रविवार, 15 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

भगीरथ-चरित्र और गङ्गावतरण

विशापो द्वादशाब्दान्ते मैथुनाय समुद्यतः ।
विज्ञाय ब्राह्मणीशापं महिष्या स निवारितः ॥ ३७ ॥
अत ऊर्ध्वं स तत्याज स्त्रीसुखं कर्मणाप्रजाः ।
वसिष्ठस्तदनुज्ञातो मदयन्त्यां प्रजामधात् ॥ ३८ ॥
सा वै सप्त समा गर्भं अबिभ्रन्न व्यजायत ।
जघ्नेऽश्मनोदरं तस्याः सोऽश्मकस्तेन कथ्यते ॥ ३९ ॥
अश्मकान् मूलको जज्ञे यः स्त्रीभिः परिरक्षितः ।
नारीकवच इत्युक्तो निःक्षत्रे मूलकोऽभवत् ॥ ४० ॥
ततो दशरथस्तस्मात् पुत्र ऐडविडिस्ततः ।
राजा विश्वसहो यस्य खट्वांगश्चक्रवर्त्यभूत् ॥ ४१ ॥
यो देवैरर्थितो दैत्यान् अवधीद् युधि दुर्जयः ।
मुहूर्तं आयुः ज्ञात्वैत्य स्वपुरं सन्दधे मनः ॥ ४२ ॥
न मे ब्रह्मकुलात् प्राणाः कुलदैवान्न चात्मजाः ।
न श्रियो न मही राज्यं न दाराश्चातिवल्लभाः ॥ ४३ ॥
न बाल्येऽपि मतिर्मह्यं अधर्मे रमते क्वचित् ।
नापश्यं उत्तमश्लोकात् अन्यत् किञ्चन वस्त्वहम् ॥ ४४ ॥
देवैः कामवरो दत्तो मह्यं त्रिभुवनेश्वरैः ।
न वृणे तमहं कामं भूतभावनभावनः ॥ ४५ ॥
ये विक्षिप्तेन्द्रियधियो देवास्ते स्वहृदि स्थितम् ।
न विन्दन्ति प्रियं शश्वद् आत्मानं किमुतापरे ॥ ४६ ॥
अथेशमायारचितेषु संगं
गुणेषु गन्धर्वपुरोपमेषु ।
रूढं प्रकृत्यात्मनि विश्वकर्तुः
भावेन हित्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ४७ ॥
इति व्यवसितो बुद्ध्या नारायणगृहीतया ।
हित्वान्यभावमज्ञानं ततः स्वं भावमास्थितः ॥ ४८ ॥
यत्तद्‍ब्रह्म परं सूक्ष्मं अशून्यं शून्यकल्पितम् ।
भगवान् वासुदेवेति यं गृणन्ति हि सात्वताः ॥ ४९ ॥

