रविवार, 22 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१३)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

श्रीशुक उवाच
तद्वीक्ष्य व्यसनं तासां कृपया भृशपीडितः
सर्वभूतसुहृद्देव इदमाह सतीं प्रियाम् ॥ ३६ ॥

श्रीशिव उवाच
अहो बत भवान्येतत्प्रजानां पश्य वैशसम्
क्षीरोदमथनोद्भूतात्कालकूटादुपस्थितम् ॥ ३७ ॥
आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे
एतावान्हि प्रभोरर्थो यद्दीनपरिपालनम् ॥ ३८ ॥
प्राणैः स्वैः प्राणिनः पान्ति साधवः क्षणभङ्गुरैः
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया ॥ ३९ ॥
पुंसः कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरिः
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं सचराचरः
तस्मादिदं गरं भुञ्जे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे ॥ ४० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! प्रजाका यह संकट देखकर समस्त प्राणियोंके अकारण बन्धु देवाधिदेव भगवान्‌ शङ्कर के हृदय में कृपावश बड़ी व्यथा हुई। उन्होंने अपनी प्रिया सतीसे यह बात कही ॥ ३६ ॥
शिवजीने कहादेवि ! यह बड़े खेदकी बात है। देखो तो सही, समुद्र-मन्थन से निकले हुए कालकूट विषके कारण प्रजापर कितना बड़ा दु:ख आ पड़ा है ॥ ३७ ॥ ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरा यह कर्तव्य है कि मैं इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामथ्र्य है, उनके जीवनकी सफलता इसीमें है कि वे दीन-दु:खियोंकी रक्षा करें ॥ ३८ ॥ सज्जन पुरुष अपने क्षणभङ्गुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियोंके प्राणकी रक्षा करते हैं। कल्याणि ! अपने ही मोहकी मायामें फँसकर संसारके प्राणी मोहित हो रहे हैं और एक- दूसरेसे वैरकी गाँठ बाँधे बैठे हैं ॥ ३९ ॥ उनके ऊपर जो कृपा करता है, उसपर सर्वात्मा भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और जब भगवान्‌ प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं भी प्रसन्न हो जाता हूँ। इसलिये अभी-अभी मैं इस विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी प्रजाका कल्याण हो ॥ ४० ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





शनिवार, 21 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१२)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

ये त्वात्मरामगुरुभिर्हृदि चिन्तिताङ्घ्रि
द्वन्द्वं चरन्तमुमया तपसाभितप्तम्
कत्थन्त उग्रपरुषं निरतं श्मशाने
ते नूनमूतिमविदंस्तव हातलज्जाः ॥ ३३ ॥
तत्तस्य ते सदसतोः परतः परस्य
नाञ्जः स्वरूपगमने प्रभवन्ति भूम्नः
ब्रह्मादयः किमुत संस्तवने वयं तु
तत्सर्गसर्गविषया अपि शक्तिमात्रम् ॥ ३४ ॥
एतत्परं प्रपश्यामो न परं ते महेश्वर
मृडनाय हि लोकस्य व्यक्तिस्तेऽव्यक्तकर्मणः ॥ ३५ ॥

जीवन्मुक्त आत्माराम पुरुष अपने हृदयमें आपके युगल चरणोंका ध्यान करते रहते हैं तथा आप स्वयं भी निरन्तर ज्ञान और तपस्यामें ही लीन रहते हैं। फिर भी सतीके साथ रहते देखकर जो आपको आसक्त एवं श्मशानवासी होनेके कारण उग्र अथवा निष्ठुर बतलाते हैंवे मूर्ख आपकी लीलाओंका रहस्य भला क्या जानें। उनका वैसा कहना निर्लज्जतासे भरा है ॥ ३३ ॥ इस कार्य और कारणरूप जगत् से  परे माया है और माया से भी अत्यन्त परे आप हैं। इसलिये प्रभो ! आपके अनन्त स्वरूपका साक्षात् ज्ञान प्राप्त करनेमें सहसा ब्रह्मा आदि भी समर्थ नहीं होते, फिर स्तुति तो कर ही कैसे सकते हैं। ऐसी अवस्थामें उनके पुत्रोंके पुत्र हमलोग कह ही क्या सकते हैं। फिर भी अपनी शक्तिके अनुसार हमने आपका कुछ गुणगान किया है ॥ ३४ ॥ हमलोग तो केवल आपके इसी लीलाविहारी रूपको देख रहे हैं। आपके परम स्वरूपको हम नहीं जानते। महेश्वर ! यद्यपि आपकी लीलाएँ अव्यक्त हैं, फिर भी संसारका कल्याण करनेके लिये आप व्यक्तरूपसे भी रहते हैं ॥ ३५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट११)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट११)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

