बुधवार, 21 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०१)

मन्वन्तरोंका वर्णन

श्रीराजोवाच
स्वायम्भुवस्येह गुरो वंशोऽयं विस्तराच्छ्रुतः
यत्र विश्वसृजां सर्गो मनूनन्यान्वदस्व नः ||||
मन्वन्तरे हरेर्जन्म कर्माणि च महीयसः
गृणन्ति कवयो ब्रह्मंस्तानि नो वद शृण्वताम् ||||
यद्यस्मिन्नन्तरे ब्रह्मन्भगवान्विश्वभावनः
कृतवान्कुरुते कर्ता ह्यतीतेऽनागतेऽद्य वा ||||

श्रीऋषिरुवाच
मनवोऽस्मिन्व्यतीताः षट्कल्पे स्वायम्भुवादयः
आद्यस्ते कथितो यत्र देवादीनां च सम्भवः ||||
आकूत्यां देवहूत्यां च दुहित्रोस्तस्य वै मनोः
धर्मज्ञानोपदेशार्थं भगवान्पुत्रतां गतः ||||
कृतं पुरा भगवतः कपिलस्यानुवर्णितम्
आख्यास्ये भगवान्यज्ञो यच्चकार कुरूद्वह ||||
विरक्तः कामभोगेषु शतरूपापतिः प्रभुः
विसृज्य राज्यं तपसे सभार्यो वनमाविशत् ||||
सुनन्दायां वर्षशतं पदैकेन भुवं स्पृशन्
तप्यमानस्तपो घोरमिदमन्वाह भारत ||||

राजा परीक्षित्‌ ने पूछागुरुदेव ! स्वायम्भुव मनुका वंश-विस्तार मैंने सुन लिया। इसी वंश में उनकी कन्याओं के द्वारा मरीचि आदि प्रजापतियोंने अपनी वंश-परम्परा चलायी थी। अब आप हमसे दूसरे मनुओंका वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! ज्ञानी महात्मा जिस-जिस मन्वन्तर में महामहिम भगवान्‌ के जिन-जिन अवतारों और लीलाओं का वर्णन करते हैं, उन्हें आप अवश्य सुनाइये। हम बड़ी श्रद्धा से उनका श्रवण करना चाहते हैं ॥ २ ॥ भगवन् ! विश्वभावन भगवान्‌ बीते हुए मन्वन्तरोंमें जो-जो लीलाएँ कर चुके हैं, वर्तमान मन्वन्तरमें जो कर रहे हैं और आगामी मन्वन्तरोंमें जो कुछ करेंगे, वह सब हमें सुनाइये ॥ ३ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहाइस कल्पमें स्वायम्भुव आदि छ: मन्वन्तर बीत चुके हैं। उनमेंसे पहले मन्वन्तरका मैंने वर्णन कर दिया, उसीमें देवता आदिकी उत्पत्ति हुई थी ॥ ४ ॥ स्वायम्भुव मनुकी पुत्री आकूतिसे यज्ञपुरुषके रूपमें धर्मका उपदेश करनेके लिये तथा देवहूतिसे कपिलके रूपमें ज्ञानका उपदेश करनेके लिये भगवान्‌ने उनके पुत्ररूपसे अवतार ग्रहण किया था ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ कपिलका वर्णन मैं पहले ही (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। अब भगवान्‌ यज्ञपुरुषने आकूतिके गर्भसे अवतार लेकर जो कुछ किया, उसका वर्णन करता हूँ ॥ ६ ॥
परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ स्वायम्भुव मनु ने समस्त कामनाओं और भोगों से विरक्त होकर राज्य छोड़ दिया। वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ तपस्या करने के लिये वनमें चले गये ॥ ७ ॥ परीक्षित्‌ ! उन्होंने सुनन्दा नदीके किनारे पृथ्वीपर एक पैर से खड़े रहकर सौ वर्षतक घोर तपस्या की। तपस्या करते समय वे प्रतिदिन इस प्रकार भगवान्‌ की स्तुति करते थे ॥ ८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 20 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

