सोमवार, 2 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

गजेन्भगवत्स्पर्शाद्विमुक्तोऽज्ञानबन्धनात्
प्राप्तो भगवतो रूपं पीतवासाश्चतुर्भुजः ||||
स वै पूर्वमभूद्रा जा पाण्ड्यो द्रविडसत्तमः
इन्द्र द्युम्न इति ख्यातो विष्णुव्रतपरायणः ||||
स एकदाssराधनकाल आत्मवान्-
न्गृहीतमौनव्रत ईश्वरं हरिम् ऑ
जटाधरस्तापस आप्लुतोऽच्युतं |
समर्चयामास कुलाचलाश्रमः ||||
यदृच्छया तत्र महायशा मुनिः
समागमच्छिष्यगणैः परिश्रितः|
तं वीक्ष्य तूष्णीमकृतार्हणादिकं
रहस्युपासीनमृषिश्चुकोप ह ||||
तस्मा इमं शापमदादसाधु-
रयं दुरात्माकृतबुद्धिरद्य |
विप्रावमन्ता विशतां तमिस्रं
यथा गजः स्तब्धमतिः स एव ||१०||

गजेन्द्र भी भगवान्‌का स्पर्श प्राप्त होते ही अज्ञानके बन्धनसे मुक्त हो गया। उसे भगवान्‌का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया ॥ ६ ॥ गजेन्द्र पूर्वजन्ममें द्रविड देशका पाण्ड्यवंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्र। वह भगवान्‌का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था ॥ ७ ॥ एक बार राजा इन्द्रद्युम्र राजपाट छोडक़र मलयपर्वतपर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वीका वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नानके बाद पूजाके समय मनको एकाग्र करके एवं मौनव्रती होकर वे सर्वशक्तिमान् भगवान्‌की आराधना कर रहे थे ॥ ८ ॥ उसी समय दैवयोगसे परम यशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथिसेवा आदि धर्मका परित्याग करके तपस्वियोंकी तरह एकान्तमें चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्रपर क्रुद्ध हो गये ॥ ९ ॥ उन्होंने राजाको यह शाप दिया—‘इस राजाने गुरुजनोंसे शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकारसे निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाला यह हाथीके समान जडबुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथीकी योनि प्राप्त हो॥ १० ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

श्रीशुक उवाच
तदा देवर्षिगन्धर्वा ब्रह्मेशानपुरोगमाः
मुमुचुः कुसुमासारं शंसन्तः कर्म तद्धरेः ||||
नेदुर्दुन्दुभयो दिव्या गन्धर्वा ननृतुर्जगुः
ऋषयश्चारणाः सिद्धास्तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ||||
योऽसौ ग्राहः स वै सद्यः परमाश्चर्यरूपधृक्
मुक्तो देवलशापेन हूहूर्गन्धर्वसत्तमः ||||
प्रणम्य शिरसाधीशमुत्तमश्लोकमव्ययम्
अगायत यशोधाम कीर्तन्यगुणसत्कथम् ||||
सोऽनुकम्पित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम्
लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्तकिल्बिषः ||||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उस समय ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान्‌के इस कर्मकी प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ १ ॥ स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व नाचने-गाने लगे; ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी स्तुति करने लगे ॥ २ ॥ इधर वह ग्राह तुरंत ही परम आश्चर्यमय दिव्य शरीरसे सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले हूहूनामका एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवलके शापसे उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान्‌की कृपासे वह मुक्त हो गया ॥ ३ ॥ उसने सर्वेश्वर भगवान्‌के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान्‌के सुयशका गान करने लगा। वास्तवमें अविनाशी भगवान्‌ ही सर्वश्रेष्ठ कीर्तिसे सम्पन्न हैं। उन्हींके गुण और मनोहर लीलाएँ गान करने-योग्य हैं ॥ ४ ॥ भगवान्‌के कृपापूर्ण स्पर्शसे उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान्‌की परिक्रमा करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया और सबके देखते-देखते अपने लोककी यात्रा की ॥ ५ ॥

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रविवार, 1 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१३)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१३)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

सोऽन्तःसरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम् |
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्
नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ||३२||
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार |
ग्राहाद्विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
संपश्यतां हरिरमूमुचदुच्छ्रियाणाम् ||३३||

सरोवरके भीतर बलवान् ग्राह ने गजेन्द्रको पकड़ रखा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। जब उसने देखा कि आकाशमें गरुड़पर सवार होकर हाथमें चक्र लिये भगवान्‌ श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सूँड़ में कमल का एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊपरको उठाया और बड़े कष्ट से बोला—‘नारायण ! जगद्गुरो ! भगवन् ! आपको नमस्कार है॥ ३२ ॥ जब भगवान्‌ ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीडि़त हो रहा है, तब वे एकबारगी गरुड क़ो छोडक़र कूद पड़े और कृपा कर के गजेन्द्र के साथ ही ग्राह को भी बड़ी शीघ्रता से सरोवर से बाहर निकाल लाये। फिर सब देवताओं के सामने ही भगवान्‌ श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुँह फाड़ डाला और गजेन्द्र को छुड़ा लिया ॥ ३३ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
गजेन्द्र मोक्षणे तृतीयोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

