शनिवार, 4 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



ययाति चरित्र


श्रीशुक उवाच ।

एकदा दानवेन्द्रस्य शर्मिष्ठा नाम कन्यका ।

सखीसहस्रसंयुक्ता गुरुपुत्र्या च भामिनी ॥ ६ ॥

देवयान्या पुरोद्याने पुष्पितद्रुमसंकुले ।

व्यचरत् कलगीतालि नलिनीपुलिनेऽबला ॥ ७ ॥

ता जलाशयम आसाद्य कन्याः कमललोचनाः ।

तीरे न्यस्य दुकूलानि विजह्रुः सिञ्चतीर्मिथः ॥ ८ ॥

वीक्ष्य व्रजन्तं गिरिशं सह देव्या वृषस्थितम् ।

सहसोत्तीर्य वासांसि पर्यधुर्व्रीडिताः स्त्रियः ॥ ९ ॥

शर्मिष्ठाजानती वासो गुरुपुत्र्याः समव्ययत् ।

स्वीयं मत्वा प्रकुपिता देवयानी इदमब्रवीत् ॥ १० ॥

अहो निरीक्ष्यतामस्या दास्याः कर्म ह्यसाम्प्रतम् ।

अस्मद्धार्यं धृतवती शुनीव हविरध्वरे ॥ ११ ॥

यैरिदं तपसा सृष्टं मुखं पुंसः परस्य ये ।

धार्यते यैरिह ज्योतिः शिवः पन्थाः प्रदर्शितः ॥ १२ ॥

यान् वन्दन्ति उपतिष्ठन्ते लोकनाथाः सुरेश्वराः ।

भगवानपि विश्वात्मा पावनः श्रीनिकेतनः ॥ १३ ॥

वयं तत्रापि भृगवः शिष्योऽस्या नः पितासुरः ।

अस्मद्धार्यं धृतवती शूद्रो वेदमिवासती ॥ १४ ॥

एवं क्षिपन्तीं शर्मिष्ठा गुरुपुत्रीं अभाषत ।

रुषा श्वसन्ति उरंगीघ्गीव धर्षिता दष्टदच्छदा ॥ १५ ॥

आत्मवृत्तमविज्ञाय कत्थसे बहु भिक्षुकि ।

किं न प्रतीक्षसेऽस्माकं गृहान् बलिभुजो यथा ॥ १६ ॥

एवंविधैः सुपरुषैः क्षिप्त्वाऽऽचार्यसुतां सतीम् ।

शर्मिष्ठा प्राक्षिपत् कूपे वासे आदाय मन्युना ॥ १७ ॥


श्रीशुकदेवजीने कहाराजन् ! दानवराज वृषपर्वा की एक बड़ी मानिनी कन्या थी। उसका नाम था शर्मिष्ठा। वह एक दिन अपनी गुरुपुत्री देवयानी और हजारों सखियों के साथ अपनी राजधानीके श्रेष्ठ उद्यानमें टहल रही थी। उस उद्यानमें सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंसे लदे हुए अनेकों वृक्ष थे। उसमें एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। सरोवरमें कमल खिले हुए थे और उनपर बड़े ही मधुर स्वरसे भौंरे गुँजार कर रहे थे। उसकी ध्वनिसे सरोवरका तट गूँज रहा था ॥ ६-७ ॥ जलाशयके पास पहुँचनेपर उन सुन्दरी कन्याओंने अपने-अपने वस्त्र तो घाटपर रख दिये और उस तालाबमें प्रवेश करके वे एक-दूसरेपर जल उलीच-उलीचकर क्रीडा करने लगीं ॥ ८ ॥ उसी समय उधरसे पार्वतीजीके साथ बैलपर चढ़े हुए भगवान्‌ शङ्कर आ निकले। उनको देखकर सब-की-सब कन्याएँ सकुचा गयीं और उन्होंने झटपट सरोवरसे निकलकर अपने-अपने वस्त्र पहन लिये ॥ ९ ॥ शीघ्रताके कारण शर्मिष्ठाने अनजानमें देवयानीके वस्त्रको अपना समझकर पहन लिया। इसपर देवयानी क्रोधके मारे आग- बबूला हो गयी। उसने कहा॥ १० ॥ अरे, देखो तो सही, इस दासीने कितना अनुचित काम कर डाला ! राम-राम, जैसे कुतिया यज्ञका हविष्य उठा ले जाय, वैसे ही इसने मेरे वस्त्र पहन लिये हैं ॥ ११ ॥ जिन ब्राह्मणोंने अपने तपोबलसे इस संसारकी सृष्टि की है, जो परम पुरुष परमात्माके मुखरूप हैं, जो अपने हृदयमें निरन्तर ज्योतिर्मय परमात्माको धारण किये रहते हैं और जिन्होंने सम्पूर्ण प्राणियोंके कल्याणके लिये वैदिक मार्गका निर्देश किया है, बड़े-बड़े लोकपाल तथा देवराज इन्द्र, ब्रह्मा आदि भी जिनके चरणोंकी वन्दना और सेवा करते हैंऔर तो क्या, लक्ष्मीजीके एकमात्र आश्रय परम पावन विश्वात्मा भगवान्‌ भी जिनकी वन्दना और स्तुति करते हैंउन्हीं ब्राह्मणोंमें हम सबसे श्रेष्ठ भृगुवंशी हैं। और इसका पिता प्रथम तो असुर है, फिर हमारा शिष्य है। इसपर भी इस दुष्टाने जैसे शूद्र वेद पढ़ ले, उसी तरह हमारे कपड़ोंको पहन लिया है॥ १२१४ ॥ जब देवयानी इस प्रकार गाली देने लगी, तब शर्मिष्ठा क्रोधसे तिलमिला उठी। वह चोट खायी हुई नागिनके समान लंबी साँस लेने लगी। उसने अपने दाँतोंसे होठ दबाकर कहा॥ १५ ॥ भिखारिन ! तू इतना बहक रही है। तुझे कुछ अपनी बातका भी पता है ? जैसे कौए और कुत्ते हमारे दरवाजेपर रोटीके टुकड़ोंके लिये प्रतीक्षा करते हैं, वैसे ही क्या तुम भी हमारे घरोंकी ओर नहीं ताकती रहती॥ १६ ॥ शर्मिष्ठाने इस प्रकार बड़ी कड़ी-कड़ी बात कहकर गुरुपुत्री देवयानीका तिरस्कार किया और क्रोधवश उसके वस्त्र छीनकर उसे कूएँमें ढकेल दिया ॥ १७ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



