||श्रीहरि||
पुत्रगीता (पोस्ट 03)
पितोवाच
कथमभ्याहतो लोकः केन वा परिवारितः।
अमोघाः काः पतन्तीह किं नु भीषयसीव माम्॥८॥
पुत्र उवाच
मृत्युनाभ्याहतो लोको जरया परिवारितः।
अहोरात्राः पतन्त्येते ननु कस्मान्न
बुध्यसे॥९॥
अमोघा रात्रयश्चापि नित्यमायान्ति यान्ति
च।
यदाहमेतज्जानामि न मृत्युस्तिष्ठतीति
ह।
सोऽहं कथं प्रतीक्षिष्ये जालेनापिहितश्चरन्॥
१०॥
रात्र्यां रात्र्यां व्यतीतायामायुरल्पतरं
यदा।
गाधोदके मत्स्य इव सुखं विन्देत कस्तदा
॥११॥
(यस्यां रात्र्यां व्यतीतायां न किञ्चिच्छुभमाचरेत्।)
तदैव वन्ध्यं दिवसमिति विद्याद् विचक्षणः।
अनवाप्तेषु कामेषु मृत्युरभ्येति मानवम्॥१२॥
पिता ने पूछा-बेटा! तुम मुझे भयभीत-सा क्यों कर रहे हो? बताओ तो सही, यह लोक किस से मारा जा रहा है, किसने इसे घेर रखा है
और यहाँ कौन-से ऐसे व्यक्ति हैं, जो सफलतापूर्वक
अपना काम करके व्यतीत हो रहे हैं? ॥८॥
पुत्र ने कहा-पिताजी! देखिये, यह सम्पूर्ण जगत् मृत्यु के द्वारा मारा जा रहा है। बुढ़ापे ने इसे चारों ओर
से घेर लिया है और ये दिन-रात ही वे व्यक्ति हैं, जो सफलतापूर्वक प्राणियों की आयुका अपहरणस्वरूप अपना काम करके व्यतीत हो रहे
हैं, इस बात को आप समझते क्यों नहीं हैं ?॥९॥
ये अमोघ रात्रियाँ नित्य आती हैं और चली जाती हैं। जब मैं इस बातको जानता
हूँ कि मृत्यु क्षणभरके लिये भी रुक नहीं सकती और मैं उसके जालमें फँसकर ही विचर रहा
हूँ, तब मैं थोड़ी देर भी प्रतीक्षा कैसे कर सकता हूँ?॥१०॥
जब एक-एक रात बीतनेके साथ ही आयु बहुत कम होती चली जा रही है,
तब छिछले जलमें रहनेवाली मछलीके समान कौन सुख पा सकता है?॥११॥
जिस रातके बीतनेपर मनुष्य कोई शुभ कर्म न करे,
उस दिनको विद्वान् पुरुष 'व्यर्थ ही गया'
समझे। मनुष्यकी कामनाएँ पूरी भी नहीं होने पातीं कि मौत उसके पास आ पहुँचती
है॥ १२॥
----गीताप्रेस
गोरखपुर द्वारा प्रकाशित ‘गीता-संग्रह’ पुस्तक (कोड
1958) से