रविवार, 10 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौथा अध्याय..(पोस्ट०४)

कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का
आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना

श्रीशुक उवाच ।

एवं दुर्मंत्रिभिः कंसः सह सम्मन्त्र्य दुर्मतिः ।
ब्रह्महिंसां हितं मेने कालपाशावृतोऽसुरः ॥ ४३ ॥
सन्दिश्य साधुलोकस्य कदने कदनप्रियान् ।
कामरूपधरान् दिक्षु दानवान् गृहमाविशत् ॥ ४४ ॥
ते वै रजःप्रकृतयः तमसा मूढचेतसः ।
सतां विद्वेषमाचेरुः आरात् आगतमृत्यवः ॥ ४५ ॥
आयुः श्रियं यशो धर्मं लोकानाशिष एव च ।
हन्ति श्रेयांसि सर्वाणि पुंसो महदतिक्रमः ॥ ४६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! एक तो कंसकी बुद्धि स्वयं ही बिगड़ी हुई थी; फिर उसे मन्त्री ऐसे मिले थे, जो उससे भी बढक़र दुष्ट थे । इस प्रकार उनसे सलाह करके कालके फंदेमें फँसे हुए असुर कंसने यही ठीक समझा कि ब्राह्मणोंको ही मार डाला जाय ॥ ४३ ॥ उसने हिंसाप्रेमी राक्षसोंको संतपुरुषोंकी हिंसा करनेका आदेश दे दिया । वे इच्छानुसार रूप धारण कर सकते थे । जब वे इधर-उधर चले गये, तब कंसने अपने महलमें प्रवेश किया ॥ ४४ ॥ उन असुरोंकी प्रकृति थी रजोगुणी । तमोगुण के कारण उनका चित्त उचित और अनुचित के विवेक से रहित हो गया था । उनके सिर पर मौत नाच रही थी । यही कारण है कि उन्होंने संतों से द्वेष किया ॥ ४५ ॥ परीक्षित्‌ ! जो लोग महान् संत पुरुषों का अनादर करते हैं, उनका वह कुकर्म उनकी आयु, लक्ष्मी, कीर्ति, धर्म, लोक-परलोक, विषयभोग और सब-के-सब कल्याणके साधनोंको नष्ट कर देता है ॥ ४६ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौथा अध्याय..(पोस्ट०३)

कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का
आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना

श्रीशुक उवाच ।
कंस एवं प्रसन्नाभ्यां विशुद्धं प्रतिभाषितः ।
देवकी वसुदेवाभ्यां अनुज्ञातो आविशत् गृहम् ॥ २८ ॥
तस्यां रात्र्यां व्यतीतायां कंस आहूय मंत्रिणः ।
तेभ्य आचष्ट तत् सर्वं यदुक्तं योगनिद्रया ॥ २९ ॥
आकर्ण्य भर्तुर्गदितं तं ऊचुः देवशत्रवः ।
देवान् प्रति कृतामर्षा दैतेया नातिकोविदाः ॥ ३० ॥
एवं चेत्तर्हि भोजेन्द्र पुरग्राम व्रजादिषु ।
अनिर्दशान् निर्दशांश्च हनिष्यामोऽद्य वै शिशून् ॥ ३१ ॥
किं उद्यमैः करिष्यन्ति देवाः समरभीरवः ।
नित्यं उद्विग्नमनसो ज्याघोषैर्धनुषस्तव ॥ ३२ ॥
अस्यतस्ते शरव्रातैः हन्यमानाः समन्ततः ।
जिजीविषव उत्सृज्य पलायनपरा ययुः ॥ ३३ ॥
केचित् प्राञ्जलयो दीना न्यस्तशस्त्रा दिवौकसः ।
मुक्तकच्छशिखाः केचिद् भीताः स्म इति वादिनः ॥ ३४ ॥
न त्वं विस्मृतशस्त्रास्त्रान् विरथान् भयसंवृतान् ।
हंस्यन्यासक्तविमुखान् भग्नचापानयुध्यतः ॥ ३५ ॥
किं क्षेमशूरैर्विबुधैः असंयुगविकत्थनैः ।
रहोजुषा किं हरिणा शंभुना वा वनौकसा ।
किं इंद्रेणाल्पवीर्येण ब्रह्मणा वा तपस्यता ॥ ३६ ॥
तथापि देवाः सापत्‍न्यान् नोपेक्ष्या इति मन्महे ।
ततः तन्मूलखनने नियुंक्ष्वास्मान् अनुव्रतान् ॥ ३७ ॥
यथामयोंऽगे समुपेक्षितो नृभिः
न शक्यते रूढपदश्चिकित्सितुम् ।
यथेन्द्रियग्राम उपेक्षितस्तथा
रिपुर्महान् बद्धबलो न चाल्यते ॥ ३८ ॥
मूलं हि विष्णुः देवानां यत्र धर्मः सनातनः ।
तस्य च ब्रह्मगोविप्राः तपो यज्ञाः सदक्षिणाः ॥ ३९ ॥
तस्मात्सर्वात्मना राजन् ब्राह्मणान् ब्रह्मवादिनः ।
तपस्विनो यज्ञशीलान् गाश्च हन्मो हविर्दुघाः ॥ ४० ॥
विप्रा गावश्च वेदाश्च तपः सत्यं दमः शमः ।
श्रद्धा दया तितिक्षा च क्रतवश्च हरेस्तनूः ॥ ४१ ॥
स हि सर्वसुराध्यक्षो ह्यसुरद्‌विड् गुहाशयः ।
तन्मूला देवताः सर्वाः सेश्वराः सचतुर्मुखाः ।
अयं वै तद्‌वधोपायो यद्‌ऋषीणां विहिंसनम् ॥ ४२ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब वसुदेव और देवकीने इस प्रकार प्रसन्न होकर निष्कपटभाव से कंस के साथ बातचीत की, तब उनसे अनुमति लेकर वह अपने महलमें चला गया ॥ २८ ॥ वह रात्रि बीत जानेपर कंसने अपने मन्ङ्क्षत्रयोंको बुलाया और योगमायाने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया ॥ २९ ॥ कंसके मन्त्री पूर्णतया नीतिनिपुण नहीं थे । दैत्य होनेके कारण स्वभावसे ही वे देवताओंके प्रति शत्रुताका भाव रखते थे । अपने स्वामी कंसकी बात सुनकर वे देवताओंपर और भी चिढ़ गये और कंससे कहने लगे॥ ३० ॥ भोजराज ! यदि ऐसी बात है तो हम आज ही बड़े-बड़े नगरोंमें, छोटे-छोटे गाँवोंमें, अहीरोंकी बस्तियोंमें और दूसरे स्थानोंमें जितने बच्चे हुए हैं, वे चाहे दस दिनसे अधिकके हों या कमके, सबको आज ही मार डालेंगे ॥ ३१ ॥ समरभीरु देवगण युद्धोद्योग करके ही क्या करेंगे ? वे तो आपके धनुषकी टङ्कार सुनकर ही सदा-सर्वदा घबराये रहते हैं ॥ ३२ ॥ जिस समय युद्धभूमिमें आप चोट-पर-चोट करने लगते हैं, बाण-वर्षासे घायल होकर अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये समराङ्गण छोडक़र देवतालोग पलायन-परायण होकर इधर-उधर भाग जाते हैं ॥ ३३ ॥ कुछ देवता तो अपने अस्त्र-शस्त्र जमीनपर डाल देते हैं और हाथ जोडक़र आपके सामने अपनी दीनता प्रकट करने लगते हैं । कोई-कोई अपनी चोटीके बाल तथा कच्छ खोलकर आपकी शरणमें आकर कहते हैं कि—‘हम भयभीत हैं, हमारी रक्षा कीजिये॥ ३४ ॥ आप उन शत्रुओंको नहीं मारते जो अस्त्र-शस्त्र भूल गये हों, जिनका रथ टूट गया हो, जो डर गये हों, जो लोग युद्ध छोडक़र अन्यमनस्क हो गये हों, जिनका धनुष टूट गया हो या जिन्होंने युद्धसे अपना मुख मोड़ लिया होउन्हें भी आप नहीं मारते ॥ ३५ ॥ देवता तो बस वहीं वीर बनते हैं, जहाँ कोई लड़ाई-झगड़ा न हो । रणभूमिके बाहर वे बड़ी-बड़ी डींग हाँकते हैं । उनसे तथा एकान्तवासी विष्णु, वनवासी शङ्कर, अल्पवीर्य इन्द्र और तपस्वी ब्रह्मासे भी हमें क्या भय हो सकता है ॥ ३६ ॥ फिर भी देवताओंकी उपेक्षा नहीं करनी चाहियेऐसी हमारी राय है । क्योंकि हैं तो वे शत्रु ही । इसलिये उनकी जड़ उखाड़ फेंकनेके लिये आप हम-जैसे विश्वासपात्र सेवकोंको नियुक्त कर दीजिये ॥ ३७ ॥ जब मनुष्यके शरीरमें रोग हो जाता है और उसकी चिकित्सा नहीं की जातीउपेक्षा कर दी जाती है, तब रोग अपनी जड़ जमा लेता है और फिर वह असाध्य हो जाता है । अथवा जैसे इन्द्रियोंकी उपेक्षा कर देनेपर उनका दमन असम्भव हो जाता है, वैसे ही यदि पहले शत्रुकी उपेक्षा कर दी जाय और वह अपना पाँव जमा ले, तो फिर उसको हराना कठिन हो जाता है ॥ ३८ ॥ देवताओं की जड़ है विष्णु और वह वहाँ रहता है, जहाँ सनातनधर्म है । सनातनधर्म की जड़ हैंवेद, गौ, ब्राह्मण, तपस्या और वे यज्ञ, जिनमें दक्षिणा दी जाती है ॥३९॥ इसलिये भोजराज ! हमलोग वेदवादी ब्राह्मण, तपस्वी, याज्ञिक और यज्ञके लिये घी आदि हविष्य पदार्थ देनेवाली गायोंका पूर्णरूपसे नाश कर डालेंगे ॥ ४० ॥ ब्राह्मण, गौ, वेद, तपस्या, सत्य, इन्द्रियदमन, मनोनिग्रह, श्रद्धा, दया, तितिक्षा और यज्ञ विष्णुके शरीर हैं ॥ ४१ ॥ वह विष्णु ही सारे देवताओंका स्वामी तथा असुरोंका प्रधान द्वेषी है । परंतु वह किसी गुफामें छिपा रहता है । महादेव, ब्रह्मा और सारे देवताओंकी जड़ वही है । उसको मार डालनेका उपाय यह है कि ऋषियोंको मार डाला जाय॥ ४२ ॥