यूयं नृलोके बत भूरिभागा लोकं पुनाना मुनयोऽभियन्ति
येषां गृहानावसतीति साक्षाद्गूढं परं ब्रह्म मनुष्यलिङ्गम् ७५
स वा अयं ब्रह्म महद्विमृग्य कैवल्यनिर्वाणसुखानुभूतिः
प्रियः सुहृद्वः खलु मातुलेय आत्मार्हणीयो विधिकृद्गुरुश्च ७६
न यस्य साक्षाद्भवपद्मजादिभी रूपं धिया वस्तुतयोपवर्णितम्
मौनेन भक्त्योपशमेन पूजितः प्रसीदतामेष स सात्वतां पतिः ७७

श्रीशुक उवाच
इति देवर्षिणा प्रोक्तं निशम्य भरतर्षभः
पूजयामास सुप्रीतः कृष्णं च प्रेमविह्वलः ७८
कृष्णपार्थावुपामन्त्र्य पूजितः प्रययौ मुनिः
श्रुत्वा कृष्णं परं ब्रह्म पार्थः परमविस्मितः ७९
इति दाक्षायणीनां ते पृथग्वंशा प्रकीर्तिताः
देवासुरमनुष्याद्या लोका यत्र चराचराः ८०

युधिष्ठिर ! इस मनुष्यलोक में तुमलोगों के भाग्य अत्यन्त प्रशंसनीय हैं; क्योंकि तुम्हारे घरमें साक्षात् परब्रह्म परमात्मा मनुष्यका रूप धारण करके गुप्तरूपसे निवास करते हैं। इसीसे सारे संसारको पवित्र कर देनेवाले ऋषि-मुनि बार-बार उनका दर्शन करनेके लिये चारों ओरसे तुम्हारे पास आया करते हैं ॥ ७५ ॥ बड़े-बड़े महापुरुष निरन्तर जिनको ढूँढ़ते रहते हैं, जो मायाके लेशसे रहित परम शान्त परमानन्दानुभवस्वरूप परब्रह्म परमात्मा हैंवे ही तुम्हारे प्रिय, हितैषी, ममेरे भाई, पूज्य, आज्ञाकारी, गुरु और स्वयं आत्मा श्रीकृष्ण हैं ॥ ७६ ॥ शङ्कर, ब्रह्मा आदि भी अपनी सारी बुद्धि लगाकर वे यह हैं’—इस रूपमें उनका वर्णन नहीं कर सके। फिर हम तो कर ही कैसे सकते हैं। हम मौन, भक्ति और संयमके द्वारा ही उनकी पूजा करते हैं। कृपया हमारी यह पूजा स्वीकार करके भक्तवत्सल भगवान्‌ हमपर प्रसन्न हों ॥ ७७ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! देवर्षि नारदका यह प्रवचन सुनकर राजा युधिष्ठिरको अत्यन्त आनन्द हुआ। उन्होंने प्रेम-विह्वल होकर देवर्षि नारद और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी पूजा की ॥ ७८ ॥ देवर्षि नारद भगवान्‌ श्रीकृष्ण और राजा युधिष्ठिरसे विदा लेकर और उनके द्वारा सत्कार पाकर चले गये। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं, यह सुनकर युधिष्ठिरके आश्चर्यकी सीमा न रही ॥ ७९ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार मैंने तुम्हें दक्ष-पुत्रियोंके वंशोंका अलग-अलग वर्णन सुनाया। उन्हींके वंशमें देवता, असुर, मनुष्य आदि और सम्पूर्ण चराचरकी सृष्टि हुई है ॥ ८० ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां पारमहंस्यां संहितायां सप्तमस्कन्धे प्रह्लादानुचरिते युधिष्ठिरनारदसंवादे सदाचारनिर्णयो नाम पञ्चदशोऽध्यायः

