बुधवार, 15 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



ययातिका गृहत्याग


इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः ।

दत्त्वा स्वां जरसं तस्माद् आददे विगतस्पृहः ॥ २१ ॥

दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युं दक्षिणतो यदुम् ।

प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम् ॥ २२ ॥

भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुमर्हत्तमं विशाम् ।

अभिषिच्याग्रजान् तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ ॥ २३ ॥

आसेवितं वर्षपूगान् षड्वर्गं विषयेषु सः ।

क्षणेन मुमुचे नीडं जातपक्ष इव द्विजः ॥ २४ ॥

स तत्र निर्मुक्तसमस्तसंग

आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिंगः ।

परेऽमले ब्रह्मणि वासुदेवे

लेभे गतिं भागवतीं प्रतीतः ॥ २५ ॥

श्रुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मनः ।

स्त्रीपुंसोः स्नेहवैक्लव्यात् परिहासमिवेरितम् ॥ २६ ॥

सा सन्निवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम् ।

विज्ञायेश्वर तन्त्राणां मायाविरचितं प्रभोः ॥ २७ ॥

सर्वत्र संगघ्गमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी ।

कृष्णे मनः समावेश्य व्यधुनोल्लिंगमात्मनः ॥ २८ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।

सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नमः ॥ २९ ॥



परीक्षित्‌ ! ययाति ने अपनी पत्नी से इस प्रकार कहकर पूरु की जवानी उसे लौटा दी और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया। यह इसलिये कि अब उनके चित्तमें विषयोंकी वासना नहीं रह गयी थी ॥ २१ ॥ इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशामें द्रुह्य, दक्षिणमें यदु, पश्चिममें तुर्वसु और उत्तरमें अनुको राज्य दे दिया ॥ २२ ॥ सारे भूमण्डलकी समस्त सम्पत्तियोंके योग्यतम पात्र पूरुको अपने राज्यपर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयोंको उसके अधीन बनाकर वे वनमें चले गये ॥ २३ ॥ यद्यपि राजा ययातिने बहुत वर्षोंतक इन्द्रियोंसे विषयोंका सुख भोगा थापरंतु जैसे पाँख निकल आनेपर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक क्षणमें ही सब कुछ छोड़ दिया ॥ २४ ॥ वनमें जाकर राजा ययातिने समस्त आसक्तियोंसे छुट्टी पा ली। आत्म-साक्षात्कारके द्वारा उनका त्रिगुणमय लिङ्गशरीर नष्ट हो गया। उन्होंने माया-मलसे रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेवमें मिलकर वह भागवती गति प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान्‌के प्रेमी संतोंको प्राप्त होती है ॥ २५ ॥
जब देवयानीने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्तिमार्गके लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री-पुरुषमें परस्पर प्रेमके कारण विरह होनेपर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसीमें कही है ॥ २६ ॥ स्वजन-सम्बन्धियोंकाजो ईश्वरके अधीन हैएक स्थानपर इकट्ठाहो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊपर पथिकोंका। यह सब भगवान्‌की मायाका खेल और स्वप्नके सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानीने सब पदार्थोंकी आसक्ति त्याग दी और अपने मनको भगवान्‌ श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धन के हेतु लिङ्गशरीर का परित्याग कर दियावह भगवान्‌ को प्राप्त हो गयी ॥ २७-२८ ॥ उसने भगवान्‌ को नमस्कार करके कहा—‘समस्त जगत् के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ वासुदेव को नमस्कार है। जो परम शान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ॥ २९ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥


हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



ययातिका गृहत्याग


न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४ ॥

यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् ।

समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः ॥ १५ ॥

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिः जीर्यतो या न जीर्यते ।

तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत् ॥ १६ ॥

मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत् ।

बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ १७ ॥

पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान् सेवतोऽसकृत् ।

तथापि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते ॥ १८ ॥

तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्यध्याय मानसम् ।

निर्द्वन्द्वो निरहंकारः चरिष्यामि मृगैः सह ॥ १९ ॥

दृष्टं श्रुतमसद् बुद्ध्वा नानुध्यायेन्न सन्दिशेत् ।

संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान् स आत्मदृक् ॥ २० ॥



विषयोंके भोगनेसे भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भडक़ उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोगोंसे प्रबल हो जाती हैं ॥ १४ ॥ जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तुके साथ राग-द्वेषका भाव नहीं रखता, तब वह समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं ॥ १५ ॥ विषयोंकी तृष्णा ही दु:खोंका उद्गम स्थान है। मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाईसे उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अत: जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्रसे-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये ॥ १६ ॥ और तो क्याअपनी मा, बहिन और कन्याके साथ भी अकेले एक आसनपर सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानोंको भी विचलित कर देती हैं ॥ १७ ॥ विषयोंका बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगोंकी लालसा बढ़ती ही जा रही है ॥ १८ ॥ इसलिये मैं अब भोगोंकी वासना-तृष्णाका परित्याग करके अपना अन्त:करण परमात्माके प्रति समर्पित कर दूँगा और शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदिके भावोंसे ऊपर उठकर अहंकारसे मुक्त हो हरिनोंके साथ वनमें विचरूँगा ॥ १९ ॥ लोक-परलोक दोनोंके ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही। समझना चाहिये कि उनके चिन्तनसे ही जन्म-मृत्युरूप संसारकी प्राप्ति होती है और उनके भोगसे तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तवमें इनके रहस्यको जानकर इनसे अलग रहनेवाला ही आत्मज्ञानी है॥ २० ॥



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मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



ययातिका गृहत्याग


तमेव प्रेष्ठतमया रममाणमजान्यया ।

विलोक्य कूपसंविग्ना नामृष्यद् बस्तकर्म तत् ॥ ७ ॥

तं दुर्हृदं सुहृद्‌रूपं कामिनं क्षणसौहृदम् ।

इन्द्रियारामं उत्सृज्य स्वामिनं दुःखिता ययौ ॥ ८ ॥

सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम् ।

कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत् पथि संधितुम् ॥ ९ ॥

तस्य तत्र द्विजः कश्चित् अजास्वाम्यच्छिनद् रुषा ।

लम्बन्तं वृषणं भूयः सन्दधेऽर्थाय योगवित् ॥ १० ॥

संबद्धवृषणः सोऽपि ह्यजया कूपलब्धया ।

कालं बहुतिथं भद्रे कामैर्नाद्यापि तुष्यति ॥ ११ ॥

तथाहं कृपणः सुभ्रु भवत्याः प्रेमयन्त्रितः ।

आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया ॥ १२ ॥

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।

न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ॥ १३ ॥



जब उसकी कूएँमेंसे निकाली हुई प्रियतमा बकरीने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरीसे विहार कर रहा है, तो उसे बकरेकी यह करतूत सहन न हुई ॥ ७ ॥ उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेमका कोई भरोसा नहीं है और यह मित्रके रूपमें शत्रुका काम कर रहा है। अत: वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरेको छोडक़र बड़े दु:खसे अपने पालने वालेके पास चली गयी ॥ ८ ॥ वह दीन कामी बकरा उसे मनानेके लिये में-मेंकरता हुआ उसके पीछे-पीछे चला। परंतु उसे मार्गमें मना न सका ॥ ९ ॥ उस बकरीका स्वामी एक ब्राह्मण था। उसने क्रोधमें आकर बकरेके लटकते हुए अण्डकोषको काट दिया। परंतु फिर उस बकरीका ही भला करनेके लिये फिरसे उसे जोड़ भी दिया। उसे इस प्रकारके बहुत-से उपाय मालूम थे ॥ १० ॥ प्रिये ! इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जानेपर वह बकरा फिर कूएँसे निकली हुई बकरीके साथ बहुत दिनोंतक विषयभोग करता रहा, परंतु आजतक उसे सन्तोष न हुआ ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाशमें बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी मायासे मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ ॥ १२ ॥
प्रिये ! पृथ्वीमें जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैंवे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओंके प्रहारसे जर्जर हो रहा है ॥ १३ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



