॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
अष्टम स्कन्ध – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)
बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और
भगवान् का उस पर प्रसन्न होना
श्रीब्रह्मोवाच
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भूतभावन
भूतेश देवदेव जगन्मय ।
मुञ्चैनं
हृतसर्वस्वं नायमर्हति निग्रहम् ॥ २१ ॥
कृत्स्ना
तेऽनेन दत्ता भूर्लोकाः कर्मार्जिताश्च ये ।
निवेदितं
च सर्वस्वं आत्माविक्लवया धिया ॥ २२ ॥
यत्पादयोरशठधीः
सलिलं प्रदाय
दूर्वाङ्कुरैरपि विधाय सतीं सपर्याम् ।
अप्युत्तमां
गतिमसौ भजते त्रिलोकीं
दाश्वानविक्लवमनाः कथमार्तिमृच्छेत् ॥ २३ ॥
ब्रह्माजीने कहा—समस्त प्राणियोंके जीवनदाता, उनके स्वामी
और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो ! अब आप इसे छोड़ दीजिये। आपने इसका सर्वस्व ले
लिया है,
अत: अब यह दण्डका पात्र नहीं है ॥ २१ ॥ इसने अपनी सारी भूमि
और पुण्यकर्मोंसे उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मातक आपको समर्पित कर दिया है एवं ऐसा करते समय इसकी
बुद्धि स्थिर रही है,
यह धैर्यसे च्युत नहीं हुआ है ॥ २२ ॥ प्रभो ! जो मनुष्य
सच्चे हृदयसे कृपणता छोडक़र आपके चरणोंमें जलका अघ्र्य देता है और केवल दूर्वादलसे
भी आपकी सच्ची पूजा करता है, उसे भी उत्तम
गतिकी प्राप्ति होती है। फिर बलिने तो बड़ी प्रसन्नतासे धैर्य और स्थिरतापूर्वक
आपको त्रिलोकीका दान कर दिया है। तब यह दु:खका भागी कैसे हो सकता है ? ॥ २३ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से