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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)
कंस
के हाथ से छूटकर योगमाया का
आकाश
में जाकर भविष्यवाणी करना
श्रीशुक
उवाच ।
उपगुह्य
आत्मजां एवं रुदत्या दीन अदीनवत् ।
याचितस्तां
विनिर्भर्त्स्य हस्ताद् आचिच्छिदे खलः ॥ ७ ॥
तां
गृहीत्वा चरणयोः जातमात्रां स्वसुः सुताम् ।
अपोथयत्
शिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलितसौहृदः ॥ ८ ॥
सा
तद्हस्तात् समुत्पत्य सद्यो देव्यंबरं गता ।
अदृश्यतानुजा
विष्णोः सायुधाष्टमहाभुजा ॥ ९ ॥
दिव्यस्रग्
अंबरालेप रत्नाभरणभूषिता ।
धनुःशूलेषुचर्मासि
शंखचक्रगदाधरा ॥ १० ॥
सिद्धचारणगन्धर्वैः
अप्सरःकिन्नरोरगैः ।
उपाहृतोरुबलिभिः
स्तूयमानेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥
किं
मया हतया मन्द जातः खलु तवान्तकृत् ।
यत्र
क्वं वा पूर्वशत्रुः मा हिंसीः कृपणान्वृथा ॥ १२ ॥
इति
प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि ।
बहुनामनिकेतेषु
बहुनामा बभूव ह ॥ १३ ॥
तया
अभिहितं आकर्ण्य कंसः परमविस्मितः ।
देवकीं
वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोऽब्रवीत् ॥ १४ ॥
अहो
भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना ।
पुरुषाद
इवापत्यं बहवो हिंसिताः सुताः ॥ १५ ॥
स
त्वहं त्यक्तकारुण्यः त्यक्तज्ञातिसुहृत् खलः ।
कान्
लोकान् वै गमिष्यामि ब्रह्महेव मृतः श्वसन् ॥ १६ ॥
दैवं
अपि अनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम् ।
यद्
विश्रंभाद् अहं पापः स्वसुर्निहतवान् शिशून् ॥ १७ ॥
मा
शोचतं महाभागौ आत्मजान् स्वकृतंभुजः ।
जन्तवो
न सदैकत्र दैवाधीनास्तदाऽऽसते ॥ १८ ॥
भुवि
भौमानि भूतानि यथा यान्ति अपयान्ति च ।
नायमात्मा
तथैतेषु विपर्येति यथैव भूः ॥ १९ ॥
यथानेवंविदो
भेदो यत आत्मविपर्ययः ।
देहयोगवियोगौ
च संसृतिर्न निवर्तते ॥ २० ॥
तस्माद्भद्रे
स्वतनयान् मया व्यापादितानपि ।
मानुशोच
यतः सर्वः स्वकृतं विन्दतेऽवशः ॥ २१ ॥
यावद्धतोऽस्मि
हन्तास्मीति आत्मानं मन्यतेऽस्वदृक् ।
तावत्
तद् अभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात् ॥ २२ ॥
क्षमध्वं
मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सलाः ।
इत्युक्त्वाश्रुमुखः
पादौ श्यालः स्वस्रोः अथाग्रहीत् ॥ २३ ॥
मोचयामास
निगडात् विश्रब्धः कन्यकागिरा ।
देवकीं
वसुदेवं च दर्शयन् आत्मसौहृदम् ॥ २४ ॥
भ्रातुः
समनुतप्तस्य क्षान्त्वा रोषं च देवकी ।
व्यसृजत्
वसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह ॥ २५ ॥
एवमेतन्महाभाग
यथा वदसि देहिनाम् ।
अज्ञानप्रभवाहंधीः
स्वपरेति भिदा यतः ॥ २६ ॥
शोकहर्षभयद्वेष
लोभमोहमदान्विताः ।
मिथो
घ्नन्तं न पश्यन्ति भावैर्भावं पृथग्दृशः ॥ २७ ॥
श्रीशुकदेव
जी कहते हैं—परीक्षित् ! कन्या को अपनी गोद में छिपाकर देवकीजी ने अत्यन्त दीनता के
साथ रोते-रोते याचना की । परंतु कंस बड़ा दुष्ट था । उसने देवकीजी को झिडक़कर उनके
हाथसे वह कन्या छीन ली ॥ ७ ॥ अपनी उस नन्ही-सी नवजात भानजी के पैर पकडक़र कंसने उसे
बड़े जोरसे एक चट्टानपर दे मारा । स्वार्थने उसके हृदयसे सौहार्दको समूल उखाड़
फेंका था ॥ ८ ॥ परंतु श्रीकृष्णकी वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथसे छूटकर तुरंत आकाशमें चली गयी और
अपने बड़े-बड़े आठ हाथोंमें आयुध लिये हुए दीख पड़ी ॥ ९ ॥ वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणोंसे विभूषित थी । उसके
हाथोंमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शङ्ख, चक्र और गदा—ये आठ आयुध थे ॥ १० ॥ सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा,
किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति
कर रहे थे । उस समय देवीने कंससे यह कहा— ॥ ११ ॥ ‘रे मूर्ख ! मुझे मारनेसे तुझे क्या मिलेगा ? तेरे
पूर्वजन्मका शत्रु तुझे मारनेके लिये किसी स्थानपर पैदा हो चुका है । अब तू व्यर्थ
