॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
ययातिका गृहत्याग
न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४ ॥
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् ।
समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः ॥ १५ ॥
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिः जीर्यतो या न जीर्यते ।
तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत् ॥ १६ ॥
मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत् ।
बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ १७ ॥
पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान् सेवतोऽसकृत् ।
तथापि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते ॥ १८ ॥
तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्यध्याय मानसम् ।
निर्द्वन्द्वो निरहंकारः चरिष्यामि मृगैः सह ॥ १९ ॥
दृष्टं श्रुतमसद् बुद्ध्वा नानुध्यायेन्न सन्दिशेत् ।
संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान् स आत्मदृक् ॥ २० ॥
विषयोंके भोगनेसे भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे
घीकी आहुति डालनेपर आग और भडक़ उठती है, वैसे
ही भोगवासनाएँ भी भोगोंसे प्रबल हो जाती हैं ॥ १४ ॥ जब मनुष्य किसी भी प्राणी और
किसी भी वस्तुके साथ राग-द्वेषका भाव नहीं रखता, तब वह
समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं ॥ १५ ॥ विषयोंकी
तृष्णा ही दु:खोंका उद्गम स्थान है। मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाईसे उसका त्याग कर
सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही
होती जाती है। अत: जो अपना कल्याण चाहता है, उसे
शीघ्रसे-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये ॥ १६ ॥ और तो क्या—अपनी मा, बहिन और कन्याके साथ भी अकेले एक आसनपर
सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानोंको
भी विचलित कर देती हैं ॥ १७ ॥ विषयोंका बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वर्ष
पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगोंकी लालसा बढ़ती
ही जा रही है ॥ १८ ॥ इसलिये मैं अब भोगोंकी वासना-तृष्णाका परित्याग करके अपना
अन्त:करण परमात्माके प्रति समर्पित कर दूँगा और शीत-उष्ण, सुख-दु:ख
आदिके भावोंसे ऊपर उठकर अहंकारसे मुक्त हो हरिनोंके साथ वनमें विचरूँगा ॥ १९ ॥
लोक-परलोक दोनोंके ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका
चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही। समझना चाहिये कि उनके चिन्तनसे ही जन्म-मृत्युरूप
संसारकी प्राप्ति होती है और उनके भोगसे तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तवमें इनके
रहस्यको जानकर इनसे अलग रहनेवाला ही आत्मज्ञानी है’ ॥ २० ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से