शनिवार, 7 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

पादौ महीयं स्वकृतैव यस्य
     चतुर्विधो यत्र हि भूतसर्गः ।
स वै महापूरुष आत्मतन्त्रः
     प्रसीदतां ब्रह्म महाविभूतिः ॥ ३२ ॥
अम्भस्तु यद्रेत उदारवीर्यं
     सिध्यन्ति जीवन्त्युत वर्धमानाः ।
लोका स्त्रयोऽथाखिललोकपालाः
     प्रसीदतां नः स महाविभूतिः ॥ ३३ ॥

उन्हींकी बनायी हुई यह पृथ्वी उनका चरण है। इसी पृथ्वीपर जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उद्भिज्जये चार प्रकारके प्राणी रहते हैं। वे परम स्वतन्त्र, परम ऐश्वर्यशाली पुरुषोत्तम परब्रह्म हमपर प्रसन्न हों ॥ ३२ ॥ यह परम शक्तिशाली जल उन्हींका वीर्य है। इसीसे तीनों लोक और समस्त लोकोंके लोकपाल उत्पन्न होते, बढ़ते और जीवित रहते हैं। वे परम ऐश्वर्यशाली परब्रह्म हमपर प्रसन्न हों ॥ ३३ ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

न यस्य कश्चातितितर्ति मायां
     यया जनो मुह्यति वेद नार्थम् ।
तं निर्जितात्मात्मगुणं परेशं
     नमाम भूतेषु समं चरन्तम् ॥ ३० ॥
इमे वयं यत्प्रिययैव तन्वा
     सत्त्वेन सृष्टा बहिरन्तराविः ।
गतिं न सूक्ष्मामृषयश्च विद्महे
     कुतोऽसुराद्या इतरप्रधानाः ॥ ३१ ॥

जिस माया से मोहित होकर जीव अपने वास्तविक लक्ष्य अथवा स्वरूपको भूल गया है, वह उन्हीं की है और कोई भी उसका पार नहीं पा सकता। परंतु सर्वशक्तिमान् प्रभु अपनी उस माया तथा उसके गुणोंको अपने वशमें करके समस्त प्राणियोंके हृदयमें समभावसे विचरण करते रहते हैं। जीव अपने पुरुषार्थसे नहीं, उनकी कृपासे ही उन्हें प्राप्त कर सकता है। हम उनके चरणोंमें नमस्कार करते हैं ॥ ३० ॥ यों तो हम देवता एवं ऋषिगण भी उनके परम प्रिय सत्त्वमय शरीरसे ही उत्पन्न हुए हैं, फिर भी उनके बाहर-भीतर एकरस प्रकट वास्तविक स्वरूपको नहीं जानते। तब रजोगुण एवं तमोगुणप्रधान असुर आदि तो उन्हें जान ही कैसे सकते हैं ? उन्हीं प्रभुके चरणोंमें हम नमस्कार करते हैं ॥ ३१ ॥

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शुक्रवार, 6 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

अजस्य चक्रं त्वजयेर्यमाणं
     मनोमयं पञ्चदशारमाशु ।
त्रिनाभि विद्युच्चलमष्टनेमि
     यदक्षमाहुस्तमृतं प्रपद्ये ॥ २८ ॥
य एकवर्णं तमसः परं तद्
     अलोकमव्यक्तमनन्तपारम् ।
आसां चकारोपसुपर्णमेनं
     उपासते योगरथेन धीराः ॥ २९ ॥

यह शरीर जीवका एक मनोमय चक्र (रथका पहिया) है। दस इन्द्रिय और पाँच प्राणये पंद्रह इसके अरे हैं। सत्त्व, रज और तमये तीन गुण इसकी नाभि हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकारये आठ इसमें नेमि (पहियेका घेरा) हैं। स्वयं माया इसका सञ्चालन करती है और यह बिजलीसे भी अधिक शीघ्रगामी है। इस चक्रके धुरे हैं स्वयं परमात्मा। वे ही एकमात्र सत्य हैं। हम उनकी शरणमें हैं ॥ २८ ॥ जो एकमात्र ज्ञानस्वरूप, प्रकृतिसे परे एवं अदृश्य हैं; जो समस्त वस्तुओंके मूलमें स्थित अव्यक्त हैं और देश, काल अथवा वस्तुसे जिनका पार नहीं पाया जा सकतावही प्रभु इस जीवके हृदयमें अन्तर्यामीरूपसे विराजमान रहते हैं। विचारशील मनुष्य भक्तियोगके द्वारा उन्हींकी आराधना करते हैं ॥ २९ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

