॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और
भगवान् का उस पर प्रसन्न होना
पुंसां श्लाघ्यतमं मन्ये दण्डमर्हत्तमार्पितम् ।
यं न माता पिता भ्राता सुहृदश्चादिशन्ति हि ॥ ४ ॥
त्वं नूनमसुराणां नः परोक्षः परमो गुरुः ।
यो नोऽनेकमदान्धानां विभ्रंशं चक्षुरादिशत् ॥ ५ ॥
यस्मिन् वैरानुबन्धेन व्यूढेन विबुधेतराः ।
बहवो लेभिरे सिद्धिं यामु हैकान्तयोगिनः ॥ ६ ॥
तेनाहं निगृहीतोऽस्मि भवता भूरिकर्मणा ।
बद्धश्च वारुणैः पाशैः नातिव्रीडे न च व्यथे ॥ ७ ॥
अपने पूजनीय गुरुजनों के द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्र के
लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है। क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता,
भाई और सुहृद् भी मोहवश नहीं दे पाते ॥ ४ ॥ आप छिपे रूप से
अवश्य ही हम असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अत: आप हमारे परम गुरु हैं। जब हमलोग धन, कुलीनता, बल आदि के मद से
अंधे हो जाते हैं,
तब आप उन वस्तुओं को हम से छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं ॥
५ ॥ आप से हमलोगों का जो उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ ?
अनन्यभाव से योग करनेवाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते
हैं,
वही सिद्धि बहुत-से असुरोंको आपके साथ दृढ़ वैरभाव करनेसे
ही प्राप्त हो गयी है ॥ ६ ॥ जिनकी ऐसी महिमा, ऐसी अनन्त लीलाएँ हैं,
वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुणपाशसे बाँध रहे हैं।
इसकी न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकारकी व्यथा ही ॥ ७ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से