तत्त्वों का गर्भ (कार्य) था तथा ज्ञान, क्रिया और आत्म- शक्ति से सम्पन्न था। इन शक्तियों से उसने स्वयं अपने क्रमश: एक (हृदयरूप), दस (प्राणरूप) और तीन (आध्यात्मिक,आधिदैविक,आधिभौतिक)विभाग किये ॥ ७ ॥ यह विराट् पुरुष ही प्रथम जीव होनेके कारण समस्त जीवोंका आत्मा, जीवरूप होने के कारण परमात्मा का अंश और प्रथम अभिव्यक्त होने के कारण भगवान्‌ का आदि-अवतार है । यह सम्पूर्ण भूतसमुदाय इसी में प्रकाशित होता है ॥ ८ ॥ यह अध्यात्म,अधिभूत और अधिदैवरूप से तीन प्रकार का, प्राणरूप से दस प्रकार का [*] और हृदयरूप से एक प्रकारका है ॥ ९ ॥
............................................................
[*] दस इन्द्रियोंसहित मन अध्यात्म है, इन्द्रियादिके विषय अधिभूत हैं, इन्द्रियाधिष्ठाता देव अधिदैव हैं तथा प्राण, अपान, उदान, समान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जयये दस प्राण हैं।

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं अधोक्षजः ।
विराजं अतपत्स्वेन तेजसैषां विवृत्तये ॥ १० ॥
अथ तस्याभितप्तस्य कति चायतनानि ह ।
निरभिद्यन्त देवानां तानि मे गदतः श्रृणु ॥ ११ ॥
तस्याग्निरास्यं निर्भिन्नं लोकपालोऽविशत्पदम् ।
वाचा स्वांशेन वक्तव्यं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १२ ॥
निर्भिन्नं तालु वरुणो लोकपालोऽविशद्धरेः ।
जिह्वयांशेन च रसं ययासौ प्रतिपद्यते ॥ १३ ॥
निर्भिन्ने अश्विनौ नासे विष्णोः आविशतां पदम् ।
घ्राणेनांशेन गन्धस्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १४ ॥
निर्भिन्ने अक्षिणी त्वष्टा लोकपालोऽविशद्विभोः ।
चक्षुषांशेन रूपाणां प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ १५ ॥

फिर विश्व की रचना करनेवाले महत्तत्त्वादि के अधिपति श्रीभगवान्‌ ने उनकी प्रार्थना को स्मरण कर उनकी वृत्तियों को जगाने के लिये अपने चेतनरूप तेज से उस विराट् पुरुष को प्रकाशित किया, उसे जगाया ॥ १० ॥ उसके जाग्रत् होते ही देवताओंके लिये कितने स्थान प्रकट हुएयह मैं बतलाता हूँ, सुनो ॥ ११ ॥ विराट् पुरुषके पहले मुख प्रकट हुआ; उसमें लोकपाल अग्नि अपने अंश वागिन्द्रिय के समेत प्रविष्ट हो गया, जिससे यह जीव बोलता है ॥ १२ ॥ फिर विराट् पुरुषके तालु उत्पन्न हुआ; उसमें लोकपाल वरुण अपने अंश रसनेन्द्रियके सहित स्थित हुआ, जिससे जीव रस ग्रहण करता है ॥ १३ ॥ इसके पश्चात् उस विराट् पुरुष के नथुने प्रकट हुए; उनमें दोनों अश्विनी- कुमार अपने अंश घ्राणेन्द्रियके सहित प्रविष्ट हुए, जिससे जीव गन्ध ग्रहण करता है ॥ १४ ॥ इसी प्रकार जब उस विराट् देह  में आँखें प्रकट हुर्ईं, तब उनमें अपने अंश नेत्रेन्द्रिय के सहितलोकपति सूर्यने प्रवेश किया, जिस नेत्रेन्द्रियसे पुरुषको विविध रूपोंका ज्ञान होता है ॥ १५ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०४)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

निर्भिन्नान्यस्य चर्माणि लोकपालोऽनिलोऽविशत् ।
प्राणेनांशेन संस्पर्शं येनासौ प्रतिपद्यते ॥ १६ ॥
कर्णौ अस्य विनिर्भिन्नौ धिष्ण्यं स्वं विविशुर्दिशः ।
श्रोत्रेणांशेन शब्दस्य सिद्धिं येन प्रपद्यते ॥ १७ ॥
त्वचमस्य विनिर्भिन्नां विविशुर्धिष्ण्यमोषधीः ।
अंशेन रोमभिः कण्डूं यैरसौ प्रतिपद्यते ॥ १८ ॥
मेढ्रं तस्य विनिर्भिन्नं स्वधिष्ण्यं क उपाविशत् ।
रेतसांशेन येनासौ आनन्दं प्रतिपद्यते ॥ १९ ॥
गुदं पुंसो विनिर्भिन्नं मित्रो लोकेश आविशत् ।
पायुनांशेन येनासौ विसर्गं प्रतिपद्यते ॥ २० ॥

