बुधवार, 4 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

दुर्वासाजीकी दु:खनिवृत्ति

यदा विसृष्टस्त्वमनञ्जनेन वै
     बलं प्रविष्टोऽजित दैत्यदानवम् ।
 बाहूदरोर्वङ्‌घ्रिशिरोधराणि
     वृक्णन् अजस्रं प्रधने विराजसे ॥ ८ ॥
 स त्वं जगत्त्राण खलप्रहाणये
     निरूपितः सर्वसहो गदाभृता ।
 विप्रस्य चास्मत् कुलदैवहेतवे
     विधेहि भद्रं तदनुग्रहो हि नः ॥ ९ ॥
 यद्यस्ति दत्तमिष्टं वा स्वधर्मो वा स्वनुष्ठितः ।
 कुलं नो विप्रदैवं चेद् द्विजो भवतु विज्वरः ॥ १० ॥
 यदि नो भगवान् प्रीत एकः सर्वगुणाश्रयः ।
 सर्वभूतात्मभावेन द्विजो भवतु विज्वरः ॥ ११ ॥

सुदर्शन चक्र ! आपपर कोई विजय नहीं प्राप्त कर सकता। जिस समय निरंजन भगवान्‌ आपको चलाते हैं और आप दैत्य एवं दानवोंकी सेनामें प्रवेश करते हैं, उस समय युद्धभूमिमें उनकी भुजा, उदर, जंघा, चरण और गरदन आदि निरन्तर काटते हुए आप अत्यन्त शोभायमान होते हैं ॥ ८ ॥ विश्वके रक्षक ! आप रणभूमिमें सबका प्रहार सह लेते हैं, आपका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। गदाधारी भगवान्‌ने दुष्टोंके नाशके लिये ही आपको नियुक्त किया है। आप कृपा करके हमारे कुलके भाग्योदयके लिये दुर्वासाजीका कल्याण कीजिये। हमारे ऊपर यह आपका महान् अनुग्रह होगा ॥ ९ ॥ यदि मैंने कुछ भी दान किया हो, यज्ञ किया हो अथवा अपने धर्मका पालन किया हो, यदि हमारे वंशके लोग ब्राह्मणोंको ही अपना आराध्यदेव समझते रहे हों, तो दुर्वासाजीकी जलन मिट जाय ॥ १० ॥ भगवान्‌ समस्त गुणोंके एकमात्र आश्रय हैं। यदि मैंने समस्त प्राणियोंके आत्मा के रूपमें उन्हें देखा हो और वे मुझपर प्रसन्न हों तो दुर्वासाजीके हृदयकी सारी जलन मिट जाय ॥ ११ ॥

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मंगलवार, 3 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध पाँचवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

दुर्वासाजीकी दु:खनिवृत्ति

श्रीशुक उवाच ।
एवं भगवताऽऽदिष्टो दुर्वासाश्चक्रतापितः ।
अंबरीषं उपावृत्य तत्पादौ दुःखितोऽग्रहीत् ॥ १ ॥
तस्य सोद्यमनं वीक्ष्य पादस्पर्शविलज्जितः ।
अस्तावीत् तत् हरेः अस्त्रं कृपया पीडितो भृशम् ॥ २ ॥