श्रीब्रह्मोवाच -
अविक्रियं सत्यमनन्तमाद्यं
     गुहाशयं निष्कलमप्रतर्क्यम् ।
मनोऽग्रयानं वचसानिरुक्तं
     नमामहे देववरं वरेण्यम् ॥ २६ ॥
विपश्चितं प्राणमनोधियात्मनां
     अर्थेन्द्रियाभासमनिद्रमव्रणम् ।
छायातपौ यत्र न गृध्रपक्षौ
     तमक्षरं खं त्रियुगं व्रजामहे ॥ २७ ॥

ब्रह्माजी बोलेभगवन् ! आप निर्विकार, सत्य, अनन्त, आदिपुरुष, सबके हृदयमें अन्तर्यामी- रूपसे विराजमान, अखण्ड एवं अतक्र्य हैं। मन जहाँ-जहाँ जाता है, वहाँ-वहाँ आप पहलेसे ही विद्यमान रहते हैं। वाणी आपका निरूपण नहीं कर सकती। आप समस्त देवताओंके आराधनीय और स्वयंप्रकाश हैं। हम सब आपके चरणोंमें नमस्कार करते हैं ॥ २६ ॥ आप प्राण, मन, बुद्धि और अहंकारके ज्ञाता हैं। इन्द्रियाँ और उनके विषय दोनों ही आपके द्वारा प्रकाशित होते हैं। अज्ञान आपका स्पर्श नहीं कर सकता। प्रकृतिके विकार मरने-जीनेवाले शरीरसे भी आप रहित हैं। जीवके दोनों पक्ष अविद्या और विद्या आपमें बिलकुल ही नहीं हैं। आप अविनाशी और सुखस्वरूप हैं। सत्ययुग, त्रेता और द्वापरमें तो आप प्रकटरूपसे ही विराजमान रहते हैं। हम सब आपकी शरण ग्रहण करते हैं ॥ २७ ॥

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गुरुवार, 5 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

समाहितेन मनसा संस्मरन् पुरुषं परम् ।
उवाचोत्फुल्लवदनो देवान्स भगवान्परः ॥ २० ॥
अहं भवो यूयमथोऽसुरादयो
     मनुष्यतिर्यग् द्रुमघर्मजातयः ।
यस्यावतारांशकलाविसर्जिता
     व्रजाम सर्वे शरणं तमव्ययम् ॥ २१ ॥
न यस्य वध्यो न च रक्षणीयो
     नोपेक्षणीयादरणीयपक्षः ।
अथापि सर्गस्थितिसंयमार्थं
     धत्ते रजःसत्त्वतमांसि काले ॥ २२ ॥
अयं च तस्य स्थितिपालनक्षणः
     सत्त्वं जुषाणस्य भवाय देहिनाम् ।
तस्माद् व्रजामः शरणं जगद्‍गुरुं
     स्वानां स नो धास्यति शं सुरप्रियः ॥ २३ ॥

श्रीशुक उवाच -
इत्याभाष्य सुरान्वेधाः सह देवैररिन्दम ।
अजितस्य पदं साक्षात् जगाम तमसः परम् ॥ २४ ॥
तत्रादृष्टस्वरूपाय श्रुतपूर्वाय वै विभो ।
स्तुतिमब्रूत दैवीभिः गीर्भिस्त्ववहितेन्द्रियः ॥ २५ ॥