ययाति चरित्र


श्रीशुक उवाच ।

यतिर्ययातिः संयातिः आयतिर्वियतिः कृतिः ।

षडिमे नहुषस्यासन् इन्द्रियाणीव देहिनः ॥ १ ॥

राज्यं नैच्छद् यतिः पित्रा दत्तं तत्परिणामवित् ।

यत्र प्रविष्टः पुरुष आत्मानं नावबुध्यते ॥ २ ॥

पितरि भ्रंशिते स्थानाद् इन्द्राण्या धर्षणाद्‌ द्विजैः ।

प्रापितेऽजगरत्वं वै ययातिरभवन्नृपः ॥ ३ ॥

चतसृष्वादिशद् दिक्षु भ्रातॄन् भ्राता यवीयसः ।

कृतदारो जुगोपोर्वीं काव्यस्य वृषपर्वणः ॥ ४ ॥



श्रीराजोवाच ।

ब्रह्मर्षिर्भगवान् काव्यः क्षत्रबन्धुश्च नाहुषः ।

राजन्यविप्रयोः कस्माद् विवाहः प्रतिलोमकः ॥ ५ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जैसे शरीरधारियों के छ: इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही नहुष के छ: पुत्र थे। उनके नाम थेयति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृति ॥ १ ॥ नहुष अपने बड़े पुत्र यतिको राज्य देना चाहते थे। परंतु उसने स्वीकार नहीं किया; क्योंकि वह राज्य पानेका परिणाम जानता था। राज्य एक ऐसी वस्तु है कि जो उसके दाव-पेंच और प्रबन्ध आदिमें भीतर प्रवेश कर जाता है, वह अपने आत्मस्वरूपको नहीं समझ सकता ॥ २ ॥ जब इन्द्रपत्नी शचीसे सहवास करनेकी चेष्टा करनेके कारण नहुषको ब्राह्मणोंने इन्द्रपदसे गिरा दिया और अजगर बना दिया, तब राजाके पदपर ययाति बैठे ॥ ३ ॥ ययातिने अपने चार छोटे भाइयोंको चार दिशाओंमें नियुक्त कर दिया और स्वयं शुक्राचार्यकी पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाको पत्नीके रूपमें स्वीकार करके पृथ्वीकी रक्षा करने लगा ॥ ४ ॥
राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! भगवान्‌ शुक्राचार्यजी तो ब्राह्मण थे और ययाति क्षत्रिय। फिर ब्राह्मण-कन्या और क्षत्रिय-वरका प्रतिलोम (उलटा) विवाह कैसे हुआ ? ॥ ५ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओं के वंशका वर्णन


