॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पहला अध्याय..(पोस्ट०५)
भगवान्
के द्वारा पृथ्वी को आश्वासन, वसुदेव-देवकी का
विवाह
और
कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों हत्या
श्रीवसुदेव
उवाच ।
श्लाघनीयगुणः
शूरैः भवान् भोज-यशस्करः ।
स
कथं भगिनीं हन्यात् स्त्रियं उद्वाहपर्वणि ॥ ३७ ॥
मृत्युर्जन्मवतां
वीर देहेन सह जायते ।
अद्य
वाब्दशतान्ते वा मृत्युर्वै प्राणिनां ध्रुवः ॥ ३८ ॥
देहे
पञ्चत्वमापन्ने देही कर्मानुगोऽवशः ।
देहान्तरं
अनुप्राप्य प्राक्तनं त्यजते वपुः ॥ ३९ ॥
व्रजन्
तिष्ठन् पदैकेन यथैवैकेन गच्छति ।
यथा
तृणजलूकैवं देही कर्मगतिं गतः ॥ ४० ॥
स्वप्ने
यथा पश्यति देहमीदृशं
मनोरथेन
अभिनिविष्टचेतनः ।
दृष्टश्रुताभ्यां
मनसानुचिन्तयन्
प्रपद्यते
तत् किमपि ह्यपस्मृतिः ॥ ४१ ॥
यतो
यतो धावति दैवचोदितं
मनो
विकारात्मकमाप पञ्चसु ।
गुणेषु
मायारचितेषु देह्यसौ
प्रपद्यमानः
सह तेन जायते ॥ ४२ ॥
ज्योतिर्यथैव
उदकपार्थिवेष्वदः ।
समीरवेगानुगतं
विभाव्यते ।
एवं
स्वमायारचितेष्वसौ पुमान् ।
गुणेषु
रागानुगतो विमुह्यति ॥ ४३ ॥
तस्मात्
न कस्यचिद् द्रोहं आचरेत् स तथाविधः ।
आत्मनः
क्षेममन्विच्छन् द्रोग्धुर्वै परतो भयम् ॥ ४४ ॥
एषा
तव अनुजा बाला कृपणा पुत्रिकोपमा ।
हन्तुं
नार्हसि कल्याणीं इमां त्वं दीनवत्सलः ॥ ४५ ॥
वसुदेवजीने
कहा—राजकुमार ! आप भोजवंशके होनहार वंशधर तथा अपने कुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले
हैं। बड़े-बड़े शूरवीर आपके गुणोंकी सराहना करते हैं। इधर यह एक तो स्त्री,
दूसरे आपकी बहिन और तीसरे यह विवाहका शुभ अवसर! ऐसी स्थितिमें आप
इसे कैसे मार सकते हैं ? ॥ ३७ ॥ वीरवर ! जो जन्म लेते हैं,
उनके शरीरके साथ ही मृत्यु भी उत्पन्न होती है। आज हो या सौ वर्षके
बाद—जो प्राणी है, उसकी मृत्यु होगी ही
॥ ३८ ॥ जब शरीरका अन्त हो जाता है, तब जीव अपने कर्मके
अनुसार दूसरे शरीरको ग्रहण करके अपने पहले शरीरको छोड़ देता है। उसे विवश होकर ऐसा
करना पड़ता है ॥ ३९ ॥ जैसे चलते समय मनुष्य एक पैर जमाकर ही दूसरा पैर उठाता है और
जैसे जोंक किसी अगले तिनकेको पकड़ लेती है, तब पहलेके पकड़े
हुए तिनकेको छोड़ती है—वैसे जीव भी अपने कर्मके अनुसार किसी
शरीरको प्राप्त करनेके बाद ही इस शरीरको छोड़ता है ॥ ४० ॥ जैसे कोई पुरुष
जाग्रत्-अवस्थामें राजाके ऐश्वर्यको देखकर और इन्द्रादिके ऐश्वर्यको सुनकर उसकी
अभिलाषा करने लगता है और उसका चिन्तन करते-करते उन्हीं बातोंमें घुल-मिलकर एक हो
जाता है तथा स्वप्नमें अपनेको राजा या इन्द्रके रूपमें अनुभव करने लगता है,
साथ ही अपने दरिद्रावस्थाके शरीरको भूल जाता है। कभी-कभी तो जाग्रत्
अवस्थामें ही मन-ही-मन उन बातोंका चिन्तन करते-करते तन्मय हो जाता है और उसे स्थूल
शरीरकी सुधि नहीं रहती। वैसे ही जीव कर्मकृत कामना और कामनाकृत कर्मके वश होकर
दूसरे शरीरको प्राप्त हो जाता है और अपने पहले शरीरको भूल जाता है ॥ ४१ ॥ जीवका मन
अनेक विकारोंका पुञ्ज है। देहान्तके समय वह अनेक जन्मोंके सञ्चित और प्रारब्ध
कर्मोंकी वासनाओंके अधीन होकर मायाके द्वारा रचे हुए अनेक पाञ्चभौतिक शरीरोंमेंसे
जिस किसी शरीरके चिन्तनमें तल्लीन हो जाता है और मान बैठता है कि यह मैं हूँ,
उसे वही शरीर ग्रहण करके जन्म लेना पड़ता है ॥ ४२ ॥ जैसे सूर्य,
चन्द्रमा आदि चमकीली वस्तुएँ जलसे भरे हुए घड़ोंमें या तेल आदि तरल
पदार्थोंमें प्रतिबिम्बित होती हैं और हवाके झोंकेसे उनके जल आदिके हिलने-डोलनेपर
उनमें प्रतिबिम्बित वस्तुएँ भी चञ्चल जान पड़ती हैं । वैसे ही जीव अपने स्वरूपके
अज्ञानद्वारा रचे हुए शरीरोंमें राग करके उन्हें अपना-आप मान बैठता है और मोहवश
उनके आने-जानेको अपना आना-जाना मानने लगता है ॥ ४३ ॥ इसलिये जो अपना कल्याण चाहता
है, उसे किसीसे द्रोह नहीं करना चाहिये; क्योंकि जीव कर्मके अधीन हो गया है और जो किसीसे भी द्रोह करेगा, उसको इस जीवनमें शत्रुसे और जीवनके बाद परलोकसे भयभीत होना ही पड़ेगा ॥ ४४
॥ कंस ! यह आपकी छोटी बहिन अभी बच्ची और बहुत दीन है । यह तो आपकी कन्याके समान है
। इसपर, अभी-अभी इसका विवाह हुआ है, विवाहके
मङ्गलचिह्न भी इसके शरीर पर से नहीं उतरे हैं । ऐसी दशामें आप-जैसे दीनवत्सल
पुरुषको इस बेचारीका वध करना उचित नहीं है ॥ ४५ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से