मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०५)

भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह
और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या

श्रीवसुदेव उवाच ।
श्लाघनीयगुणः शूरैः भवान् भोज-यशस्करः ।
स कथं भगिनीं हन्यात् स्त्रियं उद्‌वाहपर्वणि ॥ ३७ ॥
मृत्युर्जन्मवतां वीर देहेन सह जायते ।
अद्य वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुवः ॥ ३८ ॥
देहे पञ्चत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवशः ।
देहान्तरं अनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः ॥ ३९ ॥
व्रजन् तिष्ठन् पदैकेन यथैवैकेन गच्छति ।
यथा तृणजलूकैवं देही कर्मगतिं गतः ॥ ४० ॥
स्वप्ने यथा पश्यति देहमीदृशं
मनोरथेन अभिनिविष्टचेतनः ।
दृष्टश्रुताभ्यां मनसानुचिन्तयन्
प्रपद्यते तत् किमपि ह्यपस्मृतिः ॥ ४१ ॥
यतो यतो धावति दैवचोदितं
मनो विकारात्मकमाप पञ्चसु ।
गुणेषु मायारचितेषु देह्यसौ
प्रपद्यमानः सह तेन जायते ॥ ४२ ॥
ज्योतिर्यथैव उदकपार्थिवेष्वदः ।
समीरवेगानुगतं विभाव्यते ।
एवं स्वमायारचितेष्वसौ पुमान् ।
गुणेषु रागानुगतो विमुह्यति ॥ ४३ ॥
तस्मात् न कस्यचिद् द्रोहं आचरेत् स तथाविधः ।
आत्मनः क्षेममन्विच्छन् द्रोग्धुर्वै परतो भयम् ॥ ४४ ॥
एषा तव अनुजा बाला कृपणा पुत्रिकोपमा ।
हन्तुं नार्हसि कल्याणीं इमां त्वं दीनवत्सलः ॥ ४५ ॥

वसुदेवजीने कहाराजकुमार ! आप भोजवंशके होनहार वंशधर तथा अपने कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणोंकी सराहना करते हैं। इधर यह एक तो स्त्री, दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाहका शुभ अवसर! ऐसी स्थितिमें आप इसे कैसे मार सकते हैं ? ॥ ३७ ॥ वीरवर ! जो जन्म लेते हैं, उनके शरीरके साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो या सौ वर्षके बादजो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही ॥ ३८ ॥ जब शरीरका अन्त हो जाता है, तब जीव अपने कर्मके अनुसार दूसरे शरीरको ग्रहण करके अपने पहले शरीरको छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा करना पड़ता है ॥ ३९ ॥ जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमाकर ही दूसरा पैर उठाता है और जैसे जोंक किसी अगले तिनकेको पकड़ लेती है, तब पहलेके पकड़े हुए तिनकेको छोड़ती हैवैसे जीव भी अपने कर्मके अनुसार किसी शरीरको प्राप्त करनेके बाद ही इस शरीरको छोड़ता है ॥ ४० ॥ जैसे कोई पुरुष जाग्रत्-अवस्थामें राजाके ऐश्वर्यको देखकर और इन्द्रादिके ऐश्वर्यको सुनकर उसकी अभिलाषा करने लगता है और उसका चिन्तन करते-करते उन्हीं बातोंमें घुल-मिलकर एक हो जाता है तथा स्वप्नमें अपनेको राजा या इन्द्रके रूपमें अनुभव करने लगता है, साथ ही अपने दरिद्रावस्थाके शरीरको भूल जाता है। कभी-कभी तो जाग्रत् अवस्थामें ही मन-ही-मन उन बातोंका चिन्तन करते-करते तन्मय हो जाता है और उसे स्थूल शरीरकी सुधि नहीं रहती। वैसे ही जीव कर्मकृत कामना और कामनाकृत कर्मके वश होकर दूसरे शरीरको प्राप्त हो जाता है और अपने पहले शरीरको भूल जाता है ॥ ४१ ॥ जीवका मन अनेक विकारोंका पुञ्ज है। देहान्तके समय वह अनेक जन्मोंके सञ्चित और प्रारब्ध कर्मोंकी वासनाओंके अधीन होकर मायाके द्वारा रचे हुए अनेक पाञ्चभौतिक शरीरोंमेंसे जिस किसी शरीरके चिन्तनमें तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि यह मैं हूँ, उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है ॥ ४२ ॥ जैसे सूर्य, चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जलसे भरे हुए घड़ोंमें या तेल आदि तरल पदार्थोंमें प्रतिबिम्बित होती हैं और हवाके झोंकेसे उनके जल आदिके हिलने-डोलनेपर उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चञ्चल जान पड़ती हैं । वैसे ही जीव अपने स्वरूपके अज्ञानद्वारा रचे हुए शरीरोंमें राग करके उन्हें अपना-आप मान बैठता है और मोहवश उनके आने-जानेको अपना आना-जाना मानने लगता है ॥ ४३ ॥ इसलिये जो अपना कल्याण चाहता है, उसे किसीसे द्रोह नहीं करना चाहिये; क्योंकि जीव कर्मके अधीन हो गया है और जो किसीसे भी द्रोह करेगा, उसको इस जीवनमें शत्रुसे और जीवनके बाद परलोकसे भयभीत होना ही पड़ेगा ॥ ४४ ॥ कंस ! यह आपकी छोटी बहिन अभी बच्ची और बहुत दीन है । यह तो आपकी कन्याके समान है । इसपर, अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाहके मङ्गलचिह्न भी इसके शरीर पर से नहीं उतरे हैं । ऐसी दशामें आप-जैसे दीनवत्सल पुरुषको इस बेचारीका वध करना उचित नहीं है ॥ ४५ ॥

