॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –नवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)
भगीरथ-चरित्र और गङ्गावतरण
विशापो द्वादशाब्दान्ते मैथुनाय समुद्यतः ।
विज्ञाय ब्राह्मणीशापं महिष्या स निवारितः ॥ ३७ ॥
अत ऊर्ध्वं स तत्याज स्त्रीसुखं कर्मणाप्रजाः ।
वसिष्ठस्तदनुज्ञातो मदयन्त्यां प्रजामधात् ॥ ३८ ॥
सा वै सप्त समा गर्भं अबिभ्रन्न व्यजायत ।
जघ्नेऽश्मनोदरं तस्याः सोऽश्मकस्तेन कथ्यते ॥ ३९ ॥
अश्मकान् मूलको जज्ञे यः स्त्रीभिः परिरक्षितः ।
नारीकवच इत्युक्तो निःक्षत्रे मूलकोऽभवत् ॥ ४० ॥
ततो दशरथस्तस्मात् पुत्र ऐडविडिस्ततः ।
राजा विश्वसहो यस्य खट्वांगश्चक्रवर्त्यभूत् ॥ ४१ ॥
यो देवैरर्थितो दैत्यान् अवधीद् युधि दुर्जयः ।
मुहूर्तं आयुः ज्ञात्वैत्य स्वपुरं सन्दधे मनः ॥ ४२ ॥
न मे ब्रह्मकुलात् प्राणाः कुलदैवान्न चात्मजाः ।
न श्रियो न मही राज्यं न दाराश्चातिवल्लभाः ॥ ४३ ॥
न बाल्येऽपि मतिर्मह्यं अधर्मे रमते क्वचित् ।
नापश्यं उत्तमश्लोकात् अन्यत् किञ्चन वस्त्वहम् ॥ ४४ ॥
देवैः कामवरो दत्तो मह्यं त्रिभुवनेश्वरैः ।
न वृणे तमहं कामं भूतभावनभावनः ॥ ४५ ॥
ये विक्षिप्तेन्द्रियधियो देवास्ते स्वहृदि स्थितम् ।
न विन्दन्ति प्रियं शश्वद् आत्मानं किमुतापरे ॥ ४६ ॥
अथेशमायारचितेषु संगं
गुणेषु गन्धर्वपुरोपमेषु ।
रूढं प्रकृत्यात्मनि विश्वकर्तुः
भावेन हित्वा तमहं प्रपद्ये ॥ ४७ ॥
इति व्यवसितो बुद्ध्या नारायणगृहीतया ।
हित्वान्यभावमज्ञानं ततः स्वं भावमास्थितः ॥ ४८ ॥
यत्तद्ब्रह्म परं सूक्ष्मं अशून्यं शून्यकल्पितम् ।
भगवान् वासुदेवेति यं गृणन्ति हि सात्वताः ॥ ४९ ॥
बारह वर्ष बीतनेपर राजा सौदास शापसे मुक्त हो गये। जब वे सहवासके
लिये अपनी पत्नीके पास गये, तब उसने इन्हें रोक दिया। क्योंकि उसे उस
ब्राह्मणीके शापका पता था ॥ ३७ ॥ इसके बाद उन्होंने स्त्री सुखका बिलकुल परित्याग
ही कर दिया। इस प्रकार अपने कर्मके फलस्वरूप वे सन्तानहीन हो गये। तब वसिष्ठजी ने
उनके कहने से मदयन्ती को गर्भाधान कराया ॥ ३८ ॥ मदयन्ती सात वर्षतक गर्भ धारण किये
रही, परंतु बच्चा पैदा नहीं हुआ। तब वसिष्ठजीने पत्थरसे उसके
पेटपर आघात किया। इससे जो बालक हुआ, वह अश्म (पत्थर) की
चोटसे पैदा होनेके कारण ‘अश्मक’ कहलाया
॥ ३९ ॥ अश्मक से मूलक का जन्म हुआ। जब परशुराम जी पृथ्वी को क्षत्रियहीन कर रहे थे,
तब स्त्रियोंने उसे छिपाकर रख लिया था। इसीसे उसका एक नाम ‘नारीकवच’ भी हुआ। उसे मूलक इसलिये कहते हैं कि वह