ययातिका गृहत्याग


श्रीशुक उवाच ।

स इत्थं आचरन् कामान् स्त्रैणोऽपह्नवमात्मनः ।

बुद्ध्वा प्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत ॥ १ ॥

श्रृणु भार्गव्यमूं गाथां मद्विधाचरितां भुवि ।

धीरा यस्यानुशोचन्ति वने ग्रामनिवासिनः ॥ २ ॥

बस्त एको वने कश्चिद् विचिन्वन् प्रियमात्मनः ।

ददर्श कूपे पतितां स्वकर्मवशगामजाम् ॥ ३ ॥

तस्या उद्धरणोपायं बस्तः कामी विचिन्तयन् ।

व्यधत्त तीर्थमुद्‌धृत्य विषाणाग्रेण रोधसी ॥ ४ ॥

सोत्तीर्य कूपात् सुश्रोणी तमेव चकमे किल ।

तया वृतं समुद्वीक्ष्य बह्व्योऽजाः कान्तकामिनीः ॥ ५ ॥

पीवानं श्मश्रुलं प्रेष्ठं मीढ्वांसं याभकोविदम् ।

स एकोऽजवृषस्तासां बह्वीनां रतिवर्धनः ।

रेमे कामग्रहग्रस्त आत्मानं नावबुध्यत ॥ ६ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजा ययाति इस प्रकार स्त्रीके वशमें होकर विषयोंका उपभोग करते रहे। एक दिन जब अपने अध:पतनपर दृष्टि गयी तब उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी देवयानीसे इस गाथा का गान किया ॥ १ ॥ भृगुनन्दिनी ! तुम यह गाथा सुनो। पृथ्वीमें मेरे ही समान विषयीका यह सत्य इतिहास है। ऐसे ही ग्रामवासी विषयी पुरुषोंके सम्बन्धमें वनवासी जितेन्द्रिय पुरुष दु:ख के साथ विचार किया करते हैं कि इनका कल्याण कैसे होगा ? ॥ २ ॥ एक था बकरा। वह वनमें अकेला ही अपनेको प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ ढूँढ़ता हुआ घूम रहा था। उसने देखा कि अपने कर्मवश एक बकरी कूएँमें गिर पड़ी है ॥ ३ ॥ वह बकरा बड़ा कामी था। वह सोचने लगा कि इस बकरी को किस प्रकार कूएँ से निकाला जाय। उसने अपने सींग से कूएँ के पास की धरती खोद डाली और रास्ता तैयार कर लिया ॥ ४ ॥ जब वह सुन्दरी बकरी कूएँ से निकली, तो उसने उस बकरेसे ही प्रेम करना चाहा। वह दाढ़ी-मूँछमण्डित बकरा हृष्ट-पुष्ट, जवान, बकरियों को सुख देनेवाला, विहारकुशल और बहुत प्यारा था। जब दूसरी बकरियोंने देखा कि कूएँमें गिरी हुई बकरीने उसे अपना प्रेमपात्र चुन लिया है, तब उन्होंने भी उसीको अपना पति बना लिया। वे तो पहलेसे ही पतिकी तलाशमें थीं। उस बकरेके सिरपर कामरूप पिशाच सवार था। वह अकेला ही बहुत-सी बकरियोंके साथ विहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो बैठा ॥ ५-६ ॥



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सोमवार, 6 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)



