॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०१)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
मैत्रेय
उवाच -
इत्यजेनानुनीतेन
भवेन परितुष्यता ।
अभ्यधायि
महाबाहो प्रहस्य श्रूयतामिति ॥ १ ॥
महादेव
उवाच -
नाघं
प्रजेश बालानां वर्णये नानुचिन्तये ।
देवमायाभिभूतानां
दण्डस्तत्र धृतो मया ॥ २ ॥
प्रजापतेर्दग्धशीर्ष्णो
भवत्वजमुखं शिरः ।
मित्रस्य
चक्षुषेक्षेत भागं स्वं बर्हिषो भगः ॥ ३ ॥
पूषा
तु यजमानस्य दद्भिर्जक्षतु पिष्टभुक् ।
देवाः
प्रकृतसर्वाङ्गा ये मे उच्छेषणं ददुः ॥ ४ ॥
बाहुभ्यां
अश्विनोः पूष्णो हस्ताभ्यां कृतबाहवः ।
भवन्तु
अध्वर्यवश्चान्ये बस्तश्मश्रुर्भृगुर्भवेत् ॥ ५ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—महाबाहो विदुरजी ! ब्रह्माजीके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर भगवान्
शङ्करने प्रसन्नतापूर्वक हँसते हुए कहा—सुनिये ॥ १ ॥
श्रीमहादेवजीने
कहा—‘प्रजापते ! भगवान्की मायासे मोहित हुए दक्ष-जैसे नासमझों के अपराधकी न तो
मैं चर्चा करता हूँ और न याद ही। मैंने तो केवल सावधान करनेके लिये ही उन्हें
थोड़ा-सा दण्ड दे दिया ॥ २ ॥ दक्षप्रजापति का सिर जल गया है, इसलिये उनके बकरे का सिर लगा दिया जाय; भगदेव
मित्रदेवता के नेत्रों से अपना यज्ञभाग देखें ॥ ३ ॥ पूषा पिसा हुआ अन्न खानेवाले
हैं, वे उसे यजमानके दाँतोंसे भक्षण करें तथा अन्य सब
देवताओंके अङ्ग-प्रत्यङ्ग भी स्वस्थ हो जायँ; क्योंकि
उन्होंने यज्ञसे बचे हुए पदार्थोंको मेरा भाग निश्चित किया है ॥ ४ ॥ अध्वर्यु आदि
याज्ञिकों में से जिनकी भुजाएँ टूट गयी हैं, वे
अश्विनीकुमारकी भुजाओंसे और जिनके हाथ नष्ट हो गये हैं, वे
पूषाके हाथोंसे काम करें तथा भृगुजीके बकरेकी-सी दाढ़ी-मूँछ हो जाय’ ॥ ५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०२)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
मैत्रेय
उवाच -
तदा
सर्वाणि भूतानि श्रुत्वा मीढुष्टमोदितम् ।
परितुष्टात्मभिस्तात
साधु साध्वित्यथाब्रुवन् ॥ ६ ॥
ततो
मीढ्वांसमामन्त्र्य शुनासीराः सहर्षिभिः ।
भूयस्तद्
देवयजनं समीढ्वद्वेधसो ययुः ॥ ७ ॥
विधाय
कार्त्स्न्येन च तद् यदाह भगवान्भवः ।
सन्दधुः
कस्य कायेन सवनीयपशोः शिरः ॥ ८ ॥
सन्धीयमाने
शिरसि दक्षो रुद्राभिवीक्षितः ।
सद्यः
सुप्त इवोत्तस्थौ ददृशे चाग्रतो मृडम् ॥ ९ ॥
तदा
वृषध्वजद्वेष कलिलात्मा प्रजापतिः ।
शिवावलोकाद्
अभवत् शरद्ध्रद इवामलः ॥ १० ॥
भवस्तवाय
कृतधीः नाशक्नोत् अनुरागतः ।
औत्कण्ठ्याद्
बाष्पकलया संपरेतां सुतां स्मरन् ॥ ११ ॥
कृच्छ्रात्संस्तभ्य
च मनः प्रेमविह्वलितः सुधीः ।
शशंस
निर्व्यलीकेन भावेनेशं प्रजापतिः ॥ १२ ॥
दक्ष
उवाच -
भूयाननुग्रह
अहो भवता कृतो मे
दण्डस्त्वया मयि भृतो यदपि प्रलब्धः ।
न
ब्रह्मबन्धुषु च वां भगवन् अवज्ञा
तुभ्यं हरेश्च कुत एव धृतव्रतेषु ॥ १३ ॥
विद्यातपो
व्रतधरान् मुखतः स्म विप्रान् ।
ब्रह्माऽऽत्मतत्त्वमवितुं प्रथमं त्वमस्राक्
।
तद्ब्राह्मणान्
परम सर्वविपत्सु पासि ।
पालः पशूनिव विभो प्रगृहीतदण्डः ॥ १४ ॥
योऽसौ
मयाविदिततत्त्वदृशा सभायां
क्षिप्तो दुरुक्तिविशिखैर्विगणय्य तन्माम् ।
अर्वाक्
पतन्तमर्हत्तमनिन्दयापाद्
दृष्ट्याऽऽर्द्रया स भगवान् स्वकृतेन
तुष्येत् ॥ १५ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—वत्स विदुर ! तब भगवान् शङ्कर के वचन सुनकर सब लोग प्रसन्न चित्तसे ‘धन्य ! धन्य !’ कहने लगे ॥ ६ ॥ फिर सभी देवता और