अंबरीष उवाच ।
त्वमग्निर्भगवान् सूर्यः त्वं सोमो ज्योतिषां पतिः ।
त्वं आपस्त्वं क्षितिर्व्योम वायुर्मात्रेन्द्रियाणि च ॥ ३ ॥
सुदर्शन नमस्तुभ्यं सहस्राराच्युतप्रिय ।
सर्वास्त्रघातिन् विप्राय स्वस्ति भूया इडस्पते ॥ ४ ॥
त्वं धर्मस्त्वमृतं सत्यं त्वं यज्ञोऽखिलयज्ञभुक् ।
त्वं लोकपालः सर्वात्मा त्वं तेजः पौरुषं परम् ॥ ५ ॥
नमः सुनाभाखिलधर्मसेतवे
ह्यधर्मशीलासुरधूमकेतवे ।
त्रैलोक्यगोपाय विशुद्धवर्चसे
मनोजवायाद्‍भुतकर्मणे गृणे ॥ ६ ॥
त्वत्तेजसा धर्ममयेन संहृतं
तमः प्रकाशश्च दृशो महात्मनाम् ।
दुरत्ययस्ते महिमा गिरां पते
त्वद् रूपमेतत् सदसत् परावरम् ॥ ७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ने इस प्रकार आज्ञा दी, तब सुदर्शन चक्रकी ज्वालासे जलते हुए दुर्वासा लौटकर राजा अम्बरीषके पास आये और उन्होंने अत्यन्त दु:खी होकर राजाके पैर पकड़ लिये ॥ १ ॥ दुर्वासाजीकी यह चेष्टा देखकर और उनके चरण पकडऩेसे लज्जित होकर राजा अम्बरीष भगवान्‌के चक्रकी स्तुति करने लगे। उस समय उनका हृदय दयावश अत्यन्त पीडि़त हो रहा था ॥ २ ॥
अम्बरीषने कहाप्रभो ! सुदर्शन ! आप अग्निस्वरूप हैं। आप ही परम समर्थ सूर्य हैं। समस्त नक्षत्रमण्डलके अधिपति चन्द्रमा भी आपके स्वरूप हैं। जल, पृथ्वी, आकाश, वायु, पञ्चतन्मात्रा और सम्पूर्ण इन्द्रियोंके रूपमें भी आप ही हैं ॥ ३ ॥ भगवान्‌ के प्यारे, हजार दाँतवाले चक्रदेव ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। समस्त अस्त्र-शस्त्रोंको नष्ट कर देनेवाले एवं पृथ्वीके रक्षक ! आप इन ब्राह्मणकी रक्षा कीजिये ॥ ४ ॥ आप ही धर्म हैं, मधुर एवं सत्य वाणी हैं; आप ही समस्त यज्ञोंके अधिपति और स्वयं यज्ञ भी हैं। आप समस्त लोकोंके रक्षक एवं सर्वलोकस्वरूप भी हैं। आप परमपुरुष परामात्मा के श्रेष्ठ तेज हैं ॥ ५ ॥ सुनाभ ! आप समस्त धर्मोंकी मर्यादाके रक्षक हैं। अधर्मका आचरण करनेवाले असुरोंको भस्म करनेके लिये आप साक्षात् अग्नि हैं। आप ही तीनों लोकोंके रक्षक एवं विशुद्ध तेजोमय हैं। आपकी गति मनके वेगके समान है और आपके कर्म अद्भुत हैं। मैं आपको नमस्कार करता हूँ, आपकी स्तुति करता हूँ ॥ ६ ॥ वेदवाणीके अधीश्वर ! आपके धर्ममय तेजसे अन्धकारका नाश होता है और सूर्य आदि महापुरुषोंके प्रकाशकी रक्षा होती है। आपकी महिमाका पार पाना अत्यन्त कठिन है। ऊँचे-नीचे और छोटे-बड़ेके भेद-भावसे युक्त यह समस्त कार्यकारणात्मक संसार आपका ही स्वरूप है ॥ ७ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट१०)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