॥ इति सप्तम स्कन्ध समाप्त ॥

॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

अहं पुराभवं कश्चिद्गन्धर्व उपबर्हणः
नाम्नातीते महाकल्पे गन्धर्वाणां सुसम्मतः ६९
रूपपेशलमाधुर्य सौगन्ध्यप्रियदर्शनः
स्त्रीणां प्रियतमो नित्यं मत्तः स्वपुरलम्पटः ७०
एकदा देवसत्रे तु गन्धर्वाप्सरसां गणाः
उपहूता विश्वसृग्भिर्हरिगाथोपगायने ७१
अहं च गायंस्तद्विद्वान्स्त्रीभिः परिवृतो गतः
ज्ञात्वा विश्वसृजस्तन्मे हेलनं शेपुरोजसा
याहि त्वं शूद्र तामाशु नष्टश्रीः कृतहेलनः ७२
तावद्दास्यामहं जज्ञे तत्रापि ब्रह्मवादिनाम्
शुश्रूषयानुषङ्गेण प्राप्तोऽहं ब्रह्मपुत्रताम् ७३
धर्मस्ते गृहमेधीयो वर्णितः पापनाशनः
गृहस्थो येन पदवीमञ्जसा न्यासिनामियात् ७४

पूर्वजन्म में इसके पहलेके महाकल्प में मैं एक गन्धर्व था। मेरा नाम था उपबर्हण और गन्धर्वोंमें मेरा बड़ा सम्मान था ॥ ६९ ॥ मेरी सुन्दरता, सुकुमारता और मधुरता अपूर्व थी। मेरे शरीरमेंसे सुगन्धि निकला करती और देखनेमें मैं बहुत अच्छा लगता। स्त्रियाँ मुझसे बहुत प्रेम करतीं और मैं सदा प्रमादमें ही रहता। मैं अत्यन्त विलासी था ॥ ७० ॥ एक बार देवताओंके यहाँ ज्ञानसत्र हुआ। उसमें बड़े-बड़े प्रजापति आये थे। भगवान्‌की लीलाका गान करनेके लिये उन लोगोंने गन्धर्व और अप्सराओंको बुलाया ॥ ७१ ॥ मैं जानता था कि वह संतोंका समाज है और वहाँ भगवान्‌की लीलाका ही गान होता है। फिर भी मैं स्त्रियोंके साथ लौकिक गीतोंका गान करता हुआ उन्मत्तकी तरह वहाँ जा पहुँचा। देवताओंने देखा कि यह तो हमलोगोंका अनादर कर रहा है। उन्होंने अपनी शक्तिसे मुझे शाप दे दिया कि तुमने हमलोगोंकी अवहेलना की है, इसलिये तुम्हारी सारी सौन्दर्य- सम्पत्ति नष्ट हो जाय और तुम शीघ्र ही शूद्र हो जाओ॥ ७२ ॥ उनके शापसे मैं दासीका पुत्र हुआ। किन्तु उस शूद्र-जीवनमें किये हुए महात्माओंके सत्सङ्ग और सेवा-शुश्रूषाके प्रभावसे मैं दूसरे जन्ममें ब्रह्माजीका पुत्र हुआ ॥ ७३ ॥ संतोंकी अवहेलना और सेवाका यह मेरा प्रत्यक्ष अनुभव है। संत-सेवासे ही भगवान्‌ प्रसन्न होते हैं। मैंने तुम्हें गृहस्थोंका पापनाशक धर्म बतला दिया। इस धर्मके आचरणसे गृहस्थ भी अनायास ही संन्यासियोंको मिलनेवाला परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ७४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




सोमवार, 19 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१५)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

यद्यस्य वानिषिद्धं स्याद्येन यत्र यतो नृप
स तेनेहेत कार्याणि नरो नान्यैरनापदि ६६
एतैरन्यैश्च वेदोक्तैर्वर्तमानः स्वकर्मभिः
गृहेऽप्यस्य गतिं यायाद्राजंस्तद्भक्तिभाङ्नरः ६७
यथा हि यूयं नृपदेव दुस्त्यजा-
दापद्गणादुत्तरतात्मनः प्रभोः
यत्पादपङ्केरुहसेवया भवा-
नहार्षीन्निर्जितदिग्गजः क्रतून् ६८