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सोमवार, 27 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०४)

भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह
और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या

श्रीशुक उवाच ।
इत्यादिश्यामरगणान् प्रजापतिपतिः विभुः ।
आश्वास्य च महीं गीर्भिः स्वधाम परमं ययौ ॥ २६ ॥
शूरसेनो यदुपतिः मथुरां आवसन् पुरीम् ।
माथुरान् शूरसेनांश्च विषयान् बुभुजे पुरा ॥ २७ ॥
राजधानी ततः साभूत् सर्वयादव भूभुजाम् ।
मथुरा भगवान् यत्र नित्यं सन्निहितो हरिः ॥ २८ ॥
तस्यां तु कर्हिचित् शौरिः वसुदेवः कृतोद्‌वहः ।
देवक्या सूर्यया सार्धं प्रयाणे रथमारुहत् ॥ २९ ॥
उग्रसेनसुतः कंसः स्वसुः प्रियचिकीर्षया ।
रश्मीन् हयानां जग्राह रौक्मै रथशतैर्वृतः ॥ ३० ॥
चतुःशतं पारिबर्हं गजानां हेममालिनाम् ।
अश्वानां अयुतं सार्धं रथानां च त्रिषट्शतम् ॥ ३१ ॥
दासीनां सुकुमारीणां द्वे शते समलंकृते ।
दुहित्रे देवकः प्रादात् याने दुहितृवत्सलः ॥ ३२ ॥
शंखतूर्यमृदंगाश्च नेदुः दुन्दुभयः समम् ।
प्रयाणप्रक्रमे तावत् वरवध्वोः सुमंगलम् ॥ ३३ ॥
पथि प्रग्रहिणं कंसं आभाष्य आह अशरीरवाक् ।
अस्यास्त्वां अष्टमो गर्भो हन्ता यां वहसे अबुध ॥ ३४ ॥
इत्युक्तः स खलः पापो भोजानां कुलपांसनः ।
भगिनीं हन्तुमारब्धः खड्गपाणिः कचेऽग्रहीत् ॥ ३५ ॥
तं जुगुप्सितकर्माणं नृशंसं निरपत्रपम् ।
वसुदेवो महाभाग उवाच परिसान्त्वयन् ॥ ३६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! प्रजापतियोंके स्वामी भगवान्‌ ब्रह्माजीने देवताओंको इस प्रकार आज्ञा दी और पृथ्वीको समझा-बुझाकर ढाढ़स बँधाया। इसके बाद वे अपने परम धामको चले गये ॥ २६ ॥ प्राचीन कालमें यदुवंशी राजा थे शूरसेन। वे मथुरापुरीमें रहकर माथुरमण्डल और शूरसेनमण्डलका राज्यशासन करते थे ॥ २७ ॥ उसी समयसे मथुरा ही समस्त यदुवंशी नरपतियोंकी राजधानी हो गयी थी। भगवान्‌ श्रीहरि सर्वदा वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ २८ ॥ एक बार मथुरामें शूर के पुत्र वसुदेवजी विवाह करके अपनी नवविवाहिता पत्नी देवकीके साथ घर जानेके लिये रथपर सवार हुए ॥ २९ ॥ उग्रसेनका लडक़ा था कंस। उसने अपनी चचेरी बहिन देवकीको प्रसन्न करनेके लिये उसके रथके घोड़ोंकी रास पकड़ ली। वह स्वयं ही रथ हाँकने लगा, यद्यपि उसके साथ सैकड़ों सोनेके बने हुए रथ चल रहे थे ॥ ३० ॥ देवकीके पिता थे देवक। अपनी पुत्रीपर उनका बड़ा प्रेम था। कन्याको विदा करते समय उन्होंने उसे सोनेके हारोंसे अलंकृत चार सौ हाथी, पंद्रह हजार घोड़े, अठारह सौ रथ तथा सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषणोंसे विभूषित दो सौ सुकुमारी दासियाँ दहेजमें दीं ॥ ३१-३२ ॥ विदाईके समय वर-वधूके मङ्गलके लिये एक ही साथ शङ्ख, तुरही, मृदङ्ग और दुन्दुभियाँ बजने लगीं ॥ ३३ ॥ मार्गमें जिस समय घोड़ोंकी रास पकडक़र कंस रथ हाँक रहा था, उस समय आकाशवाणीने उसे सम्बोधन करके कहा—‘अरे मूर्ख! जिसको तू रथमें बैठाकर लिये जा रहा है, उसकी आठवें गर्भकी सन्तान तुझे मार डालेगी॥ ३४ ॥ कंस बड़ा पापी था। उसकी दुष्टताकी सीमा नहीं थी। वह भोजवंशका कलङ्क ही था। आकाशवाणी सुनते ही उसने तलवार खींच ली और अपनी बहिनकी चोटी पकडक़र उसे मारनेके लिये तैयार हो गया ॥ ३५ ॥ वह अत्यन्त क्रूर तो था ही, पाप-कर्म करते-करते निर्लज्ज भी हो गया था। उसका यह काम देखकर महात्मा वसुदेवजी उसको शान्त करते हुए बोले॥ ३६ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०३)

भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह
और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या

सूत उवाच ।
एवं निशम्य भृगुनन्दन साधुवादं ।
वैयासकिः स भगवान् अथ विष्णुरातम् ।
प्रत्यर्च्य कृष्णचरितं कलिकल्मषघ्नं ।
व्याहर्तुमारभत भागवतप्रधानः ॥ १४ ॥

श्रीशुक उवाच ।
सम्यग्व्यवसिता बुद्धिः तव राजर्षिसत्तम ।
वासुदेवकथायां ते यज्जाता नैष्ठिकी रतिः ॥ १५ ॥
वासुदेवकथाप्रश्नः पुरुषान् त्रीन् पुनाति हि ।
वक्तारं पृच्छकं श्रोतॄन् तत्पादसलिलं यथा ॥ १६ ॥
भूमिः दृप्तनृपव्याज दैत्यानीकशतायुतैः ।
आक्रान्ता भूरिभारेण ब्रह्माणं शरणं ययौ ॥ १७ ॥
गौर्भूत्वा अश्रुमुखी खिन्ना क्रन्दन्ती करुणं विभोः ।
उपस्थितान्तिके तस्मै व्यसनं स्वं अवोचत ॥ १८ ॥
ब्रह्मा तद् उपधार्याथ सह देवैस्तया सह ।
जगाम स-त्रिनयनः तीरं क्षीरपयोनिधेः ॥ १९ ॥
तत्र गत्वा जगन्नाथं देवदेवं वृषाकपिम् ।
पुरुषं पुरुषसूक्तेन उपतस्थे समाहितः ॥ २० ॥
गिरं समाधौ गगने समीरितां
निशम्य वेधास्त्रिदशानुवाच ह ।
गां पौरुषीं मे श्रृणुतामराः पुनः
विधीयतां आशु तथैव मा चिरम् ॥ २१ ॥
पुरैव पुंसा अवधृतो धराज्वरो
भवद्‌भिः अंशैः यदुषूपजन्यताम् ।
स यावद् उर्व्या भरं इश्वरेश्वरः
स्वकालशक्त्या क्षपयन् चरेद् भुवि ॥ २२ ॥
वसुदेवगृहे साक्षाद् भगवान् पुरुषः परः ।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं संभवन्तु सुरस्त्रियः ॥ २३ ॥
वासुदेवकलानन्तः सहस्रवदनः स्वराट् ।
अग्रतो भविता देवो हरेः प्रियचिकीर्षया ॥ २४ ॥
विष्णोर्माया भगवती यया सम्मोहितं जगत् ।
आदिष्टा प्रभुणांशेन कार्यार्थे संभविष्यति ॥ २५ ॥