ययाति चरित्र


श्रीपूरुरुवाच ।

को नु लोके मनुष्येन्द्र पितुरात्मकृतः पुमान् ।

प्रतिकर्तुं क्षमो यस्य प्रसादाद् विन्दते परम् ॥ ४३ ॥

उत्तमश्चिन्तितं कुर्यात् प्रोक्तकारी तु मध्यमः ।

अधमोऽश्रद्धया कुर्याद् अकर्तोच्चरितं पितुः ॥ ४४ ॥

इति प्रमुदितः पूरुः प्रत्यगृह्णाज्जरां पितुः ।

सोऽपि तद्वयसा कामान् यथावज्जुजुषे नृप ॥ ४५ ॥

सप्तद्वीपपतिः सम्यक् पितृवत् पालयन् प्रजाः ।

यथोपजोषं विषयान् जुजुषेऽव्याहतेन्द्रियः ॥ ४६ ॥

देवयान्यप्यनुदिनं मनोवाग् देहवस्तुभिः ।

प्रेयसः परमां प्रीतिं उवाह प्रेयसी रहः ॥ ४७ ॥

अयजद् यज्ञपुरुषं क्रतुभिर्भूरिदक्षिणैः ।

सर्वदेवमयं देवं सर्ववेदमयं हरिम् ॥ ४८ ॥

यस्मिन्निदं विरचितं व्योम्नीव जलदावलिः ।

नानेव भाति नाभाति स्वप्नमायामनोरथः ॥ ४९ ॥

तमेव हृदि विन्यस्य वासुदेवं गुहाशयम् ।

नारायणमणीयांसं निराशीरयजत् प्रभुम् ॥ ५० ॥

एवं वर्षसहस्राणि मनःषष्ठैर्मनःसुखम् ।

विदधानोऽपि नातृप्यत् सार्वभौमः कदिन्द्रियैः ॥ ५१ ॥


पूरु ने कहा—‘पिताजी ! पिता की कृपा से मनुष्य को परमपद की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में पुत्रका शरीर पिताका ही दिया हुआ है। ऐसी अवस्थामें ऐसा कौन है, जो इस संसारमें पिताके उपकारोंका बदला चुका सके ? ॥ ४३ ॥ उत्तम पुत्र तो वह है, जो पिताके मनकी बात बिना कहे ही कर दे। कहनेपर श्रद्धाके साथ आज्ञापालन करनेवाले पुत्रको मध्यम कहते हैं। जो आज्ञा प्राप्त होनेपर भी अश्रद्धासे उसका पालन करे, वह अधम पुत्र है। और जो किसी प्रकार भी पिताकी आज्ञाका पालन नहीं करता, उसको तो पुत्र कहना ही भूल है। वह तो पिताका मल-मूत्र ही है ॥ ४४ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार कहकर पूरुने बड़े आनन्दसे अपने पिताका बुढ़ापा स्वीकार कर लिया। राजा ययाति भी उसकी जवानी लेकर पूर्ववत् विषयोंका सेवन करने लगे ॥ ४५ ॥ वे सातों द्वीपोंके एकच्छत्र सम्राट् थे। पिताके समान भलीभाँति प्रजाका पालन करते थे। उनकी इन्द्रियोंमें पूरी शक्ति थी और वे यथावसर यथाप्राप्त विषयोंका यथेच्छ उपभोग करते थे ॥ ४६ ॥ देवयानी उनकी प्रियतमा पत्नी थी। वह अपने प्रियतम ययातिको अपने मन, वाणी, शरीर और वस्तुओंके द्वारा दिन-दिन और भी प्रसन्न करने लगी और एकान्तमें सुख देने लगी ॥ ४७ ॥ राजा ययातिने समस्त वेदोंके प्रतिपाद्य सर्वदेवस्वरूप यज्ञपुरुष भगवान्‌ श्रीहरिका बहुतसे बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले यज्ञोंसे यजन किया ॥ ४८ ॥ जैसे आकाशमें दल-के-दल बादल दीखते हैं और कभी नहीं भी दीखते, वैसे ही परमात्माके स्वरूपमें यह जगत् स्वप्न, माया और मनोराज्यके समान कल्पित है। यह कभी अनेक नाम और रूपोंके रूपमें प्रतीत होता है और कभी नहीं भी ॥ ४९ ॥ वे परमात्मा सबके हृदयमें विराजमान हैं। उनका स्वरूप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म है। उन्हीं सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान्‌ श्रीनारायणको अपने हृदयमें स्थापित करके राजा ययातिने निष्काम भावसे उनका यजन किया ॥ ५० ॥ इस प्रकार एक हजार वर्षतक उन्होंने अपनी उच्छृङ्खल इन्द्रियोंके साथ मनको जोडक़र उसके प्रिय विषयोंको भोगा। परंतु इतनेपर भी चक्रवर्ती सम्राट् ययातिकी भोगोंसे तृप्ति न हो सकी ॥ ५१ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)