युधिष्ठिर ! जिस पुरुषके लिये जिस द्रव्यको जिस समय जिस उपायसे जिससे ग्रहण करना शास्त्राज्ञाके विरुद्ध न हो, उसे उसीसे अपने सब कार्य सम्पन्न करने चाहिये; आपत्तिकालको छोडक़र इससे अन्यथा नहीं करना चाहिये ॥ ६६ ॥ महाराज ! भगवद्भक्त मनुष्य वेदमें कहे हुए इन कर्मोंके तथा अन्यान्य स्वकर्मोंके अनुष्ठानसे घरमें रहते हुए भी श्रीकृष्णकी गतिको प्राप्त करता है ॥ ६७ ॥ युधिष्ठिर ! जैसे तुम अपने स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपा और सहायतासे बड़ी-बड़ी कठिन विपत्तियोंसे पार हो गये हो और उन्हींके चरणकमलोंकी सेवासे समस्त भूमण्डलको जीतकर तुमने बड़े-बड़े राजसूय आदि यज्ञ किये हैं ॥ ६८ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१४)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

भावाद्वैतं क्रियाद्वैतं द्रव्याद्वैतं तथात्मनः
वर्तयन्स्वानुभूत्येह त्रीन्स्वप्नान्धुनुते मुनिः ६२
कार्यकारणवस्त्वैक्य दर्शनं पटतन्तुवत्
अवस्तुत्वाद्विकल्पस्य भावाद्वैतं तदुच्यते ६३
यद्ब्रह्मणि परे साक्षात्सर्वकर्मसमर्पणम्
मनोवाक्तनुभिः पार्थ क्रियाद्वैतं तदुच्यते ६४
आत्मजायासुतादीनामन्येषां सर्वदेहिनाम्
यत्स्वार्थकामयोरैक्यं द्रव्याद्वैतं तदुच्यते ६५

जो विचारशील पुरुष स्वानुभूतिसे आत्माके त्रिविध अद्वैतका साक्षात्कार करते हैंवे जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और द्रष्टा, दर्शन तथा दृश्यके भेदरूप स्वप्नको मिटा देते हैं। ये अद्वैत तीन प्रकारके हैंभावाद्वैत, क्रियाद्वैत और द्रव्याद्वैत ॥ ६२ ॥ जैसे वस्त्र सूतरूप ही होता है, वैसे ही कार्य भी कारणमात्र ही है। क्योंकि भेद तो वास्तवमें है नहीं। इस प्रकार सबकी एकताका विचार भावाद्वैतहै ॥ ६३ ॥ युधिष्ठिर ! मन, वाणी और शरीरसे होनेवाले सब कर्म स्वयं परब्रह्म परमात्मामें ही हो रहे हैं, उसीमें अध्यस्त हैंइस भावसे समस्त कर्मोंको समर्पित कर देना क्रियाद्वैतहै ॥ ६४ ॥ स्त्री-पुत्रादि सगे-सम्बन्धी एवं संसारके अन्य समस्त प्राणियोंके तथा अपने स्वार्थ और भोग एक ही हैं, उनमें अपने और परायेका भेद नहीं हैइस प्रकारका विचार द्रव्याद्वैतहै ॥ ६५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




रविवार, 18 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

य एते पितृदेवानामयने वेदनिर्मिते
शास्त्रेण चक्षुषा वेद जनस्थोऽपि न मुह्यति ५६
आदावन्ते जनानां सद्बहिरन्तः परावरम्
ज्ञानं ज्ञेयं वचो वाच्यं तमो ज्योतिस्त्वयं स्वयम् ५७
आबाधितोऽपि ह्याभासो यथा वस्तुतया स्मृतः
दुर्घटत्वादैन्द्रियकं तद्वदर्थविकल्पितम् ५८
क्षित्यादीनामिहार्थानां छाया न कतमापि हि
न सङ्घातो विकारोऽपि न पृथङ्नान्वितो मृषा ५९
धातवोऽवयवित्वाच्च तन्मात्रावयवैर्विना
न स्युर्ह्यसत्यवयविन्यसन्नवयवोऽन्ततः ६०
स्यात्सादृश्यभ्रमस्तावद्विकल्पे सति वस्तुनः
जाग्रत्स्वापौ यथा स्वप्ने तथा विधिनिषेधता ६१