सूतजी कहते हैंशौनकजी ! भगवान्‌ के प्रेमियों में अग्रगण्य एवं सर्वज्ञ श्रीशुकदेवजी महाराज ने परीक्षित्‌ का ऐसा समीचीन प्रश्र सुनकर (जो संतोंकी सभा में भगवान्‌ की लीलाके वर्णनका हेतु हुआ करता है) उनका अभिनन्दन किया और भगवान्‌ श्रीकृष्णकी उन लीलाओंका वर्णन प्रारम्भ किया, जो समस्त कलिमलोंको सदाके लिये धो डालती हैं ॥ १४ ॥
श्रीशुकदेवजीने कहाभगवान्‌के लीला-रसके रसिक राजर्षे ! तुमने जो कुछ निश्चय किया है, वह बहुत ही सुन्दर और आदरणीय है; क्योंकि सबके हृदयाराध्य श्रीकृष्णकी लीला-कथा श्रवण करनेमें तुम्हें सहज एवं सुदृढ़ प्रीति प्राप्त हो गयी है ॥ १५ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कथाके सम्बन्धमें प्रश्र करनेसे ही वक्ता, प्रश्रकर्ता और श्रोता तीनों ही पवित्र हो जाते हैंजैसे गङ्गाजीका जल या भगवान्‌ शालग्रामका चरणामृत सभीको पवित्र कर देता है ॥ १६ ॥
परीक्षित्‌ ! उस समय लाखों दैत्योंके दलने घमंडी राजाओंका रूप धारण कर अपने भारी भारसे पृथ्वीको आक्रान्त कर रखा था। उससे त्राण पानेके लिये वह ब्रह्माजीकी शरणमें गयी ॥ १७ ॥ पृथ्वीने उस समय गौका रूप धारण कर रखा था। उसके नेत्रोंसे आँसू बह-बहकर मुँहपर आ रहे थे। उसका मन तो खिन्न था ही, शरीर भी बहुत कृश हो गया था। वह बड़े करुण स्वरसे रँभा रही थी। ब्रह्माजी के पास जाकर उसने उन्हें अपनी पूरी कष्ट-कहानी सुनायी ॥ १८ ॥ ब्रह्माजी ने बड़ी सहानुभूति के साथ उसकी दु:ख-गाथा सुनी। उसके बाद वे भगवान्‌ शङ्कर, स्वर्ग के अन्यान्य प्रमुख देवता तथा गौ के रूपमें आयी हुई पृथ्वी को अपने साथ लेकर क्षीरसागरके तटपर गये ॥ १९ ॥ भगवान्‌ देवताओं के भी आराध्यदेव हैं। वे अपने भक्तोंकी समस्त अभिलाषाएँ पूर्ण करते और उनके समस्त क्लेशोंको नष्ट कर देते हैं। वे ही जगत्के एकमात्र स्वामी हैं। क्षीरसागरके तटपर पहुँचकर ब्रह्मा आदि देवताओंने पुरुषसूक्तके द्वारा उन्हीं परम पुरुष सर्वान्तर्यामी प्रभुकी स्तुति की। स्तुति करते-करते ब्रह्माजी समाधिस्थ हो गये ॥ २० ॥ उन्होंने समाधि अवस्थामें आकाशवाणी सुनी। इसके बाद जगत्के निर्माणकर्ता ब्रह्माजीने देवताओंसे कहा—‘देवताओ ! मैंने भगवान्‌की वाणी सुनी है। तुमलोग भी उसे मेरे द्वारा अभी सुन लो और फिर वैसा ही करो। उसके पालनमें विलम्ब नहीं होना चाहिये ॥ २१ ॥ भगवान्‌ को पृथ्वीके कष्टका पहलेसे ही पता है। वे ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। अत: अपनी कालशक्तिके द्वारा पृथ्वीका भार हरण करते हुए वे जबतक पृथ्वीपर लीला करें, तबतक तुम लोग भी अपने-अपने अंशोंके साथ यदुकुलमें जन्म लेकर उनकी लीलामें सहयोग दो ॥ २२ ॥ वसुदेवजीके घर स्वयं पुरुषोत्तम भगवान्‌ प्रकट होंगे। उनकी और उनकी प्रियतमा (श्रीराधा) की सेवाके लिये देवाङ्गनाएँ जन्म ग्रहण करें ॥ २३ ॥ स्वयंप्रकाश भगवान्‌ शेष भी, जो भगवान्‌की कला होनेके कारण अनन्त हैं (अनन्तका अंश भी अनन्त ही होता है) और जिनके सहस्र मुख हैं, भगवान्‌के प्रिय कार्य करनेके लिये उनसे पहले ही उनके बड़े भाईके रूपमें अवतार ग्रहण करेंगे ॥ २४ ॥ भगवान्‌की वह ऐश्वर्यशालिनी योगमाया भी, जिसने सारे जगत्को मोहित कर रखा है, उनकी आज्ञासे उनकी लीलाके कार्य सम्पन्न करनेके लिये अंशरूपसे अवतार ग्रहण करेगी॥ २५ ॥