न ते गिरित्राखिललोकपाल-
विरिञ्चवैकुण्ठसुरेन्द्र गम्यम्
ज्योतिः परं यत्र रजस्तमश्च
सत्त्वं न यद्ब्रह्म निरस्तभेदम् ॥ ३१
कामाध्वरत्रिपुरकालगराद्यनेक
भूतद्रुहः क्षपयतः स्तुतये न तत्ते
यस्त्वन्तकाल इदमात्मकृतं स्वनेत्र
वह्निस्फुलिङ्गशिखया भसितं न वेद ॥ ३२

भगवन् ! आपका परम ज्योतिर्मय स्वरूप स्वयं ब्रह्म है। उसमें न तो रजोगुण, तमोगुण एवं सत्त्वगुण हैं और न किसी प्रकारका भेदभाव ही। आपके उस स्वरूपको सारे लोकपालयहाँतक कि ब्रह्मा, विष्णु और देवराज इन्द्र भी नहीं जान सकते ॥ ३१ ॥ आपने कामदेव, दक्षके यज्ञ, त्रिपुरासुर और कालकूट विष (जिसको आप अभी-अभी अवश्य पी जायँगे) और अनेक जीवद्रोही असुरोंको नष्ट कर दिया है। परंतु यह कहनेसे आपकी कोई स्तुति नहीं होती। क्योंकि प्रलयके समय आपका बनाया हुआ यह विश्व आपके ही नेत्रसे निकली हुई आगकी चिनगारी एवं लपटसे जलकर भस्म हो जाता है और आप इस प्रकार ध्यानमग्न रहते हैं कि आपको इसका पता ही नहीं चलता ॥ ३२ ॥

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शुक्रवार, 20 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

कुक्षिः समुद्रा गिरयोऽस्थिसङ्घा
रोमाणि सर्वौषधिवीरुधस्ते
छन्दांसि साक्षात्तव सप्त धातव-
स्त्रयीमयात्मन्हृदयं सर्वधर्मः ॥ २८
मुखानि पञ्चोपनिषदस्तवेश
यैस्त्रिंशदष्टोत्तरमन्त्रवर्गः
यत्तच्छिवाख्यं परमात्मतत्त्वं
देव स्वयंज्योतिरवस्थितिस्ते ॥ २९
छाया त्वधर्मोर्मिषु यैर्विसर्गो
नेत्रत्रयं सत्त्वरजस्तमांसि
साङ्ख्यात्मनः शास्त्रकृतस्तवेक्षा
छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः ॥ ३०

वेदस्वरूप भगवन् ! समुद्र आपकी कोख हैं। पर्वत हड्डियाँ हैं। सब प्रकारकी ओषधियाँ और घास आपके रोम हैं। गायत्री आदि छन्द आपकी सातों धातुएँ हैं और सभी प्रकारके धर्म आपके हृदय हैं ॥ २८ ॥ स्वामिन् ! सद्योजातादि पाँच उपनिषद् ही आपके तत्पुरुष, अघोर, सद्योजात, वामदेव और ईशान नामक पाँच मुख हैं। उन्हींके पदच्छेदसे अड़तीस कलात्मक मन्त्र निकले हैं। आप जब समस्त प्रपञ्चसे उपरत होकर अपने स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, तब उसी स्थितिका नाम होता है शिव। वास्तवमें वही स्वयंप्रकाश परमार्थतत्त्व है ॥ २९ ॥ अधर्मकी दम्भ-लोभ आदि तरङ्गोंमें आपकी छाया है जिनसे विविध प्रकारकी सृष्टि होती है, वे सत्त्व, रज और तमआपके तीन नेत्र हैं। प्रभो ! गायत्री आदि छन्दरूप सनातन वेद ही आपका विचार है। क्योंकि आप ही सांख्य आदि समस्त शास्त्रोंके रूपमें स्थित हैं और उनके कर्ता भी हैं ॥ ३० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

