सोमवार, 4 फ़रवरी 2019

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 10)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 10)

( सम्पादक-कल्याण )

अब व्यक्तोपासक की स्थिति देखिये । गीताका साकारोपासक भक्त अव्यवस्थित चित्त, मूर्ख, अभिमानी, दूसरे का अनिष्ट करनेवाला, धूर्त्त, शोकग्रस्त, आलसी, दीर्घसूत्री, अकर्मण्य, हर्ष-शोकादि से अभिभूत, अशुद्ध आचरण करनेवाला, हिंसक स्वभाववाला, लोभी, कर्मफलका इच्छुक और विषयासक्त नहीं होता। पापके लिये तो उसके अन्दर तनिक भी गुंजायश नहीं रहती । वह अपनी अहंता-ममता अपने प्रियतम परमात्मा के अर्पण कर निर्भय, निश्चिन्त, सिद्धि-असिद्धि में सम, निर्विकार, विषय-विरागी, अनहंवादी, सदाप्रसन्न, सेवा-परायण, धीरज और उत्साह का पुतला, कर्तव्यनिष्ठ और अनासक्त होता है । भगवान्‌ ने यहाँ साकारोपासना का फल और उपासक की महत्ता प्रकट करते हुए संक्षेप में उसके ये लक्षण बताये हैं कि केवल भगवान्‌ के लिये ही सब कर्म करनेवाला, भगवान्‌ को ही परम गति समझकर उन्हीं के परायण रहनेवाला, भगवान्‌ की ही अनन्य और परम भक्त, सम्पूर्ण सांसारिक विषयों में आसक्तिरहित, सब भूत-प्राणियों में वैरभाव से रहित, मन को परमात्मा में एकाग्र करके नित्य भगवान्‌ के भजन-ध्यान में रत, परम श्रद्धा-सम्पन्न, सर्व कर्मों का भगवान्‌ में भली-भाँति उत्सर्ग करनेवाला और अनन्यभाव से तैलधारावत्‌ परमात्माके ध्यानमें रहकर भजन-चिन्तन करनेवाला ( गीता ११ । १५, १२ । २, १२ । ६-७ )। गीतोक्त व्यक्तोपासक की संक्षेप में यही स्थिति है। भगवान्‌ ने इसी अध्याय के अन्तके ८ श्लोकों में व्यक्तोपासक सिद्ध भक्तके लक्षण विस्तार से बतलाये हैं।

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)




गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 09)

श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 09)

( सम्पादक-कल्याण )
 

मन्दिर में, मन्दिर की मूर्ति में, उसकी दीवारमें, पूजामें, पूजाकी सामग्रीमें और पुजारीमें बाहर-भीतर सभी जगह वे ( भगवान् ) वर्तमान हैं। वे सगुण साकाररूपमें भक्तोंके साथ लीला करते हैं और निर्गुण निराकाररूप से बर्फ में जल की भाँति सर्वत्र व्याप्त हैं-मया ततमिदं सर्व जगदव्यक्त मूर्तिना।उन परम दयालु प्रभुको हम किसी भी रूप और किसी भी नामसे देख और पुकार सकते हैं। इस रहस्यको समझते हुए हम ब्रह्म, परमात्मा, आनन्द, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, राम, कृष्ण, शक्ति, सूर्य, गणेश, अरिहन्त, बुद्ध, अल्लाह, गॉड, जिहोवा आदि किसी भी नाम-रूपसे उनकी उपासना कर सकते हैं। उपासनाके फलस्वरूप जब उनकी कृपासे उनके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान होगा तब सारे संशय आप ही मिट जायँगे। इस रहस्यसे वञ्चित होनेके कारण ही मनुष्य मोहवश भगवान्‌की सीमा-निदश करने लगता है। भगवान्‌ स्वयं कहते हैं-

अजोऽपिसन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोपि सन्‌।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
................( गीता ४ । ६ )

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्‌॥
..................( गी० ७ । २४ )

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्‌।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्‌॥
..................( गी० ९ । ११ )