फिर उस विराट् विग्रहमें त्वचा उत्पन्न हुई; उसमें अपने अंश त्वगिन्द्रिय के सहित वायु स्थित हुआ, जिस त्वगिन्द्रिय से जीव स्पर्श का अनुभव करता है ॥ १६ ॥ जब इसके कर्णछिद्र प्रकट हुए, तब उनमें अपने अंश श्रवणेन्द्रिय के सहित दिशाओं ने प्रवेश किया, जिस श्रवणेन्द्रिय से जीव को शब्द का ज्ञान होता है ॥ १७ ॥ फिर विराट् शरीर में चर्म उत्पन्न हुआ; उसमें अपने अंश रोमों के सहित ओषधियाँ स्थित हुर्ईं, जिन रोमोंसे जीव खुजली आदिको अनुभव करता है ॥ १८ ॥ अब उसके लिङ्ग उत्पन्न हुआ। अपने इस आश्रय में प्रजापति ने अपने अंश वीर्य के सहित प्रवेश किया, जिससे जीव आनन्द का अनुभव करता है ॥ १९ ॥ फिर विराट् पुरुषके गुदा प्रकट हुई; उसमें लोकपाल मित्र ने अपने अंश पायु-इन्द्रिय के सहित प्रवेश किया, इससे जीव मलत्याग करता है ॥ २० ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०५)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

हस्तावस्य विनिर्भिन्नौ इन्द्रः स्वर्पतिराविशत् ।
वार्तयांशेन पुरुषो यया वृत्तिं प्रपद्यते ॥ २१ ॥
पादौ अवस्य विनिर्भिन्नौ लोकेशो विष्णुराविशत् ।
गत्या स्वांशेन पुरुषो यया प्राप्यं प्रपद्यते ॥ २२ ॥
बुद्धिं चास्य विनिर्भिन्नां वागीशो धिष्ण्यमाविशत् ।
बोधेनांशेन बोद्धव्य प्रतिपत्तिर्यतो भवेत् ॥ २३ ॥
हृदयं चास्य निर्भिन्नं चन्द्रमा धिष्ण्यमाविशत् ।
मनसांशेन येनासौ विक्रियां प्रतिपद्यते ॥ २४ ॥
आत्मानं चास्य निर्भिन्नं अभिमानोऽविशत्पदम् ।
कर्मणांशेन येनासौ कर्तव्यं प्रतिपद्यते ॥ २५ ॥
सत्त्वं चास्य विनिर्भिन्नं महान् धिष्ण्यमुपाविशत् ।
चित्तेनांशेन येनासौ विज्ञानं प्रतिपद्यते ॥ २६ ॥

इसके पश्चात् उसके हाथ प्रकट हुए; उनमें अपनी ग्रहण-त्यागरूपा शक्तिके सहित देवराज इन्द्रने प्रवेश किया, इस शक्तिसे जीव अपनी जीविका प्राप्त करता है ॥ २१ ॥ जब इसके चरण उत्पन्न हुए, तब उनमें अपनी शक्ति गति के सहित लोकेश्वर विष्णुने प्रवेश कियाइस गति-शक्तिद्वारा जीव अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँचता है ॥ २२ ॥ फिर इसके बुद्धि उत्पन्न हुई; अपने इस स्थानमें अपने अंश बुद्धिशक्तिके साथ वाक्पति ब्रह्माने प्रवेश किया, इस बुद्धिशक्तिसे जीव ज्ञातव्य विषयोंको जान सकता है ॥ २३ ॥ फिर इसमें हृदय प्रकट हुआ; उसमें अपने अंश मनके सहित चन्द्रमा स्थित हुआ। इस मन:शक्तिके द्वारा जीव सङ्कल्प-विकल्पादिरूप विकारोंको प्राप्त होता है ॥ २४ ॥  तत्पश्चात् विराट् पुरुषमें अहंकार उत्पन्न हुआ; इस अपने आश्रयमें क्रियाशक्तिसहित अभिमान (रुद्र) ने प्रवेश किया। इससे जीव अपने कर्तव्यको स्वीकार करता है ॥ २५ ॥ अब इसमें चित्त प्रकट हुआ। उसमें चित्तशक्तिके सहित महत्तत्त्व (ब्रह्मा) स्थित हुआ; इस चित्तशक्तिसे जीव विज्ञान (चेतना) को उपलब्ध करता है ॥ २६ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०६)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