श्रीभगवानुवाच ।
 अहं भक्तपराधीनो हि अस्वतंत्र इव द्विज ।
 साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रियः ॥ ६३ ॥
 नाहं आत्मानमाशासे मद्‍भक्तैः साधुभिर्विना ।
 श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिः अहं परा ॥ ६४ ॥
 ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम् ।
 हित्वा मां शरणं याताः कथं तान् त्यक्तुमुत्सहे ॥ ६५ ॥
 मयि निर्बद्धहृदयाः साधवः समदर्शनाः ।
 वशीकुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रियः सत्पतिं यथा ॥ ६६ ॥
 मत्सेवया प्रतीतं च सालोक्यादि चतुष्टयम् ।
 नेच्छन्ति सेवया पूर्णाः कुतोऽन्यत् कालविद्रुतम् ॥ ६७ ॥
 साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम् ।
 मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि ॥ ६८ ॥
 उपायं कथयिष्यामि तव विप्र श्रृणुष्व तत् ।
 अयं ह्यात्माभिचारस्ते यतस्तं याहि मा चिरम् ।
 साधुषु प्रहितं तेजः प्रहर्तुः कुरुतेऽशिवम् ॥ ६९ ॥
 तपो विद्या च विप्राणां निःश्रेयसकरे उभे ।
 ते एव दुर्विनीतस्य कल्पेते कर्तुरन्यथा ॥ ७० ॥
 ब्रह्मन् तद् गच्छ भद्रं ते नाभागतनयं नृपम् ।
 क्षमापय महाभागं ततः शान्तिर्भविष्यति ॥ ७१ ॥

श्रीभगवान्‌ ने कहादुर्वासाजी ! मैं सर्वथा भक्तोंके अधीन हूँ। मुझमें तनिक भी स्वतन्त्रता नहीं है। मेरे सीधे-सादे सरल भक्तोंने मेरे हृदय को अपने हाथ में कर रखा है। भक्तजन मुझ से प्यार करते हैं और मैं उनसे ॥ ६३ ॥ ब्रह्मन् ! अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिये अपने साधुस्वभाव भक्तों को छोडक़र मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्धाङ्गिनी विनाश- रहित लक्ष्मी को  ॥ ६४ ॥ जो भक्त स्त्री, पुत्र, गृह, गुरुजन, प्राण, धन, इहलोक और परलोकसब को छोडक़र केवल मेरी शरण में आ गये हैं, उन्हें छोडऩे का संकल्प भी मैं कैसे कर सकता हूँ ? ॥ ६५ ॥ जैसे सती स्त्री अपने पातिव्रत्यसे सदाचारी पतिको वशमें कर लेती है, वैसे ही मेरे साथ अपने हृदयको प्रेम-बन्धनसे बाँध रखनेवाले समदर्शी साधु भक्तिके द्वारा मुझे अपने वशमें कर लेते हैं ॥ ६६ ॥ मेरे अनन्यप्रेमी भक्त सेवासे ही अपनेको परिपूर्णकृतकृत्य मानते हैं। मेरी सेवाके फलस्वरूप जब उन्हें सालोक्य-सारूप्य आदि मुक्तियाँ प्राप्त होती हैं, तब वे उन्हें भी स्वीकार करना नहीं चाहते; फिर समयके फेरसे नष्ट हो जानेवाली वस्तुओंकी तो बात ही क्या है ॥ ६७ ॥ दुर्वासाजी ! मैं आपसे और क्या कहूँ, मेरे प्रेमी भक्त तो मेरे हृदय हैं और उन प्रेमी भक्तोंका हृदय स्वयं मैं हूँ। वे मेरे अतिरिक्त और कुछ नहीं जानते तथा मैं उनके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जानता ॥ ६८ ॥ दुर्वासाजी ! सुनिये, मैं आपको एक उपाय बताता हूँ। जिसका अनिष्ट करनेसे आपको इस विपत्तिमें पडऩा पड़ा है, आप उसीके पास जाइये। निरपराध साधुओंके अनिष्टकी चेष्टासे अनिष्ट करनेवालेका ही अमङ्गल होता है ॥ ६९ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि ब्राह्मणोंके लिये तपस्या और विद्या परम कल्याणके साधन हैं। परंतु यदि ब्राह्मण उद्दण्ड और अन्यायी हो जाय, तो वे ही दोनों उलटा फल देने लगते हैं ॥ ७० ॥ दुर्वासाजी ! आपका कल्याण हो। आप नाभागनन्दन परम भाग्यशाली राजा अम्बरीषके पास जाइये और उनसे क्षमा माँगिये। तब आपको शान्ति मिलेगी ॥ ७१ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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सोमवार, 2 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०९)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

