शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

पूरु के वंश,राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन

तस्यासन् नृप वैदर्भ्यः पत्‍न्यस्तिस्रः सुसम्मताः ।
जघ्नुस्त्यागभयात् पुत्रान् नानुरूपा इतीरिते ॥ ३४ ॥
तस्यैवं वितथे वंशे तदर्थं यजतः सुतम् ।
मरुत्स्तोमेन मरुतो भरद्वाजमुपाददुः ॥ ३५ ॥
अन्तर्वत्‍न्यां भ्रातृपत्‍न्यां मैथुनाय बृहस्पतिः ।
प्रवृत्तो वारितो गर्भं शप्त्वा वीर्यमुपासृजत् ॥ ३६ ॥
तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तुत्यागविशंकिताम् ।
नामनिर्वाचनं तस्य श्लोकमेनं सुरा जगुः ॥ ३७ ॥
मूढे भर द्वाजं इमं भर द्वाजं बृहस्पते ।
यातौ यदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् ॥ ३८ ॥
चोद्यमाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम् ।
व्यसृजन् मरुतोऽबिभ्रन् दत्तोऽयं वितथेऽन्वये ॥ ३९ ॥

परीक्षित्‌ ! विदर्भराज की तीन कन्याएँ सम्राट् भरतकी पत्नियाँ थीं। वे उनका बड़ा आदर भी करते थे। परंतु जब भरतने उनसे कह दिया कि तुम्हारे पुत्र मेरे अनुरूप नहीं हैं, तब वे डर गयीं कि कहीं सम्राट् हमें त्याग न दें। इसलिये उन्होंने अपने बच्चोंको मार डाला ॥ ३४ ॥ इस प्रकार सम्राट् भरतका वंश वितथ अर्थात् विच्छिन्न होने लगा। तब उन्होंने सन्तानके लिये मरुत्स्तोमनामका यज्ञ किया। इससे मरुद्गणोंने प्रसन्न होकर भरतको भरद्वाज नामका पुत्र दिया ॥ ३५ ॥ भरद्वाजकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग यह है कि एक बार बृहस्पतिजीने अपने भाई उतथ्यकी गर्भवती पत्नीसे मैथुन करना चाहा। उस समय गर्भमें जो बालक (दीर्घतमा) था, उसने मना किया। किन्तु बृहस्पतिजीने उसकी बातपर ध्यान न दिया और उसे तू अंधा हो जायह शाप देकर बलपूर्वक गर्भाधान कर दिया ॥ ३६ ॥ उतथ्यकी पत्नी ममता इस बातसे डर गयी कि कहीं मेरे पति मेरा त्याग न कर दें। इसलिये उसने बृहस्पतिजीके द्वारा होनेवाले लडक़ेको त्याग देना चाहा। उस समय देवताओंने गर्भस्थ शिशुके नामका निर्वचन करते हुए यह कहा ॥ ३७ ॥ बृहस्पतिजी कहते हैं कि अरी मूढे ! यह मेरा औरस और मेरे भाईका क्षेत्रजइस प्रकार दोनोंका पुत्र (द्वाज) है; इसलिये तू डर मत, इसका भरण-पोषण कर (भर)।इसपर ममताने कहा—‘बृहस्पते ! यह मेरे पतिका नहीं, हम दोनोंका ही पुत्र है; इसलिये तुम्हीं इसका भरण-पोषण करो।इस प्रकार आपसमें विवाद करते हुए माता-पिता दोनों ही इसको छोडक़र चले गये। इसलिये इस लडक़ेका नाम भरद्वाजहुआ ॥ ३८ ॥ देवताओंके द्वारा नामका ऐसा निर्वचन होनेपर भी ममताने यही समझा कि मेरा यह पुत्र वितथ अर्थात् अन्यायसे पैदा हुआ है। अत: उसने उस बच्चेको छोड़ दिया। अब मरुद्गणों ने उसका पालन किया और जब राजा भरतका वंश नष्ट होने लगा, तब उसे लाकर उनको दे दिया। यही वितथ (भरद्वाज) भरतका दत्तक पुत्र हुआ ॥ ३९ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां नवमस्कन्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥
हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