मैं अव्ययात्मा, अजन्मा और सर्व भूतप्राणियोंका ईश्वर रहता हुआ ही अपनी प्रकृतिको अधीन करके ( प्रकृतिके अधीन होकर नहीं ) योगमायासे- लीलासे साकाररूपमें प्रकट होता हूँ।’ ‘अज, अविनाशी रहता हुआ ही मैं अपनी लीलासे प्रकट होता हूँ। मेरे इस परमोत्तम अविनाशी परम रहस्यमय भावको-तत्त्वसे न जाननेके कारण ही बुद्धिहीन मनुष्य मुझ मन-इन्द्रियोंसे परे सच्चिदानन्द परमात्माको साधारण मनुष्यकी भाँति व्यक्तभावको प्राप्त हुआ मानते हैं।’ ‘ऐसे परम भावसे अपरिचित मूढ़ लोग मुझ-रूप-धारीसर्वभूतमहेश्वर परमात्माको यथार्थतः नहीं पहचानते।

इससे यह सिद्ध हुआ कि गीताके सगुण साकार-व्यक्त भगवान्‌, निराकार-अव्यक्त अज और अविनाशी रहते हुए ही साकार मनुष्यादि रूपमें प्रकट हो, लोकोद्धारके लिये विविध लीला किया करते हैं। संक्षेपमें ही यही गीतोक्त व्यक्त उपास्य भगवान्‌का स्वरूप है।

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…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)



गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 08)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 08)

( सम्पादक-कल्याण )


वास्तव में वे धन्य हैं जिनके लिये निराकार ईश्वर साकार बनकर प्रकट होते हैं, क्योंकि वे निराकार-साकार दोनों स्वरूपोंके तत्त्वको जानते हैं, इसीसे निराकाररूपसे अपने रामको सबमें रमा हुआ जानकर भी अव्यक्तरूपसे अपने कृष्णको सबमें व्याप्त समझकर भी धनुर्धारी मर्यादापुरुषोत्तम दशरथी राम-रूपमें और चित्तको आकर्षण करनेवाले मुरलीमनोहर श्रीकृष्णरूपमें उनकी उपासना करते हैं और उनकी लीला देख-देखकर परम आनन्दमें मग्न रहते हैं।

गोसाईजी महाराजने इसीलिये कहा है

निर्गुनरूप सुलभ अति सगुन न जाने कोय।

अतएव जो सगुणसहित निर्गुणको जानते हैं, वे ही भगवान्‌के मतमें योगवित्तमहैं!

अब यह देखना है कि गीता के व्यक्त भगवान्‌ का क्या स्वरूप है, उनके उपासक की कैसी स्थिति और कैसे आचरण हैं और इस उपासनाकी प्रधान पद्धति क्या है? क्रमसे तीनोंपर विचार कीजिये--

गीतोक्त साकार उपास्यदेव एकदेशीय या सीमाबद्ध भगवान्‌ नहीं हैं। वे निराकार भी हैं और साकार भी हैं। जो साकारोपासक अपने भगवान्‌ की सीमा बाँधते हैं, वे अपने ही भगवान्‌ को छोटा बनाते हैं। गीता के साकार भगवान्‌ किसी एक मूर्ति, नाम या धाम विशेष में ही सीमित नहीं हैं। वे सत्‌, चेतन, आनन्दघन, विज्ञानानन्दमय, पूर्ण, सनातन, अनादि, अनन्त, अज, अव्यय, शान्त, सर्वव्यापी होते हुए भी सर्वशक्तिमान्‌, सर्वान्तर्यामी, सृष्टिकर्त्ता, परम दयालु, परम सुहृद्‍, परम उदार, परम प्रेमी, परम मनोहर, परम रसिक, परम प्रभु और परम शूर-शिरोमणि हैं। वे जन्म लेते हुए दीखनेपर भी अजन्मा हैं। वे साकार व्यक्तरूपमें रहनेपर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं। वे एक या एक ही साथ अनेक स्थानों में व्यक्तरूप से अवतीर्ण होकर भी अपने अव्यक्तरूप से, अपनी अनन्त सत्ता से सर्वत्र सर्वदा और सर्वथा स्थित हैं।

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…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)




गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 07)

( सम्पादक-कल्याण )