ययाति चरित्र


श्रीययातिरुवाच ।

अतृप्तोऽस्म्यद्य कामानां ब्रह्मन् दुहितरि स्म ते ।

व्यत्यस्यतां यथाकामं वयसा योऽभिधास्यति ॥ ३७ ॥

इति लब्धव्यवस्थानः पुत्रं ज्येष्ठमवोचत ।

यदो तात प्रतीच्छेमां जरां देहि निजं वयः ॥ ३८ ॥

मातामहकृतां वत्स न तृप्तो विषयेष्वहम् ।

वयसा भवदीयेन रंस्ये कतिपयाः समाः ॥ ३९ ॥



श्रीयदुरुवाच ।

नोत्सहे जरसा स्थातुं अन्तरा प्राप्तया तव ।

अविदित्वा सुखं ग्राम्यं वैतृष्ण्यं नैति पूरुषः ॥ ४० ॥

तुर्वसुश्चोदितः पित्रा द्रुह्युश्चानुश्च भारत ।

प्रत्याचख्युरधर्मज्ञा ह्यनित्ये नित्यबुद्धयः ॥ ४१ ॥

अपृच्छत् तनयं पूरुं वयसोनं गुणाधिकम् ।

न त्वं अग्रजवद् वत्स मां प्रत्याख्यातुमर्हसि ॥ ४२ ॥


ययातिने कहा—‘ब्रह्मन् ! आपकी पुत्रीके साथ विषय-भोग करते-करते अभी मेरी तृप्ति नहीं हुई है। इस शापसे तो आपकी पुत्री का भी अनिष्ट ही है।इसपर शुक्राचार्यजीने कहा—‘अच्छा जाओ; जो प्रसन्नतासे तुम्हें अपनी जवानी दे दे, उससे अपना बुढ़ापा बदल लो॥ ३७ ॥ शुक्राचार्यजीने जब ऐसी व्यवस्था दे दी, तब अपनी राजधानीमें आकर ययातिने अपने बड़े पुत्र यदुसे कहा—‘बेटा ! तुम अपनी जवानी मुझे दे दो और अपने नानाका दिया हुआ यह बुढ़ापा तुम स्वीकार कर लो। क्योंकि मेरे प्यारे पुत्र ! मैं अभी विषयोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ। इसलिये तुम्हारी आयु लेकर मैं कुछ वर्षोंतक और आनन्द भोगूँगा॥ ३८-३९ ॥
यदुने कहा—‘पिताजी ! बिना समयके ही प्राप्त हुआ आपका बुढ़ापा लेकर तो मैं जीना भी नहीं चाहता। क्योंकि कोई भी मनुष्य जबतक विषय-सुखका अनुभव नहीं कर लेता, तबतक उसे उससे वैराग्य नहीं होता॥ ४० ॥ परीक्षित्‌ ! इसी प्रकार तुर्वसु, द्रुह्यु और अनुने भी पिताकी आज्ञा अस्वीकार कर दी। सच पूछो तो उन पुत्रोंको धर्मका तत्त्व मालूम नहीं था। वे इस अनित्य शरीरको ही नित्य माने बैठे थे ॥ ४१ ॥ अब ययातिने अवस्थामें सबसे छोटे किन्तु गुणोंमें बड़े अपने पुत्र पूरुको बुलाकर पूछा और कहा—‘बेटा ! अपने बड़े भाइयोंके समान तुम्हें तो मेरी बात नहीं टालनी चाहिये ॥ ४२ ॥



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रविवार, 5 जनवरी 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