श्रीरुद्र उवाच ।
 वयं न तात प्रभवाम भूम्नि
     यस्मिन् परेऽन्येऽप्यजजीवकोशाः ।
 भवन्ति काले न भवन्ति हीदृशाः
     सहस्रशो यत्र वयं भ्रमामः ॥ ५६ ॥
 अहं सनत्कुमारश्च नारदो भगवानजः ।
 कपिलो अपान्तरतमो देवलो धर्म आसुरिः ॥ ५७ ॥
 मरीचिप्रमुखाश्चान्ये सिद्धेशाः पारदर्शनाः ।
 विदाम न वयं सर्वे यन्मायां माययाऽऽवृताः ॥ ५८ ॥
 तस्य विश्वेश्वरस्येदं शस्त्रं दुर्विषहं हि नः ।
 तमेवं शरणं याहि हरिस्ते शं विधास्यति ॥ ५९ ॥
 ततो निराशो दुर्वासाः पदं भगवतो ययौ ।
 वैकुण्ठाख्यं यदध्यास्ते श्रीनिवासः श्रिया सह ॥ ६० ॥
 सन्दह्यमानोऽजितशस्त्रवह्निना
     तत्पादमूले पतितः सवेपथुः ।
 आहाच्युतानन्त सदीप्सित प्रभो
     कृतागसं माव हि विश्वभावन ॥ ६१ ॥
 अजानता ते परमानुभावं
     कृतं मयाघं भवतः प्रियाणाम् ।
 विधेहि तस्यापचितिं विधातः
     मुच्येत यन्नाम्न्युदिते नारकोऽपि ॥ ६२ ॥

श्रीमहादेवजी ने कहा—‘दुर्वासाजी ! जिन अनन्त परमेश्वर में ब्रह्मा-जैसे जीव और उनके उपाधिभूत कोश, इस ब्रह्माण्ड के समान ही अनेकों ब्रह्माण्ड समय पर पैदा होते हैं और समय आनेपर फिर उनका पता भी नहीं चलता, जिनमें हमारे-जैसे हजारों चक्कर काटते रहते हैंउन प्रभुके सम्बन्धमें हम कुछ भी करनेकी सामथ्र्य नहीं रखते ॥ ५६ ॥ मैं, सनत्कुमार, नारद, भगवान्‌ ब्रह्मा, कपिलदेव, अपान्तरतम, देवल, धर्म, आसुरि तथा मरीचि आदि दूसरे सर्वज्ञ सिद्धेश्वरये हम सभी भगवान्‌की मायाको नहीं जान सकते। क्योंकि हम उसी मायाके घेरेमें हैं ॥ ५७-५८ ॥ यह चक्र उन विश्वेश्वरका शस्त्र है। यह हमलोगोंके लिये असह्य है। तुम उन्हींकी शरणमें जाओ। वे भगवान्‌ ही तुम्हारा मङ्गल करेंगे॥ ५९ ॥ वहाँसे भी निराश होकर दुर्वासा भगवान्‌के परमधाम वैकुण्ठमें गये। लक्ष्मीपति भगवान्‌ लक्ष्मीके साथ वहीं निवास करते हैं ॥ ६० ॥ दुर्वासाजी भगवान्‌के चक्रकी आगसे जल रहे थे। वे काँपते हुए भगवान्‌के चरणोंमें गिर पड़े। उन्होंने कहा—‘हे अच्युत ! हे अनन्त ! आप संतोंके एकमात्र वाञ्छनीय हैं। प्रभो ! विश्वके जीवनदाता ! मैं अपराधी हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ६१ ॥ आपका परम प्रभाव न जाननेके कारण ही मैंने आपके प्यारे भक्तका अपराध किया है। प्रभो ! आप मुझे उससे बचाइये। आपके तो नामका ही उच्चारण करनेसे नारकी जीव भी मुक्त हो जाता है॥ ६२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०८)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

