बुधवार, 17 अप्रैल 2019

भगवत्तत्त्व (वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 02


||श्री परमात्मने नम:||

भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 02

यदि साधककी समझमें यह बात आ जाय, तो उपर्युक्त किसी भी मार्गसे भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति बहुत सुगमतासे हो सकती है [*] । कारण यह है कि परमात्मा सब देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान हैं । उनका कभी कहीं अभाव नहीं है । इसलिये स्वतःसिद्ध, नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कठिनताका प्रश्र ही नहीं है । नित्यप्राप्त परमात्माकी प्राप्तिमें कठिनाई प्रतीत होनेका प्रधान कारण हैसांसारिक सुखकी इच्छा । इसी कारण साधक संसारसे अपना सम्बन्ध मान लेता है और परमात्मासे विमुख हो जाता है । संसारसे माने हुए सम्बन्धके कारण ही साधक नित्यप्राप्त भगवत्तत्त्वको अप्राप्त मानकर उसकी प्राप्तिको परिश्रम-साध्य एवं कठिन मान लेता है । वास्तवमें भगवत्तत्त्व की प्राप्ति में कठिनता नहीं है, प्रत्युत संसार के त्याग में कठिनता है, जो कि निरन्तर हमारा त्याग कर रहा है । अतएव भगवत्तत्त्व का सुगमता से अनुभव करने के लिये संसार से माने हुए संयोग का वर्तमान में ही वियोग अनुभव करना अत्यावश्यक है, जो तभी सम्भव है जब संयोगजन्य सुख की इच्छा का परित्याग कर दिया जाय ।

तत्त्व-दृष्टिसे एक परमात्मतत्त्व के सिवा अन्य कुछ है ही नहीं----ऐसा ज्ञान हो जाने पर मनुष्य फिर जन्म-मरणके चक्रमें नहीं पड़ता । भगवान् कहते हैं

“यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।“
                                  .........................(गीता ४ । ३५)
जिसे जानकर फिर तू इस प्रकार मोहको नहीं प्राप्त होगा ।

----------------------------
[*] कर्मयोग से सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति--

“ज्ञेयः स नित्य सन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति ।
निर्द्वन्द्वो हि  महाबाहो   सुखं   बन्धात्प्रमुच्यते ॥“
                                       ..................(गीता ५ । ३)
हे महाबाहो ! जो मनुष्य न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी समझने योग्य है; क्योंकि द्वन्द्वों से रहित वह सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है ।

ज्ञानयोगसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति--

“युञ्जन्नेवं सदात्मान योगी विगतकल्मषः ।
सुखेन   ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं    सुखमश्नुते ॥“
                                ..........................(गीता ६ । २८)

अपने-आपको सदा परमात्मामें लगाता हुआ पापरहित योगी सुखपूर्वक ब्रह्मप्राप्तिरूप अत्यन्त सुखको प्राप्त हो जाता है ।

भक्तियोगसे सुगमतापूर्वक तत्त्वप्राप्ति

“अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥“
                                ..........................(गीता ८ । १४)
हे पार्थ ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुगमतासे प्राप्त हो जाता हूँ ।

[ इस विषयको विस्तारसे जाननेके लिये गीताप्रेससे प्रकाशित गीता-दर्पणपुस्तकमें गीतामें तीनों योगोंकी समानताशीर्षक लेख देखना चाहिये । ]

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथपुस्तकसे




मंगलवार, 16 अप्रैल 2019

भगवत्तत्त्व (वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 01


||श्री परमात्मने नम:||

भगवत्तत्त्व
(वासुदेवः सर्वम्)..पोस्ट 01

भगवत्तत्त्व अथवा परमात्मतत्त्व वह तत्त्व है, जिसमें कभी किंचिन्मात्र भी कोई विकार या परिवर्तन नहीं होता, जो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें समानरूपसे परिपूर्ण है, जो सत्-चित्-आनन्द-स्वरूप है और जो जीवमात्रका वास्तविक स्वरूप है । वह एक ही तत्त्व निर्गुण-निराकार होनेसे ब्रह्म’, सगुण-निराकार होनेसे परमात्मातथा सगुण-साकार होनेसे भगवान्नामसे कहा जाता है--

वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं  यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥
                           …………………..(श्रीमद्भागवत १ । २ । ११)

वही एक तत्त्व संसारमें अनेक रूपोंसे भास रहा है । जिस प्रकार स्वर्णसे बने गहनोंमें नाम, आकृति, उपयोग, तौल और मूल्य अलग-अलग होते हैं एवं ऊपरसे मीना आदि होनेसे रंग भी अलग-अलग होते हैं, परंतु इतना होनेपर भी स्वर्णतत्त्वमें कोई अन्तर नहीं आता, वह वैसा-का-वैसा ही रहता है । इसी प्रकार जो कुछ भी देखने, सुनने, जाननेमें आता है, उन सबके मूलमें एक ही परमात्मतत्त्व विद्यमान है; इसीके अनुभवको गीतामें वासुदेवः सर्वम्कहा है (७ । १९) ।

इस तत्त्वकी प्राप्तिके लिये संसारमें तीन योग मुख्य माने जाते हैंकर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । कर्मयोगमें साधक कर्म-बन्धनसे मुक्त होकर भगवत्तत्त्वको प्राप्त हो जाता है

यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥
                                 ……………..(गीता ४ । २३)
योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥
                                 ……………..(गीता ५ । ६)
ज्ञानयोगमें साधक परमात्माको तत्त्वसे जानकर उनमें प्रविष्ट हो जाता है‒--
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।
                                 ………………(गीता १८ । ५५)

भक्तियोगमें साधक अनन्यभक्तिसे भगवान्‌को तत्त्वसे जान लेता है, उनके प्रत्यक्ष दर्शन कर लेता है और उनमें प्रविष्ट हो जाता है । गीतामें भगवान् कहते हैं

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन ।
ज्ञातुं  द्रष्टुं    तत्त्वेन   प्रवेष्टुं    परन्तप ॥
                        …………………(११ । ५४)

साधक अपनी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार चाहे योगमार्गसे चले, चाहे ज्ञानमार्गसे चले, चाहे भक्तिमार्गसे चले, अन्तमें इन सभी मार्गोंके साधकोंको एक ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है । वही एक तत्त्व शास्त्रोंमें अनेक नामोंसे वर्णित हुआ है । उस तत्त्वका अनुभव होनेके बाद फिर कुछ भी करना, जानना और पाना शेष नहीं रहता ।

नारायण ! नारायण !!

(शेष आगामी पोस्ट में )
---गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित, श्रद्धेय स्वामी रामसुखदास जी की ‒”कल्याण-पथपुस्तकसे