पृथ्वीके क्षत्रियहीन हो जानेपर उस वंशका मूल (प्रवर्तक) बना ॥ ४० ॥ मूलकके पुत्र
हुए दशरथ, दशरथके ऐडविड और ऐडविडके राजा विश्वसह। विश्वसहके
पुत्र ही चक्रवर्ती सम्राट् खट्वाङ्ग हुए ॥ ४१ ॥ युद्धमें उन्हें कोई जीत नहीं
सकता था। उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे दैत्योंका वध किया था। जब उन्हें
देवताओंसे यह मालूम हुआ कि अब मेरी आयु केवल दो ही घड़ी बाकी है, तब वे अपनी राजधानी लौट आये और अपने मनको उन्होंने भगवान्में लगा दिया ॥
४२ ॥ वे मन-ही-मन सोचने लगे कि ‘मेरे कुलके इष्ट देवता हैं
ब्राह्मण ! उनसे बढक़र मेरा प्रेम अपने प्राणोंपर भी नहीं है। पत्नी, पुत्र, लक्ष्मी, राज्य और
पृथ्वी भी मुझे उतने प्यारे नहीं लगते ॥ ४३ ॥ मेरा मन बचपनमें भी कभी अधर्मकी ओर
नहीं गया। मैंने पवित्रकीर्ति भगवान्के अतिरिक्त और कोई भी वस्तु कहीं नहीं देखी
॥ ४४ ॥ तीनों लोकोंके स्वामी देवताओंने मुझे मुँहमाँगा वर देनेको कहा। परंतु मैंने
उन भोगोंकी लालसा बिलकुल नहीं की। क्योंकि समस्त प्राणियोंके जीवनदाता श्रीहरिकी
भावनामें ही मैं मग्र हो रहा था ॥ ४५ ॥ जिन देवताओंकी इन्द्रियाँ और मन विषयोंमें
भटक रहे हैं,वे सत्त्वगुणप्रधान होनेपर भी अपने हृदयमें
विराजमान, सदा-सर्वदा प्रियतमके रूपमें रहनेवाले अपने
आत्मस्वरूप भगवान्को नहीं जानते। फिर भला जो रजोगुणी और तमोगुणी हैं, वे तो जान ही कैसे सकते हैं ॥ ४६ ॥ इसलिये अब इन विषयोंमें मैं नहीं रमता।
ये तो मायाके खेल हैं। आकाशमें झूठ-मूठ प्रतीत होनेवाले गन्धर्वनगरोंसे बढक़र इनकी
सत्ता नहीं है। ये तो अज्ञानवश चित्तपर चढ़ गये थे। संसार के सच्चे रचयिता भगवान्
की भावना में लीन होकर मैं विषयों को छोड़ रहा हूँ और केवल उन्हींकी शरण ले रहा
हूँ ॥ ४७ ॥ परीक्षित् ! भगवान् ने राजा खट्वाङ्ग की बुद्धिको पहलेसे ही अपनी ओर
आकर्षित कर रखा था। इसीसे वे अन्तसमयमें ऐसा निश्चय कर सके। अब उन्होंने शरीर आदि
अनात्म पदार्थोंमें जो अज्ञानमूलक आत्मभाव था, उसका परित्याग
कर दिया और अपने वास्तविक आत्मस्वरूपमें स्थित हो गये ॥ ४८ ॥ वह स्वरूप साक्षात्
परब्रह्म है। वह सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, शून्य के समान ही है।
परंतु वह शून्य नहीं, परम सत्य है। भक्तजन उसी वस्तु को ‘भगवान् वासुदेव’ इस नाम से वर्णन करते हैं ॥ ४९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से