वे व्यक्तोपासक, भगवान्‌ की सगुण लीलाओंका आनन्द विशेष पाते हैं और उसे त्रिताप-तप्त लोगोंमें बाँटकर उनका उद्धार करते हैं। व्यक्तोपासक अव्यक्त-तत्त्वज्ञानके साथ ही व्यक्त-तत्त्वको भी जानते हैं, व्यक्तोपासनाका मार्ग जानते हैं, उसके आनन्दको उपलब्ध करते हैं और लोगोंको दे सकते हैं। वे दोनों प्रकारके तत्त्व जानते, उनका आनन्द लेते और लोगोंको बतला सकते हैं। इसलिये भगवान्‌के मतमें वे योगवित्तमहैं, योगियोंमें उत्तम है।

वास्तवमें बात भी यही है। प्रेमके बिना रहस्यकी गुह्य बातें नहीं जानी जा सकतीं। किसी राजाके एक तो दीवान है और दूसरा राजाका परम विश्वासपात्र व्यक्तिगत प्रेमी सेवक है। दीवानको राजव्यवस्थाके सभी अधिकार प्राप्त हैं। वह राज्य-सम्बन्धी सभी कार्योंकी देख-रेख और सुव्यवस्था करता है। इतना होनेपर भी राजाके मनकी गुप्त बातोंको नहीं जानता और न वह राजाके साथ अन्तःपुर आदि सभी स्थानों में अबाधरूप से जा ही सकता है। विहार-शय्यासन-भोजनादिमें एकान्त देश में उसको राजाके साथ रहनेका कोई अधिकार नहीं है। यद्यपि राज्य-सम्बन्धी सारे काम उसी की सलाह से होते हैं। इधर वह राजाका व्यक्तिगत प्रेमी मित्र यद्यपि राज्यसम्बन्धी कार्यमें प्रकाश्यरूपसे कुछ भी दखल नहीं रखता, परन्तु राजाकी इच्छानुसार प्रत्येक कार्यमें वह राजाको प्राइवेटमें अपनी सम्मति देता है और राजा भी उसीकी सम्मतिके अनुसार कार्य करता है। राजा अपने मनकी गोपनीयसे गोपनीय भी सारी बातें उसके सामने निःशंक भावसे कह देता है। राजाका यह निश्चय रहता है कि यह मेरा प्रेमी सखा दीवानसे किसी हालतमें कम नहीं है। दीवानी का पद तो यह चाहे तो इसको अभी दिया जा सकता है। जब मैं ही इसका हूँ, तब दीवानी का पद कौन बड़ी बात है ? परन्तु उस मन्त्री के पद को न तो वह प्रेमी चाहता है और न राजा उसे देने में ही सुभीता समझता है, क्योंकि दीवानी का पद दे देनेपर मर्यादा के अनुसार वह राजकार्य के सिवा राजा के निजी कार्यों में साथ नहीं रह सकता, जिनमें उसकी परम आवश्यकता है। क्योंकि वह मन्त्रीत्व पदका त्यागी प्रेमी सेवक राजाका अत्यन्त प्रियपात्र है, उसका सखा है, इष्ट है। यहाँ राजाके स्थानमें परमात्मा, दीवान के स्थान में अव्यक्तोपासक ज्ञानी और प्रेमी सखा के स्थानमें व्यक्तोपासक प्यारा भक्त है। अव्यक्तोपासक पूर्ण अधिकारी है, परन्तु वह राजा ( परमात्मा )का अन्तरंग सखा नहीं। उसकी निजी लीलाओं से न तो परिचित है और न उसके आनन्दमें सम्मिलित है। वह राज्य का सेवक है, राजा का नहीं। परन्तु वह प्यारा भक्त तो राजा का निजी सेवक है। राजा का विश्वासपात्र होनेके नाते राज्यका सेवक तो हो ही गया। इसीलिये व्यक्तोपासक मुक्ति न लेकर भगवच्चरणों की नित्य सेवा माँगा करते हैं, भगवान्‌ की लीला में शामिल रहनेमें ही उन्हें आनन्द मिलता है।

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गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 06)

( सम्पादक-कल्याण )