ऋषियोंने महादेवजीसे दक्षकी यज्ञशाला- में पधारनेकी प्रार्थना की और तब वे उन्हें
तथा ब्रह्माजीको साथ लेकर वहाँ गये ॥ ७ ॥ वहाँ जैसा-जैसा भगवान् शङ्कर ने कहा था,
उसी प्रकार सब कार्य करके उन्होंने दक्षकी धड़ से यज्ञपशु का सिर
जोड़ दिया ॥ ८ ॥ सिर जुड़ जाने पर रुद्र-देव की दृष्टि पड़ते ही दक्ष तत्काल सोकर
जागने के समान जी उठे और अपने सामने भगवान् शिवको देखा ॥ ९ ॥ दक्ष का शङ्करद्रोह की
कालिमा से कलुषित हृदय उनका दर्शन करने से शरत्कालीन सरोवरके समान स्वच्छ हो गया ॥
१० ॥ उन्होंने महादेवजीकी स्तुति करनी चाही, किन्तु अपनी मरी
हुई बेटी सतीका स्मरण हो आनेसे स्नेह और उत्कण्ठाके कारण उनके नेत्रोंमें आँसू भर
आये। उनके मुखसे शब्द न निकल सका ॥ ११ ॥ प्रेमसे विह्वल, परम
बुद्धिमान् प्रजापतिने जैसे-तैसे अपने हृदयके आवेगको रोककर विशुद्धभावसे भगवान्
शिवकी स्तुति करनी आरम्भ की ॥ १२ ॥
दक्षने
कहा—भगवन् ! मैंने आपका अपराध किया था, किन्तु आपने उसके
बदलेमें मुझे दण्डके द्वारा शिक्षा देकर बड़ा ही अनुग्रह किया है। अहो ! आप और
श्रीहरि तो आचारहीन, नाममात्रके ब्राह्मणोंकी भी उपेक्षा
नहीं करते—फिर हम-जैसे यज्ञ-यागादि करनेवालोंको क्यों
भूलेंगे ॥ १३ ॥ विभो ! आपने ब्रह्मा होकर सबसे पहले आत्मतत्त्वकी रक्षाके लिये अपने
मुखसे विद्या, तप और व्रतादिके धारण करनेवाले ब्राह्मणोंको
उत्पन्न किया था। जैसे चरवाहा लाठी लेकर गौओंकी रक्षा करता है, उसी प्रकार आप उन ब्राह्मणोंकी सब विपत्तियोंसे रक्षा करते हैं ॥ १४ ॥ मैं
आपके तत्त्वको नहीं जानता था, इसीसे मैंने भरी सभामें आपको
अपने वाग्बाणोंसे बेधा था। किन्तु आपने मेरे उस अपराधका कोई विचार नहीं किया। मैं
तो आप-जैसे पूज्यतम महानुभावोंका अपराध करनेके कारण नरकादि नीच लोकोंमें गिरनेवाला
था, परन्तु आपने अपनी करुणाभरी दृष्टिसे मुझे उबार लिया। अब
भी आपको प्रसन्न करनेयोग्य मुझमें कोई गुण नहीं है; बस,
आप अपने ही उदारतापूर्ण बर्तावसे मुझपर प्रसन्न हों ॥ १५ ॥
शेष
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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०३)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
मैत्रेय
उवाच -
क्षमाप्यैवं
स मीढ्वांसं ब्रह्मणा चानुमंत्रितः ।
कर्म
सन्तानयामास सोपाध्यायर्त्विगादिभिः ॥ १६ ॥
वैष्णवं
यज्ञसन्तत्यै त्रिकपालं द्विजोत्तमाः ।
पुरोडाशं
निरवपन् वीरसंसर्गशुद्धये ॥ १७ ॥
अध्वर्युणाऽऽत्त
हविषा यजमानो विशाम्पते ।
धिया
विशुद्धया दध्यौ तथा प्रादुरभूत् हरिः ॥ १८ ॥
तदा
स्वप्रभया तेषां द्योतयन्त्या दिशो दश ।
मुष्णन्
तेज उपानीतः तार्क्ष्येण स्तोत्रवाजिना ॥ १९ ॥
श्यामो
हिरण्यरशनोऽर्ककिरीटजुष्टो
नीलालक भ्रमरमण्डितकुण्डलास्यः ।
शङ्खाब्जचक्रशरचापगदासिचर्म
व्यग्रैर्हिरण्मयभुजैः इव कर्णिकारः ॥ २० ॥
वक्षस्यधिश्रितवधूर्वनमाल्युदार
हासावलोककलया रमयंश्च विश्वम् ।
पार्श्वभ्रमद्व्यजन
चामरराजहंसः
श्वेतातपत्रशशिनोपरि रज्यमानः ॥ २१ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—आशुतोष शङ्कर से इस प्रकार अपना अपराध क्षमा कराकर दक्ष ने ब्रह्माजीके
कहनेपर उपाध्याय, ऋत्विज् आदिकी सहायतासे यज्ञकार्य आरम्भ
किया ॥ १६ ॥ तब ब्राह्मणोंने यज्ञ सम्पन्न करनेके उद्देश्यसे रुद्रगण-सम्बन्धी भूत-पिशाचोंके