दिशो नभः क्ष्मां विवरान् समुद्रान्
     लोकान् सपालान् त्रिदिवं गतः सः ।
 यतो यतो धावति तत्र तत्र
     सुदर्शनं दुष्प्रसहं ददर्श ॥ ५१ ॥
 अलब्धनाथः स सदा कुतश्चित्
     संत्रस्तचित्तोऽरणमेषमाणः ।
 देवं विरिञ्चं समगाद्विधातः
     त्राह्यात्मयोनेऽजिततेजसो माम् ॥ ५२ ॥
 श्रीब्रह्मोवाच ।
 स्थानं मदीयं सहविश्वमेतत्
     क्रीडावसाने द्विपरार्धसंज्ञे ।
 भ्रूभंगमात्रेण हि संदिधक्षोः
     कालात्मनो यस्य तिरोभविष्यति ॥ ५३ ॥
 अहं भवो दक्षभृगुप्रधानाः
     प्रजेशभूतेश सुरेशमुख्याः ।
 सर्वे वयं यत् नियमं प्रपन्ना
     मूर्ध्न्यर्पितं लोकहितं वहामः ॥ ५४ ॥
 प्रत्याख्यातो विरिञ्चेन विष्णुचक्रोपतापितः ।
 दुर्वासाः शरणं यातः शर्वं कैलासवासिनम् ॥ ५५ ॥

दुर्वासाजी दिशा, आकाश, पृथ्वी, अतल-वितल आदि नीचेके लोक, समुद्र, लोकपाल और उनके द्वारा सुरक्षित लोक एवं स्वर्गतकमें गये; परंतु जहाँ-जहाँ वे गये, वहीं-वहीं उन्होंने असह्य तेजवाले सुदर्शन चक्रको अपने पीछे लगा देखा ॥ ५१ ॥ जब उन्हें कहीं भी कोई रक्षक न मिला, तब तो वे और भी डर गये। अपने लिये त्राण ढूँढ़ते हुए वे देवशिरोमणि ब्रह्माजीके पास गये और बोले— ‘ब्रह्माजी ! आप स्वयम्भू हैं। भगवान्‌के इस तेजोमय चक्रसे मेरी रक्षा कीजिये॥ ५२ ॥
ब्रह्माजीने कहा—‘जब मेरी दो परार्धकी आयु समाप्त होगी और कालस्वरूप भगवान्‌ अपनी यह सृष्टि-लीला समेटने लगेंगे और इस जगत् को जलाना चाहेंगे, उस समय उनके भ्रूभङ्गमात्र से यह सारा संसार और मेरा यह लोक भी लीन हो जायगा ॥ ५३ ॥ मैं, शङ्करजी, दक्ष-भृगु आदि प्रजापति, भूतेश्वर, देवेश्वर आदि सब जिनके बनाये नियमोंमें बँधे हैं तथा जिनकी आज्ञा शिरोधार्य करके हमलोग संसारका हित करते हैं, (उनके भक्तके द्रोहीको बचानेके लिये हम समर्थ नहीं हैं)॥ ५४ ॥ जब ब्रह्माजीने इस प्रकार दुर्वासाको निराश कर दिया, तब भगवान्‌के चक्रसे संतप्त होकर वे कैलासवासी भगवान्‌ शङ्करकी शरणमें गये ॥ ५५ ॥

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रविवार, 1 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०७)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

