॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)
दुर्वासाजीकी दु:खनिवृत्ति
यदा विसृष्टस्त्वमनञ्जनेन वै
बलं
प्रविष्टोऽजित दैत्यदानवम् ।
बाहूदरोर्वङ्घ्रिशिरोधराणि
वृक्णन् अजस्रं
प्रधने विराजसे ॥ ८ ॥
स त्वं जगत्त्राण खलप्रहाणये
निरूपितः
सर्वसहो गदाभृता ।
विप्रस्य चास्मत्
कुलदैवहेतवे
विधेहि भद्रं
तदनुग्रहो हि नः ॥ ९ ॥
यद्यस्ति
दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः ।
कुलं नो विप्रदैवं
चेद् द्विजो भवतु विज्वरः ॥ १० ॥
यदि नो भगवान्
प्रीत एकः सर्वगुणाश्रयः ।
सर्वभूतात्मभावेन
द्विजो भवतु विज्वरः ॥ ११ ॥
सुदर्शन चक्र ! आपपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय
निरंजन भगवान् आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवोंकी सेनामें प्रवेश करते हैं,
उस समय युद्धभूमिमें उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त
शोभायमान होते हैं ॥ ८ ॥ विश्वके रक्षक ! आप रणभूमिमें सबका प्रहार सह लेते हैं,
आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान्ने दुष्टोंके नाशके
लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुलके भाग्योदयके लिये
दुर्वासाजीका कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा ॥ ९ ॥ यदि
मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्मका
पालन किया हो, यदि हमारे वंशके लोग ब्राह्मणोंको ही अपना
आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजीकी जलन मिट जाय ॥ १०
॥ भगवान् समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियोंके आत्मा के
रूपमें उन्हें देखा हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो दुर्वासाजीके हृदयकी सारी जलन
मिट जाय ॥ ११ ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से