ययाति चरित्र


स्वानां तत् संकटं वीक्ष्य तदर्थस्य च गौरवम् ।

देवयानीं पर्यचरत् स्त्रीसहस्रेण दासवत् ॥ २९ ॥

नाहुषाय सुतां दत्त्वा सह शर्मिष्ठयोशना ।

तमाह राजन् शर्मिष्ठां आधास्तल्पे न कर्हिचित् ॥ ३० ॥

विलोक्यौशनसीं राजन् शर्मिष्ठा सप्रजां क्वचित् ।

तमेव वव्रे रहसि सख्याः पतिमृतौ सती ॥ ३१ ॥

राजपुत्र्यार्थितोऽपत्ये धर्मं चावेक्ष्य धर्मवित् ।

स्मरन् शुक्रवचः काले दिष्टमेवाभ्यपद्यत ॥ ३२ ॥

यदुं च तुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।

द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥ ३३ ॥

गर्भसंभवमासुर्या भर्तुर्विज्ञाय मानिनी ।

देवयानी पितुर्गेहं ययौ क्रोधविमूर्छिता ॥ ३४ ॥

प्रियां अनुगतः कामी वचोभिः उपमन्त्रयन् ।

न प्रसादयितुं शेके पादसंवाहनादिभिः ॥ ३५ ॥

शुक्रस्तमाह कुपितः स्त्रीकामानृतपूरुष ।

त्वां जरा विशतां मन्द विरूपकरणी नृणाम् ॥ ३६ ॥


शर्मिष्ठा ने अपने परिवारवालों का संकट और उनके कार्यका गौरव देखकर देवयानीकी बात स्वीकार कर ली। वह अपनी एक हजार सहेलियोंके साथ दासीके समान उसकी सेवा करने लगी ॥ २९ ॥ शुक्राचार्यजीने देवयानीका विवाह राजा ययातिके साथ कर दिया और शर्मिष्ठाको दासीके रूपमें देकर उनसे कह दिया—‘राजन् ! इसको अपनी सेजपर कभी न आने देना॥ ३० ॥ परीक्षित्‌ ! कुछ ही दिनों बाद देवयानी पुत्रवती हो गयी। उसको पुत्रवती देखकर एक दिन शर्मिष्ठाने भी अपने ऋतुकालमें देवयानीके पति ययातिसे एकान्तमें सहवासकी याचना की ॥ ३१ ॥ शर्मिष्ठाकी पुत्रके लिये प्रार्थना धर्मसंगत हैयह देखकर धर्मज्ञ राजा ययातिने शुक्राचार्यकी बात याद रहनेपर भी यही निश्चय किया कि समयपर प्रारब्धके अनुसार जो होना होगा, हो जायेगा ॥ ३२ ॥ देवयानीके दो पुत्र हुएयदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाके तीन पुत्र हुएद्रुह्यु, अनु और पूरु ॥ ३३ ॥ जब मानिनी देवयानीको यह मालूम हुआ कि शर्मिष्ठाको भी मेरे पतिके द्वारा ही गर्भ रहा था, तब वह क्रोधसे बेसुध होकर अपने पिताके घर चली गयी ॥ ३४ ॥ कामी ययातिने मीठी-मीठी बातें, अनुनय-विनय और चरण दबाने आदिके द्वारा देवयानीको मनानेकी चेष्टा की, उसके पीछे-पीछे वहाँतक गये भी, परंतु मना न सके ॥ ३५ ॥ शुक्राचार्यजीने भी क्रोधमें भरकर ययातिसे कहा—‘तू अत्यन्त स्त्रीलम्पट, मन्दबुद्धि और झूठा है। जा, तेरे शरीरमें वह बुढ़ापा आ जाय, जो मनुष्योंको कुरूप कर देता है॥ ३६ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)