पूरु के वंश,राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन

पितरि उपरते सोऽपि चक्रवर्ती महायशाः ।
महिमा गीयते तस्य हरेरंशभुवो भुवि ॥ २३ ॥
चक्रं दक्षिणहस्तेऽस्य पद्मकोशोऽस्य पादयोः ।
ईजे महाभिषेकेण सोऽभिषिक्तोऽधिराड् विभुः ॥ २४ ॥
पञ्चपञ्चाशता मेध्यैः गंगायामनु वाजिभिः ।
मामतेयं पुरोधाय यमुनामनु च प्रभुः ॥ २५ ॥
अष्टसप्ततिमेध्याश्वान् बबन्ध प्रददद् वसु ।
भरतस्य हि दौष्यन्तेः अग्निः साचीगुणे चितः ।
सहस्रं बद्वशो यस्मिन् ब्राह्मणा गा विभेजिरे ॥ २६ ॥
त्रयस्त्रिंशच्छतं ह्यश्वान् बद्ध्वा विस्मापयन् नृपान् ।
दौष्यन्तिरत्यगान्मायां देवानां गुरुमाययौ ॥ २७ ॥
मृगान् शुक्लदतः कृष्णान् हिरण्येन परीवृतान् ।
अदात्कर्मणि मष्णारे नियुतानि चतुर्दश ॥ २८ ॥
भरतस्य महत् कर्म न पूर्वे नापरे नृपाः ।
नैवापुर्नैव प्राप्स्यन्ति बाहुभ्यां त्रिदिवं यथा ॥ २९ ॥
किरातहूणान् यवनान् अंध्रान् कंकान् खगान् शकान् ।
अब्रह्मण्यान् नृपांश्चाहन् म्लेच्छान् दिग्विजयेऽखिलान् ॥ ३० ॥
जित्वा पुरासुरा देवान् ये रसौकांसि भेजिरे ।
देवस्त्रियो रसां नीताः प्राणिभिः पुनराहरत् ॥ ३१ ॥
सर्वान् कामान् दुदुहतुः प्रजानां तस्य रोदसी ।
समास्त्रिणवसाहस्रीः दिक्षु चक्रमवर्तयत् ॥ ३२ ॥
स सम्राड् लोकपालाख्यं ऐश्वर्यं अधिराट् श्रियम् ।
चक्रं चास्खलितं प्राणान् मृन्मृषेत्युपरराम ह ॥ ३३ ॥

परीक्षित्‌ ! पिता दुष्यन्त की मृत्यु हो जानेके बाद वह परम यशस्वी बालक चक्रवर्ती सम्राट् हुआ। उसका जन्म भगवान्‌ के अंश से हुआ था। आज भी पृथ्वीपर उसकी महिमाका गान किया जाता है ॥ २३ ॥ उसके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न था और पैरोंमें कमलकोषका। महाभिषेककी विधिसे राजाधिराजके पदपर उसका अभिषेक हुआ। भरत बड़ा शक्तिशाली राजा था ॥ २४ ॥ भरतने ममताके पुत्र दीर्घतमा मुनिको पुरोहित बनाकर गङ्गातटपर गङ्गासागरसे लेकर गङ्गोत्रीपर्यन्त पचपन पवित्र अश्वमेध यज्ञ किये। और इसी प्रकार यमुनातटपर भी प्रयागसे लेकर यमुनोत्रीतक उन्होंने अठहत्तर अश्वमेध यज्ञ किये। इन सभी यज्ञोंमें उन्होंने अपार धनराशिका दान किया था। दुष्यन्तकुमार भरतका यज्ञीय अग्निस्थापन बड़े ही उत्तम गुणवाले स्थानमें किया गया था। उस स्थानमें भरतने इतनी गौएँ दान दी थीं कि एक हजार ब्राह्मणोंमें प्रत्येक ब्राह्मणको एक-एक बद्व (१३०८४) गौएँ मिली थीं ॥ २५-२६ ॥ इस प्रकार राजा भरतने उन यज्ञोंमें एक सौ तैंतीस (५५+७८) घोड़े बाँधकर (१३३ यज्ञ करके) समस्त नरपतियोंको असीम आश्चर्यमें डाल दिया। इन यज्ञोंके द्वारा इस लोकमें तो राजा भरतको परम यश मिला ही, अन्तमें उन्होंने मायापर भी विजय प्राप्त की और देवताओंके परमगुरु भगवान्‌ श्रीहरिको प्राप्त कर लिया ॥ २७ ॥ यज्ञमें एक कर्म होता है मष्णार। उसमें भरतने सुवर्णसे विभूषित, श्वेत दाँतोंवाले तथा काले रंगके चौदह लाख हाथी दान किये ॥ २८ ॥ भरतने जो महान् कर्म किया, वह न तो पहले कोई राजा कर सका था और न तो आगे ही कोई कर सकेगा। क्या कभी कोई हाथसे स्वर्गको छू सकता है ? ॥ २९ ॥ भरतने दिग्विजयके समय किरात, हूण, यवन, अन्ध्र, कङ्क, खश, शक और म्लेच्छ आदि समस्त ब्राह्मणद्रोही राजाओंको मार डाला ॥ ३० ॥ पहले युगमें बलवान् असुरोंने देवताओंपर विजय प्राप्त कर ली थी और वे रसातलमें रहने लगे थे। उस समय वे बहुत-सी देवाङ्गनाओंको रसातलमें ले गये थे। राजा भरतने फिरसे उन्हें छुड़ा दिया ॥ ३१ ॥ उनके राज्यमें पृथ्वी और आकाश प्रजाकी सारी आवश्यकताएँ पूर्ण कर देते थे। भरतने सत्ताईस हजार वर्षतक समस्त दिशाओंका एकच्छत्र शासन किया ॥ ३२ ॥ अन्तमें सार्वभौम सम्राट् भरतने यही निश्चय किया कि लोकपालोंको भी चकित कर देनेवाला ऐश्वर्य, सार्वभौम सम्पत्ति, अखण्ड शासन और यह जीवन भी मिथ्या ही है। यह निश्चय करके वे संसारसे उदासीन हो गये ॥ ३३ ॥