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रविवार, 26 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०२)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०२)



भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह

और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या



रोहिण्यास्तनयः प्रोक्तो रामः संकर्षणस्त्वया ।

देवक्या गर्भसंबंधः कुतो देहान्तरं विना ॥ ८ ॥

कस्मात् मुकुन्दो भगवान् पितुर्गेहाद् व्रजं गतः ।

क्व वासं ज्ञातिभिः सार्धं कृतवान् सात्वतां पतिः ॥ ९ ॥

व्रजे वसन् किं अकरोत् मधुपुर्यां च केशवः ।

भ्रातरं चावधीत् कंसं मातुः अद्धा अतदर्हणम् ॥ १० ॥

देहं मानुषमाश्रित्य कति वर्षाणि वृष्णिभिः ।

यदुपुर्यां सहावात्सीत् पत्‍न्यः कत्यभवन् प्रभोः ॥ ११ ॥

एतत् अन्यच्च सर्वं मे मुने कृष्णविचेष्टितम् ।

वक्तुमर्हसि सर्वज्ञ श्रद्दधानाय विस्तृतम् ॥ १२ ॥

नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदं अपि बाधते ।

पिबन्तं त्वन्मुखाम्भोज अच्युतं हरिकथामृतम् ॥ १३ ॥



भगवन् ! आपने अभी बतलाया था कि बलरामजी रोहिणीके पुत्र थे। इसके बाद देवकीके पुत्रोंमें भी आपने उनकी गणना की। दूसरा शरीर धारण किये बिना दो माताओंका पुत्र होना कैसे सम्भव है ? ॥ ८ ॥ असुरों को मुक्ति देनेवाले और भक्तों को प्रेम वितरण करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण अपने वात्सल्य-स्नेहसे भरे हुए पिताका घर छोडक़र व्रजमें क्यों चले गये ? यदुवंश- शिरोमणि भक्तवत्सल प्रभु ने नन्द आदि गोप-बन्धुओंके साथ कहाँ-कहाँ निवास किया? ॥ ९ ॥ ब्रह्मा और शङ्कर का भी शासन करनेवाले प्रभु ने व्रज में तथा मधुपुरी में रहकर कौन-कौन-सी लीलाएँ कीं ? और महाराज ! उन्होंने अपनी माँ के भाई अपने मामा कंस को अपने हाथों क्यों मार डाला ? वह मामा होनेके कारण उनके द्वारा मारे जाने योग्य तो नहीं था ॥ १० ॥ मनुष्याकार सच्चिदानन्दमय विग्रह प्रकट करके द्वारकापुरीमें यदुवंशियोंके साथ उन्होंने कितने वर्षों तक निवास किया ? और उन सर्वशक्तिमान् प्रभु की पत्नियाँ कितनी थीं ? ॥ ११ ॥ मुने ! मैंने श्रीकृष्ण की जितनी लीलाएँ पूछी हैं और जो नहीं पूछी हैं, वे सब आप मुझे विस्तार से सुनाइये; क्योंकि आप सब कुछ जानते हैं और मैं बड़ी श्रद्धा के साथ उन्हें सुनना चाहता हूँ ॥ १२ ॥ भगवन् ! अन्नकी तो बात ही क्या, मैंने जल का भी परित्याग कर दिया है। फिर भी वह असह्य भूख-प्यास (जिसके कारण मैंने मुनिके गले में मृत सर्प डालने का अन्याय किया था) मुझे तनिक भी नहीं सता रही है; क्योंकि मैं आपके मुखकमल से झरती हुई भगवान्‌ की सुधामयी लीला-कथा का पान कर रहा हूँ ॥ १३ ॥



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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पहला अध्याय..(पोस्ट०१)