समर्थ ब्रह्माजीने अपना मन एकाग्र करके परम पुरुष भगवान्‌का स्मरण किया; फिर थोड़ी देर रुककर प्रफुल्लित मुखसे देवताओंको सम्बोधित करते हुए कहा ॥ २० ॥ देवताओ ! मैं, शङ्करजी, तुमलोग तथा असुर, दैत्य, मनुष्य, पशु-पक्षी, वृक्ष और स्वेदज आदि समस्त प्राणी जिनके विराट् रूपके एक अत्यन्त स्वल्पातिस्वल्प अंशसे रचे गये हैंहमलोग उन अविनाशी प्रभुकी ही शरण ग्रहण करें ॥ २१ ॥ यद्यपि उनकी दृष्टिमें न कोई वधका पात्र है और न रक्षाका, उनके लिये न तो कोई उपेक्षणीय है न कोई आदरका पात्र हीफिर भी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके लिये समय-समयपर वे रजोगुण, सत्त्वगुण और तमोगुणको स्वीकार किया करते हैं ॥ २२ ॥ उन्होंने इस समय प्राणियोंके कल्याणके लिये सत्त्वगुणको स्वीकार कर रखा है। इसलिये यह जगत् की स्थिति और रक्षाका अवसर है। अत: हम सब उन्हीं जगद्गुरु परमात्माकी शरण ग्रहण करते हैं। वे देवताओंके प्रिय हैं और देवता उनके प्रिय। इसलिये हम निजजनोंका वे अवश्य ही कल्याण करेंगे ॥ २३ ॥
श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! देवताओंसे यह कहकर ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर भगवान्‌ अजित के निजधाम वैकुण्ठमें गये। वह धाम तमोमयी प्रकृतिसे परे है ॥ २४ ॥ इन लोगोंने भगवान्‌के स्वरूप और धामके सम्बन्धमें पहलेसे ही बहुत कुछ सुन रखा था, परंतु वहाँ जानेपर उन लोगोंको कुछ दिखायी न पड़ा। इसलिये ब्रह्माजी एकाग्र मनसे वेदवाणीके द्वारा भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

श्रीशुक उवाच -

यदा युद्धेऽसुरैर्देवा बध्यमानाः शितायुधैः ।
गतासवो निपतिता नोत्तिष्ठेरन् स्म भूरिशः ॥ १५ ॥
यदा दुर्वाससः शापात् सेन्द्रा लोकास्त्रयो नृप ।
निःश्रीकाश्चाभवंस्तत्र नेशुरिज्यादयः क्रियाः ॥ १६ ॥
निशाम्यैतत् सुरगणा महेन्द्रवरुणादयः ।
नाध्यगच्छन्स्वयं मन्त्रैः मंत्रयन्तो विनिश्चितम् ॥ १७ ॥
ततो ब्रह्मसभां जग्मुः मेरोर्मूर्धनि सर्वशः ।
सर्वं विज्ञापयां चक्रुः प्रणताः परमेष्ठिने ॥ १८ ॥
स विलोक्येन्द्रवाय्वादीन् निःसत्त्वान् गगतप्रभान् ।
लोकान् अमंगलप्रायान् असुरानयथा विभुः ॥ १९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जिस समयकी यह बात है, उस समय असुरोंने अपने तीखे शस्त्रोंसे देवताओंको पराजित कर दिया था। उस युद्धमें बहुतोंके तो प्राणोंपर ही बन आयी, वे रणभूमिमें गिरकर फिर उठ न सके ॥ १५ ॥ दुर्वासाके शाप से [*]  तीनों लोक और स्वयं इन्द्र भी श्रीहीन हो गये थे। यहाँतक कि यज्ञयागादि धर्म-कर्मोंका भी लोप हो गया था ॥ १६ ॥ यह सब दुर्दशा देखकर इन्द्र, वरुण आदि देवताओंने आपसमें बहुत कुछ सोचा-विचारा; परंतु अपने विचारोंसे वे किसी निश्चयपर नहीं पहुँच सके ॥ १७ ॥ तब वे सब-के-सब सुमेरुके शिखरपर स्थित ब्रह्माजीकी सभामें गये और वहाँ उन लोगोंने बड़ी नम्रता से ब्रह्माजी की सेवामें अपनी परिस्थितिका विस्तृत विवरण उपस्थित किया ॥ १८ ॥ ब्रह्माजीने स्वयं देखा कि इन्द्र, वायु आदि देवता श्रीहीन एवं शक्तिहीन हो गये हैं। लोगों की परिस्थिति बड़ी विकट, संकटग्रस्त हो गयी है और असुर इसके विपरीत फल-फूल रहे हैं ॥ १९ ॥
.........................................
[*] यह प्रसङ्ग विष्णुपुराण में इस प्रकार आया है। एक बार श्रीदुर्वासाजी वैकुण्ठलोक से आ रहे थे। मार्गमें ऐरावतपर चढ़े देवराज इन्द्र मिले। उन्हें त्रिलोकाधिपति जानकर दुर्वासाजीने भगवान्‌के प्रसादकी माला दी; किन्तु इन्द्रने ऐश्वर्यके मदसे उसका कुछ भी आदर न कर उसे ऐरावतके मस्तकपर डाल दिया। ऐरावत ने उसे सूँड़ में लेकर पैरों से कुचल डाला। इससे दुर्वासाजीने क्रोधित होकर शाप दिया कि तू तीनों लोकोंसहित शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा।