बारह वर्ष बीतनेपर राजा सौदास शापसे मुक्त हो गये। जब वे सहवासके लिये अपनी पत्नीके पास गये, तब उसने इन्हें रोक दिया। क्योंकि उसे उस ब्राह्मणीके शापका पता था ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने स्त्री सुखका बिलकुल परित्याग ही कर दिया। इस प्रकार अपने कर्मके फलस्वरूप वे सन्तानहीन हो गये। तब वसिष्ठजी ने उनके कहने से मदयन्ती को गर्भाधान कराया ॥ ३८ ॥ मदयन्ती सात वर्षतक गर्भ धारण किये रही, परंतु बच्चा पैदा नहीं हुआ। तब वसिष्ठजीने पत्थरसे उसके पेटपर आघात किया। इससे जो बालक हुआ, वह अश्म (पत्थर) की चोटसे पैदा होनेके कारण अश्मककहलाया ॥ ३९ ॥ अश्मक से मूलक का जन्म हुआ। जब परशुराम जी पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर रहे थे, तब स्त्रियोंने उसे छिपाकर रख लिया था। इसीसे उसका एक नाम नारीकवचभी हुआ। उसे मूलक इसलिये कहते हैं कि वह पृथ्वीके क्षत्रियहीन हो जानेपर उस वंशका मूल (प्रवर्तक) बना ॥ ४० ॥ मूलकके पुत्र हुए दशरथ, दशरथके ऐडविड और ऐडविडके राजा विश्वसह। विश्वसहके पुत्र ही चक्रवर्ती सम्राट् खट्वाङ्ग हुए ॥ ४१ ॥ युद्धमें उन्हें कोई जीत नहीं सकता था। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे दैत्योंका वध किया था। जब उन्हें देवताओंसे यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बाकी है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मनको उन्होंने भगवान्‌में लगा दिया ॥ ४२ ॥ वे मन-ही-मन सोचने लगे कि मेरे कुलके इष्ट देवता हैं ब्राह्मण ! उनसे बढक़र मेरा प्रेम अपने प्राणोंपर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते ॥ ४३ ॥ मेरा मन बचपनमें भी कभी अधर्मकी ओर नहीं गया। मैंने पवित्रकीर्ति भगवान्‌के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी ॥ ४४ ॥ तीनों लोकोंके स्वामी देवताओंने मुझे मुँहमाँगा वर देनेको कहा। परंतु मैंने उन भोगोंकी लालसा बिलकुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियोंके जीवनदाता श्रीहरिकी भावनामें ही मैं मग्र हो रहा था ॥ ४५ ॥ जिन देवताओंकी इन्द्रियाँ और मन विषयोंमें भटक रहे हैं,वे सत्त्वगुणप्रधान होनेपर भी अपने हृदयमें विराजमान, सदा-सर्वदा प्रियतमके रूपमें रहनेवाले अपने आत्मस्वरूप भगवान्‌को नहीं जानते। फिर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं ॥ ४६ ॥ इसलिये अब इन विषयोंमें मैं नहीं रमता। ये तो मायाके खेल हैं। आकाशमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले गन्धर्वनगरोंसे बढक़र इनकी सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्तपर चढ़ गये थे। संसार के सच्चे रचयिता भगवान्‌ की भावना में लीन होकर मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हींकी शरण ले रहा हूँ ॥ ४७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ ने राजा खट्वाङ्ग की बुद्धिको पहलेसे ही अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। इसीसे वे अन्तसमयमें ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि अनात्म पदार्थोंमें जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूपमें स्थित हो गये ॥ ४८ ॥ वह स्वरूप साक्षात् परब्रह्म है। वह सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, शून्य के समान ही है। परंतु वह शून्य नहीं, परम सत्य है। भक्तजन उसी वस्तु को भगवान्‌ वासुदेवइस नाम से वर्णन करते हैं ॥ ४९ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥


श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध नवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

भगीरथ-चरित्र और गङ्गावतरण

श्रीराजोवाच ।
किं निमित्तो गुरोः शापः सौदासस्य महात्मनः ।
एतद् वेदितुमिच्छामः कथ्यतां न रहो यदि ॥ १९ ॥