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गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



पूरु के वंश,राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन


श्रीशकुन्तलोवाच ।

विश्वामित्रात्मजैवाहं त्यक्ता मेनकया वने ।

वेदैतद् भगवान् कण्वो वीर किं करवाम ते ॥ १३ ॥

आस्यतां ह्यरविन्दाक्ष गृह्यतां अर्हणं च नः ।

भुज्यतां सन्ति नीवारा उष्यतां यदि रोचते ॥ १४ ॥



दुष्यन्त उवाच ।

उपपन्नमिदं सुभ्रु जातायाः कुशिकान्वये ।

स्वयं हि वृणुते राज्ञां कन्यकाः सदृशं वरम् ॥ १५ ॥

ओमित्युक्ते यथाधर्मं उपयेमे शकुन्तलाम् ।

गान्धर्वविधिना राजा देशकालविधानवित् ॥ १६ ॥

अमोघवीर्यो राजर्षिः महिष्यां वीर्यमादधे ।

श्वोभूते स्वपुरं यातः कालेनासूत सा सुतम् ॥ १७ ॥

कण्वः कुमारस्य वने चक्रे समुचिताः क्रियाः ।

बद्ध्वा मृगेन्द्रान् तरसा क्रीडति स्म स बालकः ॥ १८ ॥

तं दुरत्ययविक्रान्तं आदाय प्रमदोत्तमा ।

हरेः अंशांशसंभूतं भर्तुरन्तिकमागमत् ॥ १९ ॥

यदा न जगृहे राजा भार्यापुत्रावनिन्दितौ ।

श्रृण्वतां सर्वभूतानां खे वाग् आह अशरीरिणी ॥ २० ॥

माता भस्त्रा पितुः पुत्रो येन जातः स एव सः ।

भरस्व पुत्रं दुष्यन्त मावमंस्थाः शकुन्तलाम् ॥ २१ ॥

रेतोधाः पुत्रो नयति नरदेव यमक्षयात् ।

त्वं चास्य धाता गर्भस्य सत्यमाह शकुन्तला ॥ २२ ॥


शकुन्तला ने कहा—‘आपका कहना सत्य है। मैं विश्वामित्रजी की पुत्री हूँ। मेनका अप्सरा ने मुझे वन में छोड़ दिया था। इस बात के साक्षी हैं मेरा पालन-पोषण करनेवाले महर्षि कण्व। वीरशिरोमणे ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? ॥ १३ ॥ कमलनयन ! आप यहाँ बैठिये और हम जो कुछ आपका स्वागत-सत्कार करें, उसे स्वीकार कीजिये। आश्रममें कुछ नीवार (तिन्नीका भात) है। आपकी इच्छा हो तो भोजन कीजिये और जँचे तो यहीं ठहरिये॥ १४ ॥
दुष्यन्तने कहा—‘सुन्दरी ! तुम कुशिकवंशमें उत्पन्न हुई हो, इसलिये इस प्रकारका आतिथ्य- सत्कार तुम्हारे योग्य ही है। क्योंकि राजकन्याएँ स्वयं ही अपने योग्य पतिको वरण कर लिया करती हैं॥ १५ ॥ शकुन्तलाकी स्वीकृति मिल जानेपर देश, काल और शास्त्रकी आज्ञाको जाननेवाले राजा दुष्यन्तने गान्धर्वविधिसे धर्मानुसार उसके साथ विवाह कर लिया ॥ १६ ॥ राजर्षि दुष्यन्तका वीर्य अमोघ था। रात्रिमें वहाँ रहकर दुष्यन्तने शकुन्तलाका सहवास किया और दूसरे दिन सबेरे वे अपनी राजधानीमें चले गये। समय आनेपर शकुन्तलाको एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ १७ ॥ महर्षि कण्वने वनमें ही राजकुमारके जातकर्म आदि संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न किये। वह बालक बचपनमें ही इतना बलवान् था कि बड़े-बड़े सिंहोंको बलपूर्वक बाँध लेता और उनसे खेला करता ॥ १८ ॥
वह बालक भगवान्‌का अंशांशावतार था। उसका बल-विक्रम अपरिमित था। उसे अपने साथ लेकर रमणीरत्न शकुन्तला अपने पतिके पास गयी ॥ १९ ॥ जब राजा दुष्यन्तने अपनी निर्दोष पत्नी और पुत्रको स्वीकार नहीं किया, तब जिसका वक्ता नहीं दीख रहा था और जिसे सब लोगोंने सुना, ऐसी आकाशवाणी हुई ॥ २० ॥ पुत्र उत्पन्न करनेमें माता तो केवल धौंकनीके समान है। वास्तवमें पुत्र पिताका ही है। क्योंकि पिता ही पुत्रके रूपमें उत्पन्न होता है। इसलिये दुष्यन्त ! तुम शकुन्तलाका तिरस्कार न करो, अपने पुत्रका भरण-पोषण करो ॥ २१ ॥ राजन् ! वंशकी वृद्धि करनेवाला पुत्र अपने पिताको नरकसे उबार लेता है। शकुन्तलाका कहना बिलकुल ठीक है। इस गर्भको धारण करानेवाले तुम्हीं हो॥ २२ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