संसर्गजनित दोषकी शान्तिके लिये तीन पात्रोंमें विष्णुभगवान् के लिये तैयार किये
हुए पुरोडाश नामक चरु का हवन किया ॥ १७ ॥ विदुरजी ! उस हविको हाथमें लेकर खड़े हुए
अध्वर्युके साथ यजमान दक्ष ने ज्यों ही विशुद्ध चित्तसे श्रीहरिका ध्यान किया,
त्यों ही सहसा भगवान् वहाँ प्रकट हो गये ॥ १८ ॥ ‘बृहत्’ एवं ‘रथन्तर’ नामक साम-स्तोत्र जिनके पंख हैं, उन गरुडजीके द्वारा
समीप लाये हुए भगवान् ने दसों दिशाओं को प्रकाशित करती हुई अपनी अङ्गकान्ति से सब
देवताओं का तेज हर लिया—उनके सामने सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी
॥ १९ ॥ उनका श्याम वर्ण था, कमरमें सुवर्णकी करधनी तथा
पीताम्बर सुशोभित थे। सिरपर सूर्यके समान देदीप्यमान मुकुट था, मुखकमल भौंरोंके समान नीली अलकावली और कान्तिमय कुण्डलोंसे शोभायमान था,
उनके सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित आठ भुजाएँ थीं, जो भक्तोंकी रक्षाके लिये सदा उद्यत रहती हैं। आठों भुजाओंमें वे शङ्ख,
पद्म, चक्र, बाण,
धनुष, गदा, खड्ग और ढाल
लिये हुए थे तथा इन सब आयुधोंके कारण वे फूले हुए कनेरके वृक्षके समान जान पड़ते
थे ॥ २० ॥ प्रभुके हृदयमें श्रीवत्सका चिह्न था और सुन्दर वनमाला सुशोभित थी। वे
अपने उदार हास और लीलामय कटाक्षसे सारे संसारको आनन्द- मग्र कर रहे थे। पार्षदगण
दोनों ओर राजहंसके समान सफेद पंखे और चँवर डुला रहे थे। भगवान्के मस्तकपर
चन्द्रमाके समान शुभ्र छत्र शोभा दे रहा था ॥ २१ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०४)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
तमुपागतमालक्ष्य
सर्वे सुरगणादयः ।
प्रणेमुः
सहसोत्थाय ब्रह्मेन्द्रत्र्यक्षनायकाः ॥ २२ ॥
तत्तेजसा
हतरुचः सन्नजिह्वाः ससाध्वसाः ।
मूर्ध्ना
धृताञ्जलिपुटा उपतस्थुरधोक्षजम् ॥ २३ ॥
अप्यर्वाग्वृत्तयो
यस्य महि त्वात्मभुवादयः ।
यथामति
गृणन्ति स्म कृतानुग्रहविग्रहम् ॥ २४ ॥
दक्षो
गृहीतार्हणसादनोत्तमं
यज्ञेश्वरं विश्वसृजां परं गुरुम् ।
सुनन्दनन्दाद्यनुगैर्वृतं
मुदा
गृणन्प्रपेदे प्रयतः कृताञ्जलिः ॥ २५ ॥
दक्ष
उवाच -
शुद्धं
स्वधाम्न्युपरताखिलबुद्ध्यवस्थं
चिन्मात्रमेकमभयं प्रतिषिध्य मायाम् ।
तिष्ठन्
तयैव पुरुषत्वमुपेत्य तस्याम्
आस्ते भवानपरिशुद्ध इवात्मतंत्र ॥ २६ ॥
ऋत्विज
ऊचुः -
तत्त्वं
न ते वयमनञ्जन रुद्रशापात्
कर्मण्यवग्रहधियो भगवन् विदामः ।
धर्मोपलक्षणमिदं
त्रिवृदध्वराख्यं
ज्ञातं यदर्थमधिदैवमदो व्यवस्थाः ॥ २७ ॥
सदस्या
ऊचुः -
उत्पत्त्यध्वन्यशरण
उरुक्लेशदुर्गेऽन्तकोग्र
व्यालान्विष्टे विषयमृगतृष्यात्मगेहोरुभारः
।
द्वन्द्वश्वभ्रे
खलमृगभये शोकदावेऽज्ञसार्थः
पादौकस्ते शरणद कदा याति कामोपसृष्टः ॥ २८ ॥
भगवान्
पधारे हैं—यह देखकर इन्द्र, ब्रह्मा और महादेवजी आदि
देवेश्वरोंसहित समस्त देवता, गन्धर्व और ऋषि आदि ने सहसा
खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया ॥ २२ ॥ उनके तेजसे सबकी कान्ति फीकी पड़ गयी,
जिह्वा लडख़ड़ाने लगी, वे सब-के-सब सकपका गये
और मस्तकपर अञ्जलि बाँधकर भगवान् के सामने खड़े हो गये ॥ २३ ॥ यद्यपि भगवान् की
महिमा तक ब्रह्मा आदि की मति भी नहीं पहुँच पाती, तो भी
भक्तोंपर कृपा करनेके लिये दिव्यरूपमें प्रकट हुए श्रीहरिकी वे अपनी-अपनी बुद्धिके
अनुसार स्तुति करने लगे ॥ २४ ॥ सबसे पहले प्रजापति दक्ष एक उत्तम पात्रमें पूजाकी
सामग्री ले नन्द-सुनन्दादि पार्षदोंसे घिरे हुए, प्रजापतियोंके