ययाति चरित्र


तस्यां गतायां स्वगृहं ययातिर्मृगयां चरन् ।

प्राप्तो यदृच्छया कूपे जलार्थी तां ददर्श ह ॥ १८ ॥

दत्त्वा स्वमुत्तरं वासः तस्यै राजा विवाससे ।

गृहीत्वा पाणिना पाणिं उज्जहार दयापरः ॥ १९ ॥

तं वीरमाहौशनसी प्रेमनिर्भरया गिरा ।

राजन् त्वया गृहीतो मे पाणिः परपुरञ्जय ॥ २० ॥

हस्तग्राहोऽपरो मा भूद् गृहीतायास्त्वया हि मे ।

एष ईशकृतो वीर सम्बन्धो नौ न पौरुषः ।

यदिदं कूपमग्नाया भवतो दर्शनं मम ॥ २१ ॥

न ब्राह्मणो मे भविता हस्तग्राहो महाभुज ।

कचस्य बार्हस्पत्यस्य शापाद् यमशपं पुरा ॥ २२ ॥

ययातिरनभिप्रेतं दैवोपहृतमात्मनः ।

मनस्तु तद्‍गतं बुद्ध्वा प्रतिजग्राह तद्वचः ॥ २३ ॥

गते राजनि सा धीरे तत्र स्म रुदती पितुः ।

न्यवेदयत् ततः सर्वं उक्तं शर्मिष्ठया कृतम् ॥ २४ ॥

दुर्मना भगवान् काव्यः पौरोहित्यं विगर्हयन् ।

स्तुवन् वृत्तिं च कापोतीं दुहित्रा स ययौ पुरात् ॥ २५ ॥

वृषपर्वा तमाज्ञाय प्रत्यनीक विवक्षितम् ।

गुरुं प्रसादयन् मूर्ध्ना पादयोः पतितः पथि ॥ २६ ॥

क्षणार्ध मन्युर्भगवान् शिष्यं व्याचष्ट भार्गवः ।

कामोऽस्याः क्रियतां राजन् नैनां त्यक्तुमिहोत्सहे ॥ २७ ॥

तथेति अवस्थिते प्राह देवयानी मनोगतम् ।

पित्रा दत्ता यतो यास्ये सानुगा यातु मामनु ॥ २८ ॥


शर्मिष्ठा के चले जानेके बाद संयोगवश शिकार खेलते हुए राजा ययाति उधर आ निकले। उन्हें जलकी आवश्यकता थी, इसलिये कूएँमें पड़ी हुई देवयानीको उन्होंने देख लिया ॥ १८ ॥ उस समय वह वस्त्रहीन थी। इसलिये उन्होंने अपना दुपट्टा उसे दे दिया और दया करके अपने हाथसे उसका हाथ पकडक़र उसे बाहर निकाल लिया ॥ १९ ॥ देवयानीने प्रेमभरी वाणीसे वीर ययातिसे कहा—‘वीर- शिरोमणे राजन् ! आज आपने मेरा हाथ पकड़ा है। अब जब आपने मेरा हाथ पकड़ लिया, तब कोई दूसरा इसे न पकड़े। वीरश्रेष्ठ ! कूएँ में गिर जानेपर मुझे तो आपका अचानक दर्शन हुआ है, यह भगवान्‌का ही किया हुआ सम्बन्ध समझना चाहिये। इसमें हमलोगों की या और किसी मनुष्य की कोई चेष्टा नहीं है ॥ २०-२१ ॥ वीरश्रेष्ठ ! पहले मैंने बृहस्पतिके पुत्र कचको शाप दे दिया था, इसपर उसने भी मुझे शाप दे दिया। इसी कारण ब्राह्मण मेरा पाणिग्रहण नहीं कर सकता’[*] ॥ २२ ॥ ययाति को शास्त्रप्रतिकूल होनेके कारण यह सम्बन्ध अभीष्ट तो न था; परंतु उन्होंने देखा कि प्रारब्धने स्वयं ही मुझे यह उपहार दिया है, और मेरा मन भी इसकी ओर ङ्क्षखच रहा है। इसलिये ययातिने उसकी बात मान ली ॥ २३ ॥
वीर राजा ययाति जब चले गये, तब देवयानी रोती-पीटती अपने पिता शुक्राचार्यके पास पहुँची और शर्मिष्ठा ने जो कुछ किया था, वह सब उन्हें कह सुनाया ॥ २४ ॥ शर्मिष्ठा के व्यवहार से भगवान्‌ शुक्राचार्य जी का भी मन उचट गया। वे पुरोहिताई की निन्दा करने लगे। उन्होंने सोचा कि इसकी अपेक्षा तो खेत या बाजार में से कबूतर की तरह कुछ बीनकर खा लेना अच्छा है। अत: अपनी कन्या देवयानीको साथ लेकर वे नगरसे निकल पड़े ॥ २५ ॥ जब वृषपर्वाको यह मालूम हुआ, तो उनके मनमें यह शङ्का हुई कि गुरुजी कहीं शत्रुओंकी जीत न करा दें, अथवा मुझे शाप न दे दें। अतएव वे उनको प्रसन्न करनेके लिये पीछे-पीछे गये और रास्तेमें उनके चरणोंपर सिरके बल गिर गये ॥ २६ ॥ भगवान्‌ शुक्राचार्यजीका क्रोध तो आधे ही क्षणका था। उन्होंने वृषपर्वासे कहा—‘राजन् ! मैं अपनी पुत्री देवयानीको नहीं छोड़ सकता। इसलिये इसकी जो इच्छा हो, तुम पूरी कर दो। फिर मुझे लौट चलनेमें कोई आपत्ति न होगी॥ २७ ॥ जब वृषपर्वाने ठीक हैकहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली, तब देवयानीने अपने मनकी बात कही। उसने कहा—‘पिताजी मुझे जिस किसीको दे दें और मैं जहाँ कहीं जाऊँ, शर्मिष्ठा अपनी सहेलियोंके साथ मेरी सेवाके लिये वहीं चले॥ २८ ॥

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[*] बृहस्पतिजी का पुत्र कच शुक्राचार्यजी से मृतसञ्जीवनी विद्या पढ़ता था। अध्ययन समाप्त करके जब वह अपने घर जाने लगा तो देवयानीने उसे वरण करना चाहा। परंतु गुरुपुत्री होनेके कारण कच ने उसका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया। इसपर देवयानी ने उसे शाप दे दिया कि तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या निष्फल हो जाय।कच ने भी उसे शाप दिया कि कोई भी ब्राह्मण तुम्हें पत्नीरूप में स्वीकार न करेगा।



शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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