शनिवार, 24 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०२)

ग्राहके द्वारा गजेन्द्रका पकड़ा जाना

तस्य द्रोण्यां भगवतो वरुणस्य महात्मनः ।
उद्यानं ऋतुमन्नाम आक्रीडं सुरयोषिताम् ॥ ९ ॥
सर्वतोऽलंकृतं दिव्यैः नित्यपुष्पफलद्रुमैः ।
मन्दारैः पारिजातैश्च पाटलाशोकचम्पकैः ॥ १० ॥
चूतैः पियालैः पनसैः आम्रैः आम्रातकैरपि ।
क्रमुकैर्नारिकेलैश्च खर्जूरैः बीजपूरकैः ॥ ११ ॥
मधुकैः शालतालैश्च तमालै रसनार्जुनैः ।
अरिष्टोडुम्बरप्लक्षैः वटैः किंशुकचन्दनैः ॥ १२ ॥
पिचुमर्दैः कोविदारैः सरलैः सुरदारुभिः ।
द्राक्षेक्षु रम्भाजम्बुभिः बदर्यक्षाभयामलैः ॥ १३ ॥
बिल्वैः कपित्थैर्जम्बीरैः वृतो भल्लातकादिभिः ।
तस्मिन्सरः सुविपुलं लसत्काञ्चनपंकजम् ॥ १४ ॥
कुमुदोत्पलकह्लार शतपत्रश्रियोर्जितम् ।
मत्तषट्पदनिर्घुष्टं शकुन्तैश्च कलस्वनैः ॥ १५ ॥
हंसकारण्डवाकीर्णं चक्राह्वैः सारसैरपि ।
जलकुक्कुटकोयष्टि दात्यूहकुलकूजितम् ॥ १६ ॥
मत्स्यकच्छपसञ्चार चलत्पद्मरजःपयः ।
कदम्बवेतसनल नीपवञ्जुलकैर्वृतम् ॥ १७ ॥
कुन्दैः कुरुबकाशोकैः शिरीषैः कूटजेङ्‌गुदैः ।
कुब्जकैः स्वर्णयूथीभिः नागपुन्नाग जातिभिः ॥ १८ ॥
मल्लिकाशतपत्रैश्च माधवीजालकादिभिः ।
शोभितं तीरजैश्चान्यैः नित्यर्तुभिरलं द्रुमैः ॥ १९ ॥

पर्वतराज त्रिकूट की तराई में भगवत्प्रेमी महात्मा भगवान्‌ वरुण का एक उद्यान था। उसका नाम था ऋतुमान्। उसमें देवाङ्गनाएँ क्रीडा करती रहती थीं ॥ ९ ॥ उसमें सब ओर ऐसे दिव्य वृक्ष शोभायमान थे, जो फलों और फूलोंसे सर्वदा लदे ही रहते थे। उस उद्यानमें मन्दार, पारिजात, गुलाब, अशोक, चम्पा, तरह-तरहके आम, पयाल, कटहल, आमड़ा, सुपारी, नारियल, खजूर, बिजौरा, महुआ, साखू, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, रीठा, गूलर, पाकर, बरगद, पलास, चन्दन, नीम, कचनार, साल, देवदारु, दाख, ईख, केला, जामुन, बेर, रुद्राक्ष, हर्रे, आँवला, बेल, कैथ, नीबू और भिलावे आदिके वृक्ष लहराते रहते थे। उस उद्यानमें एक बड़ा भारी सरोवर था। उसमें सुनहले कमल खिल रहे थे ॥ १०१४ ॥ और भी विविध जातिके कुमुद, उत्पल, कह्लार, शतदल आदि कमलोंकी अनूठी छटा छिटक रही थी। मतवाले भौं.रे गूँज रहे थे। मनोहर पक्षी कलरव कर रहे थे। हंस, कारण्डव, चक्रवाक और सारस दल-के-दल भरे हुए थे। पनडुब्बी, बतख और पपीहे कूज रहे थे। मछली और कछुओंके चलनेसे कमलके फूल हिल जाते थे, जिससे उनका पराग झडक़र जलको सुन्दर और सुगन्धित बना देता था। कदम्ब, बेंत, नरकुल, कदम्बलता, बेन आदि वृक्षोंसे वह घिरा था ॥ १५१७ ॥ कुन्द, कुरबक (कटसरैया), अशोक, सिरस, वनमल्लिका, लिसौडा, हरसिंगार, सोनजूही, नाग, पुन्नाग, जाती, मल्लिका, शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्पवृक्ष एवं तटके दूसरे वृक्षोंसे भीजो प्रत्येक ऋतुमें हरे-भरे रहते थेवह सरोवर शोभायमान रहता था ॥ १८-१९ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०१)

ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना

श्रीशुक उवाच -

आसीद् गिरिवरो राजन् त्रिकूट इति विश्रुतः ।
क्षीरोदेनावृतः श्रीमान् योजनायुतमुच्छ्रितः ॥ १ ॥
तावता विस्तृतः पर्यक्त्रिभिः श्रृङ्‌गैः पयोनिधिम् ।
दिशः खं रोचयन्नास्ते रौप्यायसहिरण्मयैः ॥ २ ॥
अन्यैश्च ककुभः सर्वा रत्‍नधातुविचित्रितैः ।
नानाद्रुमलतागुल्मैः निर्घोषैः निर्झराम्भसाम् ॥ ३ ॥
स चावनिज्यमानाङ्‌घ्रिः समन्तात् पयऊर्मिभिः ।
करोति श्यामलां भूमिं हरिन् मरकताश्मभिः ॥ ४ ॥
सिद्धचारणगन्धर्व विद्याधरमहोरगैः ।
किन्नरैः अप्सरोभिश्च क्रीडद्‌भिः जुष्टकन्दरः ॥ ५ ॥
यत्र सङ्‌गीतसन्नादैः नदद्‍गुहममर्षया ।
अभिगर्जन्ति हरयः श्लाघिनः परशंकया ॥ ६ ॥
नानारण्यपशुव्रात संकुलद्रोण्यलंकृतः ।
चित्रद्रुमसुरोद्यान कलकण्ठविहंगमः ॥ ७ ॥
सरित्सरोभिरच्छोदैः पुलिनैः मणिवालुकैः ।
देवस्त्रीमज्जनामोद सौरभाम्ब्वनिलैर्युतः ॥ ८ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! क्षीरसागर में त्रिकूट नामका एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था। वह दस हजार योजन ऊँचा था ॥ १ ॥ उसकी लंबाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी। उसके चाँदी, लोहे और सोने के तीन शिखरोंकी छटासे समुद्र, दिशाएँ और आकाश जगमगाते रहते थे ॥ २ ॥ और भी उसके कितने ही शिखर ऐसे थे, जो रत्नों और धातुओंकी रंग-बिरंगी छटा दिखाते हुए सब दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनमें विविध जाति के वृक्ष, लताएँ और झाडिय़ाँ थीं। झरनोंकी झर-झरसे वह गुंजायमान होता रहता था ॥ ३ ॥ सब ओरसे समुद्रकी लहरें आ-आकर उस पर्वतके निचले भागसे टकरातीं, उस समय ऐसा जान पड़ता मानो वे पर्वतराजके पाँव पखार रही हों। उस पर्वतके हरे पन्नेके पत्थरोंसे वहाँकी भूमि ऐसी साँवली हो गयी थी, जैसे उसपर हरी-भरी दूब लग रही हो ॥ ४ ॥ उसकी कन्दराओंमें सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करनेके लिये प्राय: बने ही रहते थे ॥ ५ ॥ जब उसके संगीतकी ध्वनि चट्टानोंसे टकराकर गुफाओंमें प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े गर्वीले सिंह उसे दूसरे सिंहकी ध्वनि समझकर सह न पाते और अपनी गर्जनासे उसे दबा देनेके लिये और जोरसे गरजने लगते थे ॥ ६ ॥ उस पर्वत की तलहटी तरह-तरहके जंगली जानवरोंके झुंडोंसे सुशोभित रहती थी। अनेकों प्रकारके वृक्षोंसे भरे हुए देवताओंके उद्यानमें सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर कण्ठसे चहकते रहते थे ॥ ७ ॥ उसपर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे। उनका जल बड़ा निर्मल था। उनके पुलिनपर मणियोंकी बालू चमकती रहती थी। उनमें देवाङ्गनाएँ स्नान करती थीं, जिससे उनका जल अत्यन्त सुगन्धित हो जाता था। उसकी सुरभि लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती थी ॥ ८ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शुक्रवार, 23 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०६)

मन्वन्तरोंका वर्णन

श्रीराजोवाच

बादरायण एतत्ते श्रोतुमिच्छामहे वयम्
हरिर्यथा गजपतिं ग्राहग्रस्तममूमुचत् ||३१||
तत्कथासु महत्पुण्यं धन्यं स्वस्त्ययनं शुभम्
यत्र यत्रोत्तमश्लोको भगवान्गीयते हरिः ||३२||