शीर्ष्णोऽस्य द्यौर्धरा पद्‍भ्यां खं नाभेरुदपद्यत ।
गुणानां वृत्तयो येषु प्रतीयन्ते सुरादयः ॥ २७ ॥
आत्यन्तिकेन सत्त्वेन दिवं देवाः प्रपेदिरे ।
धरां रजःस्वभावेन पणयो ये च ताननु ॥ २८ ॥
तार्तीयेन स्वभावेन भगवन् नाभिमाश्रिताः ।
उभयोरन्तरं व्योम ये रुद्रपार्षदां गणाः ॥ २९ ॥

इस विराट् पुरुष के सिर से स्वर्गलोक, पैरों से पृथ्वी और नाभि से अन्तरिक्ष (आकाश) उत्पन्न हुआ। इनमें क्रमश: सत्त्व, रज और तमइन तीन गुणों के परिणामरूप देवता, मनुष्य और प्रेतादि देखे जाते हैं ॥ २७ ॥ इनमें देवतालोग सत्त्वगुण की अधिकता के कारण स्वर्गलोक में, मनुष्य और उनके उपयोगी गौ आदि जीव रजोगुण की प्रधानता के कारण पृथ्वी में तथा तमोगुणी स्वभाववाले होने से रुद्र के पार्षदगण (भूत, प्रेत आदि) दोनों के बीच में स्थित भगवान्‌ के नाभिस्थानीय अन्तरिक्षलोक में रहते हैं ॥ २८-२९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०७)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

मुखतोऽवर्तत ब्रह्म पुरुषस्य कुरूद्वह ।
यस्तून्मुखत्वाद् वर्णानां मुख्योऽभूद् ब्राह्मणो गुरुः ॥ ३० ॥
बाहुभ्योऽवर्तत क्षत्रं क्षत्रियस्तदनुव्रतः ।
यो जातस्त्रायते वर्णान् पौरुषः कण्टकक्षतात् ॥ ३१ ॥
विशोऽवर्तन्त तस्योर्वोः लोकवृत्तिकरीर्विभोः ।
वैश्यस्तदुद्‍भवो वार्तां नृणां यः समवर्तयत् ॥ ३२ ॥
पद्‍भ्यां भगवतो जज्ञे शुश्रूषा धर्मसिद्धये ।
तस्यां जातः पुरा शूद्रो यद्‌वृत्त्या तुष्यते हरिः ॥ ३३ ॥
एते वर्णाः स्वधर्मेण यजन्ति स्वगुरुं हरिम् ।
श्रद्धया आत्मविशुद्ध्यर्थं यज्जाताः सह वृत्तिभिः ॥ ३४ ॥

(श्रीमैत्रेयजी कहते हैं) विदुरजी ! वेद और ब्राह्मण भगवान्‌ के मुखसे प्रकट हुए। मुखसे प्रकट होने के कारण ही ब्राह्मण सब वर्णों में श्रेष्ठ और सब का गुरु है ॥ ३० ॥ उनकी भुजाओं से क्षत्रियवृत्ति और उसका अवलम्बन करनेवाला क्षत्रिय वर्ण उत्पन्न हुआ, जो विराट् भगवान्‌ का अंश होने के कारण जन्म लेकर सब वर्णों की चोर आदि के उपद्रवों से रक्षा करता है ॥ ३१ ॥ भगवान्‌ की दोनों जाँघों से सब लोगोंका निर्वाह करने वाली वैश्यवृत्ति उत्पन्न हुई और उन्हींसे वैश्य वर्ण का भी प्रादुर्भाव हुआ। यह वर्ण अपनी वृत्तिसे सब जीवोंकी जीविका चलाता है ॥ ३२ ॥ फिर सब धर्मोंकी सिद्धिके लिये भगवान्‌के चरणोंसे सेवावृत्ति प्रकट हुई और उन्हीं से पहले-पहल उस वृत्ति का अधिकारी शूद्रवर्ण भी प्रकट हुआ, जिसकी वृत्ति से ही श्रीहरि प्रसन्न हो जाते हैं [*] ॥ ३३ ॥ ये चारों वर्ण अपनी-अपनी वृत्तियोंके सहित जिनसे उत्पन्न हुए हैं, उन अपने गुरु श्रीहरिका अपने-अपने धर्मोंसे चित्तशुद्धिके लिये श्रद्धापूर्वक पूजन करते हैं ॥ ३४ ॥
.......................................................
 [*] सब धर्मोंकी सिद्धिका मूल सेवा है, सेवा किये बिना कोई भी धर्म सिद्ध नहीं होता। अत: सब धर्मोंकी मूलभूता सेवा ही जिसका धर्म है, वह शूद्र सब वर्णोंमें महान् है। ब्राह्मणका धर्म मोक्षके लिये है, क्षत्रियका धर्म भोगके लिये है, वैश्यका धर्म अर्थके लिये है और शूद्रका धर्म धर्मके लिये है। इस प्रकार प्रथम तीन वर्णोंके धर्म अन्य पुरुषार्थोंके लिये हैं, किन्तु शूद्रका धर्म स्वपुरुषार्थके लिये है; अत: इसकी वृत्तिसे ही भगवान्‌ प्रसन्न हो जाते हैं।