भगवान्‌ के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का विवाह

और कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों  हत्या



श्रीराजोवाच ।

कथितो वंशविस्तारो भवता सोमसूर्ययोः ।

राज्ञां च उभयवंश्यानां चरितं परमाद्‍भुतम् ॥ १ ॥

यदोश्च धर्मशीलस्य नितरां मुनिसत्तम ।

तत्रांशेन अवतीर्णस्य विष्णोर्वीर्याणि शंस नः ॥ २ ॥

अवतीर्य यदोर्वंशे भगवान् भूतभावनः ।

कृतवान् यानि विश्वात्मा तानि नो वद विस्तरात् ॥ ३ ॥

निवृत्ततर्षैः उपगीयमानाद्

भवौषधात् श्रोत्रमनोऽभिरामात् ।

क उत्तमश्लोकगुणानुवादात्

पुमान् विरज्येत विना पशुघ्नात् ॥ ४ ॥

पितामहा मे समरेऽमरञ्जयैः

देवव्रताद्यातिरथैस्तिमिङ्‌गिलैः ।

दुरत्ययं कौरवसैन्यसागरं

कृत्वातरन् वत्सपदं स्म यत्प्लवाः ॥ ५ ॥

द्रौण्यस्त्रविप्लुष्टमिदं मदङ्‌गं

सन्तानबीजं कुरुपाण्डवानाम् ।

जुगोप कुक्षिं गत आत्तचक्रो

मातुश्च मे यः शरणं गतायाः ॥ ६ ॥

वीर्याणि तस्याखिलदेहभाजां

अन्तर्बहिः पूरुषकालरूपैः ।

प्रयच्छतो मृत्युमुतामृतं च

मायामनुष्यस्य वदस्व विद्वन् ॥ ७ ॥



राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! आपने चन्द्रवंश और सूर्यवंश के विस्तार तथा दोनों वंशों के राजाओं का अत्यन्त अद्भुत चरित्र वर्णन किया। भगवान्‌ के परम प्रेमी मुनिवर! आपने स्वभाव से ही धर्मप्रेमी यदुवंश का भी विशद वर्णन किया। अब कृपा करके उसी वंश में अपने अंश श्रीबलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण के परम पवित्र चरित्र भी हमें सुनाइये ॥ १-२ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण समस्त प्राणियोंके जीवनदाता एवं सर्वात्मा हैं। उन्होंने यदुवंश में अवतार लेकर जो-जो लीलाएँ कीं, उनका विस्तारसे हमलोगोंको श्रवण कराइये ॥ ३ ॥ जिनकी तृष्णाकी प्यास सर्वदाके लिये बुझ चुकी है, वे जीवन्मुक्त महापुरुष जिसका पूर्ण प्रेमसे अतृप्त रहकर गान किया करते हैं, मुमुक्षुजनोंके लिये जो भवरोगका रामबाण औषध है तथा विषयी लोगोंके लिये भी उनके कान और मनको परम आह्लाद देनेवाला है, भगवान्‌ श्रीकृष्णचन्द्रके ऐसे सुन्दर, सुखद, रसीले, गुणानुवाद से पशुघाती अथवा आत्मघाती मनुष्यके अतिरिक्त और ऐसा कौन है जो विमुख हो जाय, उससे प्रीति न करे ? ॥ ४ ॥ (श्रीकृष्ण तो मेरे कुलदेव ही हैं।) जब कुरुक्षेत्र में महाभारत-युद्ध हो रहा था और देवताओं को भी जीत लेनेवाले भीष्मपितामह आदि अतिरथियोंसे मेरे दादा पाण्डवोंका युद्ध हो रहा था, उस समय कौरवोंकी सेना उनके लिये अपार समुद्रके समान थीजिसमें भीष्म आदि वीर बड़े-बड़े मच्छोंको भी निगल जानेवाले तिमिङ्गिल मच्छोंकी भाँति भय उत्पन्न कर रहे थे। परंतु मेरे स्वनाम-धन्य पितामह भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी नौकाका आश्रय लेकर उस समुद्रको अनायास ही पार कर गयेठीक वैसे ही जैसे कोई मार्गमें चलता हुआ स्वभावसे ही बछड़ेके खुरका गड्ढा पार कर जाय ॥ ५ ॥ महाराज ! मेरा यह शरीरजो आपके सामने है तथा जो कौरव और पाण्डव दोनों ही वंशोंका एकमात्र सहारा थाअश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से जल चुका था। उस समय मेरी माता जब भगवान्‌ की शरणमें गयीं, तब उन्होंने हाथमें चक्र लेकर मेरी माता के गर्भ में प्रवेश किया और मेरी रक्षा की ॥ ६ ॥ (केवल मेरी ही बात नहीं,) वे समस्त शरीरधारियों के भीतर आत्मारूपसे रहकर अमृतत्वका दान कर रहे हैं और बाहर कालरूपसे रहकर मृत्युका [*]। मनुष्यके रूपमें प्रतीत होना, यह तो उनकी एक लीला है। आप उन्हींकी ऐश्वर्य और माधुर्यसे परिपूर्ण लीलाओंका वर्णन कीजिये ॥ ७ ॥

..............................................