श्रीसूत उवाच

परीक्षितैवं स तु बादरायणिः
प्रायोपविष्टेन कथासु चोदितः|
उवाच विप्राः प्रतिनन्द्य पार्थिवं
मुदा मुनीनां सदसि स्म शृण्वताम् ||३३||

राजा परीक्षित्‌ ने पूछामुनिवर ! हम आपसे यह सुनना चाहते हैं कि भगवान्‌ ने गजेन्द्र को ग्राह के फंदे से कैसे छुड़ाया था ॥ ३१ ॥ सब कथाओं में वही कथा परम पुण्यमय, प्रशंसनीय, मङ्गलकारी और शुभ है, जिसमें महात्माओं के द्वारा गान किये हुए भगवान्‌ श्रीहरि के पवित्र यशका वर्णन रहता है ॥ ३२ ॥
सूतजी कहते हैंशौनकादि ऋषियो ! राजा परीक्षित्‌ आमरण अनशन करके कथा सुनने के लिये ही बैठे हुए थे। उन्होंने जब श्रीशुकदेव जी महाराज को इस प्रकार कथा कहने के लिये प्रेरित किया, तब वे बड़े आनन्दित हुए और प्रेम से परीक्षित्‌ का अभिनन्दन करके मुनियों की भरी सभा में कहने लगे ॥ ३३ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
मन्वन्तरानुचरिते प्रथमोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

मन्वन्तरोंका वर्णन

तृतीय उत्तमो नाम प्रियव्रतसुतो मनुः
पवनः सृञ्जयो यज्ञ होत्राद्यास्तत्सुता नृप ||२३||
वसिष्ठतनयाः सप्त ऋषयः प्रमदादयः
सत्या वेदश्रुता भद्रा देवा इन्द्रस्तु सत्यजित् ||२४||
धर्मस्य सूनृतायां तु भगवान्पुरुषोत्तमः
सत्यसेन इति ख्यातो जातः सत्यव्रतैः सह ||२५||
सोऽनृतव्रतदुःशीलानसतो यक्षराक्षसान्
भूतद्रुहो भूतगणांश्चावधीत्सत्यजित्सखः ||२६||
चतुर्थ उत्तमभ्राता मनुर्नाम्ना च तामसः
पृथुः ख्यातिर्नरः केतुरित्याद्या दश तत्सुताः ||२७||
सत्यका हरयो वीरा देवास्त्रिशिख ईश्वरः
ज्योतिर्धामादयः सप्त ऋषयस्तामसेऽन्तरे ||२८||
देवा वैधृतयो नाम विधृतेस्तनया नृप
नष्टाः कालेन यैर्वेदा विधृताः स्वेन तेजसा ||२९||
तत्रापि जज्ञे भगवान्हरिण्यां हरिमेधसः
हरिरित्याहृतो येन गजेन्द्रो मोचितो ग्रहात् ||३०||

तीसरे मनु थे उत्तम। वे प्रियव्रतके पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थेपवन, सृञ्जय, यज्ञहोत्र आदि ॥ २३ ॥ उस मन्वन्तरमें वसिष्ठजीके प्रमद आदि सात पुत्र सप्तर्षि थे। सत्य, वेदश्रुत और भद्र नामक देवताओंके प्रधान गण थे और इन्द्रका नाम था सत्यजित् ॥ २४ ॥ उस समय धर्मकी पत्नी सूनृताके गर्भसे पुरुषोत्तम भगवान्‌ने सत्यसेनके नामसे अवतार ग्रहण किया था। उनके साथ सत्यव्रत नामके देवगण भी थे ॥ २५ ॥ उस समयके इन्द्र सत्यजित्के सखा बनकर भगवान्‌ने असत्यपरायण, दु:शील और दुष्ट यक्षों, राक्षसों एवं जीवद्रोही भूतगणोंका संहार किया ॥ २६ ॥
चौथे मनुका नाम था तामस। वे तीसरे मनु उत्तमके सगे भाई थे। उनके पृथु, ख्याति, नर, केतु इत्यादि दस पुत्र थे ॥ २७ ॥ सत्यक, हरि और वीर नामक देवताओंके प्रधान गण थे। इन्द्रका नाम था त्रिशिख। उस मन्वन्तरमें ज्योतिर्धाम आदि सप्तर्षि थे ॥ २८ ॥ परीक्षित्‌ ! उस तामस नामके मन्वन्तरमें विधृतिके पुत्र वैधृति नामके और भी देवता हुए। उन्होंने समयके फेरसे नष्टप्राय वेदोंको अपनी शक्तिसे बचाया था, इसीलिये ये वैधृतिकहलाये ॥ २९ ॥ इस मन्वन्तरमें हरिमेधा ऋषिकी पत्नी हरिणीके गर्भसे हरिके रूपमें भगवान्‌ने अवतार ग्रहण किया। इसी अवतारमें उन्होंने ग्राहसे गजेन्द्रकी रक्षा की थी ॥ ३० ॥