देवैरभ्यर्थितो दैत्यान् हत्वेन्द्रायाददाद् दिवम् ।

इन्द्रस्तस्मै पुनर्दत्त्वा गृहीत्वा चरणौ रजेः ॥ १३ ॥

आत्मानमर्पयामास प्रह्रादाद्यरिशंकितः ।

पितरि उपरते पुत्रा याचमानाय नो ददुः ॥ १४ ॥

त्रिविष्टपं महेन्द्राय यज्ञभागान् समाददुः ।

गुरुणा हूयमानेऽग्नौ बलभित् तनयान् रजेः ॥ १५ ॥

अवधीद् भ्रंशितान् मार्गान् न कश्चित् अवशेषितः ।

कुशात् प्रतिः क्षात्रवृद्धात् संजयस्तत्सुतो जयः ॥ १६ ॥

ततः कृतः कृतस्यापि जज्ञे हर्यवनो नृपः ।

सहदेवस्ततो हीनो जयसेनस्तु तत्सुतः ॥ १७ ॥

सङ्‌कृतिस्तस्य च जयः क्षत्रधर्मा महारथः ।

क्षत्रवृद्धान्वया भूपा इमे श्रृणु वंशं च नाहुषात् ॥ १८ ॥



देवताओंकी प्रार्थनासे रजि ने दैत्यों का वध करके इन्द्रको स्वर्गका राज्य दिया। परंतु वे अपने प्रह्लाद आदि शत्रुओंसे भयभीत रहते थे, इसलिये उन्होंने वह स्वर्ग फिर रजिको लौटा दिया और उनके चरण पकडक़र उन्हींको अपनी रक्षाका भार भी सौंप दिया। जब रजिकी मृत्यु हो गयी, तब इन्द्रके माँगनेपर भी रजिके पुत्रोंने स्वर्ग नहीं लौटाया। वे स्वयं ही यज्ञोंका भाग भी ग्रहण करने लगे। तब गुरु बृहस्पतिजीने इन्द्रकी प्रार्थनासे अभिचार-विधिसे हवन किया। इससे वे धर्मके मार्गसे भ्रष्ट हो गये। तब इन्द्रने अनायास ही उन सब रजिके पुत्रोंको मार डाला। उनमेंसे कोई भी न बचा। क्षत्रवृद्धके पौत्र कुशसे प्रति, प्रतिसे सञ्जय और सञ्जयसे जयका जन्म हुआ ॥ १३१६ ॥ जय से कृत, कृत से राजा हर्यवन, हर्यवन से सहदेव, सहदेव से हीन और हीन से जयसेन नामक पुत्र हुआ ॥ १७ ॥ जयसेन का सङ्कृति, सङ्कृतिका पुत्र हुआ महारथी वीरशिरोमणि जय। क्षत्रवृद्ध की वंश-परम्परा में इतने ही नरपति हुए। अब नहुषवंश का वर्णन सुनो ॥ १८ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