ये पितृयान और देवयान दोनों ही वेदोक्त मार्ग हैं। जो शास्त्रीय दृष्टिसे इन्हें तत्त्वत: जान लेता है, वह शरीरमें स्थित रहता हुआ भी मोहित नहीं होता ॥ ५६ ॥ पैदा होनेवाले शरीरोंके पहले भी कारणरूपसे और उनका अन्त हो जानेपर भी उनकी अवधिरूपसे जो स्वयं विद्यमान रहता है, जो भोगरूपसे बाहर और भोक्तारूपसे भीतर है तथा ऊँच और नीच, जानना और जाननेका विषय, वाणी और वाणीका विषय, अन्धकार और प्रकाश आदि वस्तुओंके रूपमें जो कुछ भी उपलब्ध होता है, वह सब स्वयं यह तत्त्ववेत्ता ही है। इसीसे मोह उसका स्पर्श नहीं कर सकता ॥ ५७ ॥ दर्पण आदिमें दीख पडऩेवाला प्रतिबिम्ब विचार और युक्तिसे बाधित है, उसका उनमें अस्तित्व है नहीं; फिर भी वस्तुके रूपमें तो वह दीखता ही है। वैसे ही इन्द्रियोंके द्वारा दीखनेवाला वस्तुओंका भेद-भाव भी विचार, युक्ति और आत्मानुभवसे असम्भव होनेके कारण वस्तुत: न होनेपर भी सत्य-सा प्रतीत होता है ॥ ५८ ॥ पृथ्वी आदि पञ्चभूतोंसे इस शरीरका निर्माण नहीं हुआ है। वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो न तो वह उन पञ्चभूतोंका सङ्घात है और न विकार या परिणाम ही। क्योंकि यह अपने अवयवोंसे न तो पृथक् है और न उनमें अनुगत ही है, अतएव मिथ्या है ॥ ५९ ॥ इसी प्रकार शरीरके कारणरूप पञ्चभूत भी अवयवी होनेके कारण अपने अवयवोंसूक्ष्मभूतोंसे भिन्न नहीं है, अवयवरूप ही हैं। जब बहुत खोज-बीन करनेपर भी अवयवोंके अतिरिक्त अवयवीका अस्तित्व नहीं मिलतावह असत् ही सिद्ध होता है, तब अपने-आप ही यह सिद्ध हो जाता है कि ये अवयव भी असत्य ही हैं ॥ ६० ॥ जबतक अज्ञानके कारण एक ही परमतत्त्वमें अनेक वस्तुओंके भेद मालूम पड़ते रहते हैं, तबतक यह भ्रम भी रह सकता है कि जो वस्तुएँ पहले थीं, वे अब भी हैं और स्वप्नमें भी जिस प्रकार जाग्रत्, स्वप्न आदि अवस्थाओंके अलग-अलग अनुभव होते ही हैं तथा उनमें भी विधि-निषेधके शास्त्र रहते हैंवैसे ही जबतक इन भिन्नताओंके अस्तित्वका मोह बना हुआ है, तबतक यहाँ भी विधि-निषेधके शास्त्र हैं ही ॥ ६१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