परम गुरु भगवान् यज्ञेश्वरके पास गये और अति आनन्दित हो विनीतभावसे हाथ जोडक़र
प्रार्थना करते प्रभुके शरणापन्न हुए ॥ २५ ॥
दक्षने
कहा—भगवन् ! अपने स्वरूपमें आप बुद्धिकी जाग्रदादि सम्पूर्ण अवस्थाओंसे रहित,
शुद्ध, चिन्मय, भेदरहित,
अतएव निर्भय हैं। आप मायाका तिरस्कार करके स्वतन्त्ररूपसे विराजमान
हैं; तथापि जब मायासे ही जीवभावको स्वीकारकर उसी मायामें
स्थित हो जाते हैं, तब अज्ञानी-से दीखने लगते हैं ॥ २६ ॥
ऋत्विजोंने
कहा—उपाधिरहित प्रभो ! भगवान् रुद्रके प्रधान अनुचर नन्दीश्वरके शापके कारण
हमारी बुद्धि केवल कर्मकाण्डमें ही फँसी हुई है, अतएव हम
आपके तत्त्वको नहीं जानते। जिसके लिये ‘इस कर्मका यही देवता
है’ ऐसी व्यवस्था की गयी है—उस
धर्मप्रवृत्तिके प्रयोजक, वेदत्रयीसे प्रतिपादित यज्ञको ही
हम आपका स्वरूप समझते हैं ॥ २७ ॥
सदस्योंने
कहा—जीवोंको आश्रय देनेवाले प्रभो ! जो अनेक प्रकारके क्लेशोंके कारण अत्यन्त
दुर्गम है, जिसमें कालरूप भयङ्कर सर्प ताक में बैठा हुआ है,
द्वन्द्वरूप अनेकों गढ़े हैं, दुर्जनरूप जंगली
जीवोंका भय है तथा शोकरूप दावानल धधक रहा है—ऐसे, विश्राम-स्थलसे रहित संसारमार्गमें जो अज्ञानी जीव कामनाओंसे पीडि़त होकर
विषयरूप मृगतृष्णाजलके लिये ही देह-गेहका भारी बोझा सिरपर लिये जा रहे हैं,
वे भला आपके चरणकमलोंकी शरणमें कब आने लगे ॥ २८ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०५)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
रुद्र
उवाच -
तव
वरद वराङ्घ्रावाशिषेहाखिलार्थे
ह्यपि मुनिभिरसक्तैरादरेणार्हणीये ।
यदि
रचितधियं माविद्यलोकोऽपविद्धं
जपति न गणये तत्त्वत्परानुग्रहेण ॥ २९ ॥
भृगुरुवाच
-
यन्मायया
गहनयापहृतात्मबोधा
ब्रह्मादयस्तनुभृतस्तमसि स्वपन्तः ।
नात्मन्श्रितं
तव विदन्त्यधुनापि तत्त्वं
सोऽयं प्रसीदतु भवान्प्रणतात्मबन्धुः ॥ ३० ॥
ब्रह्मोवाच
-
नैतत्स्वरूपं
भवतोऽसौ पदार्थ
भेदग्रहैः पुरुषो यावदीक्षेत् ।
ज्ञानस्य
चार्थस्य गुणस्य चाश्रयो
मायामयाद् व्यतिरिक्तो मतस्त्वम् ॥ ३१ ॥
इन्द्र
उवाच -
इदमप्यच्युत
विश्वभावनं
वपुरानन्दकरं मनोदृशाम् ।
सुरविद्विट्क्षपणैरुदायुधैः
भुजदण्डैरुपपन्नमष्टभिः ॥ ३२ ॥
पत्न्य
ऊचुः -
यज्ञोऽयं
तव यजनाय केन सृष्टो
विध्वस्तः पशुपतिनाद्य दक्षकोपात् ।
तं
नस्त्वं शवशयनाभशान्तमेधं
यज्ञात्मन्नलिनरुचा दृशा पुनीहि ॥ ३३ ॥
ऋषय
ऊचुः -
अनन्वितं
ते भगवन् विचेष्टितं
यदात्मना चरसि हि कर्म नाज्यसे ।
विभूतये
यत उपसेदुरीश्वरीं
न मन्यते स्वयमनुवर्ततीं भवान् ॥ ३४ ॥
(श्रीहरि
को) रुद्रने कहा—वरदायक प्रभो ! आपके उत्तम चरण इस संसारमें सकाम पुरुषोंको सम्पूर्ण
पुरुषार्थोंकी प्राप्ति करानेवाले हैं; और जिन्हें किसी भी
वस्तुकी कामना नहीं है, वे निष्काम मुनिजन भी उनका आदरपूर्वक
पूजन करते हैं। उनमें चित्त लगा रहनेके कारण यदि अज्ञानी लोग मुझे आचरण भ्रष्ट
कहते हैं, तो कहें; आपके परम अनुग्रहसे
मैं उनके कहने-सुननेका कोई विचार नहीं करता ॥ २९ ॥
भृगुजीने
कहा—आपकी गहन मायासे आत्मज्ञान लुप्त हो जानेके कारण जो अज्ञान-निद्रामें सोये
हुए हैं, वे ब्रह्मादि देहधारी आत्मज्ञानमें उपयोगी आपके
तत्त्वको अभीतक नहीं जान सके। ऐसे होनेपर भी आप अपने शरणागत भक्तोंके तो आत्मा और
सुहृद् हैं; अत: आप मुझपर प्रसन्न होइये ॥ ३० ॥
ब्रह्माजीने
कहा—प्रभो ! पृथक्-पृथक् पदार्थोंको जाननेवाली इन्द्रियोंके द्वारा पुरुष जो