श्रीशुक उवाच ।
सौदासो मृगयां किञ्चित् चरन् रक्षो जघान ह ।
मुमोच भ्रातरं सोऽथ गतः प्रतिचिकीर्षया ॥ २० ॥
सञ्चिन्तयन् अघं राज्ञः सूदरूपधरो गृहे ।
गुरवे भोक्तुकामाय पक्त्वा निन्ये नरामिषम् ॥ २१ ॥
परिवेक्ष्यमाणं भगवान् विलोक्य अभक्ष्यमञ्जसा ।
राजानं अशपत् क्रुद्धो रक्षो ह्येवं भविष्यसि ॥ २२ ॥
रक्षःकृतं तद्विदित्वा चक्रे द्वादशवार्षिकम् ।
सोऽपि अपोऽञ्जलिनादाय गुरुं शप्तुं समुद्यतः ॥ २३ ॥
वारितो मदयन्त्यापो रुशतीः पादयोर्जहौ ।
दिशः खमवनीं सर्वं पश्यन् जीवमयं नृपः ॥ २४ ॥
राक्षसं भावमापन्नः पादे कल्माषतां गतः ।
व्यवायकाले ददृशे वनौकोदम्पती द्विजौ ॥ २५ ॥
क्षुधार्तो जगृहे विप्रं तत्पत्‍न्याहाकृतार्थवत् ।
न भवान् राक्षसः साक्षात् इक्ष्वाकूणां महारथः ॥ २६ ॥
मदयन्त्याः पतिर्वीर नाधर्मं कर्तुमर्हसि ।
देहि मेऽपत्यकामाया अकृतार्थं पतिं द्विजम् ॥ २७ ॥
देहोऽयं मानुषो राजन् पुरुषस्याखिलार्थदः ।
तस्मादस्य वधो वीर सर्वार्थवध उच्यते ॥ २८ ॥
एष हि ब्राह्मणो विद्वान् तपःशीलगुणान्वितः ।
आरिराधयिषुर्ब्रह्म महापुरुषसंज्ञितम् ।
सर्वभूतात्मभावेन भूतेष्वन्तर्हितं गुणैः ॥ २९ ॥
सोऽयं ब्रह्मर्षिवर्यस्ते राजर्षिप्रवराद् विभो ।
कथमर्हति धर्मज्ञ वधं पितुरिवात्मजः ॥ ३० ॥
तस्य साधोरपापस्य भ्रूणस्य ब्रह्मवादिनः ।
कथं वधं यथा बभ्रोः मन्यते सन्मतो भवान् ॥ ३१ ॥
यइ अयं क्रियते भक्षः तर्हि मां खाद पूर्वतः ।
न जीविष्ये विना येन क्षणं च मृतकं यथा ॥ ३२ ॥
एवं करुणभाषिण्या विलपन्त्या अनाथवत् ।
व्याघ्रः पशुमिवाखादत् सौदासः शापमोहितः ॥ ३३ ॥
ब्राह्मणी वीक्ष्य दिधिषुं पुरुषादेन भक्षितम् ।
शोचन्ति आत्मानमुर्वीशं अशपत् कुपिता सती ॥ ३४ ॥
यस्मान्मे भक्षितः पाप कामार्तायाः पतिस्त्वया ।
तवापि मृत्युः आधानाद् अकृतप्रज्ञ दर्शितः ॥ ३५ ॥
एवं मित्रसहं शप्त्वा पतिलोकपरायणा ।
तदस्थीनि समिद्धेऽग्नौ प्रास्य भर्तुर्गतिं गता ॥ ३६ ॥