अव्यक्तोपासक परम धाममें पहुँचकर मुक्त हो वहीं रह जाते हैं। वे परमात्मामें घुल-मिलकर एक हो जाते हैं। वे वहाँसे वापस लौट ही नहीं सकते। इससे न तो उन्हें परमधाम जानेके मार्गमें साकार भगवान्‌के संग, उनके दर्शन, उनके साथ वार्तालाप और उनकी लीला देखनेका आनन्द मिलता है और न वे परमधामके पट्टेदार होकर सगुण भगवान्‌की लीलामें सम्मिलित हो उन्हींकी भाँति निपुण नाविक बनकर वापस ही आते हैं। यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सहके अनुसार उनके बुद्धि आदि करण जो उनको दिव्यधाममें छोड़कर वहाँसे वापस लौटते हैं, वे भी साधारण मनुष्योंके सामने अव्यक्तोपासना-पथके उन्हीं नाना प्रकारके क्लेशोंके दृश्य रखकर परम धामकी प्राप्तिको ऐसी कष्टसाध्य और दुःख-लब्ध बता देते हैं कि लोग सहम जाते हैं। उनका वैसे दृश्य सामने रखना ठीक ही है, क्योंकि उन्होंने अव्यक्तोपासनाके कण्टकाकीर्ण मार्ग में वही देखे हैं । उन्हें प्रेममय श्यामसुन्दर के सलोने मुखड़े का तो कभी दर्शन हुआ ही नहीं, तब वे उस दिव्य रस का स्वाद लोगों को कैसे बतलाते ? इसके विपरीत व्यक्तोपासक अपनी मुक्ति को भगवान्‌ के खजाने में धरोहर के रूपमें रखकर उनकी मंगलमयी आज्ञा से पुनः संसार में आते हैं और भगवत्प्रेम के परम आनन्द-रस-समुद्रमें निमग्न हुए, देहाभिमानी होनेपर भी भगवान्‌ के मंगलमय मनोहर साकाररूप में एकान्तरूप से मनको एकाग्र करके उन्हींके लिये सर्व कर्म करनेवाले असंख्य लोगोंको दृढ़ और सुखपूर्ण नौकाओंपर चढ़ा-चढ़ा-कर संसारसे पार उतार देते हैं। यहाँ कोई यह कहे कि जैसे निराकारोपासक साकारके दर्शन और उनकी लीलाके आनन्दसे वञ्चित रहते हैं, वैसे ही साकार के उपासक ब्रह्मानन्दसे वञ्चित रहते होंगे।उन्हें परमात्मा का तत्त्वज्ञान नहीं होता होगा, परन्तु यह बात नहीं है।

निरे निराकारोपासक अपने बलसे जिस तत्त्वज्ञान को प्राप्त करते हैं, भगवान्‌ के प्रेमी साकारोपासकों को वही तत्त्वज्ञान भगवत्कृपासे मिल जाता है। भक्तराज ध्रुवजी का इतिहास प्रसिद्ध है। ध्रुव व्यक्तोपासक थे। पद्म-पलाश-लोचननारायण को आँखों से देखना चाहते थे। उनके प्रेमके प्रभावसे परमात्मा श्रीनारायण प्रकट हुए और अपना दिव्य शंख कपोलोंसे स्पर्श कराकर उन्हें उसी क्षण परम तत्त्वज्ञ बना दिया। इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्तोपासक को अव्यक्तोपासकों का ध्येय तत्त्वज्ञान तो भगवत्कृपा से मिल ही जाता है।

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…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)




गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 05)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 05)

( सम्पादक-कल्याण ) 

सरलता-कठिनता तो उपासनाकी है, इससे उपासकमें उत्तम मध्यमका भेद क्यों होने लगा? व्यक्तोपासक केवल उत्तम ही नहीं, योगवित्तम है, योग जाननेवालोंमें श्रेष्ठ है। उपासनाकी सुगमताके कारण आरामकी इच्छासे कठिन मार्गको त्यागकर सरलका ग्रहण करनेवाला श्रेष्ठ योगवेत्ता कैसे हो गया। अवश्य ही इसमें कोई रहस्य छिपा होना चाहिये और वह यह है--