पूरु के वंश,राजा दुष्यन्त और भरत के चरित्र का वर्णन


श्रीशुक उवाच ।

पूरोर्वंशं प्रवक्ष्यामि यत्र जातोऽसि भारत ।

यत्र राजर्षयो वंश्या ब्रह्मवंश्याश्च जज्ञिरे ॥ १ ॥

जनमेजयो ह्यभूत् पूरोः प्रचिन्वांस्तत् सुतस्ततः ।

प्रवीरोऽथ मनुस्युर्वै तस्माच्चारुपदोऽभवत् ॥ २ ॥

तस्य सुद्युरभूत् पुत्रः तस्माद् बहुगवस्ततः ।

संयातिस्तस्याहंयाती रौद्राश्वस्तत्सुतः स्मृतः ॥ ३ ॥

ऋतेयुस्तस्य कक्षेयुः स्थण्डिलेयुः कृतेयुकः ।

जलेयुः सन्नतेयुश्च धर्मसत्यव्रतेयवः ॥ ४ ॥

दशैतेऽप्सरसः पुत्रा वनेयुश्चावमः स्मृतः ।

घृताच्यामिन्द्रियाणीव मुख्यस्य जगदात्मनः ॥ ५ ॥

ऋतेयो रन्तिभारोऽभूत् त्रयस्तस्यात्मजा नृप ।

सुमतिर्ध्रुवोऽप्रतिरथः कण्वोऽप्रतिरथात्मजः ॥ ६ ॥

तस्य मेधातिथिः तस्मात् प्रस्कण्वाद्या द्विजातयः ।

पुत्रोऽभूत् सुमते रेभ्यो दुष्यन्तः तत्सुतो मतः ॥ ७ ॥

दुष्यन्तो मृगयां यातः कण्वाश्रमपदं गतः ।

तत्रासीनां स्वप्रभया मण्डयन्तीं रमामिव ॥ ८ ॥

विलोक्य सद्यो मुमुहे देवमायामिव स्त्रियम् ।

बभाषे तां वरारोहां भटैः कतिपयैर्वृतः ॥ ९ ॥

तद्दर्शनप्रमुदितः संनिवृत्तपरिश्रमः ।

पप्रच्छ कामसन्तप्तः प्रहसन् श्लक्ष्णया गिरा ॥ १० ॥

का त्वं कमलपत्राक्षि कस्यासि हृदयंगमे ।

किं वा चिकीर्षितं त्वत्र भवत्या निर्जने वने ॥ ११ ॥

व्यक्तं राजन्यतनयां वेद्‌म्यहं त्वां सुमध्यमे ।

न हि चेतः पौरवाणां अधर्मे रमते क्वचित् ॥ १२ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब मैं राजा पूरुके वंशका वर्णन करूँगा। इसी वंशमें तुम्हारा जन्म हुआ है। इसी वंशके वंशधर बहुत-से राजर्षि और ब्रहमर्षि भी हुए हैं ॥ १ ॥ पूरु का पुत्र हुआ जनमेजय। जनमेजय का प्रचिन्वान्, प्रचिन्वान् का प्रवीर, प्रवीर का नमस्यु और नमस्यु का पुत्र हुआ चारुपद ॥ २ ॥ चारुपद से  सुद्यु, सुद्यु से बहुगव, बहुगव से संयाति, संयाति से अहंयाति और अहंयाति से रौद्राश्व हुआ ॥ ३ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे विश्वात्मा प्रधान प्राण से दस इन्द्रियाँ होती हैं, वैसे ही घृताची अप्सरा के गर्भसे रौद्राश्व के दस पुत्र हुएऋतेयु, कुक्षेयु, स्थण्डिलेयु, कृतेयु, जलेयु, सन्ततेयु, धर्मेयु, सत्येयु, व्रतेयु और सबसे छोटा वनेयु ॥ ४-५ ॥ परीक्षित्‌ ! उनमेंसे ऋतेयुका पुत्र रन्तिभार हुआ और रन्तिभारके तीन पुत्र हुएसुमति, ध्रुव, और अप्रतिरथ। अप्रतिरथके पुत्रका नाम था कण्व ॥ ६ ॥ कण्वका पुत्र मेधातिथि हुआ। इसी मेधातिथिसे प्रस्कण्व आदि ब्राह्मण उत्पन्न हुए। सुमतिका पुत्र रैभ्य हुआ, इसी रैभ्य का पुत्र दुष्यन्त था ॥ ७ ॥