राजा परीक्षित्‌ ने पूछाभगवन् ! हम यह जानना चाहते हैं कि महात्मा सौदास को गुरु वसिष्ठजी ने शाप क्यों दिया। यदि कोई गोपनीय बात न हो तो कृपया बतलाइये ॥ १९ ॥
श्रीशुकदेवजी ने कहापरीक्षित्‌ ! एक बार राजा सौदास शिकार खेलने गये हुए थे। वहाँ उन्होंने किसी राक्षसको मार डाला और उसके भाईको छोड़ दिया। उसने राजाके इस कामको अन्याय समझा और उनसे भाईकी मृत्युका बदला लेनेके लिये वह रसोइयेका रूप धारण करके उनके घर गया। जब एक दिन भोजन करनेके लिये गुरु वसिष्ठजी राजाके यहाँ आये, तब उसने मनुष्यका मांस राँधकर उन्हें परस दिया ॥ २०-२१ ॥ जब सर्वसमर्थ वसिष्ठजीने देखा कि परोसी जानेवाली वस्तु तो नितान्त अभक्ष्य है, तब उन्होंने क्रोधित होकर राजाको शाप दिया कि जा, इस कामसे तू राक्षस हो जायगा॥ २२ ॥ जब उन्हें यह बात मालूम हुई कि यह काम तो राक्षसका हैराजाका नहीं, तब उन्होंने उस शापको केवल बारह वर्षके लिये कर दिया। उस समय राजा सौदास भी अपनी अञ्जलिमें जल लेकर गुरु वसिष्ठको शाप देनेके लिये उद्यत हुए ॥ २३ ॥ परंतु उनकी पत्नी मदयन्तीने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। इसपर सौदासने विचार किया कि दिशाएँ, आकाश और पृथ्वीसब-के-सब तो जीवमय ही हैं। तब यह तीक्ष्ण जल कहाँ छोड़ूँ ?’ अन्तमें उन्होंने उस जलको अपने पैरोंपर डाल लिया। [इसीसे उनका नाम मित्रसहहुआ] ॥ २४ ॥ उस जलसे उनके पैर काले पड़ गये थे, इसलिये उनका नाम कल्माषपादभी हुआ। अब वे राक्षस हो चुके थे। एक दिन राक्षस बने हुए राजा कल्माषपादने एक वनवासी ब्राह्मण-दम्पतिको सहवासके समय देख लिया ॥ २५ ॥ कल्माषपादको भूख तो लगी ही थी, उसने ब्राह्मणको पकड़ लिया। ब्राह्मण-पत्नीकी कामना अभी पूर्ण नहीं हुई थी। उसने कहा—‘राजन् ! आप राक्षस नहीं हैं। आप महारानी मदयन्तीके पति और इक्ष्वाकुवंशके वीर महारथी हैं। आपको ऐसा अधर्म नहीं करना चाहिये। मुझे सन्तानकी कामना है और इस ब्राह्मणकी भी कामनाएँ अभी पूर्ण नहीं हुई हैं इसलिये आप मुझे मेरा यह ब्राह्मण पति दे दीजिये ॥ २६-२७ ॥ राजन् ! यह मनुष्यशरीर जीवको धर्म, अर्थ, काम और मोक्षचारों पुरुषार्थोंकी प्राप्ति करानेवाला है। इसलिये वीर ! इस शरीरको नष्ट कर देना सभी पुरुषार्थोंकी हत्या कही जाती है ॥ २८ ॥ फिर यह ब्राह्मण तो विद्वान् है। तपस्या, शील और बड़े-बड़े गुणोंसे सम्पन्न है। यह उन पुरुषोत्तम परब्रह्मकी समस्त प्राणियोंके आत्माके रूपमें आराधना करना चाहता है, जो समस्त पदार्थोंमें विद्यमान रहते हुए भी उनके पृथक्-पृथक् गुणोंसे छिपे हुए हैं ॥ २९ ॥ राजन् ! आप शक्तिशाली हैं। आप धर्मका मर्म भलीभाँति जानते हैं। जैसे पिताके हाथों पुत्रकी मृत्यु उचित नहीं, वैसे ही आप-जैसे श्रेष्ठ राजर्षिके हाथों मेरे श्रेष्ठ ब्रह्मर्षि पतिका वध किसी प्रकार उचित नहीं है ॥ ३० ॥ आपका साधु-समाजमें बड़ा सम्मान है। भला आप मेरे परोपकारी, निरपराध, श्रोत्रिय एवं ब्रह्मवादी पतिका वध कैसे ठीक समझ रहे हैं। ये तो गौ के समान निरीह हैं ॥ ३१ ॥ फिर भी यदि आप इन्हें खा ही डालना चाहते हैं, तो पहले मुझे खा डालिये। क्योंकि अपने पतिके बिना मैं मुर्देके समान हो जाऊँगी और एक क्षण भी जीवित न रह सकूँगी॥ ३२ ॥ ब्राह्मणपत्नी बड़ी ही करुणापूर्ण वाणीमें इस प्रकार कहकर अनाथकी भाँति रोने लगी। परंतु सौदास ने शापसे मोहित होनेके कारण उसकी प्रार्थनापर कुछ भी ध्यान न दिया और वह उस ब्राह्मणको वैसे ही खा गया, जैसे बाघ किसी पशुको खा जाय ॥ ३३ ॥ जब ब्राह्मणीने देखा कि राक्षसने मेरे गर्भाधानके लिये उद्यत पतिको खा लिया, तब उसे बड़ा शोक हुआ। सती ब्राह्मणी ने क्रोध करके राजाको शाप दे दिया ॥ ३४ ॥ रे पापी ! मैं अभी कामसे पीडि़त हो रही थी। ऐसी अवस्थामें तूने मेरे पतिको खा डाला है। इसलिये मूर्ख ! जब तू स्त्रीसे सहवास करना चाहेगा, तभी तेरी मृत्यु हो जायगी, यह बात मैं तुझे सुझाये देती हूँ॥ ३५ ॥ इस प्रकार मित्रसहको शाप देकर ब्राह्मणी अपने पतिकी अस्थियोंको धधकती हुई चितामें डालकर स्वयं भी सती हो गयी और उसने वही गति प्राप्त की, जो उसके पतिदेवको मिली थी। क्यों न हो, वह अपने पतिको छोडक़र और किसी लोकमें जाना भी तो नहीं चाहती थी ॥ ३६ ॥