अव्यक्तोपासक उपासनाके फलस्वरूप अन्तमें भगवान्‌को प्राप्त होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं। परन्तु व्यक्तोपासकके तो त्रिभुवन-मोहन साकार-रूप-धारी भगवान्‌ आरम्भसे ही साथ रहते हैं। अव्यक्तोपासक अपनी अहं ब्रह्मास्मिकी ज्ञान-नौकापर सवार होकर यदि मार्ग में अहंकार, मान, लोकैषणा आदि विघ्नोंसे बचकर अगे बढ़ जाता है, तो अन्तमें संसार-सागरके पार पहुँच जाता है। परन्तु व्यक्तोपासक तो पहलेसे ही भगवान्‌की कृपारूपी नौकापर सवार होता है और भगवान्‌ स्वयं उसे खेकर पार करते हैं। नौकापर सवार होते ही उसे केवट कृष्णका साथ मिल जाता है। पार पहुँचनेके बाद तो दोनोंके आनन्दकी स्थिति समान है ही, परन्तु यह तो मार्गमें भी पल-पलमें परम कारुणिक मोहनकी माधुरी मूरति के देवदुर्लभ दर्शन कर पुलकित होता है, इसे उनकी मधुर वाणी, विश्व-विमोहिनी वंशीकी ध्वनि सुननेको एवं उनकी सुन्दर और शक्तिमयी क्रियाएँ देखनेको मिलती है। यह निश्चिन्त बैठा हुआ उनके स्वरूप और उनकी लीलाका मजा लूटता है। इसके सिवा एक महत्त्वकी बात और होती है। भगवान्‌ किस मार्गसे क्योंकर नौका चलाते हैं, वह इस बातको भी ध्यानपूर्वक देखता है, जिससे वह भी परमधामके इस सुगम मार्गको और भव-तारण-कलाको सीख जाता है। ऐसे तारण-कलामें निपुण विश्वासपात्र भक्तको यदि भगवान्‌ कृपापूर्वक अपने परम धामका अधिकारी स्वीकार कर और जगत्‌के लोगोंको तारनेका अधिकार देकर, अपने कार्यमें सहायक बनने या अपनी लोक-कल्याणकारिणी लीलामें सम्मिलित रखनेके लिये नौका देकर वापस संसारमें भेज देते हैं तो वह मुक्त हुआ भी भगवान्‌की ही भाँति जगत्‌ के यथार्थ हितका कार्य करता है और एक चतुर विश्वासपात्र सेवक की भाँति भगवान्‌ के लीलाकार्य में भी साथ रहता है। ऐसे ही स्थिति के महापुरुष कारक बनकर जगत्‌में आविर्भूत हुआ करते हैं। 

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गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 04)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 04)

( सम्पादक-कल्याण )

यहाँ भगवान्‌ ने जो साकारोपासक की श्रेष्ठता बतलायी है उसका कारण भी भगवान्‌ ने अगले तीन श्लोकोंमें स्पष्ट कर दिया है-

क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्‌।
अव्यक्ता हि गतिर्दुखं देहवद्भिरवाप्यते॥
..........( गी० १२ । ५ )
जिनका मन तो अव्यक्तकी ओर आसक्त है, परन्तु जिनके हृदयमें देहाभिमान बना हुआ है, ऐसे लोगोंके लिये अव्यक्त ब्रह्मकी उपासनामें चित्त टिकाना विशेष क्लेशसाध्य है। वास्तवमें निराकारकी गति दुःखपूर्वक ही प्राप्त होती है।भगवान्‌के साकार-व्यक्तस्वरूपको एक आधार रहता है, जिसका सहारा लेकर ही कोई साधन-मार्गपर आरूढ़ हो सकता है, परन्तु निराकारका साधक तो बिना केवटकी नावकी भाँति निराधार अपने ही बलपर चलता है। अपार संसार-सागरमें विषय-वासनाकी भीषण तरंगोंसे तरीको बचाना, भोगोंके प्रचण्ड तूफानसे नावकी रक्षा करना और बिना किसी मददगारके लक्ष्यपर स्थिर रहते हुए आप ही डाँड़ चलाते जाना बड़ा ही कठिन कार्य है। परन्तु इसके विपरीत-

ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्‌।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्‌॥
...............( गी० १२ । ६-७ )

जो लोग मेरे ( भगवान्‌के ) परायण होकर, मुझको ही अपनी परमगति, परम आश्रय, परम शक्ति, परम लक्ष्य मानते हुए सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके मुझ साकार ईश्वरकी अनन्य योगसे निरन्तर उपासना करते हैं, उन मुझमें चित्त लगानेवाले भक्तोंको मृत्युशील संसार-सागरसे बहुत ही शीघ्र सुखपूर्वक मैं पार कर देता हूँ।उनको न तो अनन्त अम्बुधि की क्षुब्ध उत्ताल तरंगोंका भय है और न भीषण झञ्झावातके आघातसे नौकाके ध्वंस होने या डूबनेका ही डर है। वे तो बस, मेरी कृपासे आच्छादित सुन्दर सुसज्जित दृढ़ बजरेमें बैठकर केवल सर्वात्मभावसे मेरी ओर निर्निमेष-दृष्टिसे ताकते रहें, मेरी लीलाएँ देख-देखकर प्रफुल्लित होते रहें, मेरी वंशीध्वनि सुन-सुनकर आनन्द में डूबते रहें। उनकी नावका खेवनहार केवट बनकर मैं उन्हें नचिरात्‌इसी जन्म में अपने हाथों डाँड़ चलाकर संसार-सागरके उस पार परम धाममें पहुँचा दूँगा। जो भाग्यवान्‌ भक्त भगवान्‌ के इन वचनोंपर विश्वास कर समस्त शक्तियों के आधार, सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार, अखिल ऐश्वर्य के आकर, सौन्दर्य, प्रभुत्व, बल और प्रेमके अनन्त निधि उस परमात्माको अपनी जीवन-नौका का खेवनहार बना लेता है, जो अपनी बाँह उसे पकड़ा देता है, उनके अनायास ही पार उतरनेमें कोई खटका कैसे रह सकता है? उसको न तो नावके टकराने, टूटने और डूबनेका भय है, न चलाने का कष्ट है और न पार पहुँचने में ही तनिक-सा सन्देह है। पार तो अव्यक्तोपासक भी पहुँचता है, परन्तु उसका मार्ग कठिन है। इसप्रकार दोनोंका फल एक ही होनेके कारण सुगमता की वजह से यदि भगवान्‌ के अव्यक्तोपासक की अपेक्षा व्यक्तोपासक को श्रेष्ठ या योगवित्तम बतलाया तो उनका ऐसा कहना सर्वथा उचित ही है, परन्तु बात इतनी ही नहीं है।

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गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 03)



श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 03)

( सम्पादक-कल्याण )

भगवान्‌ ने अर्जुन से कहा--

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥
( गी० १२ । २ )

हे अर्जुन ! जो मुझ साकाररूप परमेश्वरमें मन लगाकर निश्चल परम श्रद्धासे युक्त हो निरन्तर मेरी ही उपासनामें लगे रहते हैं, मेरे मतसे वे ही परम उत्तम योगी हैं।उत्तर भी स्पष्ट है-भगवान्‌ कहते हैं, मेरे द्वारा बतलायी हुई विधिके अनुसार मुझमें निरन्तर चित्त एकाग्र करके जो परम श्रद्धासे मेरी उपासना करते हैं, मेरे मतमें वे ही श्रेष्ठ हैं। यहाँ प्रथम श्लोकके त्वांऔर इस श्लोकके मांशब्द अव्यक्त-निराकारवाचक न होकर साकार वाचक ही हैं। क्योंकि अगले श्लोकोंमें अव्यक्तोपासनाका स्पष्ट वर्णन है, जो तुशब्दसे इससे सर्वथा पृथक कर दिया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवानके मतमें उनके साकाररूपके उपासक ही अतिश्रेष्ठ योगी हैं एवं एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकके अनुसार उनको भगवत्‌प्राप्ति होना निश्चित है, परन्तु इससे कोई यह न समझे कि अव्यक्तोपासना निम्न-श्रेणीकी है या उन्हें भगवत्प्राप्ति नहीं होती। इसी भ्रमकी गुंजायशको सर्वथा मिटा देनेके लिये भगवान्‌ स्वयमेव कहते हैं।

ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्‌॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥
( गीता १२ । ३-४ )

जो पुरुष समस्त इन्द्रियोंको वशमें करके सर्वत्र समबुद्धि-सम्पन्न हो जीवमात्रके हितमें रत रहते हुए अचिन्त्य ( मन-बुद्धिसे परे ) सर्वत्रग ( सर्वव्यापी ) अनिर्देश्य ( अकथनीय ) कूटस्थ ( नित्य एक रस ) ध्रुव ( नित्य ) अचल, अव्यक्त ( निराकार ) अक्षर ब्रह्मस्वरूपकी निरन्तर उपासना करते हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।
इस कथन से यह निश्चय हो गया कि दोनों ही उपासनाओंका फल एक है, तो फिर अव्यक्तोपासकसे व्यक्तोपासकको उत्तम क्यों बतलाया? क्या बिना ही कारण भगवान्‌ने ऐसी बात कह दी? क्या मन्दबुद्धि मुमुक्षुओंको सगुणोपासनाकी प्रवृत्ति को सिद्धिके लिये उन्हें युक्ततम बतला दिया या उन्हें उत्साही बनाये रखने के लिये व्यक्तोपासनाकी रोचक स्तुति कर दी अथवा अर्जुनको साकारका मन्द अधिकारी समझकर उसीके लिये व्यक्तोपासनाको श्रेष्ठ करार दे दिया ? भगवान्‌ का क्या अभिप्राय था सो तो भगवान्‌ ही जानें, परन्तु मेरा मन तो यही कहता है कि भगवान्‌ ने जहाँ पर जो कुछ कहा है सो सभी यथार्थ है। उनके शब्दोंमें रोचक-भयानककी कल्पना करना कदापि उचित नहीं । भगवान्‌ ने न तो किसीकी अयथार्थ स्तुति की है और न अयथार्थ किसी को कोसा ही है।

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…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)




गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 02)



श्री हरिःशरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 02)

( सम्पादक-कल्याण ) 

भगवान्‌ ने कृपापूर्वक अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदानकर अपना विराट स्वरूप दिखलाया। उस विकराल कालस्वरूपको देखकर अर्जुनके घबराकर प्रार्थना करनेपर अपने चतुर्भुज रूपके दर्शन कराये, तदन्तर मनुष्य-देह-धारी सौम्य रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूप दिखाकर उनके चित्तमें प्रादुर्भूत भय और अशान्तिका नाश कर उन्हें सुखी किया। इस प्रसंगमें भगवान्‌ने अपने विराट और चतुर्भुज-स्वरूपकी महिमा गाते हुए इनके दर्शन प्राप्त करनेवाले अर्जुनके प्रेमकी प्रशंसा की और कहा कि मेरे इन स्वरूपोंको प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा देखना, इनके तत्त्वको समझना और इनमें प्रवेश करना केवल अनन्य भक्तिसे ही सम्भव है। इसके बाद अनन्य भक्तिका स्वरूप और उसका फल अपनी प्राप्ति बतलाकर भगवान्‌ने अपना वक्तव्य समाप्त किया। एकादश अध्याय यहीं पूरा हो गया। अर्जुन अबतक भगवान्‌के अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्वरूपोंकी और दोनोंके ही उपासकोंकी प्रशंसा और दोनोंसे ही परमधामकी प्राप्ति होनेकी बात सुन चुके हैं। अब वे इस समबन्धमें एक स्थिर निश्चयात्मक सिद्धान्त-वाक्य सुनना चाहते हैं, अतएव उन्होंने विनम्र शब्दोंमें भगवानसे प्रार्थना करते हुए पूछा-

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः॥
............( गी० १२ । १ )