[*] समस्त देहधारियों के अन्त:करणमें अन्तर्यामीरूपसे स्थित भगवान्‌ उनके जीवन के कारण हैं तथा बाहर कालरूपसे स्थित हुए वे ही उनका नाश करते हैं। अत: जो आत्मज्ञानीजन अन्तर्दृष्टि द्वारा उन अन्तर्यामी की उपासना करते हैं, वे मोक्षरूप अमरपद पाते हैं और जो विषयपरायण अज्ञानी पुरुष बाह्यदृष्टि से विषयचिन्तन में ही लगे रहते हैं, वे जन्म-मरणरूप मृत्यु के भागी होते हैं।



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शनिवार, 25 अप्रैल 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

विदर्भके वंशका वर्णन

भोजवृष्ण्यन्धकमधु शूरसेनदशार्हकैः
श्लाघनीयेहितः शश्वत्कुरुसृञ्जयपाण्डुभिः ॥ ६३
स्निग्धस्मितेक्षितोदारैर्वाक्यैर्विक्रमलीलया
नृलोकं रमयामास मूर्त्या सर्वाङ्गरम्यया ॥ ६४
यस्याननं मकरकुण्डलचारुकर्ण-
भ्राजत्कपोलसुभगं सविलासहासम्
नित्योत्सवं न ततृपुर्दृशिभिः पिबन्त्यो
नार्यो नराश्च मुदिताः कुपिता निमेश्च ॥ ६५
जातो गतः पितृगृहाद्व्रजमेधितार्थो
हत्वा रिपून्सुतशतानि कृतोरुदारः
उत्पाद्य तेषु पुरुषः क्रतुभिः समीजे
आत्मानमात्मनिगमं प्रथयन्जनेषु ॥ ६६
पृथ्व्याः स वै गुरुभरं क्षपयन्कुरूणा-
मन्तःसमुत्थकलिना युधि भूपचम्वः
दृष्ट्या विधूय विजये जयमुद्विघोष्य
प्रोच्योद्धवाय च परं समगात्स्वधाम ॥ ६७

परीक्षित्‌ ! भोज, वृष्णि, अन्धक, मधु, शूरसेन, दशार्ह, कुरु, सृञ्जय और पाण्डुवंशी वीर निरन्तर भगवान्‌की लीलाओंकी आदरपूर्वक सराहना करते रहते थे ॥ ६३ ॥ उनका श्यामल शरीर सर्वाङ्ग सुन्दर था। उन्होंने उस मनोरम विग्रहसे तथा अपनी प्रेमभरी मुसकान, मधुर चितवन, प्रसादपूर्ण वचन और पराक्रमपूर्ण लीलाके द्वारा सारे मनुष्यलोकको आनन्दमें सराबोर कर दिया था ॥ ६४ ॥ भगवान्‌ के मुखकमलकी शोभा तो निराली ही थी। मकराकृति कुण्डलोंसे उनके कान बड़े कमनीय मालूम पड़ते थे। उनकी आभासे कपोलोंका सौन्दर्य और भी खिल उठता था। जब वे विलासके साथ हँस देते, तो उनके मुखपर निरन्तर रहनेवाले आनन्दमें मानो बाढ़-सी आ जाती। सभी नर-नारी अपने नेत्रोंके प्यालोंसे उनके मुखकी माधुरीका निरन्तर पान करते रहते, परंतु तृप्त नहीं होते। वे उसका रस ले-लेकर आनन्दित तो होते ही, परंतु पलकें गिरनेसे उनके गिरानेवाले निमिपर खीझते भी ॥ ६५ ॥ लीलापुरुषोत्तम भगवान्‌ अवतीर्ण हुए मथुरा में वसुदेवजीके घर, परंतु वहाँ रहे नहीं, वहाँसे गोकुलमें नन्दबाबाके घर चले गये। वहाँ अपना प्रयोजनजो ग्वाल, गोपी और गौओंको सुखी करना थापूरा करके मथुरा लौट आये। व्रजमें, मथुरामें तथा द्वारकामें रहकर अनेकों शत्रुओंका संहार किया। बहुत-सी स्त्रियोंसे विवाह करके हजारों पुत्र उत्पन्न किये। साथ ही लोगोंमें अपने स्वरूपका साक्षात्कार करानेवाली अपनी वाणी-स्वरूप श्रुतियोंकी मर्यादा स्थापित करनेके लिये अनेक यज्ञोंके द्वारा स्वयं अपना ही यजन किया ॥ ६६ ॥ कौरव और पाण्डवोंके बीच उत्पन्न हुए आपसके कलहसे उन्होंने पृथ्वीका बहुत-सा भार हलका कर दिया तथा युद्धमें अपनी दृष्टिसे ही राजाओंकी बहुत-सी अक्षौहिणियोंको ध्वंस करके संसारमें अर्जुनकी जीतका डंका पिटवा दिया। फिर उद्धवको आत्मतत्त्वका उपदेश किया और इसके बाद वे अपने परम धामको सिधार गये ॥ ६७ ॥
  
