॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)
ययातिका गृहत्याग
इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः ।
दत्त्वा स्वां जरसं तस्माद् आददे विगतस्पृहः ॥ २१ ॥
दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युं दक्षिणतो यदुम् ।
प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम् ॥ २२ ॥
भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुमर्हत्तमं विशाम् ।
अभिषिच्याग्रजान् तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ ॥ २३ ॥
आसेवितं वर्षपूगान् षड्वर्गं विषयेषु सः ।
क्षणेन मुमुचे नीडं जातपक्ष इव द्विजः ॥ २४ ॥
स तत्र निर्मुक्तसमस्तसंग
आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिंगः ।
परेऽमले ब्रह्मणि वासुदेवे
लेभे गतिं भागवतीं प्रतीतः ॥ २५ ॥
श्रुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मनः ।
स्त्रीपुंसोः स्नेहवैक्लव्यात् परिहासमिवेरितम् ॥ २६ ॥
सा सन्निवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम् ।
विज्ञायेश्वर तन्त्राणां मायाविरचितं प्रभोः ॥ २७ ॥
सर्वत्र संगघ्गमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी ।
कृष्णे मनः समावेश्य व्यधुनोल्लिंगमात्मनः ॥ २८ ॥
नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।
सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नमः ॥ २९ ॥
परीक्षित् ! ययाति ने अपनी पत्नी से इस प्रकार कहकर पूरु की जवानी
उसे लौटा दी और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया। यह इसलिये कि अब उनके चित्तमें
विषयोंकी वासना नहीं रह गयी थी ॥ २१ ॥ इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशामें
द्रुह्य, दक्षिणमें यदु, पश्चिममें
तुर्वसु और उत्तरमें अनुको राज्य दे दिया ॥ २२ ॥ सारे भूमण्डलकी समस्त
सम्पत्तियोंके योग्यतम पात्र पूरुको अपने राज्यपर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयोंको
उसके अधीन बनाकर वे वनमें चले गये ॥ २३ ॥ यद्यपि राजा ययातिने बहुत वर्षोंतक
इन्द्रियोंसे विषयोंका सुख भोगा था—परंतु जैसे पाँख निकल
आनेपर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक
क्षणमें ही सब कुछ छोड़ दिया ॥ २४ ॥ वनमें जाकर राजा ययातिने समस्त आसक्तियोंसे
छुट्टी पा ली। आत्म-साक्षात्कारके द्वारा उनका त्रिगुणमय लिङ्गशरीर नष्ट हो गया।
उन्होंने माया-मलसे रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेवमें मिलकर वह भागवती गति
प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान्के प्रेमी संतोंको प्राप्त
होती है ॥ २५ ॥
जब देवयानीने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्तिमार्गके लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री-पुरुषमें परस्पर प्रेमके कारण विरह होनेपर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसीमें कही है ॥ २६ ॥ स्वजन-सम्बन्धियोंका—जो ईश्वरके अधीन है—एक स्थानपर इकट्ठाहो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊपर पथिकोंका। यह सब भगवान्की मायाका खेल और स्वप्नके सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानीने सब पदार्थोंकी आसक्ति त्याग दी और अपने मनको भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धन के हेतु लिङ्गशरीर का परित्याग कर दिया—वह भगवान् को प्राप्त हो गयी ॥ २७-२८ ॥ उसने भगवान् को नमस्कार करके कहा—‘समस्त जगत् के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान् वासुदेव को नमस्कार है। जो परम शान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ’ ॥ २९ ॥
जब देवयानीने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्तिमार्गके लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री-पुरुषमें परस्पर प्रेमके कारण विरह होनेपर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसीमें कही है ॥ २६ ॥ स्वजन-सम्बन्धियोंका—जो ईश्वरके अधीन है—एक स्थानपर इकट्ठाहो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊपर पथिकोंका। यह सब भगवान्की मायाका खेल और स्वप्नके सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानीने सब पदार्थोंकी आसक्ति त्याग दी और अपने मनको भगवान् श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धन के हेतु लिङ्गशरीर का परित्याग कर दिया—वह भगवान् को प्राप्त हो गयी ॥ २७-२८ ॥ उसने भगवान् को नमस्कार करके कहा—‘समस्त जगत् के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान् वासुदेव को नमस्कार है। जो परम शान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ’ ॥ २९ ॥
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥
शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से