हे नाथ! जो अनन्य भक्त आपके द्वारा कथित विधिके अनुसार निरन्तर मन लगाकर आप व्यक्त साकाररूप मनमोहन श्यामसुन्दरकी उपासना करते हैं, एवं जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन अव्यक्त-निराकाररूपकी उपासना करते हैं, इन दोनोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? प्रश्न स्पष्ट है | अर्जुन कहते हैं, आपने अपने व्यक्त रूपकी दुर्लभता बताकर केवल अनन्यभक्तिसे ही उस रूपके प्रत्यक्ष दर्शन, उसका तत्त्वज्ञान और उसमें एकत्व प्राप्त करना सम्भव बतलाया तथा फिर उस अनन्यता के लक्षण बतलाये। परन्तु इससे पहले आप कई बार अपने अव्यक्तोपासकों की भी प्रशंसा कर चुके हैं। अब आप निर्णयपूर्वक एक निश्चित मत बतलाइये कि इन दोनों प्रकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन-से हैं

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)



गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 01)




श्री हरिः शरणम्

गीता में व्यक्तोपासना (पोस्ट 01)

( सम्पादक-कल्याण )

श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात्‌ सच्चिदानन्दघन परमात्मा प्रभु श्रीकृष्ण की दिव्य वाणी है। जगत्‌ में इसकी जोड़ी का कोई भी शास्त्र नहीं । सभी श्रेणी के लोग इससे अपने-अपने अधिकारानुसार भगवत्‌प्राप्ति के सुगम साधन प्राप्त कर सकते हैं। इसमें सभी मुख्य-मुख्य साधनों का विशद वर्णन है, परन्तु कोई भी एक-दूसरेका विरोधी नहीं है, सभी परस्पर सहायक हैं। ऐसा सामञ्जस्यपूर्ण ग्रन्थ केवल गीता ही है । कर्म, भक्ति और ज्ञान इन तीन प्रधान सिद्धान्तों की जैसी उदार, पूर्ण, निर्मल, उज्ज्वल, सरल एवं अन्तर और बाह्य लक्षणों से युक्त हृदयस्पर्शी सुन्दर व्यावहारिक व्याख्या इस ग्रन्थमें मिलती है, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं । प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचिके अनुसार किसी एक मार्गपर आरूढ़ होकर अनायास ही अपने चरम लक्ष्य तक पहुँच सकता है।

"श्रीमद्भगवद्गीता को हम निष्काम कर्मयोगयुक्त, भक्तिप्रधान और ज्ञानपूर्ण अध्यात्मशास्त्र कह सकते हैं ।" यह सभी प्रकार के मार्गों में संरक्षक, सहायक, मार्गदर्शक, प्रकाशदाता और पवित्र पाथेय का प्रत्यक्ष व्यावहारिक काम दे सकता है । गीता के प्रत्येक साधन में कुछ ऐसे दोषनाशक प्रयोग बतलाये गये हैं जिनका उपयोग करने से दोष समूल नष्ट होकर साधन सर्वथा शुद्ध और उपादेय बन जाता है । इसीलिये गीता का कर्म, गीता का ज्ञान, गीता का ध्यान और गीता की भक्ति सभी सर्वथा पापशून्य, दोषरहित, पवित्र और पूर्ण हैं । किसी में तनिक भी पोलकी गुंजायश नहीं। आज गीतोक्त व्यक्तोपासनाके विषयमें कुछ देखना है।

गीता के बारहवें अध्याय का नाम भक्तियोग है, इसमें कुल बीस श्लोक हैं । पहले श्लोक में भक्तवर अर्जुनका प्रश्न है और शेष उन्नीस श्लोकों में भगवान्‌ उसका उत्तर देते हैं। इनमें प्रथम ११ श्लोकों में तो भगवान्‌ के व्यक्त ( साकार ) और अव्यक्त ( निराकार ) स्वरूप के उपासकों की उत्तमता का निर्णय किया गया है एवं भगवत्प्राप्ति के कुछ उपाय बतलाये गये हैं । अगले आठ श्लोकों में परमात्मा के परम प्रिय भक्तों के स्वाभाविक लक्षणों का वर्णन है ।

शेष आगामी पोस्ट में .................

…....००५.०५.मार्गशीर्ष कृष्ण ११ सं०१९८७; नवम्बर १९३०.कल्याण (पृ०७५८)




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