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गुरुवार, 22 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

मन्वन्तरोंका वर्णन

श्रीशुक उवाच

इति मन्त्रोपनिषदं व्याहरन्तं समाहितम्
दृष्ट्वासुरा यातुधाना जग्धुमभ्यद्रवन्क्षुधा ||१७||
तांस्तथावसितान्वीक्ष्य यज्ञः सर्वगतो हरिः
यामैः परिवृतो देवैर्हत्वाशासत्त्रिविष्टपम् ||१८||
स्वारोचिषो द्वितीयस्तु मनुरग्नेः सुतोऽभवत्
द्युमत्सुषेणरोचिष्मत्प्रमुखास्तस्य चात्मजाः ||१९||
तत्रेन्द्रो रोचनस्त्वासीद्देवाश्च तुषितादयः
ऊर्जस्तम्भादयः सप्त ऋषयो ब्रह्मवादिनः ||२०||
ऋषेस्तु वेदशिरसस्तुषिता नाम पत्न्यभूत्
तस्यां जज्ञे ततो देवो विभुरित्यभिविश्रुतः ||२१||
अष्टाशीतिसहस्राणि मुनयो ये धृतव्रताः
अन्वशिक्षन्व्रतं तस्य कौमारब्रह्मचारिणः ||२२||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक बार स्वायम्भुव मनु एकाग्रचित्त से इस मन्त्रमय उपनिषत्स्वरूप श्रुति का पाठ कर रहे थे। उन्हें नींदमें अचेत होकर बड़बड़ाते जान भूखे असुर और राक्षस खा डालने के लिये उनपर टूट पड़े ॥ १७ ॥ यह देखकर अन्तर्यामी भगवान्‌ यज्ञपुरुष अपने पुत्र याम नामक देवताओंके साथ वहाँ आये। उन्होंने उन खा डालनेके निश्चयसे आये हुए असुरोंका संहार कर डाला और फिर वे इन्द्रके पदपर प्रतिष्ठित होकर स्वर्गका शासन करने लगे ॥ १८ ॥
परीक्षित्‌ ! दूसरे मनु हुए स्वारोचिष। वे अग्नि के पुत्र थे। उनके पुत्रोंके नाम थेद्युमान्, सुषेण और रोचिष्मान् आदि ॥ १९ ॥ उस मन्वन्तरमें इन्द्रका नाम था रोचन, प्रधान देवगण थे तुषित आदि। ऊर्जस्तम्भ आदि वेदवादीगण सप्तर्षि थे ॥ २० ॥ उस मन्वन्तरमें वेदशिरा नामके ऋषिकी पत्नी तुषिता थीं। उनके गर्भसे भगवान्‌ने अवतार ग्रहण किया और विभु नामसे प्रसिद्ध हुए ॥ २१ ॥ वे आजीवन नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहे। उन्हींके आचरणसे शिक्षा ग्रहण करके अठासी हजार व्रतनिष्ठ ऋषियोंने भी ब्रह्मचर्यव्रतका पालन किया ॥ २२ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से






श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

मन्वन्तरोंका वर्णन

यं पश्यति न पश्यन्तं चक्षुर्यस्य न रिष्यति
तं भूतनिलयं देवं सुपर्णमुपधावत ||११||
न यस्याद्यन्तौ मध्यं च स्वः परो नान्तरं बहिः
विश्वस्यामूनि यद्यस्माद्विश्वं च तदृतं महत् ||१२||
स विश्वकायः पुरुहूतईशः 
सत्यः स्वयंज्योतिरजः पुराणः
धत्तेऽस्य जन्माद्यजयात्मशक्त्या 
तां विद्ययोदस्य निरीह आस्ते ||१३||
अथाग्रे ऋषयः कर्माणीहन्तेऽकर्महेतवे
ईहमानो हि पुरुषः प्रायोऽनीहां प्रपद्यते ||१४||
ईहते भगवानीशो न हि तत्र विसज्जते
आत्मलाभेन पूर्णार्थो नावसीदन्ति येऽनु तम् ||१५||
तमीहमानं निरहङ्कृतं बुधं 
निराशिषं पूर्णमनन्यचोदितम्
नॄन्शिक्षयन्तं निजवर्त्मसंस्थितं 
प्रभुं प्रपद्येऽखिलधर्मभावनम् ||१६||