रविवार, 14 अप्रैल 2019

श्रीअम्बाजी की आरती




श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

श्रीअम्बाजी की आरती

जय अम्बे गौरी मैया जय श्यामागौरी।
तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव री॥ १॥ जय अम्बे०
माँग सिंदूर विराजत टीको मृगमदको।।
उज्ज्वलसे दोउ नैना, चंद्रवदन नीको॥२॥ जय अम्बे०
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै।
रक्त-पुष्प गल माला, कण्ठनपर साजै॥ ३॥ जय अम्बे०
केहरि वाहन राजत, खड्ग खपर धारी।।
सुर-नर-मुनि-जन सेवत, तिनके दुखहारी॥४॥ जय अम्बे०
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
कोटिक चंद्र दिवाकर सम राजत ज्योती॥५॥ जय अम्बे०
शुम्भ निशुम्भ विदारे, महिषासुर-घाती।
धूम्रविलोचन नैना निशिदिन मदमाती॥ ६॥ जय अम्बे०
चण्ड मुण्ड संहारे, शोणितबीज हरे।
मधु कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे॥ ७॥ जय अम्बे०
ब्रह्माणी, रुद्राणी तुम कमलारानी।
आगम-निगम-बखानी, तुम शिव पटरानी॥ ८॥ जय अम्बे०
चौंसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरूँ।
बाजत ताल मृदंगा औ बाजत डमरू॥ ९॥ जय अम्बे०
तुम ही जगकी माता, तुम ही हो भरता।
भक्तनकी दुख हरता सुख सम्पति करता॥१०॥ जय अम्बे०
भुजा चार अति शोभित, वर-मुद्रा धारी।।
मनवाञ्छित फल पावत, सेवत नर-नारी॥११॥ जय अम्बे०
कंचन थाल विराजत अगर कपुर बाती।
(श्री) मालकेतु में राजत कोटिरतन ज्योती॥ १२॥ जय अम्बे०
(श्री) अम्बेजीकी आरति जो कोई नर गावै।।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख सम्पति पावै॥ १३॥ जय अम्बे०

................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281





श्रीदेवीजी की आरती


श्रीदेवीजी की आरती


जगजननी जय! जय!! (मा! जगजननी जय! जय!!)
भयहारिणि, भवतारिणि, भवभामिनि जय! जय!!  जग०
तू ही सत-चित-सुखमय शुद्ध ब्रह्मरूपा।
सत्य सनातन सुन्दर पर-शिव सुर-भूपा॥१॥ जग०
आदि अनादि अनामय अविचल अविनाशी।।
अमल अनन्त अगोचर अज आनंदराशी॥२॥ जग०
अविकारी, अघहारी, अकल, कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर सँहारकारी ॥ ३॥ जग०
तू विधिवधू, रमा, तू उमा, महामाया।
मूल प्रकृति विद्या तू, तू जननी, जाया॥४॥ जग०
राम, कृष्ण तू, सीता, व्रजरानी राधा।।
तू वाञ्छाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाधा॥५॥ जग०
दश विद्या, नव दुर्गा, नानाशस्त्रकरा।।
अष्टमातृका, योगिनि, नव नव रूप धरा॥ ६॥ जग०
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डवलासिनि तू ॥ ७॥ जग०
सुर-मुनि-मोहिनि सौम्या तू शोभाऽऽधारा।
विवसन विकट-सरूपा, प्रलयमयी धारा॥ ८॥ जग०
तू ही स्नेह-सुधामयि, तू अति गरलमना।
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि-तना॥ ९॥ जग०
मूलाधारनिवासिनि,इह-पर-सिद्धिप्रदे।
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥१०॥ जग०
शक्ति शक्तिधर तू ही नित्य अभेदमयी।
भेदप्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥ ११॥ जग०
हम अति दीन दुखी मा! विपत-जाल घेरे।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥१२॥ जग०
निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
करुणा कर करुणामयि! चरण-शरण दीजै॥ १३॥
जगजननी जय! जय!! (मा! जगजननी जय! जय!!)

                    * * * * * * * *












शनिवार, 13 अप्रैल 2019

सप्तश्लोकी दुर्गा (हिन्दी भावार्थ)



श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:
 अथ सप्तश्लोकी दुर्गा (हिन्दी भावार्थ)

शिवजी बोले-
हे देवि! तुम भक्तों के लिए सुलभ हो और समस्त कर्मों का विधान करने वाली हो | कलियुग में कामनाओं की सिद्धि-हेतु यदि कोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणी द्वारा सम्यक् रूप से व्यक्त करो |

देवी ने कहा-
हे देव ! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है | कलियुग में समस्त कामनाओं को सिद्ध करने वाला जो साधन है वह बतलाऊंगी, सुनो ! उसका नाम है ‘अम्बास्तुति’ |

ॐ इस दुर्गासप्तश्लोकी स्तोत्रमन्त्रके नारायण ऋषि हैं, अनुष्टुप्  छन्द है, श्रीमहाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवता हैं, श्रीदुर्गाकी प्रसन्नताके लिये सप्तश्लोकी दुर्गापाठमें इसका विनियोग  किया जाता है।

वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं ||१||

माँ दुर्गे ! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं । दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवी ! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो ||२|| नारायणी ! आप सब प्रकार का मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी हैं, आप ही कल्याणदायिनी शिवा हैं । आप सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रों वाली गौरी हैं । आपको नमस्कार है ||३|| शरणागतों, दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवी ! आपको नमस्कार है ||४|| सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवी ! सब भयों से हमारी रक्षा कीजिये ; आपको नमस्कार है ||५|| देवि ! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हैं और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हैं । जो लोग आपकी शरण में हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं ; आपकी शरण में गए हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं ||६|| सर्वेश्वरि ! आप इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करें और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो ||७||

|| इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा (हिन्दी भावार्थ) ||



सप्तश्लोकी दुर्गा


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:
 अथ सप्तश्लोकी दुर्गा

शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी |
कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं ब्रूहि यत्नत: ||

देव्युवाच-
शृणु  देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम् |
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुति: प्रकाश्यते ||

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमहामन्त्रस्य नारायण ऋषिः । अनुष्टुपादीनि छन्दांसि ।
श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः । श्री जगदम्बाप्रीत्यर्थ पाठे विनियोगः ॥

ॐज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥१॥
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्रयदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्र चित्ता ॥२॥
सर्वमंगलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥३॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥४॥
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवी नमोऽस्तु ते ॥५॥
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥६॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि ।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम् ||७||

|| इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा ||

शेष आगामी पोस्ट में --
................गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से




शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

श्रीदुर्गासप्तशती -सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०३)


श्रीदुर्गादेव्यै नमो नम:

अथ श्रीदुर्गासप्तशती
अथ सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र (पोस्ट ०३)

हुं हुं हुँकाररूपिण्यै, जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे  भवान्यै ते नमो नमः।।7||
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं 
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु  स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8||
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं, कुरुश्व मे ।
इदं तु कुंजिका स्तोत्रं  मंत्रजागर्तिहेतवे  |
अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।।
यस्तु कुंजिकया देवि, हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।

। इतिश्रीरुद्रयामले गौरीतंत्रे शिवपार्वती संवादे कुंजिकास्तोत्रं संपूर्णम् ।

हुं हुं हुंकार'  स्वरूपिणी, ‘जं जं जं' जम्भनादिनी, 'भ्रां भ्रीं भ्रूं' के रूप में हे कल्याणकारिणी भैरवी भवानी! तुम्हें बार-बार प्रणाम ॥ ७॥ अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं धिजाग्रं धिजाग्रं इन सबको तोड़ो और दीप्त करो करो स्वाहा। 'पां पीं पूं' के रूप में तुम पार्वती पूर्णा हो। 'खां खीं खूं' के रूप में तुम खेचरी (आकाशचारिणी) अथवा खेचरी मुद्रा हो ॥८॥ 'सां सीं सूं' स्वरूपिणी सप्तशतीदेवी के मन्त्र को मेरे लिये सिद्ध करो। यह कुञ्जिकास्तोत्र मन्त्र को जगाने के लिये है। इसे भक्तिहीन पुरुषको नहीं देना चाहिये। हे पार्वती! इसे गुप्त रखो। हे देवी! जो बिना  कुञ्जिका के सप्तशतीका पाठ करता है उसे उसी प्रकार सिद्धि नहीं  मिलती जिस प्रकार वनमें रोना निरर्थक होता है।

इस प्रकार श्रीरुद्रयामल के गौरीतन्त्र में शिव-पार्वती-संवादमें सिद्धकुञ्जिकास्तोत्र सम्पूर्ण हुआ।

||ॐ तत्सत् ||
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीदुर्गासप्तशती पुस्तक कोड 1281 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...