निर्दोष बालकोंकी हत्या न किया कर’ ॥ १२ ॥ कंससे इस प्रकार
कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वीके अनेक स्थानोंमें विभिन्न
नामोंसे प्रसिद्ध हुर्ईं ॥ १३ ॥
देवीकी
यह बात सुनकर कंसको असीम आश्चर्य हुआ । उसने उसी समय देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़
दिया और बड़ी नम्रतासे उनसे कहा— ॥ १४ ॥ ‘मेरी
प्यारी बहिन और बहनोईजी ! हाय-हाय, मैं बड़ा पापी हूँ ।
राक्षस जैसे अपने ही बच्चोंको मार डालता है, वैसे ही मैंने
तुम्हारे बहुत-से लडक़े मार डाले । इस बातका मुझे बड़ा खेद है [*] ॥ १५ ॥ मैं इतना
दुष्ट हूँ कि करुणाका तो मुझमें लेश भी नहीं है । मैंने अपने भाई-बन्धु और
हितैषियों तक का त्याग कर दिया। पता नहीं, अब मुझे किस नरक में
जाना पड़ेगा । वास्तव में तो मैं ब्रह्मघाती के समान जीवित होनेपर भी मुर्दा ही
हूँ ॥ १६ ॥ केवल मनुष्य ही झूठ नहीं बोलते, विधाता भी झूठ
बोलते हैं । उसीपर विश्वास करके मैंने अपनी बहिनके बच्चे मार डाले। ओह ! मैं कितना
पापी हूँ ॥ १७ ॥ तुम दोनों महात्मा हो । अपने पुत्रोंके लिये शोक मत करो । उन्हें
तो अपने कर्मका ही फल मिला है । सभी प्राणी प्रारब्धके अधीन हैं । इसीसे वे
सदा-सर्वदा एक साथ नहीं रह सकते ॥ १८ ॥ जैसे मिट्टीके बने हुए पदार्थ बनते और
बिगड़ते रहते हैं, परंतु मिट्टीमें कोई अदल-बदल नहीं होती—वैसे ही शरीरका तो बनना-बिगडऩा होता ही रहता है; परंतु
आत्मापर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ॥ १९ ॥ जो लोग इस तत्त्वको नहीं जानते,
वे इस अनात्मा शरीरको ही आत्मा मान बैठते हैं । यही उलटी बुद्धि
अथवा अज्ञान है । इसीके कारण जन्म और मृत्यु होते हैं । और जबतक यह अज्ञान नहीं
मिटता, तबतक सुख-दु:खरूप संसारसे छुटकारा नहीं मिलता ॥ २० ॥
मेरी प्यारी बहिन ! यद्यपि मैंने तुम्हारे पुत्रोंको मार डाला है, फिर भी तुम उनके लिये शोक न करो । क्योंकि सभी प्राणियोंको विवश होकर अपने
कर्मोंका फल भोगना पड़ता है ॥ २१ ॥ अपने स्वरूपको न जाननेके कारण जीव जबतक यह
मानता रहता है कि ‘मैं मारनेवाला हूँ या मारा जाता हूँ’,
तबतक शरीरके जन्म और मृत्युका अभिमान करनेवाला वह अज्ञानी बाध्य और
बाधक-भावको प्राप्त होता है । अर्थात् वह दूसरोंको दु:ख देता है और स्वयं दु:ख
भोगता है ॥२२॥ मेरी यह दुष्टता तुम दोनों क्षमा करो; क्योंकि
तुम बड़े ही साधुस्वभाव और दीनोंके रक्षक हो ।’ ऐसा कहकर
कंसने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजीके चरण पकड़ लिये । उसकी आँखोंसे आँसू बह-बहकर
मुँहतक आ रहे थे ॥ २३ ॥ इसके बाद उसने योगमायाके वचनोंपर विश्वास करके देवकी और
वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और वह तरह-तरहसे उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा ॥
२४ ॥ जब देवकीजीने देखा कि भाई कंसको पश्चात्ताप हो रहा है, तब
उन्होंने उसे क्षमा कर दिया । वे उसके पहले अपराधोंको भूल गयीं और वसुदेवजीने
हँसकर कंससे कहा— ॥ २५ ॥ ‘मनस्वी कंस !
आप जो कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है । जीव अज्ञानके कारण ही
शरीर आदिको ‘मैं’ मान बैठते हैं ।
इसीसे अपने परायेका भेद हो जाता है ॥ २६ ॥ और यह भेददृष्टि हो जानेपर तो वे शोक,
हर्ष, भय, द्वेष,
लोभ, मोह और मदसे अन्धे हो जाते हैं । फिर तो
उन्हें इस बातका पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान् ही एक भावसे दूसरे भावका,
एक वस्तुसे दूसरी वस्तुका नाश करा रहे हैं’ ॥
२७ ॥
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जिनके गर्भ में भगवान् ने निवास किया, जिन्हें भगवान् के
दर्शन हुए, उन देवकी-वसुदेव के दर्शनका ही यह फल है कि कंसके
हृदयमें विनय, विचार, उदारता आदि
सद्गुणोंका उदय हो गया । परंतु जबतक वह उनके सामने रहा तभीतक ये सद्गुण रहे ।
दुष्ट मन्त्रियोंके बीचमें जाते ही वह फिर ज्यों-का-त्यों हो गया ।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से