अग्निर्मुखं तेऽखिलदेवतात्मा
क्षितिं विदुर्लोकभवाङ्घ्रिपङ्कजम्
कालं गतिं तेऽखिलदेवतात्मनो
दिशश्च कर्णौ रसनं जलेशम् ॥ २६ ॥
नाभिर्नभस्ते श्वसनं नभस्वान्- 
सूर्यश्च चक्षूंषि जलं स्म रेतः
परावरात्माश्रयणं तवात्मा
सोमो मनो द्यौर्भगवन्शिरस्ते ॥ २७ ॥

सर्वदेवस्वरूप अग्नि आपका मुख है। तीनों लोकोंके अभ्युदय करनेवाले शङ्कर ! यह पृथ्वी आपका चरणकमल है। आप अखिल देवस्वरूप हैं। यह काल आपकी गति है, दिशाएँ कान हैं और वरुण रसनेन्द्रिय है ॥ २६ ॥ आकाश नाभि है, वायु श्वास है, सूर्य नेत्र हैं और जल वीर्य है। आपका अहंकार नीचे-ऊँचे सभी जीवोंका आश्रय है। चन्द्रमा मन है और प्रभो ! स्वर्ग आपका सिर है ॥ २७ ॥

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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

त्वं ब्रह्म परमं गुह्यं सदसद्भावभावनम्
नानाशक्तिभिराभातस्त्वमात्मा जगदीश्वरः ॥ २४
त्वं शब्दयोनिर्जगदादिरात्मा
प्राणेन्द्रि यद्र व्यगुणः स्वभावः
कालः क्रतुः सत्यमृतं च धर्म-
स्त्वय्यक्षरं यत्त्रिवृदामनन्ति ॥ २५

आप स्वयंप्रकाश हैं। इसका कारण यह है कि आप परम रहस्यमय ब्रह्मतत्त्व हैं। जितने भी देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि सत् अथवा असत् चराचर प्राणी हैंउनको जीवनदान देनेवाले आप ही हैं। आपके अतिरिक्त सृष्टि भी और कुछ नहीं है। क्योंकि आप आत्मा हैं। अनेक शक्तियोंके द्वारा आप ही जगत्  रूप में भी प्रतीत हो रहे हैं। क्योंकि आप ईश्वर हैं, सर्वसमर्थ हैं ॥ २४ ॥ समस्त वेद आपसे ही प्रकट हुए हैं। इसलिये आप समस्त ज्ञानोंके मूल स्रोत स्वत:सिद्ध ज्ञान हैं। आप ही जगत्के आदिकारण महत्तत्त्व और त्रिविध अहंकार हैं एवं आप ही प्राण, इन्द्रिय, पञ्चमहाभूत तथा शब्दादि विषयोंके भिन्न-भिन्न स्वभाव और उनके मूल कारण हैं। आप स्वयं ही प्राणियोंकी वृद्धि और ह्रास करनेवाले काल हैं, उनका कल्याण करनेवाले यज्ञ हैं एवं सत्य और मधुर वाणी हैं। धर्म भी आपका ही स्वरूप है। आप ही , , म् इन तीनों अक्षरोंसे युक्त प्रणव हैं अथवा त्रिगुणात्मिका प्रकृति हैंऐसा वेदवादी महात्मा कहते हैं ॥ २५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