क्षत्रवृद्ध, रजि आदि राजाओं के वंशका वर्णन


श्रीशुक उवाच ।

यः पुरूरवसः पुत्र आयुः तस्याभवन् सुताः ।

नहुषः क्षत्रवृद्धश्च रजी रंभश्च वीर्यवान् ॥ १ ॥

अनेना इति राजेन्द्र शृणु क्षत्रवृधोऽन्वयम् ।

क्षत्रवृद्धसुतस्यासन् सुहोत्रस्यात्मजास्त्रयः ॥ २ ॥

काश्यः कुशो गृत्समद इति गृत्समदादभूत् ।

शुनकः शौनको यस्य बह्वृचप्रवरो मुनिः ॥ ३ ॥

काश्यस्य काशिः तत्पुत्रो राष्ट्रो दीर्घतमःपिता ।

धन्वन्तरिर्दैर्घतम आयुर्वेदप्रवर्तकः ॥ ४ ॥

यज्ञभुग् वासुदेवांशः स्मृतमात्रार्तिनाशनः ।

तत्पुत्रः केतुमानस्य जज्ञे भीमरथस्ततः ॥ ५ ॥

दिवोदासो द्युमांस्तस्मात् प्रतर्दन इति स्मृतः ।

स एव शत्रुजिद् वत्स ऋतध्वज इतीरितः ।

तथा कुवलयाश्वेति प्रोक्तोऽलर्कादयस्ततः ॥ ६ ॥

षष्टि वर्षसहस्राणि षष्टि वर्षशतानि च ।

नालर्काद् अपरो राजन् मेदिनीं बुभुजे युवा ॥ ७ ॥

अलर्कात् सन्ततिस्तस्मात् सुनीथोऽथ निकेतनः ।

धर्मकेतुः सुतस्तस्मात् सत्यकेतुरजायत ॥ ८ ॥

धृष्टकेतुः सुतस्तस्मात् सुकुमारः क्षितीश्वरः ।

वीतिहोत्रोऽस्य भर्गोऽतो भार्गभूमिरभून्नृप ॥ ९ ॥

इतीमे काशयो भूपाः क्षत्रवृद्धान्वयायिनः ।

रम्भस्य रभसः पुत्रो गम्भीरश्चाक्रियस्ततः ॥ १० ॥

तस्य क्षेत्रे ब्रह्म जज्ञे श्रृणु वंशमनेनसः ।

शुद्धस्ततः शुचिस्तस्मात् त्रिककुद् धर्मसारथिः ॥ ११ ॥

ततः शान्तरजो जज्ञे कृतकृत्यः स आत्मवान् ।

रजेः पञ्चशतान्यासन् पुत्राणां अमितौजसाम् ॥ १२ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजेन्द्र पुरूरवा का एक पुत्र था आयु। उसके पाँच लडक़े हुएनहुष, क्षत्रवृद्ध, रजि, शक्तिशाली रम्भ और अनेना। अब क्षत्रवृद्ध का वंश सुनो। क्षत्रवृद्ध के पुत्र थे सुहोत्र। सुहोत्र के तीन पुत्र हुएकाश्य, कुश और गृत्समद। गृत्समद का पुत्र हुआ शुनक। इसी शुनक के पुत्र ऋग्वेदियों में श्रेष्ठ मुनिवर शौनकजी हुए ॥ १३ ॥ काश्य का पुत्र काशि, काशिका राष्ट्र, राष्ट्रका दीर्घतमा और दीर्घतमाके धन्वन्तरि। यही आयुर्वेदके प्रवर्तक हैं ॥ ४ ॥ ये यज्ञभागके भोक्ता और भगवान्‌ वासुदेवके अंश हैं। इनके स्मरणमात्रसे ही सब प्रकारके रोग दूर हो जाते हैं। धन्वन्तरिका पुत्र हुआ केतुमान् और केतुमान्का भीमरथ ॥ ५ ॥ भीमरथका दिवोदास और दिवोदासका द्युमान्जिसका एक नाम प्रतर्दन भी है। यही द्युमान् शत्रुजित्, वत्स, ऋतध्वज और कुवलयाश्वके नामसे भी प्रसिद्ध है। द्युमान्के ही पुत्र अलर्क आदि हुए ॥ ६ ॥ परीक्षित्‌ ! अलर्कके सिवा और किसी राजाने छाछठ हजार (६६०००) वर्षतक युवा रहकर पृथ्वीका राज्य नहीं भोगा ॥ ७ ॥ अलर्कका पुत्र हुआ सन्तति, सन्ततिका सुनीथ, सुनीथका सुकेतन, सुकेतनका धर्मकेतु और धर्मकेतुका सत्यकेतु ॥ ८ ॥ सत्यकेतुसे धृष्टकेतु, धृष्टकेतुसे राजा सुकुमार, सुकुमारसे वीतिहोत्र, वीतिहोत्रसे भर्ग और भर्गसे राजा भार्गभूमिका जन्म हुआ ॥ ९ ॥
ये सब-के-सब क्षत्रवृद्धके वंशमें काशिसे उत्पन्न नरपति हुए। रम्भके पुत्रका नाम था रभस, उससे गम्भीर और गम्भीरसे अक्रिय का जन्म हुआ ॥ १० ॥ अक्रिय की पत्नी से ब्राह्मणवंश चला। अब अनेना का वंश सुनो। अनेनाका पुत्र था शुद्ध, शुद्धका शुचि, शुचिका त्रिककुद् और त्रिककुद्का धर्मसारथि ॥ ११ ॥ धर्मसारथि के पुत्र थे शान्तरय। शान्तरय आत्मज्ञानी होनेके कारण कृतकृत्य थे, उन्हें सन्तानकी आवश्यकता न थी। परीक्षित्‌ ! आयुके पुत्र रजिके अत्यन्त तेजस्वी पाँच सौ पुत्र थे ॥ १२ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