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शनिवार, 14 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध नवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

भगीरथ-चरित्र और गङ्गावतरण

श्रुतो भगीरथाज्जज्ञे तस्य नाभोऽपरोऽभवत् ।
सिन्धुद्वीपः ततस्तस्मात् अयुतायुः ततोऽभवत् ॥ १६ ॥
ऋतूपर्णो नलसखो योऽश्वविद्यामयान्नलात् ।
दत्त्वाक्षहृदयं चास्मै सर्वकामस्तु तत्सुतम् ॥ १७ ॥
ततः सुदासः तत्पुत्रो मदयन्तीपतिर्नृपः ।
आहुर्मित्रसहं यं वै कल्माषाङ्‌घ्रिमुत क्वचित् ।
वसिष्ठशापाद्रक्षोऽभूत् अनपत्यः स्वकर्मणा ॥ १८ ॥

भगीरथ का पुत्र था श्रुत, श्रुत का नाभ। यह नाभ पूर्वोक्त नाभ से भिन्न है। नाभ का पुत्र था सिन्धुद्वीप और सिन्धुद्वीप का अयुतायु। अयुतायु के पुत्रका नाम था ऋतुपर्ण। वह नलका मित्र था। उसने नलको पासा फेंकने की विद्या का रहस्य बतलाया था और बदलेमें उससे अश्वविद्या सीखी थी। ऋतुपर्णका पुत्र सर्वकाम हुआ ॥ १६-१७ ॥ परीक्षित्‌ ! सर्वकाम के पुत्रका नाम था सुदास। सुदासके पुत्रका नाम था सौदास और सौदासकी पत्नीका नाम था मदयन्ती। सौदासको ही कोई-कोई मित्रसह कहते हैं और कहीं-कहीं उसे कल्माषपाद भी कहा गया है। वह वसिष्ठके शापसे राक्षस हो गया था और फिर अपने कर्मोंके कारण सन्तानहीन हुआ ॥ १८ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध नवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

भगीरथ-चरित्र और गङ्गावतरण

श्रीभगीरथ उवाच ।
साधवो न्यासिनः शान्ता ब्रह्मिष्ठा लोकपावनाः ।
हरन्ति अघं ते अंगसंगात् तेष्वास्ते ह्यघभित् हरिः ॥ ६ ॥
धारयिष्यति ते वेगं रुद्रस्त्वात्मा शरीरिणाम् ।
यस्मिन् ओतं इदं प्रोतं विश्वं शाटीव तन्तुषु ॥ ७ ॥
इत्युक्त्वा स नृपो देवं तपसा तोषयच्छिवम् ।
कालेनाल्पीयसा राजन् तस्येशः समतुष्यत ॥ ८ ॥
तथेति राज्ञाभिहितं सर्वलोकहितः शिवः ।
दधारावहितो गंगां पादपूतजलां हरेः ॥ ९ ॥
भगीरथः स राजर्षिः निन्ये भुवनपावनीम् ।
यत्र स्वपितॄणां देहा भस्मीभूताः स्म शेरते ॥ १० ॥
रथेन वायुवेगेन प्रयान्तं अनुधावती ।
देशान् पुनन्ती निर्दग्धान् आसिञ्चत् सगरात्मजान् ॥ ११ ॥
यज्जलस्पर्शमात्रेण ब्रह्मदण्डहता अपि ।
सगरात्मजा दिवं जग्मुः केवलं देहभस्मभिः ॥ १२ ॥
भस्मीभूतांगसंगेन स्वर्याताः सगरात्मजाः ।
किं पुनः श्रद्धया देवीं सेवन्ते ये धृतव्रताः ॥ १३ ॥
न ह्येतत् परमाश्चर्यं स्वर्धुन्या यदिहोदितम् ।
अनन्तचरणाम्भोज प्रसूताया भवच्छिदः ॥ १४ ॥
सन्निवेश्य मनो यस्मिन् श्रद्धया मुनयोऽमलाः ।
त्रैगुण्यं दुस्त्यजं हित्वा सद्यो यातास्तदात्मताम् ॥ १५ ॥