शेष आगामी पोस्ट में --
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बुधवार, 4 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)




॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

देवताओं का ब्रह्माजी के पास जाना और
ब्रह्माकृत भगवान्‌ की स्तुति

षष्ठश्च चक्षुषः पुत्रः चाक्षुषो नाम वै मनुः ।
पूरु पूरुष सुद्युम्न प्रमुखाश्चाक्षुषात्मजाः ॥ ७ ॥
इन्द्रो मन्त्रद्रुमस्तत्र देवा आप्यादयो गणाः ।
मुनयस्तत्र वै राजन् हविष्मद् वीरकादयः ॥ ८ ॥
तत्रापि देवः सम्भूत्यां वैराजस्याभवत् सुतः ।
अजितो नाम भगवान् अंशेन जगतः पतिः ॥ ९ ॥
पयोधिं येन निर्मथ्य सुराणां साधिता सुधा ।
भ्रममाणोऽम्भसि धृतः कूर्मरूपेण मन्दरः ॥ १० ॥

श्रीराजोवाच -
यथा भगवता ब्रह्मन् मथितः क्षीरसागरः ।
यदर्थं वा यतश्चाद्रिं दधाराम्बुचरात्मना ॥ ११ ॥
यथामृतं सुरैः प्राप्तं किं चान्यद् अभवत् ततः ।
एतद्‍भगवतः कर्म वदस्व परमाद्‍भुतम् ॥ १२ ॥
त्वया संकथ्यमानेन महिम्ना सात्वतां पतेः ।
नातितृप्यति मे चित्तं सुचिरं तापतापितम् ॥ १३ ॥

श्रीसूत उवाच -
सम्पृष्टो भगवानेवं द्वैपायनसुतो द्विजाः ।
अभिनन्द्य हरेर्वीर्यं अभ्याचष्टुं प्रचक्रमे ॥ १४ ॥

छठे मनु चक्षु के पुत्र चाक्षुष थे। उनके पूरु, पूरुष, सुद्युम्न आदि कई पुत्र थे ॥ ७ ॥ इन्द्रका नाम था मन्त्रद्रुम और प्रधान देवगण थे आप्य आदि। उस मन्वन्तरमें हविष्यमान् और वीरक आदि सप्तर्षि थे ॥ ८ ॥ जगत्पति भगवान्‌ने उस समय भी वैराजकी पत्नी सम्भूतिके गर्भसे अजित नामका अंशावतार ग्रहण किया था ॥ ९ ॥ उन्होंने ही समुद्र-मन्थन करके देवताओंको अमृत पिलाया था, तथा वे ही कच्छपरूप धारण करके मन्दराचलकी मथानीके आधार बने थे ॥ १० ॥
राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ने क्षीरसागरका मन्थन कैसे किया ? उन्होंने कच्छपरूप धारण करके किस कारण और किस उद्देश्यसे मन्दराचलको अपनी पीठपर धारण किया ? ॥ ११ ॥ देवताओंको उस समय अमृत कैसे मिला ? और भी कौन-कौन-सी वस्तुएँ समुद्रसे निकलीं ? भगवान्‌की यह लीला बड़ी ही अद्भुत है, आप कृपा करके अवश्य सुनाइये ॥ १२ ॥ आप भक्तवत्सल भगवान्‌ की महिमा का ज्यों-ज्यों वर्णन करते हैं, त्यों-ही-त्यों मेरा हृदय उसको और भी सुननेके लिये उत्सुक होता जा रहा है। अघानेका तो नाम ही नहीं लेता। क्यों न हो, बहुत दिनोंसे यह संसारकी ज्वालाओंसे जलता जो रहा है ॥ १३ ॥
सूतजीने कहाशौनकादि ऋषियो ! भगवान्‌ श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित्‌ के इस प्रश्न का अभिनन्दन करते हुए भगवान्‌ की समुद्र-मन्थन लीला का वर्णन आरम्भ किया ॥ १४ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...