गुरुवार, 2 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार

और विश्वामित्र जी के वंश की कथा



गाधेरभूत् महातेजाः समिद्ध इव पावकः ।

तपसा क्षात्रमुत्सृज्य यो लेभे ब्रह्मवर्चसम् ॥ २८ ॥

विश्वामित्रस्य चैवासन् पुत्रा एकशतं नृप ।

मध्यमस्तु मधुच्छन्दा मधुच्छन्दस एव ते ॥ २९ ॥

पुत्रं कृत्वा शुनःशेपं देवरातं च भार्गवम् ।

आजीगर्तं सुतानाह ज्येष्ठ एष प्रकल्प्यताम् ॥ ३० ॥

यो वै हरिश्चन्द्रमखे विक्रीतः पुरुषः पशुः ।

स्तुत्वा देवान् प्रजेशादीन् मुमुचे पाशबन्धनात् ॥ ३१ ॥

यो रातो देवयजने देवैर्गाधिषु तापसः ।

देवरात इति ख्यातः शुनःशेपस्तु भार्गवः ॥ ३२ ॥

ये मधुच्छन्दसो ज्येष्ठाः कुशलं मेनिरे न तत् ।

अशपत् तान् मुनिः क्रुद्धो म्लेच्छा भवत दुर्जनाः ॥ ३३ ॥

स होवाच मधुच्छन्दाः सार्धं पञ्चाशता ततः ।

यन्नो भवान् संजानीते तस्मिन् तिष्ठामहे वयम् ॥ ३४ ॥

ज्येष्ठं मन्त्रदृशं चक्रुः त्वां अन्वञ्चो वयं स्म हि ।

विश्वामित्रः सुतानाह वीरवन्तो भविष्यथ ।

ये मानं मेऽनुगृह्णन्तो वीरवन्तमकर्त माम् ॥ ३५ ॥

एष वः कुशिका वीरो देवरातस्तमन्वित ।

अन्ये चाष्टकहारीत जयक्रतुमदादयः ॥ ३६ ॥

एवं कौशिकगोत्रं तु विश्वामित्रैः पृथग्विधम् ।

प्रवरान्तरमापन्नं तद्धि चैवं प्रकल्पितम् ॥ ३७ ॥


महाराज गाधिके पुत्र हुए प्रज्वलित अग्नि के समान परम तेजस्वी विश्वामित्रजी। इन्होंने अपने तपोबलसे क्षत्रियत्वका त्याग करके ब्रह्मतेज प्राप्त कर लिया ॥ २८ ॥ परीक्षित्‌ ! विश्वामित्रजीके सौ पुत्र थे। उनमें बिचले पुत्रका नाम था मधुच्छन्दा। इसलिये सभी पुत्र मधुच्छन्दाके ही नामसे विख्यात हुए ॥ २९ ॥ विश्वामित्रजीने भृगुवंशी अजीगर्तके पुत्र अपने भानजे शुन:शेप को, जिसका एक नाम देवरात भी था, पुत्ररूपमें स्वीकार कर लिया और अपने पुत्रोंसे कहा कि तुमलोग इसे अपना बड़ा भाई मानो॥ ३० ॥ यह वही प्रसिद्ध भृगुवंशी शुन:शेप था, जो हरिश्चन्द्रके यज्ञमें यज्ञपशुके रूपमें मोल लेकर लाया गया था। विश्वामित्रजीने प्रजापति वरुण आदि देवताओंकी स्तुति करके उसे पाशबन्धनसे छुड़ा लिया था। देवताओंके यज्ञमें यह शुन:शेप देवताओंद्वारा विश्वामित्रजीको दिया गया था; अत: देवै: रात:इस व्युत्पत्तिके अनुसार गाधिवंशमें यह तपस्वी देवरातके नामसे विख्यात हुआ ॥ ३१-३२ ॥ विश्वामित्रजीके पुत्रोंमें जो बड़े थे, उन्हें शुन:शेपको बड़ा भाई माननेकी बात अच्छी न लगी। इसपर विश्वामित्रजीने क्रोधित होकर उन्हें शाप दे दिया कि दुष्टो ! तुम सब म्लेच्छ हो जाओ॥ ३३ ॥ इस प्रकार जब उनचास भाई म्लेच्छ हो गये, तब विश्वामित्रजीके बिचले पुत्र मधुच्छन्दाने अपनेसे छोटे पचासों भाइयोंके साथ कहा—‘पिताजी ! आप हमलोगोंको जो आज्ञा करते हैं, हम उसका पालन करनेके लिये तैयार हैं॥ ३४ ॥ यह कहकर मधुच्छन्दाने मन्त्रद्रष्टा शुन:शेपको बड़ा भाई स्वीकार कर लिया और कहा कि हम सब तुम्हारे अनुयायीछोटे भाई हैं।तब विश्वामित्रजीने अपने इन आज्ञाकारी पुत्रोंसे कहा—‘तुम लोगोंने मेरी बात मानकर मेरे सम्मानकी रक्षा की है, इसलिये तुमलोगों-जैसे सुपुत्र प्राप्त करके मैं धन्य हुआ। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम्हें भी सुपुत्र प्राप्त होंगे ॥ ३५ ॥ मेरे प्यारे पुत्रो ! यह देवरात शुन:शेप भी तुम्हारे ही गोत्रका है। तुमलोग इसकी आज्ञामें रहना।परीक्षित्‌ ! विश्वा- मित्रजीके अष्टक, हारीत, जय और क्रतुमान् आदि और भी पुत्र थे ॥ ३६ ॥ इस प्रकार विश्वामित्रजीकी सन्तानोंसे कौशिकगोत्रमें कई भेद हो गये और देवरातको बड़ा भाई माननेके कारण उसका प्रवर ही दूसरा हो गया ॥ ३७ ॥


इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥



हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥


श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार
और विश्वामित्र जी के वंश की कथा


गत्वा माहिष्मतीं रामो ब्रह्मघ्नविहतश्रियम् ।

तेषां स शीर्षभी राजन् मध्ये चक्रे महागिरिम् ॥ १७ ॥
तद् रक्तेन नदीं घोरां अब्रह्मण्यभयावहाम् ।
हेतुं कृत्वा पितृवधं क्षत्रेऽमंगलकारिणि ॥ १८ ॥
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवीं कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः ।

समन्तपञ्चके चक्रे शोणितोदान् ह्रदान् नृप ॥ १९ ॥
पितुः कायेन सन्धाय शिर आदाय बर्हिषि ।
सर्वदेवमयं देवं आत्मानं अयजन्मखैः ॥ २० ॥

ददौ प्राचीं दिशं होत्रे ब्रह्मणे दक्षिणां दिशम् ।
अध्वर्यवे प्रतीचीं वै उद्‍गात्रे उत्तरां दिशम् ॥ २१ ॥
अन्येभ्योऽवान्तरदिशः कश्यपाय च मध्यतः ।
आर्यावर्तं उपद्रष्ट्रे सदस्येभ्यस्ततः परम् ॥ २२ ॥

ततश्चावभृथस्नान विधूताशेषकिल्बिषः ।
सरस्वत्यां महानद्यां रेजे व्यभ्र इवांशुमान् ॥ २३ ॥
स्वदेहं जमदग्निस्तु लब्ध्वा संज्ञानलक्षणम् ।
ऋषीणां मण्डले सोऽभूत् सप्तमो रामपूजितः ॥ २४ ॥

जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः ।
आगामिन्यन्तरे राजन् वर्तयिष्यति वै बृहत् ॥ २५ ॥
आस्तेऽद्यापि महेन्द्राद्रौ न्यस्तदण्डः प्रशान्तधीः ।
उपगीयमानचरितः सिद्धगन्धर्वचारणैः ॥ २६ ॥
एवं भृगुषु विश्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः ।

अवतीर्य परं भारं भुवोऽहन् बहुशो नृपान् ॥ २७ ॥   

परीक्षित्‌ ! परशुरामजीने माहिष्मती नगरीमें जाकर सहस्रबाहु अर्जुनके पुत्रोंके सिरोंसे नगरके बीचो-बीच एक बड़ा भारी पर्वत खड़ा कर दिया। उस नगरकी शोभा तो उन ब्रह्मघाती नीच क्षत्रियोंके कारण ही नष्ट हो चुकी थी ॥ १७ ॥ उनके रक्तसे एक बड़ी भयङ्कर नदी बह निकली, जिसे देखकर ब्राह्मणद्रोहियोंका हृदय भयसे काँप उठता था। भगवान्‌ने देखा कि वर्तमान क्षत्रिय अत्याचारी हो गये हैं। इसलिये राजन् ! उन्होंने अपने पिताके वधको निमित्त बनाकर इक्कीस बार पृथ्वीको क्षत्रियहीन कर दिया और कुरुक्षेत्रके समन्तपञ्चकमें ऐसे-ऐसे पाँच तालाब बना दिये, जो रक्तके जलसे भरे हुए थे ॥ १८-१९ ॥ परशुरामजीने अपने पिताजीका सिर लाकर उनके धड़से जोड़ दिया और यज्ञोंद्वारा सर्वदेवमय आत्मस्वरूप भगवान्‌का यजन किया ॥ २० ॥ यज्ञोंमें उन्होंने पूर्व दिशा होताको, दक्षिण दिशा ब्रह्माको, पश्चिम दिशा अध्वर्युको और उत्तर दिशा सामगान करनेवाले उद्गाताको दे दी ॥ २१ ॥ इसी प्रकार अग्निकोण आदि विदिशाएँ ऋत्विजोंको दीं, कश्यपजीको मध्यभूमि दी, उपद्रष्टाको आर्यावर्त दिया तथा दूसरे सदस्योंको अन्यान्य दिशाएँ प्रदान कर दीं ॥ २२ ॥ इसके बाद यज्ञान्त-स्नान करके वे समस्त पापोंसे मुक्त हो गये और ब्रह्मनदी सरस्वतीके तटपर मेघरहित सूर्यके समान शोभायमान हुए ॥ २३ ॥ महर्षि जमदग्नि को स्मृतिरूप संकल्पमय शरीरकी प्राप्ति हो गयी। परशुरामजीसे सम्मानित होकर वे सप्तर्षियोंके मण्डलमें सातवें ऋषि हो गये ॥ २४ ॥ परीक्षित्‌ ! कमललोचन जमदग्नि-नन्दन भगवान्‌ परशुराम आगामी मन्वन्तरमें सप्तर्षियोंके मण्डलमें रहकर वेदोंका विस्तार करेंगे ॥ २५ ॥ वे आज भी किसीको किसी प्रकारका दण्ड न देते हुए शान्त चित्तसे महेन्द्र पर्वतपर निवास करते हैं। वहाँ सिद्ध, गन्धर्व और चारण उनके चरित्रका मधुर स्वरसे गान करते रहते हैं ॥ २६ ॥ सर्वशक्तिमान् विश्वात्मा भगवान्‌ श्रीहरिने इस प्रकार भृगुवंशियोंमें अवतार ग्रहण करके पृथ्वीके भारभूत राजाओंका बहुत बार वध किया ॥ २७ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