इति श्रीमद्भागवते महापुराणे वैयासिक्यामष्टादशसाहस्र्यां
पारमहंस्यां संहितायां नवमस्कन्धे श्रीसूर्यसोमवंशानुकीर्तने
यदुवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः

इति नवमः स्कन्धः समाप्तः

॥ हरि: ॐ तत्सत् ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण नवम स्कन्ध –चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
नवम स्कन्ध चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

विदर्भके वंशका वर्णन

यदा यदा हि धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्च पाप्मनः
तदा तु भगवानीश आत्मानं सृजते हरिः ॥ ५६
न ह्यस्य जन्मनो हेतुः कर्मणो वा महीपते
आत्ममायां विनेशस्य परस्य द्रष्टुरात्मनः ॥ ५७
यन्मायाचेष्टितं पुंसः स्थित्युत्पत्त्यप्ययाय हि
अनुग्रहस्तन्निवृत्तेरात्मलाभाय चेष्यते ॥ ५८
अक्षौहिणीनां पतिभिरसुरैर्नृपलाञ्छनैः
भुव आक्रम्यमाणाया अभाराय कृतोद्यमः ॥ ५९
कर्माण्यपरिमेयाणि मनसापि सुरेश्वरैः
सहसङ्कर्षणश्चक्रे भगवान्मधुसूदनः ॥ ६०
कलौ जनिष्यमाणानां दुःखशोकतमोनुदम्
अनुग्रहाय भक्तानां सुपुण्यं व्यतनोद्यशः ॥ ६१
यस्मिन्सत्कर्णपीयुषे यशस्तीर्थवरे सकृत्
श्रोत्राञ्जलिरुपस्पृश्य धुनुते कर्मवासनाम् ॥ ६२

जब-जब संसारमें धर्मका ह्रास और पापकी वृद्धि होती है, तब-तब सर्वशक्तिमान् भगवान्‌ श्रीहरि अवतार ग्रहण करते हैं ॥ ५६ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सबके द्रष्टा और वास्तवमें असङ्ग आत्मा ही हैं। इसलिए उनकी आत्मस्वरूपिणी योगमायाके अतिरिक्त उनके जन्म अथवा कर्मका और कोई भी कारण नहीं है ॥ ५७ ॥ उनकी मायाका विलास ही जीवके जन्म, जीवन और मृत्युका कारण है। और उनका अनुग्रह ही मायाको अलग करके आत्मस्वरूपको प्राप्त करानेवाला है ॥ ५८ ॥ जब असुरोंने राजाओंका वेष धारण कर लिया और कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके वे सारी पृथ्वीको रौंदने लगे, तब पृथ्वीका भार उतारनेके लिये भगवान्‌ मधुसूदन बलरामजीके साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी-ऐसी लीलाएँ कीं, जिनके सम्बन्धमें बड़े-बड़े देवता मन से अनुमान भी नहीं कर सकतेशरीरसे करनेकी बात तो अलग रही ॥ ५९-६० ॥ पृथ्वीका भार तो उतरा ही, साथ ही कलियुगमें पैदा होनेवाले भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये भगवान्‌ने ऐसे परम पवित्र यशका विस्तार किया, जिसका गान और श्रवण करनेसे ही उनके दु:ख, शोक और अज्ञान सब-के-सब नष्ट हो जायँगे ॥ ६१ ॥ उनका यश क्या है, लोगोंको पवित्र करनेवाला श्रेष्ठ तीर्थ है। संतोंके कानोंके लिये तो वह साक्षात् अमृत ही है । एक बार भी यदि कानकी अञ्जलियोंसे उसका आचमन कर लिया जाता है, तो कर्मकी वासनाएँ निर्मूल हो जाती हैं ॥ ६२ ॥

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१०)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१०) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन विश...