कुछ देखता है, वह आपका स्वरूप नहीं है; क्योंकि आप ज्ञान, शब्दादि विषय और श्रोत्रादि
इन्द्रियोंके अधिष्ठान हैं—ये सब आपमें अध्यस्त हैं। अतएव आप
इस मायामय प्रपञ्चसे सर्वथा अलग हैं ॥ ३१ ॥
इन्द्रने
कहा—अच्युत ! आपका यह जगत्को प्रकाशित करनेवाला रूप देवद्रोहियोंका संहार
करनेवाली आठ भुजाओंसे सुशोभित है, जिनमें आप सदा ही नाना
प्रकारके आयुध धारण किये रहते हैं। यह रूप हमारे मन और नेत्रोंको परम आनन्द
देनेवाला है ॥ ३२ ॥
याज्ञिकोंकी
पत्नियोंने कहा—भगवन् ! ब्रह्माजीने आपके पूजनके लिये ही इस यज्ञकी रचना की थी; परन्तु दक्षपर कुपित होनेके कारण इसे भगवान् पशुपतिने अब नष्ट कर दिया
है। यज्ञमूर्ते ! श्मशानभूमि के समान उत्सवहीन हुए हमारे उस यज्ञको आप नील
कमलकी-सी कान्तिवाले अपने नेत्रोंसे निहारकर पवित्र कीजिये ॥ ३३ ॥
ऋषियोंने
कहा—भगवन् ! आपकी लीला बड़ी ही अनोखी है; क्योंकि आप
कर्म करते हुए भी उनसे निर्लेप रहते हैं। दूसरे लोग वैभवकी भूखसे जिन लक्ष्मीजीकी
उपासना करते हैं, वे स्वयं आपकी सेवामें लगी रहती हैं;तो भी आप उनका मान नहीं करते, उनसे नि:स्पृह रहते
हैं ॥ ३४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
0000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०६)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
सिद्धा
ऊचुः -
अयं
त्वत्कथामृष्टपीयूषनद्यां
मनोवारणः क्लेशदावाग्निदग्धः ।
तृषार्तोऽवगाढो
न सस्मार दावं
न निष्क्रामति ब्रह्मसम्पन्नवन्नः ॥ ३५ ॥
यजमान्युवाच
-
स्वागतं
ते प्रसीदेश तुभ्यं नमः
श्रीनिवास श्रिया कान्तया त्राहि नः ।
त्वामृतेऽधीश
नाङ्गैर्मखः शोभते
शीर्षहीनः कबन्धो यथा पुरुषः ॥ ३६ ॥
लोकपाला
ऊचुः -
दृष्टः
किं नो दृग्भिरसद्ग्रहैस्त्वं
प्रत्यग्द्रष्टा दृश्यते येन विश्वम् ।
माया
ह्येषा भवदीया हि भूमन्
यस्त्वं षष्ठः पञ्चभिर्भासि भूतैः ॥ ३७ ॥
योगेश्वरा
ऊचुः -
प्रेयान्न
तेऽन्योऽस्त्यमुतस्त्वयि प्रभो
विश्वात्मनीक्षेन्न पृथग्य आत्मनः ।
अथापि
भक्त्येश तयोपधावतां
अनन्यवृत्त्यानुगृहाण वत्सल ॥ ३८ ॥
जगदुद्भवस्थितिलयेषु
दैवतो
बहुभिद्यमानगुणयाऽऽत्ममायया ।
रचितात्मभेदमतये
स्वसंस्थया
विनिवर्तितभ्रमगुणात्मने नमः ॥ ३९ ॥
ब्रह्मोवाच
-
नमस्ते
श्रितसत्त्वाय धर्मादीनां च सूतये ।
निर्गुणाय
च यत्काष्ठां नाहं वेदापरेऽपि च ॥ ४० ॥
(श्रीहरि
को) सिद्धोंने कहा—प्रभो ! यह हमारा मनरूप हाथी नाना प्रकारके क्लेशरूप दावानलसे दग्ध एवं
अत्यन्त तृषित होकर आपकी कथारूप विशुद्ध अमृतमयी सरितामें घुसकर गोता लगाये बैठा
है। वहाँ ब्रह्मानन्दमें लीन-सा हो जानेके कारण उसे न तो संसाररूप दावानलका ही
स्मरण है और न वह उस नदीसे बाहर ही निकलता है ॥ ३५ ॥
यजमानपत्नीने
कहा—सर्वसमर्थ परमेश्वर ! आपका स्वागत है। मैं आपको नमस्कार करती हूँ। आप
मुझपर प्रसन्न होइये। लक्ष्मीपते ! अपनी प्रिया लक्ष्मीजीके सहित आप हमारी रक्षा
कीजिये। यज्ञेश्वर ! जिस प्रकार सिरके बिना मनुष्यका धड़ अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार अन्य अङ्गोंसे पूर्ण होनेपर भी आपके बिना यज्ञकी शोभा नहीं
होती ॥ ३६ ॥
लोकपालोंने
कहा—अनन्त परमात्मन् ! आप समस्त अन्त:करणोंके साक्षी हैं, यह सारा जगत् आपके ही द्वारा देखा जाता है। तो क्या मायिक पदार्थोंको
ग्रहण करनेवाली हमारी इन नेत्र आदि इन्द्रियोंसे कभी आप प्रत्यक्ष हो सके हैं ?
