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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – दूसरा अध्याय..(पोस्ट०३)
भगवान्
का गर्भ-प्रवेश और देवताओं द्वारा गर्भ-स्तुति
ब्रह्मा
भवश्च तत्रैत्य मुनिभिर्नारदादिभिः
देवैः
सानुचरैः साकं गीर्भिर्वृषणमैडयन् ॥ २५ ॥
सत्यव्रतं
सत्यपरं त्रिसत्यं
सत्यस्य
योनिं निहितं च सत्ये
सत्यस्य
सत्यमृतसत्यनेत्रं
सत्यात्मकं
त्वां शरणं प्रपन्नाः ॥ २६ ॥
एकायनोऽसौ
द्विफलस्त्रिमूल-
श्चतूरसः
पञ्चविधः षडात्मा
सप्तत्वगष्टविटपो
नवाक्षो
दशच्छदी
द्विखगो ह्यादिवृक्षः ॥ २७ ॥
त्वमेक
एवास्य सतः प्रसूति-
स्त्वं
सन्निधानं त्वमनुग्रहश्च
त्वन्मायया
संवृतचेतसस्त्वां
पश्यन्ति
नाना न विपश्चितो ये ॥ २८ ॥
बिभर्षि
रूपाण्यवबोध आत्मा
क्षेमाय
लोकस्य चराचरस्य
सत्त्वोपपन्नानि
सुखावहानि
सतामभद्रा
णि मुहुः खलानाम् ॥ २९ ॥
परीक्षित्
! भगवान् शङ्कर और ब्रह्माजी कंस के कैदखाने में आये । उनके साथ अपने अनुचरोंके
सहित समस्त देवता और नारदादि ऋषि भी थे । वे लोग सुमधुर वचनोंसे सबकी अभिलाषा
पूर्ण करनेवाले श्रीहरिकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ २५ ॥ ‘प्रभो ! आप सत्यसंकल्प हैं । सत्य ही आपकी प्राप्तिका श्रेष्ठ साधन है ।
सृष्टिके पूर्व, प्रलयके पश्चात् और संसारकी स्थितिके समय—इन असत्य अवस्थाओंमें भी आप सत्य हैं । पृथ्वी, जल,
तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्योंके
आप ही कारण हैं । और उनमें अन्तर्यामीरूपसे विराज- मान भी हैं । आप इस दृश्यमान
जगत्के परमार्थस्वरूप हैं । आप ही मधुर वाणी और समदर्शनके प्रवर्तक हैं । भगवन् !
आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हैं । हम सब आपकी शरणमें आये हैं ॥
२६ ॥ यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष । इस वृक्षका आश्रय
है—एक प्रकृति । इसके दो फल हैं—सुख और
दु:ख; तीन जड़ें हैं—सत्त्व, रज और तम; चार रस हैं—धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष । इसके जाननेके पाँच
प्रकार हैं—श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका । इसके छ: स्वभाव हैं—पैदा होना, रहना, बढऩा,
बदलना, घटना और नष्ट हो जाना । इस वृक्षकी छाल
हैं सात धातुएँ—रस, रुधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र । आठ शाखाएँ हैं—पाँच महाभूत,
मन, बुद्धि और अहंकार । इसमें मुख आदि नवों
द्वार खोडऱ हैं । प्राण, अपान, व्यान,
उदान, समान, नाग,
कूर्म, कृकल, देवदत्त और
धनञ्जय—ये दस प्राण ही इसके दस पत्ते हैं । इस संसाररूप
वृक्षपर दो पक्षी हैं—जीव और ईश्वर ॥ २७ ॥ इस संसाररूप
वृक्षकी उत्पत्तिके आधार एकमात्र आप ही हैं । आपमें ही इसका प्रलय होता है और आपके
ही अनुग्रहसे इसकी रक्षा भी होती है । जिनका चित्त आपकी मायासे आवृत हो रहा है,
इस सत्यको समझनेकी शक्ति खो बैठा है—वे ही
उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाले ब्रह्मादि देवताओंको
अनेक देखते हैं । तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूपमें केवल आपका ही दर्शन करते हैं
॥ २८ ॥ आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हैं । चराचर जगत्के कल्याणके लिये ही अनेकों रूप धारण
करते हैं । आपके वे रूप विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय होते हैं और संत पुरुषोंको बहुत
सुख देते हैं । साथ ही दुष्टोंको उनकी दुष्टताका दण्ड भी देते हैं । उनके लिये
अमङ्गलमय भी होते हैं ॥ २९ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से