बुधवार, 1 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार

और विश्वामित्र जी के वंश की कथा



येऽर्जुनस्य सुता राजन् स्मरन्तः स्वपितुर्वधम् ।

रामवीर्यपराभूता लेभिरे शर्म न क्वचित् ॥ ९ ॥

एकदाश्रमतो रामे सभ्रातरि वनं गते ।

वैरं सिसाधयिषवो लब्धच्छिद्रा उपागमन् ॥ १० ॥

दृष्ट्वाग्न्यगार आसीनं आवेशितधियं मुनिम् ।

भगवति उत्तमश्लोके जघ्नुस्ते पापनिश्चयाः ॥ ११ ॥

याच्यमानाः कृपणया राममात्रातिदारुणाः ।

प्रसह्य शिर उत्कृत्य निन्युस्ते क्षत्रबन्धवः ॥ १२ ॥

रेणुका दुःखशोकार्ता निघ्नन्त्यात्मानमात्मना ।

राम रामेति तातेति विचुक्रोशोच्चकैः सती ॥ १३ ॥

तदुपश्रुत्य दूरस्था हा रामेत्यार्तवत्स्वनम् ।

त्वरयाऽऽश्रममासाद्य ददृशुः पितरं हतम् ॥ १४ ॥

ते दुःखरोषामर्षार्ति शोकवेगविमोहिताः ।

हा तात साधो धर्मिष्ठ त्यक्त्वास्मान् स्वर्गतो भवान् ॥ १५ ॥

विलप्यैवं पितुर्देहं निधाय भ्रातृषु स्वयम् ।

प्रगृह्य परशुं रामः क्षत्रान्ताय मनो दधे ॥ १६ ॥


परीक्षित्‌ ! सहस्रबाहु अर्जुनके जो लडक़े परशुरामजीसे हारकर भाग गये थे, उन्हें अपने पिताके वधकी याद निरन्तर बनी रहती थी। कहीं एक क्षणके लिये भी उन्हें चैन नहीं मिलता था ॥ ९ ॥ एक दिनकी बात है, परशुरामजी अपने भाइयोंके साथ आश्रमसे बाहर वनकी ओर गये हुए थे। यह अवसर पाकर वैर साधनेके लिये सहस्रबाहुके लडक़े वहाँ आ पहुँचे ॥ १० ॥ उस समय महर्षि जमदग्नि अग्निशाला में बैठे हुए थे और अपनी समस्त वृत्तियोंसे पवित्रकीर्ति भगवान्‌ के ही चिन्तनमें मग्न हो रहे थे। उन्हें बाहरकी कोई सुध न थी। उसी समय उन पापियोंने जमदग्नि ऋषिको मार डाला। उन्होंने पहलेसे ही ऐसा पापपूर्ण निश्चय कर रखा था ॥ ११ ॥ परशुरामकी माता रेणुका बड़ी दीनतासे उनसे प्रार्थना कर रही थीं, परंतु उन सबोंने उनकी एक न सुनी। वे बलपूर्वक महर्षि जमदग्रिका सिर काटकर ले गये। परीक्षित्‌ ! वास्तवमें वे नीच क्षत्रिय अत्यन्त क्रूर थे ॥ १२ ॥ सती रेणुका दु:ख और शोकसे आतुर हो गयीं। वे अपने हाथों अपनी छाती और सिर पीट-पीटकर जोर-जोरसे रोने लगीं— ‘परशुराम ! बेटा परशुराम ! शीघ्र आओ ॥ १३ ॥ परशुरामजीने बहुत दूरसे माताका हा राम !यह करुण-क्रन्दन सुन लिया। वे बड़ी शीघ्रतासे आश्रमपर आये और वहाँ आकर देखा कि पिताजी मार डाले गये हैं ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय परशुरामजीको बड़ा दु:ख हुआ। साथ ही क्रोध, असहिष्णुता, मानसिक पीड़ा और शोकके वेगसे वे अत्यन्त मोहित हो गये। हाय पिताजी ! आप तो बड़े महात्मा थे। पिताजी ! आप तो धर्मके सच्चे पुजारी थे। आप हमलोगोंको छोडक़र स्वर्ग चले गये॥ १५ ॥ इस प्रकार विलापकर उन्होंने पिताका शरीर तो भाइयोंको सौंप दिया और स्वयं हाथमें फरसा उठाकर क्षत्रियोंका संहार कर डालनेका निश्चय किया ॥ १६ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



