बुधवार, 4 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)





॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

श्रीशुक उवाच -
राजन् उदितमेतत्ते हरेः कर्माघनाशनम् ।
गजेन्द्रमोक्षणं पुण्यं रैवतं त्वन्तरं श्रृणु ॥ १ ॥
पञ्चमो रैवतो नाम मनुस्तामससोदरः ।
बलिविन्ध्यादयस्तस्य सुता हार्जुनपूर्वकाः ॥ २ ॥
विभुरिन्द्रः सुरगणा राजन्भूतरयादयः ।
हिरण्यरोमा वेदशिरा ऊर्ध्वबाह्वादयो द्विजाः ॥ ३ ॥
पत्‍नी विकुण्ठा शुभ्रस्य वैकुण्ठैः सुरसत्तमैः ।
तयोः स्वकलया जज्ञे वैकुण्ठो भगवान् स्वयम् ॥ ४ ॥
वैकुण्ठः कल्पितो येन लोको लोकनमस्कृतः ।
रमया प्रार्थ्यमानेन देव्या तत्प्रियकाम्यया ॥ ५ ॥
तस्यानुभावः कथितो गुणाश्च परमोदयाः ।
भौमान् रेणून्स विममे यो विष्णोर्वर्णयेद्‍गुणान् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌की यह गजेन्द्रमोक्षकी पवित्र लीला समस्त पापोंका नाश करनेवाली है। इसे मैंने तुम्हें सुना दिया। अब रैवत मन्वन्तरकी कथा सुनो ॥ १ ॥ पाँचवें मनुका नाम था रैवत। वे चौथे मनु तामस के सगे भाई थे। उनके अर्जुन, बलि, विन्ध्य आदि कई पुत्र थे ॥ २ ॥ उस मन्वन्तर में इन्द्रका नाम था विभु और भूतरय आदि देवताओंके प्रधानगण थे। परीक्षित्‌ ! उस समय हिरण्यरोमा, वेदशिरा, ऊर्ध्वबाहु आदि सप्तर्षि थे ॥ ३ ॥ उनमें शुभ्र ऋषिकी पत्नीका नाम था विकुण्ठा। उन्हींके गर्भसे वैकुण्ठ नामक श्रेष्ठ देवताओंके साथ अपने अंशसे स्वयं भगवान्‌ने वैकुण्ठ नामक अवतार धारण किया ॥ ४ ॥ उन्हींने लक्ष्मीदेवीकी प्रार्थनासे उनको प्रसन्न करनेके लिये वैकुण्ठधामकी रचना की थी। वह लोक समस्त लोकोंमें श्रेष्ठ है ॥ ५ ॥ उन वैकुण्ठनाथके कल्याणमय गुण और प्रभावका वर्णन मैं संक्षेपसे (तीसरे स्कन्धमें) कर चुका हूँ। भगवान्‌ विष्णुके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो वह करे, जिसने पृथ्वीके परमाणुओंकी गिनती कर ली हो ॥ ६ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 3 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

श्रीभगवानुवाच
ये मां त्वां च सरश्चेदं गिरिकन्दरकाननम्
वेत्रकीचकवेणूनां गुल्मानि सुरपादपान् ||१७||
शृङ्गाणीमानि धिष्ण्यानि ब्रह्मणो मे शिवस्य च
क्षीरोदं मे प्रियं धाम श्वेतद्वीपं च भास्वरम् ||१८||
श्रीवत्सं कौस्तुभं मालां गदां कौमोदकीं मम
सुदर्शनं पाञ्चजन्यं सुपर्णं पतगेश्वरम् ||१९||
शेषं च मत्कलां सूक्ष्मां श्रियं देवीं मदाश्रयाम्
ब्रह्माणं नारदमृषिं भवं प्रह्रादमेव च ||२०||
मत्स्यकूर्मवराहाद्यैरवतारैः कृतानि मे
कर्माण्यनन्तपुण्यानि सूर्यं सोमं हुताशनम् ||२१||
प्रणवं सत्यमव्यक्तं गोविप्रान्धर्ममव्ययम्
दाक्षायणीर्धर्मपत्नीः सोमकश्यपयोरपि ||२२||
गङ्गां सरस्वतीं नन्दां कालिन्दीं सितवारणम्
ध्रुवं ब्रह्मऋषीन्सप्त पुण्यश्लोकांश्च मानवान् ||२३||
उत्थायापररात्रान्ते प्रयताः सुसमाहिताः
स्मरन्ति मम रूपाणि मुच्यन्ते ह्येनसोऽखिलात् ||२४||
ये मां स्तुवन्त्यनेनाङ्ग प्रतिबुध्य निशात्यये
तेषां प्राणात्यये चाहं ददामि विपुलां गतिम् ||२५||