भगीरथ ने कहा—‘माता ! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुत्रकी कामना का संन्यास कर दिया है, जो संसार से उपरत होकर अपने-आपमें शान्त हैं, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करनेवाले परोपकारी सज्जन हैंवे अपने अङ्गस्पर्श से तुम्हारे पापोंको नष्ट कर देंगे। क्योंकि उनके हृदयमें अघरूप अघासुरको मारनेवाले भगवान्‌ सर्वदा निवास करते हैं ॥ ६ ॥ समस्त प्राणियोंके आत्मा रुद्रदेव तुम्हारा वेग धारण कर लेंगे। क्योंकि जैसे साड़ी सूतों में ओतप्रोत है, वैसे ही यह सारा विश्व भगवान्‌ रुद्रमें  ही ओतप्रोत है॥ ७ ॥ परीक्षित्‌ ! गङ्गाजी से इस प्रकार कहकर राजा भगीरथने तपस्याके द्वारा भगवान्‌ शङ्कर को प्रसन्न किया। थोड़े ही दिनोंमें महादेवजी उनपर प्रसन्न हो गये ॥ ८ ॥ भगवान्‌ शङ्कर तो सम्पूर्ण विश्वके हितैषी हैं, राजाकी बात उन्होंने तथास्तुकहकर स्वीकार कर ली। फिर शिवजीने सावधान होकर गङ्गाजीको अपने सिरपर धारण किया। क्यों न हो, भगवान्‌के चरणोंका सम्पर्क होनेके कारण गङ्गाजीका जल परम पवित्र जो है ॥ ९ ॥ इसके बाद राजर्षि भगीरथ त्रिभुवनपावनी गङ्गाजीको वहाँ ले गये, जहाँ उनके पितरोंके शरीर राखके ढेर बने पड़े थे ॥ १० ॥ वे वायुके समान वेगसे चलनेवाले रथपर सवार होकर आगे-आगे चल रहे थे और उनके पीछे-पीछे मार्गमें पडऩेवाले देशोंको पवित्र करती हुई गङ्गाजी दौड़ रही थीं। इस प्रकार गङ्गासागर-सङ्गमपर पहुँचकर उन्होंने सगरके जले हुए पुत्रोंको अपने जलमें डुबा दिया ॥ ११ ॥ यद्यपि सगरके पुत्र ब्राह्मणके तिरस्कारके कारण भस्म हो गये थे, इसलिये उनके उद्धारका कोई उपाय न थाफिर भी केवल शरीरकी राखके साथ गङ्गाजलका स्पर्श हो जानेसे ही वे स्वर्गमें चले गये ॥ १२ ॥ परीक्षित्‌ ! जब गङ्गाजलसे शरीरकी राखका स्पर्श हो जानेसे सगरके पुत्रोंको स्वर्गकी प्राप्ति हो गयी, तब जो लोग श्रद्धाके साथ नियम लेकर श्रीगङ्गाजीका सेवन करते हैं, उनके सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ॥ १३ ॥ मैंने गङ्गाजीकी महिमाके सम्बन्धमें जो कुछ कहा है, उसमें आश्चर्यकी कोई बात नहीं है। क्योंकि गङ्गाजी भगवान्‌ के उन चरणकमलोंसे निकली हैं, जिनका श्रद्धाके साथ चिन्तन करके बड़े-बड़े मुनि निर्मल हो जाते हैं और तीनों गुणोंके कठिन बन्धनको काटकर तुरंत भगवत्स्वरूप बन जाते हैं। फिर गङ्गाजी संसारका बन्धन काट दें, इसमें कौन बड़ी बात है ॥ १४-१५ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




शुक्रवार, 13 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध नवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