दुर्वासा यमुनाकूलात् कृत आवश्यक आगतः ।
 राज्ञाभिनन्दितस्तस्य बुबुधे चेष्टितं धिया ॥ ४२ ॥
 मन्युना प्रचलद्‍गात्रो भ्रुकुटीकुटिलाननः ।
 बुभुक्षितश्च सुतरां कृताञ्जलिमभाषत ॥ ४३ ॥
 अहो अस्य नृशंसस्य श्रियोन्मत्तस्य पश्यत ।
 धर्मव्यतिक्रमं विष्णोः अभक्तस्य ईशमानिनः ॥ ४४ ॥
 यो मां अतिथिं आयातं आतिथ्येन निमंत्र्य च ।
 अदत्त्वा भुक्तवान् तस्य सद्यस्ते दर्शये फलम् ॥ ४५ ॥
 एवं ब्रुवाण उत्कृत्य जटां रोषप्रदीपितः ।
 तया स निर्ममे तस्मै कृत्यां कालानलोपमाम् ॥ ४६ ॥
 तां आपतन्तीं ज्वलतीं असिहस्तां पदा भुवम् ।
 वेपयन्तीं समुद्वीक्ष्य न चचाल पदान्नृपः ॥ ४७ ॥
 प्राग् दिष्टं भृत्यरक्षायां पुरुषेण महात्मना ।
 ददाह कृत्यां तां चक्रं क्रुद्धाहिमिव पावकः ॥ ४८ ॥
 तद् अभिद्रवद् उद्वीक्ष्य स्वप्रयासं च निष्फलम् ।
 दुर्वासा दुद्रुवे भीतो दिक्षु प्राणपरीप्सया ॥ ४९ ॥
 तमन्वधावद्‍भगवद्रथांगं
     दावाग्निः उद्धूतशिखो यथाहिम् ।
 तथानुषक्तं मुनिरीक्षमाणो
     गुहां विविक्षुः प्रससार मेरोः ॥ ५० ॥

दुर्वासा जी आवश्यक कर्मोंसे निवृत्त होकर यमुनातट से लौट आये। जब राजा ने आगे बढक़र उनका अभिनन्दन किया तब उन्होंने अनुमान से ही समझ लिया कि राजा ने पारण कर लिया है ॥ ४२ ॥ उस समय दुर्वासाजी बहुत भूखे थे। इसलिये यह जानकर कि राजाने पारण कर लिया है, वे क्रोधसे थर-थर काँपने लगे। भौंहोंके चढ़ जानेसे उनका मुँह विकट हो गया। उन्होंने हाथ जोडक़र खड़े अम्बरीषसे डाँटकर कहा ॥ ४३ ॥ अहो ! देखो तो सही, यह कितना क्रूर है ! यह धनके मदमें मतवाला हो रहा है। भगवान्‌की भक्ति तो इसे छूतक नहीं गयी और यह अपनेको बड़ा समर्थ मानता है। आज इसने धर्मका उल्लङ्घन करके बड़ा अन्याय किया है ॥ ४४ ॥ देखो, मैं इसका अतिथि होकर आया हूँ। इसने अतिथि-सत्कार करनेके लिये मुझे निमन्त्रण भी दिया है, किन्तु फिर भी मुझे खिलाये बिना ही खा लिया है। अच्छा देख, ‘तुझे अभी इसका फल चखाता हूँ॥ ४५ ॥ यों कहते-कहते वे क्रोधसे जल उठे। उन्होंने अपनी एक जटा उखाड़ी और उससे अम्बरीषको मार डालनेके लिये एक कृत्या उत्पन्न की। वह प्रलय-कालकी आगके समान दहक रही थी ॥ ४६ ॥ वह आगके समान जलती हुई, हाथमें तलवार लेकर राजा अम्बरीषपर टूट पड़ी। उस समय उसके पैरोंकी धमकसे पृथ्वी काँप रही थी। परंतु राजा अम्बरीष उसे देखकर उससे तनिक भी विचलित नहीं हुए। वे एक पग भी नहीं हटे, ज्यों-के-त्यों खड़े रहे ॥ ४७ ॥ परमपुरुष परमात्माने अपने सेवककी रक्षाके लिये पहलेसे ही सुदर्शन चक्रको नियुक्त कर रखा था। जैसे आग क्रोधसे गुर्राते हुए साँपको भस्म कर देती है, वैसे ही चक्रने दुर्वासाजीकी कृत्याको जलाकर राखका ढेर कर दिया ॥ ४८ ॥ जब दुर्वासाजीने देखा कि मेरी बनायी हुई कृत्या तो जल रही है और चक्र मेरी ओर आ रहा है, तब वे भयभीत हो अपने प्राण बचानेके लिये जी छोडक़र एकाएक भाग निकले ॥ ४९ ॥ जैसे ऊँची-ऊँची लपटोंवाला दावानल साँपके पीछे दौड़ता है, वैसे ही भगवान्‌ का चक्र उनके पीछे-पीछे दौडऩे लगा। जब दुर्वासाजीने देखा कि चक्र तो मेरे पीछे लग गया है, तब सुमेरु पर्वतकी गुफामें प्रवेश करनेके लिये वे उसी ओर दौड़ पड़े ॥ ५० ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौथा अध्याय..(पोस्ट०६)