निषेकादिश्मशानान्तैः संस्कारैः संस्कृतो द्विजः
इन्द्रियेषु क्रियायज्ञान्ज्ञानदीपेषु जुह्वति ५२
इन्द्रियाणि मनस्यूर्मौ वाचि वैकारिकं मनः
वाचं वर्णसमाम्नाये तमोङ्कारे स्वरे न्यसेत् ५३
ॐकारं बिन्दौ नादे तं तं तु प्राणे महत्यमुम्
अग्निः सूर्यो दिवा प्राह्णः शुक्लो राकोत्तरं स्वराट्
विश्वोऽथ तैजसः प्राज्ञस्तुर्य आत्मा समन्वयात् ५४
देवयानमिदं प्राहुर्भूत्वा भूत्वानुपूर्वशः
आत्मयाज्युपशान्तात्मा ह्यात्मस्थो न निवर्तते ५५

युधिष्ठिर ! गर्भाधानसे लेकर अन्त्येष्टिपर्यन्त सम्पूर्ण संस्कार जिनके होते हैं, उनको द्विजकहते हैं। (उनमेंसे कुछ तो पूर्वोक्त प्रवृत्तिमार्गका अनुष्ठान करते हैं और कुछ आगे कहे जानेवाले निवृत्तिमार्गका।) निवृत्तिपरायण पुरुष इष्ट, पूर्त्त आदि कर्मों से होने वाले समस्त यज्ञों को विषयों का ज्ञान करानेवाले इन्द्रियोंमें हवन कर देता है ॥ ५२ ॥ इन्द्रियोंको दर्शनादि-संकल्परूप मनमें, वैकारिक मनको परा वाणीमें और परा वाणीको वर्णसमुदायमें, वर्णसमुदायको अ उ म्इन तीन स्वरोंके रूपमें रहनेवाले ॐ कारमें ॐ कारको बिन्दुमें, बिन्दुको नादमें, नादको सूत्रात्मारूप प्राणमें तथा प्राणको ब्रह्ममें लीन कर देता है ॥ ५३ ॥ वह निवृत्तिनिष्ठ ज्ञानी क्रमश: अग्रि, सूर्य, दिन, सायंकाल, शुक्लपक्ष, पूर्णमासी और उत्तरायणके अभिमानी देवताओंके पास जाकर ब्रह्मलोकमें पहुँचता है और वहाँके भोग समाप्त होनेपर वह स्थूलोपाधिक विश्वअपनी स्थूल उपाधिको सूक्ष्ममें लीन करके सूक्ष्मोपाधिक तैजसहो जाता है। फिर सूक्ष्म उपाधिको कारणमें लय करके कारणोपाधिक प्राज्ञरूपसे स्थित होता है; फिर सबके साक्षीरूपसे सर्वत्र अनुगत होनेके कारण साक्षीके ही स्वरूपमें कारणोपाधिका लय करके तुरीयरूपसे स्थित होता है। इस प्रकार दृश्योंका लय हो जानेपर वह शुद्ध आत्मा रह जाता है। यही मोक्षपद है ॥ ५४ ॥ इसे देवयानमार्ग कहते हैं। इस मार्ग से जानेवाला आत्मोपासक संसार की ओर से निवृत्त होकर क्रमश: एक से दूसरे देवता के पास होता हुआ ब्रह्मलोक में जाकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। वह प्रवृत्तिमार्गी के समान फिर जन्म-मृत्यु के चक्कर में नहीं पड़ता ॥ ५५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शनिवार, 17 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम्
आवर्तते प्रवृत्तेन निवृत्तेनाश्नुतेऽमृतम् ४७
हिंस्रं द्रव्यमयं काम्यमग्निहोत्राद्यशान्तिदम्
दर्शश्च पूर्णमासश्च चातुर्मास्यं पशुः सुतः ४८
एतदिष्टं प्रवृत्ताख्यं हुतं प्रहुतमेव च
पूर्तं सुरालयाराम कूपा जीव्यादिलक्षणम् ४९
द्रव्यसूक्ष्मविपाकश्च धूमो रात्रिरपक्षयः
अयनं दक्षिणं सोमो दर्श ओषधिवीरुधः ५०
अन्नं रेत इति क्ष्मेश पितृयानं पुनर्भवः
एकैकश्येनानुपूर्वं भूत्वा भूत्वेह जायते ५१