भगीरथ-चरित्र और गङ्गावतरण

श्रीशुक उवाच ।

अंशुमांश्च तपस्तेपे गंगानयनकाम्यया ।
कालं महान्तं नाशक्नोत् ततः कालेन संस्थितः ॥ १ ॥
दिलीपस्तत्सुतस्तद्वद् अशक्तः कालमेयिवान् ।
भगीरथस्तस्य पुत्रः तेपे स सुमहत् तपः ॥ २ ॥
दर्शयामास तं देवी प्रसन्ना वरदास्मि ते ।
इत्युक्तः स्वं अभिप्रायं शशंसावनतो नृपः ॥ ३ ॥
कोऽपि धारयिता वेगं पतन्त्या मे महीतले ।
अन्यथा भूतलं भित्त्वा नृप यास्ये रसातलम् ॥ ४ ॥
किं चाहं न भुवं यास्ये नरा मय्यामृजन्त्यघम् ।
मृजामि तदघं क्वाहं राजन् तत्र विचिन्त्यताम् ॥ ५ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अंशुमान ने गङ्गाजी को लाने की कामनासे बहुत वर्षों तक घोर तपस्या की। परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली, समय आनेपर उनकी मृत्यु हो गयी ॥ १ ॥ अंशुमान् के पुत्र दिलीप ने भी वैसी ही तपस्या की। परंतु वे भी असफल ही रहे, समयपर उनकी भी मृत्यु हो गयी। दिलीपके पुत्र थे भगीरथ। उन्होंने बहुत बड़ी तपस्या की ॥ २ ॥ उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर भगवती गङ्गाने उन्हें दर्शन दिया और कहा कि—‘मैं तुम्हें वर देनेके लिये आयी हूँ।उनके ऐसा कहनेपर राजा भगीरथने बड़ी नम्रतासे अपना अभिप्राय प्रकट किया कि आप मर्त्यलोकमें चलिये॥ ३ ॥
[गङ्गाजीने कहा—]‘जिस समय मैं स्वर्गसे पृथ्वीतलपर गिरूँ, उस समय मेरे वेगको कोई धारण करनेवाला होना चाहिये। भगीरथ ! ऐसा न होनेपर मैं पृथ्वीको फोडक़र रसातलमें चली जाऊँगी ॥ ४ ॥ इसके अतिरिक्त इस कारणसे भी मैं पृथ्वीपर नहीं जाऊँगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे। फिर मैं उस पाप को कहाँ धोऊँगी। भगीरथ ! इस विषयमें तुम स्वयं विचार कर लो॥ ५ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

सगर-चरित्र

श्रीशुक उवाच ।

इत्थं गीतानुभावस्तं भगवान् कपिलो मुनिः ।
अंशुमन्तं उवाचेदं अनुग्राह्य धिया नृप ॥ २८ ॥

श्रीभगवानुवाच ।

अश्वोऽयं नीयतां वत्स पितामहपशुस्तव ।
इमे च पितरो दग्धा गंगाम्भोऽर्हन्ति नेतरत् ॥ २९ ॥
तं परिक्रम्य शिरसा प्रसाद्य हयमानयत् ।
सगरस्तेन पशुना यज्ञशेषं समापयत् ॥ ३० ॥
राज्यं अंशुमते न्यस्य निःस्पृहो मुक्तबन्धनः ।
और्वोपदिष्टमार्गेण लेभे गतिमनुत्तमाम् ॥ ३१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब अंशुमान् ने भगवान्‌ कपिलमुनि के प्रभावका इस प्रकार गान किया, तब उन्होंने मन-ही-मन अंशुमान् पर  बड़ा अनुग्रह किया और कहा॥ २८ ॥
श्रीभगवान्‌ने कहा—‘बेटा ! यह घोड़ा तुम्हारे पितामहका यज्ञपशु है। इसे तुम ले जाओ। तुम्हारे जले हुए चाचाओं का उद्धार केवल गङ्गाजल से होगा, और कोई उपाय नहीं है॥ २९ ॥ अंशुमान् ने बड़ी नम्रतासे उन्हें प्रसन्न करके उनकी परिक्रमा की और वे घोड़े को ले आये। सगर ने उस यज्ञपशु के द्वारा यज्ञकी शेष क्रिया समाप्त की ॥ ३० ॥ तब राजा सगर ने अंशुमान् को राज्य का भार सौंप दिया और वे स्वयं विषयोंसे नि:स्पृह एवं बन्धनमुक्त हो गये। उन्होंने महर्षि और्व के बतलाये हुए मार्गसे परमपदकी प्राप्ति की ॥ ३१ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से





गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध आठवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

सगर-चरित्र

अंशुमानुवाच ।
न पश्यति त्वां परमात्मनोऽजनो
न बुध्यतेऽद्यापि समाधियुक्तिभिः ।
कुतोऽपरे तस्य मनःशरीरधी
विसर्गसृष्टा वयमप्रकाशाः ॥ २२ ॥
ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधाना
गुणान् विपश्यन्त्युत वा तमश्च ।
यन्मायया मोहितचेतसस्ते
विदुः स्वसंस्थं न बहिःप्रकाशाः ॥ २३ ॥
तं त्वां अहं ज्ञानघनं स्वभाव
प्रध्वस्तमायागुणभेदमोहैः ।
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिर्विभाव्यं
कथं विमूढः परिभावयामि ॥ २४ ॥
प्रशान्त मायागुणकर्मलिंगं
अनामरूपं सदसद्विमुक्तम् ।
ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहं
नमामहे त्वां पुरुषं पुराणम् ॥ २५ ॥
त्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्ध्या गृहादिषु ।
भ्रमन्ति कामलोभेर्ष्या मोहविभ्रान्तचेतसः ॥ २६ ॥
अद्य नः सर्वभूतात्मन् कामकर्मेन्द्रियाशयः ।
मोहपाशो दृढश्छिन्नो भगवन् तव दर्शनात् ॥ २७ ॥

अंशुमान् ने कहाभगवन् ! आप अजन्मा ब्रह्माजीसे भी परे हैं। इसीलिये वे आपको प्रत्यक्ष नहीं देख पाते। देखनेकी बात तो अलग रहीवे समाधि करते-करते एवं युक्ति लड़ाते-लड़ाते हार गये, किन्तु आज तक आप को समझ भी नहीं पाये। हम लोग तो उनके मन, शरीर और बुद्धि से होने वाली सृष्टि के द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव हैं। तब भला, हम आप को कैसे समझ सकते हैं ॥२२॥ संसार के शरीरधारी, सत्त्वगुण, रजोगुण या तमोगुण-प्रधान हैं, वे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओं में केवल गुणमय पदार्थों, विषयों को और सुषुप्ति-अवस्था में केवल अज्ञान-ही-अज्ञान देखते हैं। इसका कारण यह है कि वे आपकी मायासे मोहित हो रहे हैं। वे बहिर्मुख होनेके कारण बाहरकी वस्तुओंको तो देखते हैं, पर अपने ही हृदयमें स्थित आपको नहीं देख पाते ॥ २३ ॥ आप एकरस, ज्ञानघन हैं। सनन्दन आदि मुनि, जो आत्म-स्वरूपके अनुभव से मायाके गुणोंके द्वारा होनेवाले भेदभावको और उसके कारण अज्ञानको नष्ट कर चुके हैं, आपका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। मायाके गुणोंमें ही भूला हुआ मैं मूढ़ किस प्रकार आपका चिन्तन करूँ ॥ २४ ॥ माया, उसके गुण और गुणोंके कारण होनेवाले कर्म एवं कर्मोंके संस्कार से बना हुआ लिङ्ग शरीर आप में है ही नहीं। न तो आपका नाम है और न तो रूप। आपमें न कार्य है और न तो कारण। आप सनातन आत्मा हैं। ज्ञानका उपदेश करनेके लिये ही आपने यह शरीर धारण कर रखा है। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २५ ॥ प्रभो ! यह संसार आपकी मायाकी करामात है। इसको सत्य समझकर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह से लोगों का चित्त, शरीर तथा घर आदि में भटकने लगता है। लोग इसीके चक्करमें फँस जाते हैं ॥ २६ ॥ समस्त प्राणियोंके आत्मा प्रभो ! आज आपके दर्शनसे मेरे मोहकी वह दृढ़ फाँसी कट गयी जो कामना, कर्म और इन्द्रियों को जीवन-दान देती है ॥ २७ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



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