भगवान्‌ सब के साक्षी हैं। उन्हें बुद्धि-वृत्तियाँ या नेत्र आदि इन्द्रियाँ नहीं देख सकतीं। परंतु उनकी ज्ञान-शक्ति अखण्ड है। समस्त प्राणियों के हृदय में रहनेवाले उन्हीं स्वयंप्रकाश असङ्ग परमात्मा की शरण ग्रहण करो ॥ ११ ॥ जिनका न आदि है न अन्त, फिर मध्य तो होगा ही कहाँ से ? जिनका न कोई अपना है और न पराया, और न बाहर है न भीतर, वे विश्वके आदि, अन्त, मध्य, अपने-पराये, बाहर और भीतरसब कुछ हैं। उन्हींकी सत्तासे विश्वकी सत्ता है। वही अनन्त वास्तविक सत्य परब्रह्म हैं ॥ १२ ॥ वही परमात्मा विश्वरूप हैं। उनके अनन्त नाम हैं। वे सर्वशक्तिमान् सत्य, स्वयंप्रकाश, अजन्मा और पुराणपुरुष हैं। वे अपनी मायाशक्तिके द्वारा ही विश्वसृष्टिके जन्म आदिको स्वीकार कर लेते हैं और अपनी विद्याशक्तिके द्वारा उसका त्याग करके निष्क्रिय, सत्स्वरूपमात्र रहते हैं ॥ १३ ॥ इसीसे ऋषि-मुनि नैष्कम्र्यस्थिति अर्थात् ब्रह्मसे एकत्व प्राप्त करनेके लिये पहले कर्मयोगका अनुष्ठान करते हैं। प्राय: कर्म करनेवाला पुरुष ही अन्तमें निष्क्रिय होकर कर्मोंसे छुट्टी पा लेता है ॥ १४ ॥ यों तो सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ भी कर्म करते हैं, परंतु वे आत्मलाभ से पूर्णकाम होनेके कारण उन कर्मोंमें आसक्त नहीं होते। अत: उन्हींका अनुसरण करके अनासक्त रहकर कर्म करनेवाले भी कर्मबन्धनसे मुक्त ही रहते हैं ॥१५॥
भगवान्‌ ज्ञानस्वरूप हैं, इसलिये उनमें अहंकारका लेश भी नहीं है। वे सर्वत: परिपूर्ण हैं, इसलिये उन्हें किसी वस्तुकी कामना नहीं है। वे बिना किसीकी प्रेरणाके स्वच्छन्दरूपसे ही कर्म करते हैं। वे अपनी ही बनायी हुई मर्यादामें स्थित रहकर अपने कर्मोंके द्वारा मनुष्योंको शिक्षा देते हैं। वे ही समस्त धर्मोंके प्रवर्तक और उनके जीवनदाता हैं। मैं उन्हीं प्रभुकी शरणमें हूँ ॥ १६ ॥

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बुधवार, 21 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पहला अध्याय..(पोस्ट०२)

मन्वन्तरोंका वर्णन

श्रीमनुरुवाच

येन चेतयते विश्वं विश्वं चेतयते न यम्
यो जागर्ति शयानेऽस्मिन्नायं तं वेद वेद सः ||||
आत्मावास्यमिदं विश्वं यत्किञ्चिज्जगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ||१०||

मनु जी कहा करते थेजिनकी चेतना के स्पर्शमात्र से यह विश्व चेतन हो जाता है, किन्तु यह विश्व जिन्हें चेतना का दान नहीं कर सकता; जो इसके सो जानेपर प्रलयमें भी जागते रहते हैं, जिनको यह नहीं जान सकता, परंतु जो इसे जानते हैंवही परमात्मा हैं ॥ ९ ॥ यह सम्पूर्ण विश्व और इस विश्वमें रहनेवाले समस्त चर-अचर प्राणीसब उन परमात्मासे ही ओतप्रोत हैं। इसलिये संसारके किसी भी पदार्थमें मोह न करके उसका त्याग करते हुए ही जीवन-निर्वाहमात्रके लिये उपभोग करना चाहिये। तृष्णाका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। भला, ये संसारकी सम्पत्तियाँ किसकी हैं ? ॥ १० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति अहो ...