श्रीशुक उवाच
इत्यादिश्य हृषीकेशः प्राध्माय जलजोत्तमम्
हर्षयन्विबुधानीकमारुरोह खगाधिपम् ||२६||

श्रीभगवान्‌ने कहाजो लोग रात के पिछले पहर में उठकर इन्द्रियनिग्रहपूर्वक एकाग्र चित्त से मेरा, तेरा तथा इस सरोवर, पर्वत एवं कन्दरा, वन, बेंत, कीचक और बाँसके झुरमुट, यहाँके दिव्य वृक्ष तथा पर्वतशिखर, मेरे, ब्रह्माजी और शिवजीके निवासस्थान, मेरे प्यारे धाम क्षीरसागर, प्रकाशमय श्वेतद्वीप, श्रीवत्स, कौस्तुभमणि, वनमाला, मेरी कौमोदकी गदा, सुदर्शन चक्र, पाञ्चजन्य शङ्ख, पक्षिराज गरुड़, मेरे सूक्ष्म कलास्वरूप शेषजी, मेरे आश्रयमें रहनेवाली लक्ष्मीदेवी, ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, शङ्करजी तथा भक्तराज प्रह्लाद, मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतारोंमें किये हुए मेरे अनन्त पुण्यमय चरित्र, सूर्य, चन्द्रमा, अग्रि, ॐकार, सत्य, मूलप्रकृति, गौ, ब्राह्मण, अविनाशी सनातनधर्म, सोम, कश्यप और धर्मकी पत्नी दक्षकन्याएँ, गङ्गा, सरस्वती, अलकनन्दा, यमुना, ऐरावत हाथी, भक्तशिरोमणि ध्रुव, सात ब्रहमर्षि और पवित्रकीर्ति (नल, युधिष्ठिर, जनक आदि) महापुरुषोंका स्मरण करते हैंवे समस्त पापोंसे छूट जाते हैं; क्योंकि ये सब-के-सब मेरे ही रूप हैं ॥ १७२४ ॥ प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्राह्ममुहूर्तमें जगकर तुम्हारी की हुई स्तुतिसे मेरा स्तवन करेंगे, मृत्युके समय उन्हें मैं निर्मल बुद्धिका दान करूँगा ॥ २५ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णने ऐसा कहकर देवताओंको आनन्दित करते हुए अपना श्रेष्ठ शङ्ख बजाया और गरुड़पर सवार हो गये ॥ २६ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
गजेन्द्र मोक्षणं नाम चतुर्थोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

श्रीशुक उवाच

एवं शप्त्वा गतोऽगस्त्यो भगवान्नृप सानुगः
इन्द्र द्युम्नोऽपि राजर्षिर्दिष्टं तदुपधारयन् ||११||
आपन्नः कौञ्जरीं योनिमात्मस्मृतिविनाशिनीम्
हर्यर्चनानुभावेन यद्गजत्वेऽप्यनुस्मृतिः ||१२||
एवं विमोक्ष्य गजयूथपमब्जनाभस्
तेनापि पार्षदगतिं गमितेन युक्तः
गन्धर्वसिद्धविबुधैरुपगीयमान
कर्माद्भुतं स्वभवनं गरुडासनोऽगात् ||१३||
एतन्महाराज तवेरितो मया
कृष्णानुभावो गजराजमोक्षणम् |
स्वर्ग्यं यशस्यं कलिकल्मषापहं
दुःस्वप्ननाशं कुरुवर्य शृण्वताम् ||१४||
यथानुकीर्तयन्त्येतच्छ्रेयस्कामा द्विजातयः
शुचयः प्रातरुत्थाय दुःस्वप्नाद्युपशान्तये ||१५||
इदमाह हरिः प्रीतो गजेन्द्रं कुरुसत्तम
शृण्वतां सर्वभूतानां सर्वभूतमयो विभुः ||१६||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शाप एवं वरदान देनेमें समर्थ अगस्त्य ऋषि इस प्रकार शाप देकर अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँसे चले गये। राजर्षि इन्द्रद्युम्र ने यह समझकर सन्तोष किया कि यह मेरा प्रारब्ध ही था ॥ ११ ॥ इसके बाद आत्माकी विस्मृति करा देनेवाली हाथीकी योनि उन्हें प्राप्त हुई। परंतु भगवान्‌की आराधनाका ऐसा प्रभाव है कि हाथी होनेपर भी उन्हें भगवान्‌की स्मृति हो ही गयी ॥ १२ ॥ भगवान्‌ श्रीहरिने इस प्रकार गजेन्द्रका उद्धार करके उसे अपना पार्षद बना लिया। गन्धर्व, सिद्ध, देवता उनकी इस लीलाका गान करने लगे और वे पार्षदरूप गजेन्द्रको साथ ले गरुड़पर सवार होकर अपने अलौकिक धामको चले गये ॥ १३ ॥ कुरुवंश-शिरोमणि परीक्षित्‌ ! मैंने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी महिमा तथा गजेन्द्रके उद्धारकी कथा तुम्हें सुना दी। यह प्रसङ्ग सुननेवालोंके कलिमल और दु:स्वप्नको मिटानेवाला एवं यश, उन्नति और स्वर्ग देनेवाला है ॥ १४ ॥ इसीसे कल्याणकामी द्विजगण दु:स्वप्न आदिकी शान्तिके लिये प्रात:काल जगते ही पवित्र होकर इसका पाठ करते हैं ॥ १५ ॥ परीक्षित्‌ ! गजेन्द्रकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर सर्वव्यापक एवं सर्वभूतस्वरूप श्रीहरि भगवान्‌ने सब लोगोंके सामने ही उसे यह बात कही थी ॥ १६ ॥