एक बार दुष्यन्त वनमें अपने कुछ सैनिकोंके साथ शिकार खेलनेके लिये गये हुए थे। उधर ही वे कण्व मुनिके आश्रमपर जा पहुँचे। उस आश्रमपर देवमायाके समान मनोहर एक स्त्री बैठी हुई थी। उसकी लक्ष्मीके समान अङ्गकान्तिसे वह आश्रम जगमगा रहा था। उस सुन्दरीको देखते ही दुष्यन्त मोहित हो गये और उससे बातचीत करने लगे ॥ ८-९ ॥ उसको देखनेसे उनको बड़ा आनन्द मिला। उनके मनमें कामवासना जाग्रत् हो गयी। थकावट दूर करनेके बाद उन्होंने बड़ी मधुर वाणीसे मुसकराते हुए उससे पूछा॥ १० ॥ कमलदलके समान सुन्दर नेत्रोंवाली देवि ! तुम कौन हो और किसकी पुत्री हो ? मेरे हृदय को अपनी ओर आकर्षित करने वाली सुन्दरी ! तुम इस निर्जन वन में रहकर क्या करना चाहती हो ? ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मैं स्पष्ट समझ रहा हूँ कि तुम किसी क्षत्रिय की कन्या हो। क्योंकि पुरुवंशियों का चित्त कभी अधर्म की ओर नहीं झुकता॥ १२॥



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बुधवार, 15 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)



ययातिका गृहत्याग


इत्युक्त्वा नाहुषो जायां तदीयं पूरवे वयः ।

दत्त्वा स्वां जरसं तस्माद् आददे विगतस्पृहः ॥ २१ ॥

दिशि दक्षिणपूर्वस्यां द्रुह्युं दक्षिणतो यदुम् ।

प्रतीच्यां तुर्वसुं चक्र उदीच्यामनुमीश्वरम् ॥ २२ ॥

भूमण्डलस्य सर्वस्य पूरुमर्हत्तमं विशाम् ।

अभिषिच्याग्रजान् तस्य वशे स्थाप्य वनं ययौ ॥ २३ ॥

आसेवितं वर्षपूगान् षड्वर्गं विषयेषु सः ।

क्षणेन मुमुचे नीडं जातपक्ष इव द्विजः ॥ २४ ॥

स तत्र निर्मुक्तसमस्तसंग

आत्मानुभूत्या विधुतत्रिलिंगः ।

परेऽमले ब्रह्मणि वासुदेवे

लेभे गतिं भागवतीं प्रतीतः ॥ २५ ॥

श्रुत्वा गाथां देवयानी मेने प्रस्तोभमात्मनः ।

स्त्रीपुंसोः स्नेहवैक्लव्यात् परिहासमिवेरितम् ॥ २६ ॥

सा सन्निवासं सुहृदां प्रपायामिव गच्छताम् ।

विज्ञायेश्वर तन्त्राणां मायाविरचितं प्रभोः ॥ २७ ॥

सर्वत्र संगघ्गमुत्सृज्य स्वप्नौपम्येन भार्गवी ।

कृष्णे मनः समावेश्य व्यधुनोल्लिंगमात्मनः ॥ २८ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते वासुदेवाय वेधसे ।