परशुरामजी के द्वारा क्षत्रियसंहार

और विश्वामित्र जी के वंश की कथा



श्रीशुक उवाच ।

पित्रोपशिक्षितो रामः तथेति कुरुनन्दन ।

संवत्सरं तीर्थयात्रां चरित्वाऽऽश्रममाव्रजत् ॥ १ ॥

कदाचित् रेणुका याता गंगायां पद्ममालिनम् ।

गन्धर्वराजं क्रीडन्तं अप्सरोभिरपश्यत ॥ २ ॥

विलोकयन्ती क्रीडन्तं उदकार्थं नदीं गता ।

होमवेलां न सस्मार किञ्चित् चित्ररथस्पृहा ॥ ३ ॥

कालात्ययं तं विलोक्य मुनेः शापविशंकिता ।

आगत्य कलशं तस्थौ पुरोधाय कृताञ्जलिः ॥ ४ ॥

व्यभिचारं मुनिर्ज्ञात्वा पत्‍न्याः प्रकुपितोऽब्रवीत् ।

घ्नतैनां पुत्रकाः पापां इत्युक्तास्ते न चक्रिरे ॥ ५ ॥

रामः सञ्चोदितः पित्रा भ्रातॄन् मात्रा सहावधीत् ।

प्रभावज्ञो मुनेः सम्यक् समाधेस्तपसश्च सः ॥ ६ ॥

वरेण च्छन्दयामास प्रीतः सत्यवतीसुतः ।

वव्रे हतानां रामोऽपि जीवितं चास्मृतिं वधे ॥ ७ ॥

उत्तस्थुस्ते कुशलिनो निद्रापाय इवाञ्जसा ।

पितुर्विद्वान् तपोवीर्यं रामश्चक्रे सुहृद्वधम् ॥ ८ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अपने पिता की यह शिक्षा भगवान्‌ परशुराम ने जो आज्ञाकहकर स्वीकार की। इसके बाद वे एक वर्षतक तीर्थयात्रा करके अपने आश्रमपर लौट आये ॥१॥ एक दिनकी बात है परशुरामजी की माता रेणुका गङ्गातट पर गयी हुई थीं। वहाँ उन्होंने देखा कि गन्धर्वराज चित्ररथ कमलों की माला पहने अप्सराओं के साथ विहार कर रहा है ॥ २ ॥ वे जल लानेके लिये नदीतट पर गयी थीं, परंतु वहाँ जलक्रीडा करते हुए गन्धर्व को देखने लगीं और पतिदेव के हवन का समय हो गया हैइस बातको भूल गयीं। उनका मन कुछ-कुछ चित्ररथ की ओर  खिंच भी गया था ॥ ३ ॥ हवन का समय बीत गया, यह जानकर वे महर्षि जमदग्नि के शापसे भयभीत हो गयीं और तुरंत वहाँसे आश्रमपर चली आयीं। वहाँ जल का कलश महर्षि के सामने रखकर हाथ जोड़ खड़ी हो गयीं ॥ ४ ॥ जमदग्नि मुनि ने अपनी पत्नी का मानसिक व्यभिचार जान लिया और क्रोध करके कहा—‘मेरे पुत्रो ! इस पापिनीको मार डालो।परंतु उनके किसी भी पुत्रने उनकी वह आज्ञा स्वीकार नहीं की ॥ ५ ॥ इसके बाद पिताकी आज्ञासे परशुरामजीने माताके साथ सब भाइयोंको भी मार डाला। इसका कारण थावे अपने पिताजीके योग और तपस्याका प्रभाव भलीभाँति जानते थे ॥ ६ ॥ परशुरामजीके इस कामसे सत्यवतीनन्दन महर्षि जमदग्नि बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा—‘बेटा ! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।परशुरामजीने कहा—‘पिताजी ! मेरी माता और सब भाई जीवित हो जायँ तथा उन्हें इस बातकी याद न रहे कि मैंने उन्हें मारा था॥ ७ ॥ परशुरामजी के इस प्रकार कहते ही जैसे कोई सोकर उठे, सब-के-सब अनायास ही सकुशल उठ बैठे। परशुरामजी ने अपने पिताजी का तपोबल जानकर ही तो अपने सुहृदोंका वध किया था ॥ ८ ॥



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से






श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...