नाभाग और अम्बरीष की कथा

तं आनर्चातिथिं भूपः प्रत्युत्थान् आसनार्हणैः ।
 ययाचेऽभ्यवहाराय पादमूलमुपागतः ॥ ३६ ॥
 प्रतिनन्द्य स तां याच्ञां कर्तुमावश्यकं गतः ।
 निममज्ज बृहद् ध्यायन् कालिन्दीसलिले शुभे ॥ ३७ ॥
 मुहूर्तार्धावशिष्टायां द्वादश्यां पारणं प्रति ।
 चिन्तयामास धर्मज्ञो द्विजैः तद् धर्मसंकटे ॥ ३८ ॥
 ब्राह्मणातिक्रमे दोषो द्वादश्यां यदपारणे ।
 यत्कृत्वा साधु मे भूयाद् अधर्मो वा न मां स्पृशेत् ॥ ३९ ॥
 अम्भसा केवलेनाथ करिष्ये व्रतपारणम् ।
 आहुरब्भक्षणं विप्रा हि अशितं नाशितं च तत् ॥ ४० ॥
 इत्यपः प्राश्य राजर्षिः चिन्तयन् मनसाच्युतम् ।
 प्रत्यचष्ट कुरुश्रेष्ठ द्विज आगमनमेव सः ॥ ४१ ॥


राजा अम्बरीष उन्हें (दुर्वासा जी को) देखते ही उठकर खड़े हो गये, आसन देकर बैठाया और विविध सामग्रियों से अतिथि के रूपमें आये हुए दुर्वासाजी की पूजा की। उनके चरणों में प्रणाम करके अम्बरीष ने भोजनके लिये प्रार्थना की ॥ ३६ ॥ दुर्वासाजी ने अम्बरीष की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इसके बाद आवश्यक कर्मों से निवृत्त होनेके लिये वे नदीतटपर चले गये। वे ब्रह्म का ध्यान करते हुए यमुनाके पवित्र जलमें स्नान करने लगे ॥ ३७ ॥ इधर द्वादशी केवल घड़ीभर शेष रह गयी थी। धर्मज्ञ अम्बरीषने धर्म-संकटमें पडक़र ब्राह्मणोंके साथ परामर्श किया ॥ ३८ ॥ उन्होंने कहा— ‘ब्राह्मणदेवताओ ! ब्राह्मणको बिना भोजन कराये स्वयं खा लेना और द्वादशी रहते पारण न करनादोनों ही दोष हैं। इसलिये इस समय जैसा करनेसे मेरी भलाई हो और मुझे पाप न लगे, ऐसा काम करना चाहिये ॥ ३९ ॥ तब ब्राह्मणोंके साथ विचार करके उन्होंने कहा—‘ब्राह्मणो ! श्रुतियोंमें ऐसा कहा गया है कि जल पी लेना भोजन करना भी है, नहीं भी करना है। इसलिये इस समय केवल जलसे पारण किये लेता हूँ ॥ ४० ॥ ऐसा निश्चय करके मन-ही-मन भगवान्‌ का चिन्तन करते हुए राजर्षि अम्बरीषने जल पी लिया और परीक्षित्‌ ! वे केवल दुर्वासाजीके आनेकी बाट देखने लगे ॥ ४१ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...