वस्तुत: आप हैं तो पञ्चभूतोंसे पृथक्; फिर भी
पाञ्चभौतिक शरीरोंके साथ जो आपका सम्बन्ध प्रतीत होता है, यह
आपकी माया ही है ॥ ३७ ॥
योगेश्वरोंने
कहा—प्रभो ! जो पुरुष सम्पूर्ण विश्वके आत्मा आपमें और अपनेमें कोई भेद नहीं
देखता, उससे अधिक प्यारा आपको कोई नहीं है। तथापि भक्तवत्सल
! जो लोग आपमें स्वामिभाव रखकर अनन्य भक्तिसे आपकी सेवा करते हैं, उनपर भी आप कृपा कीजिये ॥ ३८ ॥ जीवोंके अदृष्टवश जिसके सत्त्वादि गुणोंमें
बड़ी विभिन्नता आ जाती है, उस अपनी मायाके द्वारा जगत्की
उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयके लिये ब्रह्मादि विभिन्न रूप
धारण करके आप भेदबुद्धि पैदा कर देते हैं; किन्तु अपनी
स्वरूप-स्थितिसे आप उस भेदज्ञान और उसके कारण सत्त्वादि गुणोंसे सर्वथा दूर हैं।
ऐसे आपको हमारा नमस्कार है ॥ ३९ ॥
ब्रह्मस्वरूप
वेदने कहा—आप ही धर्मादिकी उत्पत्तिके लिये शुद्ध सत्त्वको स्वीकार करते हैं,
साथ ही आप निर्गुण भी हैं। अतएव आपका तत्त्व न तो मैं जानता हूँ और
न ब्रह्मादि कोई और ही जानते हैं; आपको नमस्कार है ॥ ४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
अग्निरुवाच
-
यत्तेजसाहं
सुसमिद्धतेजा
हव्यं वहे स्वध्वर आज्यसिक्तम् ।
तं
यज्ञियं पञ्चविधं च पञ्चभिः
स्विष्टं यजुर्भिः प्रणतोऽस्मि यज्ञम् ॥ ४१
॥
देवा
ऊचुः -
पुरा
कल्पापाये स्वकृतमुदरीकृत्य विकृतं
त्वमेवाद्यस्तस्मिन् सलिल उरगेन्द्राधिशयने
।
पुमान्
शेषे सिद्धैर्हृदि विमृशिताध्यात्मपदविः
स एवाद्याक्ष्णोर्यः पथि चरसि भृत्यानवसि नः
॥ ४२ ॥
गन्धर्वा
ऊचुः -
अंशांशास्ते
देव मरीच्यादय एते
ब्रह्मेन्द्राद्या देवगणा रुद्रपुरोगाः ।
क्रीडाभाण्डं
विश्वमिदं यस्य विभूमन्
तस्मै नित्यं नाथ नमस्ते करवाम ॥ ४३ ॥
विद्याधरा
ऊचुः -
त्वन्माययार्थमभिपद्य
कलेवरेऽस्मिन्
कृत्वा ममाहमिति दुर्मतिरुत्पथैः स्वैः ।
क्षिप्तोऽप्यसद्विषयलालस
आत्ममोहं
युष्मत्कथामृतनिषेवक उद्व्युदस्येत् ॥ ४४ ॥
ब्राह्मणा
ऊचुः -
त्वं
क्रतुस्त्वं हविस्त्वं हुताशः स्वयं
त्वं हि मंत्रः समिद् दर्भपात्राणि च ।
त्वं
सदस्यर्त्विजो दम्पती देवता
अग्निहोत्रं स्वधा सोम आज्यं पशुः ॥ ४५ ॥
त्वं
पुरा गां रसाया महासूकरो
दंष्ट्रया पद्मिनीं वारणेन्द्रो यथा ।
स्तूयमानो
नदन् लीलया योगिभिः
व्युज्जहर्थ त्रयीगात्र यज्ञक्रतुः ॥ ४६ ॥
स
प्रसीद त्वमस्माकं आकाङ्क्षतां
दर्शनं ते परिभ्रष्टसत्कर्मणाम् ।
कीर्त्यमाने
नृभिर्नाम्नि यज्ञेश ते
यज्ञविघ्नाः क्षयं यान्ति तस्मै नमः ॥ ४७ ॥
(श्रीहरि
को) अग्निदेव ने कहा—भगवन् ! आपके ही तेजसे प्रज्वलित होकर मैं श्रेष्ठ यज्ञोंमें देवताओंके
पास घृतमिश्रित हवि पहुँचाता हूँ। आप साक्षात् यज्ञपुरुष एवं यज्ञकी रक्षा
करनेवाले हैं। अग्निहोत्र, दर्श, पौर्णमास,
चातुर्मास्य और पशु-सोम—ये पाँच प्रकारके यज्ञ
आपके ही स्वरूप हैं तथा ‘आश्रावय’, ‘अस्तु
श्रौषट्’, ‘यजे’, ‘ये यजामहे’ और ‘वषट्’—इन पाँच प्रकारके
यजुर्मन्त्रोंसे आपका ही पूजन होता है। मैं आपको प्रणाम करता हूँ ॥ ४१ ॥
देवताओंने
कहा—देव ! आप आदिपुरुष हैं। पूर्वकल्पका अन्त होनेपर अपने कार्यरूप इस
प्रपञ्चको उदरमें लीनकर आपने ही प्रलयकालीन जलके भीतर शेषनागकी उत्तम शय्यापर शयन
किया था। आपके आध्यात्मिक स्वरूपका जनलोकादिवासी सिद्धगण भी अपने हृदयमें चिन्तन
करते हैं। अहो ! वही आप आज हमारे नेत्रोंके विषय होकर अपने भक्तोंकी रक्षा कर रहे
हैं ॥ ४२ ॥
गन्धर्वोंने