वैदिक कर्म दो प्रकारके हैंएक तो वे जो वृत्तियोंको उनके विषयोंकी ओर ले जाते हैंप्रवृत्तिपरक और दूसरे वे जो वृत्तियोंको उनके विषयोंकी ओरसे लौटाकर शान्त एवं आत्मसाक्षात्कारके योग्य बना देते हैंनिवृत्तिपरक। प्रवृत्तिपरक कर्ममार्गसे बार-बार जन्म-मृत्युकी प्राप्ति होती है और निवृत्तिपरक भक्तिमार्ग या ज्ञानमार्गके द्वारा परमात्माकी प्राप्ति होती है ॥ ४७ ॥ श्येनयागादि हिंसामय कर्म, अग्निहोत्र, दर्श, पूर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग, सोमयाग, वैश्वदेव, बलिहरण आदि द्रव्यमय कर्म इष्टकहलाते हैं और देवालय, बगीचा, कुआँ आदि बनवाना तथा प्याऊ आदि लगाना पूर्त्तकर्महैं। ये सभी प्रवृत्तिपरक कर्म हैं और सकामभावसे युक्त होनेपर अशान्तिके ही कारण बनते हैं ॥ ४८-४९ ॥ प्रवृत्तिपरायण पुरुष मरनेपर चरु-पुरोडाशादि यज्ञसम्बन्धी द्रव्योंके सूक्ष्मभागसे बना हुआ शरीर धारणकर धूमाभिमानी देवताओं के पास जाता है। फिर क्रमश: रात्रि, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन के अभिमानी देवताओं के पास जाकर चन्द्रलोकमें पहुँचता है। वहाँसे भोग समाप्त होनेपर अमावस्याके चन्द्रमाके समान क्षीण होकर वृष्टिद्वारा क्रमश: ओषधि, लता, अन्न और वीर्यके रूपमें परिणत होकर पितृयान मार्गसे पुन: संसारमें ही जन्म लेता है ॥ ५०-५१ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





श्रीमद्भागवतमहापुराण सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
सप्तम स्कन्ध – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

गृहस्थोंके लिये मोक्षधर्मका वर्णन

यावन्नृकायरथमात्मवशोपकल्पं
धत्ते गरिष्ठचरणार्चनया निशातम्
ज्ञानासिमच्युतबलो दधदस्तशत्रुः
स्वानन्दतुष्ट उपशान्त इदं विजह्यात् ४५
नोचेत्प्रमत्तमसदिन्द्रियवाजिसूता
नीत्वोत्पथं विषयदस्युषु निक्षिपन्ति
ते दस्यवः सहयसूतममुं तमोऽन्धे
संसारकूप उरुमृत्युभये क्षिपन्ति ४६

यह मनुष्य-शरीररूप रथ जबतक अपने वशमें है और इसके इन्द्रिय मन-आदि सारे साधन अच्छी दशामें विद्यमान हैं, तभीतक श्रीगुरुदेवके चरणकमलोंकी सेवा-पूजासे शान धरायी हुई ज्ञानकी तीखी तलवार लेकर भगवान्‌के आश्रयसे इन शत्रुओंका नाश करके अपने स्वराज्य-सिंहासनपर विराजमान हो जाय और फिर अत्यन्त शान्तभावसे इस शरीरका भी परित्याग कर दे ॥ ४५ ॥ नहीं तो, तनिक भी प्रमाद हो जानेपर ये इन्द्रियरूप दुष्ट घोड़े और उनसे मित्रता रखनेवाला बुद्धिरूप सारथि रथके स्वामी जीव को उलटे रास्ते ले जाकर विषयरूपी लुटेरों के हाथों में डाल देंगे। वे डाकू सारथि और घोड़ों के सहित इस जीव को मृत्युसे अत्यन्त भयावने घोर अन्धकारमय संसारके कुएँमें गिरा देंगे ॥ ४६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५) प्रकृति-पुरुषके विवेक से मोक्ष-प्राप्ति का वर्णन...