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०८)

विराट् शरीर की उत्पत्ति

एतत् क्षत्तर्भगवतो दैवकर्मात्मरूपिणः ।
कः श्रद्दध्यादुपाकर्तुं योगमायाबलोदयम् ॥ ३५ ॥
तथापि कीर्तयाम्यङ्ग यथामति यथाश्रुतम् ।
कीर्तिं हरेः स्वां सत्कर्तुं गिरमन्याभिधासतीम् ॥ ३६ ॥
एकान्तलाभं वचसो नु पुंसां
     सुश्लोकमौलेर्गुणवादमाहुः ।
श्रुतेश्च विद्वद्‌भिरुपाकृतायां
     कथासुधायां उपसम्प्रयोगम् ॥ ३७ ॥
आत्मनोऽवसितो वत्स महिमा कविनाऽऽदिना ।
संवत्सरसहस्रान्ते धिया योगविपक्वया ॥ ३८ ॥
अतो भगवतो माया मायिनामपि मोहिनी ।
यत्स्वयं चात्मवर्त्मात्मा न वेद किमुतापरे ॥ ३९ ॥
यतोऽप्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्च मनसा सह ।
अहं चान्य इमे देवाः तस्मै भगवते नमः ॥ ४० ॥

विदुरजी ! यह विराट् पुरुष काल, कर्म और स्वभावशक्तिसे युक्त भगवान्‌की योगमायाके प्रभावको प्रकट करनेवाला है। इसके स्वरूपका पूरा-पूरा वर्णन करनेका कौन साहस कर सकता है ॥ ३५ ॥ तथापि प्यारे विदुरजी ! अन्य व्यावहारिक चर्चाओंसे अपवित्र हुई अपनी वाणीको पवित्र करनेके लिये, जैसी मेरी बुद्धि है और जैसा मैंने गुरुमुखसे सुना है वैसा, श्रीहरिका सुयश वर्णन करता हूँ ॥ ३६ ॥ महापुरुषोंका मत है कि पुण्यश्लोकशिरोमणि श्रीहरिके गुणोंका गान करना ही मनुष्योंकी वाणीका तथा विद्वानोंके मुखसे भगवत्कथामृतका पान करना ही उनके कानोंका सबसे बड़ा लाभ है ॥ ३७ ॥ वत्स ! हम ही नहीं, आदिकवि श्रीब्रह्माजीने एक हजार दिव्य वर्षोंतक अपनी योगपरिपक्व बुद्धिसे विचार किया; तो भी क्या वे भगवान्‌की अमित महिमाका पार पा सके ? ॥ ३८ ॥ अत: भगवान्‌ की माया बड़े-बड़े मायावियोंको भी मोहित कर देनेवाली है। उसकी चक्कर में डालनेवाली चाल अनन्त है; अतएव स्वयं भगवान्‌ भी उसकी थाह नहीं लगा सकते, फिर दूसरों की तो बात ही क्या है ॥ ३९ ॥ जहाँ न पहुँचकर मनके सहित वाणी भी लौट आती है तथा जिनका पार पाने में अहंकार के अभिमानी रुद्र तथा अन्य इन्द्रियाधिष्ठाता देवता भी समर्थ नहीं हैं, उन श्रीभगवान्‌ को हम नमस्कार करते हैं ॥ ४० ॥

इति श्रीमद्‌भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
तृतीयस्कन्धे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...