कहा—देव ! मरीचि आदि ऋषि और ये ब्रह्मा, इन्द्र तथा
रुद्रादि देवतागण आपके अंशके भी अंश हैं। महत्तम ! यह सम्पूर्ण विश्व आपके खेलकी
सामग्री है। नाथ ! ऐसे आपको हम सर्वदा प्रणाम करते हैं ॥ ४३ ॥
विद्याधरोंने
कहा—प्रभो ! परम पुरुषार्थकी प्राप्तिके साधनरूप इस मानवदेहको पाकर भी जीव
आपकी मायासे मोहित होकर इसमें मैं-मेरेपनका अभिमान कर लेता है। फिर वह दुर्बुद्धि
अपने आत्मीयोंसे तिरस्कृत होनेपर भी असत् विषयोंकी ही लालसा करता रहता है। किन्तु
ऐसी अवस्थामें भी जो आपके कथामृतका सेवन करता है, वह इस
अन्त:करणके मोहको सर्वथा त्याग देता है ॥ ४४ ॥
ब्राह्मणोंने
कहा—भगवन् ! आप ही यज्ञ हैं, आप ही हवि हैं, आप ही अग्रि हैं, स्वयं आप ही मन्त्र हैं; आप ही समिधा, कुशा और यज्ञपात्र हैं तथा आप ही सदस्य,
ऋत्विज्, यजमान एवं उसकी धर्मपत्नी, देवता, अग्रिहोत्र, स्वधा,
सोमरस, घृत और पशु हैं ॥ ४५ ॥ वेदमूर्ते !
यज्ञ और उसका सङ्कल्प दोनों आप ही हैं। पूर्वकालमें आप ही अति विशाल वराहरूप
धारणकर रसातलमें डूबी हुई पृथ्वीको लीलासे ही अपनी दाढ़ोंपर उठाकर इस प्रकार निकाल
लाये थे, जैसे कोई गजराज कमलिनीको उठा लाये। उस समय आप
धीरे-धीरे गरज रहे थे और योगिगण आपका यह अलौकिक पुरुषार्थ देखकर आपकी स्तुति करते
जाते थे ॥ ४६ ॥ यज्ञेश्वर ! जब लोग आपके नामका कीर्तन करते हैं, तब यज्ञके सारे विघ्र नष्ट हो जाते हैं। हमारा यह यज्ञस्वरूप सत्कर्म नष्ट
हो गया था, अत: हम आपके दर्शनोंकी इच्छा कर रहे थे। अब आप
हमपर प्रसन्न होइये। आपको नमस्कार है ॥ ४७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०८)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
मैत्रेय
उवाच -
इति
दक्षः कविर्यज्ञं भद्र रुद्राभिमर्शितम् ।
कीर्त्यमाने
हृषीकेशे सन्निन्ये यज्ञभावने ॥ ४८ ॥
भगवान्
स्वेन भागेन सर्वात्मा सर्वभागभुक् ।
दक्षं
बभाष आभाष्य प्रीयमाण इवानघ ॥ ४९ ॥
श्रीभगवानुवाच
-
अहं
ब्रह्मा च शर्वश्च जगतः कारणं परम् ।
आत्मेश्वर
उपद्रष्टा स्वयं दृगविशेषणः ॥ ५० ॥
आत्ममायां
समाविश्य सोऽहं गुणमयीं द्विज ।
सृजन्
रक्षन् हरन् विश्वं दध्रे संज्ञां क्रियोचिताम् ॥ ५१ ॥
तस्मिन्
ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि ।
ब्रह्मरुद्रौ
च भूतानि भेदेनाज्ञोऽनुपश्यति ॥ ५२ ॥
यथा
पुमान्न स्वाङ्गेषु शिरःपाण्यादिषु क्वचित् ।
पारक्यबुद्धिं
कुरुते एवं भूतेषु मत्परः ॥ ५३ ॥
त्रयाणां
एकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् ।
सर्वभूतात्मनां
ब्रह्मन् स शान्तिं अधिगच्छति ॥ ५४ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—भैया विदुर ! जब इस प्रकार सब लोग यज्ञरक्षक भगवान् हृषीकेशकी स्तुति
करने लगे, तब परम चतुर दक्षने रुद्रपार्षद वीरभद्रके ध्वंस
किये हुए यज्ञको फिर आरम्भ कर दिया ॥ ४८ ॥ सर्वान्तर्यामी श्रीहरि यों तो सभीके
भागोंके भोक्ता हैं; तथापि त्रिकपाल-पुरोडाशरूप अपने भागसे
और भी प्रसन्न होकर उन्होंने दक्षको सम्बोधन करके कहा ॥ ४९ ॥
श्रीभगवान्ने
कहा—जगत् का परम कारण मैं ही ब्रह्मा और महादेव हूँ; मैं
सबका आत्मा, ईश्वर और साक्षी हूँ तथा स्वयम्प्रकाश और
उपाधिशून्य हूँ ॥ ५० ॥ विप्रवर ! अपनी त्रिगुणात्मिका मायाको स्वीकार करके मैं ही
जगत् की रचना, पालन और संहार करता रहता हूँ और मैंने ही उन
कर्मोंके अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और शङ्कर—ये नाम धारण किये हैं ॥ ५१ ॥ ऐसा जो भेदरहित विशुद्ध परब्रह्मस्वरूप मैं