सर्वभूताधिवासाय शान्ताय बृहते नमः ॥ २९ ॥



परीक्षित्‌ ! ययाति ने अपनी पत्नी से इस प्रकार कहकर पूरु की जवानी उसे लौटा दी और उससे अपना बुढ़ापा ले लिया। यह इसलिये कि अब उनके चित्तमें विषयोंकी वासना नहीं रह गयी थी ॥ २१ ॥ इसके बाद उन्होंने दक्षिण-पूर्व दिशामें द्रुह्य, दक्षिणमें यदु, पश्चिममें तुर्वसु और उत्तरमें अनुको राज्य दे दिया ॥ २२ ॥ सारे भूमण्डलकी समस्त सम्पत्तियोंके योग्यतम पात्र पूरुको अपने राज्यपर अभिषिक्त करके तथा बड़े भाइयोंको उसके अधीन बनाकर वे वनमें चले गये ॥ २३ ॥ यद्यपि राजा ययातिने बहुत वर्षोंतक इन्द्रियोंसे विषयोंका सुख भोगा थापरंतु जैसे पाँख निकल आनेपर पक्षी अपना घोंसला छोड़ देता है, वैसे ही उन्होंने एक क्षणमें ही सब कुछ छोड़ दिया ॥ २४ ॥ वनमें जाकर राजा ययातिने समस्त आसक्तियोंसे छुट्टी पा ली। आत्म-साक्षात्कारके द्वारा उनका त्रिगुणमय लिङ्गशरीर नष्ट हो गया। उन्होंने माया-मलसे रहित परब्रह्म परमात्मा वासुदेवमें मिलकर वह भागवती गति प्राप्त की, जो बड़े-बड़े भगवान्‌के प्रेमी संतोंको प्राप्त होती है ॥ २५ ॥
जब देवयानीने वह गाथा सुनी, तो उसने समझा कि ये मुझे निवृत्तिमार्गके लिये प्रोत्साहित कर रहे हैं। क्योंकि स्त्री-पुरुषमें परस्पर प्रेमके कारण विरह होनेपर विकलता होती है, यह सोचकर ही इन्होंने यह बात हँसी-हँसीमें कही है ॥ २६ ॥ स्वजन-सम्बन्धियोंकाजो ईश्वरके अधीन हैएक स्थानपर इकट्ठाहो जाना वैसा ही है, जैसा प्याऊपर पथिकोंका। यह सब भगवान्‌की मायाका खेल और स्वप्नके सरीखा ही है। ऐसा समझकर देवयानीने सब पदार्थोंकी आसक्ति त्याग दी और अपने मनको भगवान्‌ श्रीकृष्ण में तन्मय करके बन्धन के हेतु लिङ्गशरीर का परित्याग कर दियावह भगवान्‌ को प्राप्त हो गयी ॥ २७-२८ ॥ उसने भगवान्‌ को नमस्कार करके कहा—‘समस्त जगत् के रचयिता, सर्वान्तर्यामी, सबके आश्रयस्वरूप सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ वासुदेव को नमस्कार है। जो परम शान्त और अनन्त तत्त्व है, उसे मैं नमस्कार करती हूँ॥ २९ ॥



इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां नवमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९ ॥


हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

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ययातिका गृहत्याग


न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति ।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ १४ ॥

यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेष्वमंगलम् ।

समदृष्टेस्तदा पुंसः सर्वाः सुखमया दिशः ॥ १५ ॥

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिः जीर्यतो या न जीर्यते ।

तां तृष्णां दुःखनिवहां शर्मकामो द्रुतं त्यजेत् ॥ १६ ॥

मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा नाविविक्तासनो भवेत् ।

बलवान् इन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति ॥ १७ ॥

पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयान् सेवतोऽसकृत् ।

तथापि चानुसवनं तृष्णा तेषूपजायते ॥ १८ ॥

तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्यध्याय मानसम् ।

निर्द्वन्द्वो निरहंकारः चरिष्यामि मृगैः सह ॥ १९ ॥

दृष्टं श्रुतमसद् बुद्ध्वा नानुध्यायेन्न सन्दिशेत् ।

संसृतिं चात्मनाशं च तत्र विद्वान् स आत्मदृक् ॥ २० ॥



विषयोंके भोगनेसे भोगवासना कभी शान्त नहीं हो सकती। बल्कि जैसे घीकी आहुति डालनेपर आग और भडक़ उठती है, वैसे ही भोगवासनाएँ भी भोगोंसे प्रबल हो जाती हैं ॥ १४ ॥ जब मनुष्य किसी भी प्राणी और किसी भी वस्तुके साथ राग-द्वेषका भाव नहीं रखता, तब वह समदर्शी हो जाता है तथा उसके लिये सभी दिशाएँ सुखमयी बन जाती हैं ॥ १५ ॥ विषयोंकी तृष्णा ही दु:खोंका उद्गम स्थान है। मन्दबुद्धि लोग बड़ी कठिनाईसे उसका त्याग कर सकते हैं। शरीर बूढ़ा हो जाता है, पर तृष्णा नित्य नवीन ही होती जाती है। अत: जो अपना कल्याण चाहता है, उसे शीघ्रसे-शीघ्र इस तृष्णा (भोग-वासना) का त्याग कर देना चाहिये ॥ १६ ॥ और तो क्याअपनी मा, बहिन और कन्याके साथ भी अकेले एक आसनपर सटकर नहीं बैठना चाहिये। इन्द्रियाँ इतनी बलवान् हैं कि वे बड़े-बड़े विद्वानोंको भी विचलित कर देती हैं ॥ १७ ॥ विषयोंका बार-बार सेवन करते-करते मेरे एक हजार वर्ष पूरे हो गये, फिर भी क्षण-प्रति-क्षण उन भोगोंकी लालसा बढ़ती ही जा रही है ॥ १८ ॥ इसलिये मैं अब भोगोंकी वासना-तृष्णाका परित्याग करके अपना अन्त:करण परमात्माके प्रति समर्पित कर दूँगा और शीत-उष्ण, सुख-दु:ख आदिके भावोंसे ऊपर उठकर अहंकारसे मुक्त हो हरिनोंके साथ वनमें विचरूँगा ॥ १९ ॥ लोक-परलोक दोनोंके ही भोग असत् हैं, ऐसा समझकर न तो उनका चिन्तन करना चाहिये और न भोग ही। समझना चाहिये कि उनके चिन्तनसे ही जन्म-मृत्युरूप संसारकी प्राप्ति होती है और उनके भोगसे तो आत्मनाश ही हो जाता है। वास्तवमें इनके रहस्यको जानकर इनसे अलग रहनेवाला ही आत्मज्ञानी है॥ २० ॥



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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से