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सोमवार, 2 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)

गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

गजेन्भगवत्स्पर्शाद्विमुक्तोऽज्ञानबन्धनात्
प्राप्तो भगवतो रूपं पीतवासाश्चतुर्भुजः ||||
स वै पूर्वमभूद्रा जा पाण्ड्यो द्रविडसत्तमः
इन्द्र द्युम्न इति ख्यातो विष्णुव्रतपरायणः ||||
स एकदाssराधनकाल आत्मवान्-
न्गृहीतमौनव्रत ईश्वरं हरिम् ऑ
जटाधरस्तापस आप्लुतोऽच्युतं |
समर्चयामास कुलाचलाश्रमः ||||
यदृच्छया तत्र महायशा मुनिः
समागमच्छिष्यगणैः परिश्रितः|
तं वीक्ष्य तूष्णीमकृतार्हणादिकं
रहस्युपासीनमृषिश्चुकोप ह ||||
तस्मा इमं शापमदादसाधु-
रयं दुरात्माकृतबुद्धिरद्य |
विप्रावमन्ता विशतां तमिस्रं
यथा गजः स्तब्धमतिः स एव ||१०||

गजेन्द्र भी भगवान्‌का स्पर्श प्राप्त होते ही अज्ञानके बन्धनसे मुक्त हो गया। उसे भगवान्‌का ही रूप प्राप्त हो गया। वह पीताम्बरधारी एवं चतुर्भुज बन गया ॥ ६ ॥ गजेन्द्र पूर्वजन्ममें द्रविड देशका पाण्ड्यवंशी राजा था। उसका नाम था इन्द्रद्युम्र। वह भगवान्‌का एक श्रेष्ठ उपासक एवं अत्यन्त यशस्वी था ॥ ७ ॥ एक बार राजा इन्द्रद्युम्र राजपाट छोडक़र मलयपर्वतपर रहने लगे थे। उन्होंने जटाएँ बढ़ा लीं, तपस्वीका वेष धारण कर लिया। एक दिन स्नानके बाद पूजाके समय मनको एकाग्र करके एवं मौनव्रती होकर वे सर्वशक्तिमान् भगवान्‌की आराधना कर रहे थे ॥ ८ ॥ उसी समय दैवयोगसे परम यशस्वी अगस्त्य मुनि अपनी शिष्यमण्डलीके साथ वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने देखा कि यह प्रजापालन और गृहस्थोचित अतिथिसेवा आदि धर्मका परित्याग करके तपस्वियोंकी तरह एकान्तमें चुपचाप बैठकर उपासना कर रहा है, इसलिये वे राजा इन्द्रद्युम्रपर क्रुद्ध हो गये ॥ ९ ॥ उन्होंने राजाको यह शाप दिया—‘इस राजाने गुरुजनोंसे शिक्षा नहीं ग्रहण की है, अभिमानवश परोपकारसे निवृत्त होकर मनमानी कर रहा है। ब्राह्मणोंका अपमान करनेवाला यह हाथीके समान जडबुद्धि है, इसलिये इसे वही घोर अज्ञानमयी हाथीकी योनि प्राप्त हो॥ १० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