हूँ, उसीमें अज्ञानी पुरुष ब्रह्मा, रुद्र
तथा अन्य समस्त जीवोंको विभिन्न रूपसे देखता है ॥ ५२ ॥ जिस प्रकार मनुष्य अपने सिर,
हाथ आदि अङ्गोंमें ‘ये मुझसे भिन्न हैं’
ऐसी बुद्धि कभी नहीं करता, उसी प्रकार मेरा
भक्त प्राणिमात्रको मुझसे भिन्न नहीं देखता ॥ ५३ ॥ ब्रह्मन् ! हम—ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर—तीनों
स्वरूपत: एक ही हैं और हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं; अत: जो
हममें कुछ भी भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है ॥
५४ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
00000000000
॥ ॐ नमो भगवते
वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
चतुर्थ
स्कन्ध – सातवाँ
अध्याय..(पोस्ट०९)
दक्षयज्ञकी
पूर्ति
मैत्रेय
उवाच -
एवं
भगवतादिष्टः प्रजापतिपतिर्हरिम् ।
अर्चित्वा
क्रतुना स्वेन देवान् उभयतोऽयजत् ॥ ५५ ॥
रुद्रं
च स्वेन भागेन ह्युपाधावत्समाहितः ।
कर्मणोदवसानेन
सोमपानितरानपि ।
उदवस्य
सहर्त्विग्भिः सस्नाववभृथं ततः ॥ ५६ ॥
तस्मा
अप्यनुभावेन स्वेनैवावाप्तराधसे ।
धर्म
एव मतिं दत्त्वा त्रिदशास्ते दिवं ययुः ॥ ५७ ॥
एवं
दाक्षायणी हित्वा सती पूर्वकलेवरम् ।
जज्ञे
हिमवतः क्षेत्रे मेनायामिति शुश्रुम ॥ ५८ ॥
तमेव
दयितं भूय आवृङ्क्ते पतिमम्बिका ।
अनन्यभावैकगतिं
शक्तिः सुप्तेव पूरुषम् ॥ ५९ ॥
एतद्भगवतः
शम्भोः कर्म दक्षाध्वरद्रुहः ।
श्रुतं
भागवतात् शिष्याद् उद्धवान्मे बृहस्पतेः । ॥ ६० ॥
इदं
पवित्रं परमीशचेष्टितं
यशस्यमायुष्यमघौघमर्षणम् ।
यो
नित्यदाऽऽकर्ण्य नरोऽनुकीर्तयेद्
धुनोत्यघं कौरव भक्तिभावतः । ॥ ६१ ॥
श्रीमैत्रेयजी
कहते हैं—भगवान्के इस प्रकार आज्ञा देनेपर प्रजापतियोंके नायक दक्षने उनका
त्रिकपाल-यज्ञके द्वारा पूजन करके फिर अङ्गभूत और प्रधान दोनों प्रकारके यज्ञोंसे
अन्य सब देवताओंका अर्चन किया ॥ ५५ ॥ फिर एकाग्रचित्त हो भगवान् शङ्करका
यज्ञशेषरूप उनके भागसे यजन किया तथा समाप्तिमें किये जानेवाले उदवसान नामक कर्मसे
अन्य सोमपायी एवं दूसरे देवताओंका यजन कर यज्ञका उपसंहार किया और अन्तमें ऋत्विजोंके
सहित अवभृथ-स्नान किया ॥ ५६ ॥ फिर जिन्हें अपने पुरुषार्थसे ही सब प्रकारकी
सिद्धियाँ प्राप्त थीं, उन दक्षप्रजापति को ‘तुम्हारी सदा धर्ममें बुद्धि रहे’ ऐसा आशीर्वाद देकर
सब देवता स्वर्गलोकको चले गये ॥ ५७ ॥
विदुरजी
! सुना है कि दक्षसुता सतीजीने इस प्रकार अपना पूर्वशरीर त्यागकर फिर हिमालयकी
पत्नी मेनाके गर्भसे जन्म लिया था ॥ ५८ ॥ जिस प्रकार प्रलयकालमें लीन हुई शक्ति
सृष्टिके आरम्भमें फिर ईश्वरका ही आश्रय लेती है, उसी प्रकार
अनन्यपरायणा श्रीअम्बिकाजीने उस जन्ममें भी अपने एकमात्र आश्रय और प्रियतम भगवान्
शङ्करको ही वरण किया ॥ ५९ ॥ विदुरजी ! दक्ष-यज्ञका विध्वंस करनेवाले भगवान् शिवका
यह चरित्र मैंने बृहस्पतिजीके शिष्य परम भागवत उद्धवजीके मुखसे सुना था ॥ ६० ॥
कुरुनन्दन ! श्रीमहादेवजीका यह पावन चरित्र यश और आयुको बढ़ानेवाला तथा पापपुञ्जको
नष्ट करनेवाला है। जो पुरुष भक्तिभावसे इसका नित्यप्रति श्रवण और कीर्तन करता है,
वह अपनी पापराशिका नाश कर देता है ॥ ६१ ॥
इति
श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
चतुर्थस्कन्धे
दक्षयज्ञसंधान सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से
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