मंगलवार, 14 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



ययातिका गृहत्याग


तमेव प्रेष्ठतमया रममाणमजान्यया ।

विलोक्य कूपसंविग्ना नामृष्यद् बस्तकर्म तत् ॥ ७ ॥

तं दुर्हृदं सुहृद्‌रूपं कामिनं क्षणसौहृदम् ।

इन्द्रियारामं उत्सृज्य स्वामिनं दुःखिता ययौ ॥ ८ ॥

सोऽपि चानुगतः स्त्रैणः कृपणस्तां प्रसादितुम् ।

कुर्वन्निडविडाकारं नाशक्नोत् पथि संधितुम् ॥ ९ ॥

तस्य तत्र द्विजः कश्चित् अजास्वाम्यच्छिनद् रुषा ।

लम्बन्तं वृषणं भूयः सन्दधेऽर्थाय योगवित् ॥ १० ॥

संबद्धवृषणः सोऽपि ह्यजया कूपलब्धया ।

कालं बहुतिथं भद्रे कामैर्नाद्यापि तुष्यति ॥ ११ ॥

तथाहं कृपणः सुभ्रु भवत्याः प्रेमयन्त्रितः ।

आत्मानं नाभिजानामि मोहितस्तव मायया ॥ १२ ॥

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।

न दुह्यन्ति मनःप्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ॥ १३ ॥



जब उसकी कूएँमेंसे निकाली हुई प्रियतमा बकरीने देखा कि मेरा पति तो अपनी दूसरी प्रियतमा बकरीसे विहार कर रहा है, तो उसे बकरेकी यह करतूत सहन न हुई ॥ ७ ॥ उसने देखा कि यह तो बड़ा कामी है, इसके प्रेमका कोई भरोसा नहीं है और यह मित्रके रूपमें शत्रुका काम कर रहा है। अत: वह बकरी उस इन्द्रियलोलुप बकरेको छोडक़र बड़े दु:खसे अपने पालने वालेके पास चली गयी ॥ ८ ॥ वह दीन कामी बकरा उसे मनानेके लिये में-मेंकरता हुआ उसके पीछे-पीछे चला। परंतु उसे मार्गमें मना न सका ॥ ९ ॥ उस बकरीका स्वामी एक ब्राह्मण था। उसने क्रोधमें आकर बकरेके लटकते हुए अण्डकोषको काट दिया। परंतु फिर उस बकरीका ही भला करनेके लिये फिरसे उसे जोड़ भी दिया। उसे इस प्रकारके बहुत-से उपाय मालूम थे ॥ १० ॥ प्रिये ! इस प्रकार अण्डकोष जुड़ जानेपर वह बकरा फिर कूएँसे निकली हुई बकरीके साथ बहुत दिनोंतक विषयभोग करता रहा, परंतु आजतक उसे सन्तोष न हुआ ॥ ११ ॥ सुन्दरी ! मेरी भी यही दशा है। तुम्हारे प्रेमपाशमें बँधकर मैं भी अत्यन्त दीन हो गया। तुम्हारी मायासे मोहित होकर मैं अपने-आपको भी भूल गया हूँ ॥ १२ ॥
प्रिये ! पृथ्वीमें जितने भी धान्य (चावल, जौ आदि), सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैंवे सब-के-सब मिलकर भी उस पुरुषके मनको सन्तुष्ट नहीं कर सकते, जो कामनाओंके प्रहारसे जर्जर हो रहा है ॥ १३ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

नवम स्कन्ध उन्नीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



ययातिका गृहत्याग


श्रीशुक उवाच ।

स इत्थं आचरन् कामान् स्त्रैणोऽपह्नवमात्मनः ।

बुद्ध्वा प्रियायै निर्विण्णो गाथामेतामगायत ॥ १ ॥

श्रृणु भार्गव्यमूं गाथां मद्विधाचरितां भुवि ।

धीरा यस्यानुशोचन्ति वने ग्रामनिवासिनः ॥ २ ॥

बस्त एको वने कश्चिद् विचिन्वन् प्रियमात्मनः ।

ददर्श कूपे पतितां स्वकर्मवशगामजाम् ॥ ३ ॥

तस्या उद्धरणोपायं बस्तः कामी विचिन्तयन् ।

व्यधत्त तीर्थमुद्‌धृत्य विषाणाग्रेण रोधसी ॥ ४ ॥

सोत्तीर्य कूपात् सुश्रोणी तमेव चकमे किल ।

तया वृतं समुद्वीक्ष्य बह्व्योऽजाः कान्तकामिनीः ॥ ५ ॥

पीवानं श्मश्रुलं प्रेष्ठं मीढ्वांसं याभकोविदम् ।

स एकोऽजवृषस्तासां बह्वीनां रतिवर्धनः ।

रेमे कामग्रहग्रस्त आत्मानं नावबुध्यत ॥ ६ ॥


श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! राजा ययाति इस प्रकार स्त्रीके वशमें होकर विषयोंका उपभोग करते रहे। एक दिन जब अपने अध:पतनपर दृष्टि गयी तब उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ और उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी देवयानीसे इस गाथा का गान किया ॥ १ ॥ भृगुनन्दिनी ! तुम यह गाथा सुनो। पृथ्वीमें मेरे ही समान विषयीका यह सत्य इतिहास है। ऐसे ही ग्रामवासी विषयी पुरुषोंके सम्बन्धमें वनवासी जितेन्द्रिय पुरुष दु:ख के साथ विचार किया करते हैं कि इनका कल्याण कैसे होगा ? ॥ २ ॥ एक था बकरा। वह वनमें अकेला ही अपनेको प्रिय लगनेवाली वस्तुएँ ढूँढ़ता हुआ घूम रहा था। उसने देखा कि अपने कर्मवश एक बकरी कूएँमें गिर पड़ी है ॥ ३ ॥ वह बकरा बड़ा कामी था। वह सोचने लगा कि इस बकरी को किस प्रकार कूएँ से निकाला जाय। उसने अपने सींग से कूएँ के पास की धरती खोद डाली और रास्ता तैयार कर लिया ॥ ४ ॥ जब वह सुन्दरी बकरी कूएँ से निकली, तो उसने उस बकरेसे ही प्रेम करना चाहा। वह दाढ़ी-मूँछमण्डित बकरा हृष्ट-पुष्ट, जवान, बकरियों को सुख देनेवाला, विहारकुशल और बहुत प्यारा था। जब दूसरी बकरियोंने देखा कि कूएँमें गिरी हुई बकरीने उसे अपना प्रेमपात्र चुन लिया है, तब उन्होंने भी उसीको अपना पति बना लिया। वे तो पहलेसे ही पतिकी तलाशमें थीं। उस बकरेके सिरपर कामरूप पिशाच सवार था। वह अकेला ही बहुत-सी बकरियोंके साथ विहार करने लगा और अपनी सब सुध-बुध खो बैठा ॥ ५-६ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...