गज और ग्राह का पूर्वचरित्र तथा उनका उद्धार

श्रीशुक उवाच
तदा देवर्षिगन्धर्वा ब्रह्मेशानपुरोगमाः
मुमुचुः कुसुमासारं शंसन्तः कर्म तद्धरेः ||||
नेदुर्दुन्दुभयो दिव्या गन्धर्वा ननृतुर्जगुः
ऋषयश्चारणाः सिद्धास्तुष्टुवुः पुरुषोत्तमम् ||||
योऽसौ ग्राहः स वै सद्यः परमाश्चर्यरूपधृक्
मुक्तो देवलशापेन हूहूर्गन्धर्वसत्तमः ||||
प्रणम्य शिरसाधीशमुत्तमश्लोकमव्ययम्
अगायत यशोधाम कीर्तन्यगुणसत्कथम् ||||
सोऽनुकम्पित ईशेन परिक्रम्य प्रणम्य तम्
लोकस्य पश्यतो लोकं स्वमगान्मुक्तकिल्बिषः ||||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! उस समय ब्रह्मा, शङ्कर आदि देवता, ऋषि और गन्धर्व श्रीहरि भगवान्‌के इस कर्मकी प्रशंसा करने लगे तथा उनके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे ॥ १ ॥ स्वर्गमें दुन्दुभियाँ बजने लगीं, गन्धर्व नाचने-गाने लगे; ऋषि, चारण और सिद्धगण भगवान्‌ पुरुषोत्तमकी स्तुति करने लगे ॥ २ ॥ इधर वह ग्राह तुरंत ही परम आश्चर्यमय दिव्य शरीरसे सम्पन्न हो गया। यह ग्राह इसके पहले हूहूनामका एक श्रेष्ठ गन्धर्व था। देवलके शापसे उसे यह गति प्राप्त हुई थी। अब भगवान्‌की कृपासे वह मुक्त हो गया ॥ ३ ॥ उसने सर्वेश्वर भगवान्‌के चरणोंमें सिर रखकर प्रणाम किया, इसके बाद वह भगवान्‌के सुयशका गान करने लगा। वास्तवमें अविनाशी भगवान्‌ ही सर्वश्रेष्ठ कीर्तिसे सम्पन्न हैं। उन्हींके गुण और मनोहर लीलाएँ गान करने-योग्य हैं ॥ ४ ॥ भगवान्‌के कृपापूर्ण स्पर्शसे उसके सारे पाप-ताप नष्ट हो गये। उसने भगवान्‌की परिक्रमा करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया और सबके देखते-देखते अपने लोककी यात्रा की ॥ ५ ॥

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रविवार, 1 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१३)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१३)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

सोऽन्तःसरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम् |
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान्
नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ||३२||
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार |
ग्राहाद्विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
संपश्यतां हरिरमूमुचदुच्छ्रियाणाम् ||३३||

सरोवरके भीतर बलवान् ग्राह ने गजेन्द्रको पकड़ रखा था और वह अत्यन्त व्याकुल हो रहा था। जब उसने देखा कि आकाशमें गरुड़पर सवार होकर हाथमें चक्र लिये भगवान्‌ श्रीहरि आ रहे हैं, तब अपनी सूँड़ में कमल का एक सुन्दर पुष्प लेकर उसने ऊपरको उठाया और बड़े कष्ट से बोला—‘नारायण ! जगद्गुरो ! भगवन् ! आपको नमस्कार है॥ ३२ ॥ जब भगवान्‌ ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीडि़त हो रहा है, तब वे एकबारगी गरुड क़ो छोडक़र कूद पड़े और कृपा कर के गजेन्द्र के साथ ही ग्राह को भी बड़ी शीघ्रता से सरोवर से बाहर निकाल लाये। फिर सब देवताओं के सामने ही भगवान्‌ श्रीहरि ने चक्र से ग्राह का मुँह फाड़ डाला और गजेन्द्र को छुड़ा लिया ॥ ३३ ॥

इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायामष्टमस्कन्धे
गजेन्द्र मोक्षणे तृतीयोऽध्यायः

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)

गजेन्द्र के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति और उसका संकट से मुक्त होना

श्रीशुक उवाच

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमानाः|
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात्
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ||३०||
तं तद्वदार्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः|
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश्
चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्र: ||३१||

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! गजेन्द्र ने बिना किसी भेदभाव के निर्विशेषरूप से भगवान्‌ की स्तुति की थी, इसलिये भिन्न-भिन्न नाम और रूपको अपना स्वरूप माननेवाले ब्रह्मा आदि देवता उसकी रक्षा करनेके लिये नहीं आये। उस समय सर्वात्मा होनेके कारण सर्वदेवस्वरूप स्वयं भगवान्‌ श्रीहरि प्रकट हो गये ॥ ३० ॥ विश्वके एकमात्र आधार भगवान्‌ ने देखा कि गजेन्द्र अत्यन्त पीडि़त हो रहा है। अत: उसकी स्तुति सुनकर वेदमय गरुड़पर सवार हो चक्रधारी भगवान्‌ बड़ी शीघ्रतासे वहाँके लिये चल पड़े, जहाँ गजेन्द्र अत्यन्त संकटमें पड़ा हुआ था। उनके साथ स्तुति करते हुए देवता भी आये ॥ ३१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...