श्रीप्रजापतय ऊचुः

देवदेव महादेव भूतात्मन्भूतभावन
त्राहि नः शरणापन्नांस्त्रैलोक्यदहनाद्विषात् ॥ २१ ॥
त्वमेकः सर्वजगत ईश्वरो बन्धमोक्षयोः
तं त्वामर्चन्ति कुशलाः प्रपन्नार्तिहरं गुरुम् ॥ २२ ॥
गुणमय्या स्वशक्त्यास्य सर्गस्थित्यप्ययान्विभो
धत्से यदा स्वदृग्भूमन्ब्रह्मविष्णुशिवाभिधाम् ॥ २३ ॥

प्रजापतियोंने भगवान्‌ शङ्करकी स्तुति कीदेवताओंके आराध्यदेव महादेव ! आप समस्त प्राणियोंके आत्मा और उनके जीवनदाता हैं। हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। त्रिलोकीको भस्म करनेवाले इस उग्र विषसे आप हमारी रक्षा कीजिये ॥ २१ ॥ सारे जगत् को बाँधने और मुक्त करनेमें एकमात्र आप ही समर्थ हैं। इसलिये विवेकी पुरुष आपकी ही आराधना करते हैं। क्योंकि आप शरणागतकी पीड़ा नष्ट करनेवाले एवं जगद्गुरु हैं ॥ २२ ॥ प्रभो ! अपनी गुणमयी शक्तिसे इस जगत्की सृष्टि, स्थिति और प्रलय करनेके लिये आप अनन्त, एकरस होनेपर भी ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि नाम धारण कर लेते हैं ॥ २३ ॥

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बुधवार, 18 सितंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – सातवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

समुद्रमन्थन का आरम्भ और भगवान्‌ शङ्कर का विषपान

निर्मथ्यमानादुदधेरभूद्विषं
महोल्बणं हालहलाह्वमग्रतः
सम्भ्रान्तमीनोन्मकराहिकच्छपात्-
तिमिद्विपग्राहतिमिङ्गिलाकुलात् ॥ १८ ॥
तदुग्रवेगं दिशि दिश्युपर्यधो
विसर्पदुत्सर्पदसह्यमप्रति
भीताः प्रजा दुद्रुवुरङ्ग सेश्वरा
अरक्ष्यमाणाः शरणं सदाशिवम् ॥ १९ ॥
विलोक्य तं देववरं त्रिलोक्या
भवाय देव्याभिमतं मुनीनाम्
आसीनमद्रा वपवर्गहेतो-
स्तपो जुषाणं स्तुतिभिः प्रणेमुः ॥ २० ॥

जब अजित भगवान्‌ ने इस प्रकार समुद्र-मन्थन किया, तब समुद्र में बड़ी खलबली मच गयी। मछली, मगर, साँप और कछुए भयभीत होकर ऊपर आ गये और इधर-उधर भागने लगे। तिमि-तिमिङ्गिल आदि मच्छ, समुद्री हाथी और ग्राह व्याकुल हो गये। उसी समय पहले-पहल हालाहल नामका अत्यन्त उग्र विष निकला ॥ १८ ॥ वह अत्यन्त उग्र विष दिशा-विदिशामें, ऊपर-नीचे सर्वत्र उडऩे और फैलने लगा। इस असह्य विषसे बचनेका कोई उपाय भी तो न था। भयभीत होकर सम्पूर्ण प्रजा और प्रजापति किसीके द्वारा त्राण न मिलनेपर भगवान्‌ सदाशिवकी शरणमें गये ॥ १९ ॥ भगवान्‌ शङ्कर सतीजीके साथ कैलास पर्वतपर विराजमान थे। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि उनकी सेवा कर रहे थे। वे वहाँ तीनों लोकोंके अभ्युदय और मोक्षके लिये तपस्या कर रहे थे। प्रजापतियोंने उनका दर्शन करके उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रणाम किया ॥ २० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - तैंतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३) देवहूतिको तत्त्वज्ञान एवं मोक्षपदकी प्राप्ति अहो ...