श्रीशुक उवाच

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमानाः|
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात्
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ||३०||
तं तद्वदार्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः|
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्
चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्र: ||३१||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गजेन्द्र ने बिना किसी भेदभाव के निर्विशेषरूप से भगवान्‌ की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूपको अपना स्वरूप माननेवाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करनेके लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होनेके कारण सर्वदेवस्वरूप स्वयं भगवान्‌ श्रीहरि प्रकट हो गये ॥ ३० ॥ विश्वके एकमात्र आधार भगवान्‌ ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीडि़त हो रहा है। अत: उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़पर सवार हो चक्रधारी भगवान्‌ बड़ी शीघ्रतासे वहाँके लिये चल पड़े, जहाँ गजेन्द्र अत्यन्त संकटमें पड़ा हुआ था। उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये ॥ ३१ ॥

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शनिवार, 31 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट११)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट११)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ||२७||
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय |
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रि याणामनवाप्यवर्त्मने ||२८||
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम् ||२९||

योगीलोग योगके द्वारा कर्म, कर्म-वासना और कर्मफलको भस्म करके अपने योगशुद्ध हृदयमें जिन योगेश्वर भगवान्‌का साक्षात्कार करते हैंउन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २७ ॥ प्रभो ! आपकी तीन शक्तियोंसत्त्व, रज और तमके रागादि वेग असह्य हैं। समस्त इन्द्रियों और मनके विषयोंके रूपमें भी आप ही प्रतीत हो रहे हैं। इसलिये जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, वे तो आपकी प्राप्तिका मार्ग भी नहीं पा सकते। आपकी शक्ति अनन्त है। आप शरणागतवत्सल हैं। आपको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २८ ॥ आपकी माया अहंबुद्धिसे आत्माका स्वरूप ढक गया है, इसीसे यह जीव अपने स्वरूपको नहीं जान पाता। आपकी महिमा अपार है। उन सर्वशक्तिमान् एवं माधुर्यनिधि भगवान्‌की मैं शरणमें हूँ ॥ २९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१०)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१०)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

जिजीविषे नाहमिहामुया कि-
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या |
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्  ||२५||
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम्
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ||२६||

मैं जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योनि बाहर और भीतरसब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है ? मैं तो आत्मप्रकाश को ढकनेवाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना चाहता हूँ, जो कालक्रम से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता है ॥ २५ ॥ इसलिये मैं उन परब्रह्म परमात्मा की शरण में हूँ जो विश्वरहित होनेपर भी विश्वके रचयिता और विश्वस्वरूप हैंसाथ ही जो विश्व की अन्तरात्मा के रूप में विश्वरूप सामग्री से क्रीड़ा भी करते रहते हैं, उन अजन्मा परमपद-स्वरूप ब्रह्म को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ २६ ॥

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शुक्रवार, 30 अगस्त 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०९)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०९)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ||२२||
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत्स्वरोचिषः|
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ||२३||
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ्
न स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तुः|
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन्नि-
षेधशेषो जयतादशेषः ||२४||

जिनकी अत्यन्त छोटी कला से अनेकों नाम-रूपके भेद-भावसे युक्त ब्रह्मा आदि देवता, वेद और चराचर लोकोंकी सृष्टि हुई है, जैसे धधकती हुई आगसे लपटें और प्रकाशमान सूर्यसे उनकी किरणें बार-बार निकलती और लीन होती रहती हैं, वैसे ही जिन स्वयंप्रकाश परमात्मासे बुद्धि, मन, इन्द्रिय और शरीरजो गुणोंके प्रवाहरूप हैंबार-बार प्रकट होते तथा लीन हो जाते हैं, वे भगवान्‌ न देवता हैं और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हैं। न वे स्त्री हैं, न पुरुष और न नपुंसक। वे कोई साधारण या असाधारण प्राणी भी नहीं हैं। न वे गुण हैं और न कर्म, न कार्य हैं और न तो कारण ही। सबका निषेध हो जानेपर जो कुछ बच रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हैं। वे ही परमात्मा मेरे उद्धारके लिये प्रकट हों ॥ २२२४ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट०८)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति |
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ||१९||
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं
वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः |
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं
गायन्त आनन्दसमुद्र मग्नाः ||२०||
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ||२१||

धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी कामनासे मनुष्य उन्हींका भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु प्राप्त कर लेते हैं। इतना ही नहीं, वे उनको सभी प्रकारका सुख देते हैं और अपने ही जैसा अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं। वे ही परम दयालु प्रभु मेरा उद्धार करें ॥ १९ ॥ जिनके अनन्य प्रेमी भक्तजन उन्हींकी शरणमें रहते हुए उनसे किसी भी वस्तुकीयहाँतक कि मोक्षकी भी अभिलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम दिव्य मङ्गलमयी लीलाओंका गान करते हुए आनन्दके समुद्रमें निमग्र रहते हैं ॥ २० ॥ जो अविनाशी, सर्वशक्तिमान्, अव्यक्त, इन्द्रियातीत और अत्यन्त सूक्ष्म हैं; जो अत्यन्त निकट रहनेपर भी बहुत दूर जान पड़ते हैं; जो आध्यात्मिक योग अर्थात् ज्ञानयोग या भक्तियोगके द्वारा प्राप्त होते हैंउन्हीं आदिपुरुष, अनन्त एवं परिपूर्ण परब्रह्म परमात्माकी मैं स्तुति करता हूँ ॥ २१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - बत्तीसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०) धूममार्ग और अर्चिरादि मार्गसे जानेवालोंकी गतिका  ...