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शनिवार, 9 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥



श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौथा अध्याय..(पोस्ट०२)



कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का

आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना



श्रीशुक उवाच ।

उपगुह्य आत्मजां एवं रुदत्या दीन अदीनवत् ।

याचितस्तां विनिर्भर्त्स्य हस्ताद् आचिच्छिदे खलः ॥ ७ ॥

तां गृहीत्वा चरणयोः जातमात्रां स्वसुः सुताम् ।

अपोथयत् शिलापृष्ठे स्वार्थोन्मूलितसौहृदः ॥ ८ ॥

सा तद्‌हस्तात् समुत्पत्य सद्यो देव्यंबरं गता ।

अदृश्यतानुजा विष्णोः सायुधाष्टमहाभुजा ॥ ९ ॥

दिव्यस्रग् अंबरालेप रत्‍नाभरणभूषिता ।

धनुःशूलेषुचर्मासि शंखचक्रगदाधरा ॥ १० ॥

सिद्धचारणगन्धर्वैः अप्सरःकिन्नरोरगैः ।

उपाहृतोरुबलिभिः स्तूयमानेदमब्रवीत् ॥ ११ ॥

किं मया हतया मन्द जातः खलु तवान्तकृत् ।

यत्र क्वं वा पूर्वशत्रुः मा हिंसीः कृपणान्वृथा ॥ १२ ॥

इति प्रभाष्य तं देवी माया भगवती भुवि ।

बहुनामनिकेतेषु बहुनामा बभूव ह ॥ १३ ॥

तया अभिहितं आकर्ण्य कंसः परमविस्मितः ।

देवकीं वसुदेवं च विमुच्य प्रश्रितोऽब्रवीत् ॥ १४ ॥

अहो भगिन्यहो भाम मया वां बत पाप्मना ।

पुरुषाद इवापत्यं बहवो हिंसिताः सुताः ॥ १५ ॥

स त्वहं त्यक्तकारुण्यः त्यक्तज्ञातिसुहृत् खलः ।

कान् लोकान् वै गमिष्यामि ब्रह्महेव मृतः श्वसन् ॥ १६ ॥

दैवं अपि अनृतं वक्ति न मर्त्या एव केवलम् ।

यद् विश्रंभाद् अहं पापः स्वसुर्निहतवान् शिशून् ॥ १७ ॥

मा शोचतं महाभागौ आत्मजान् स्वकृतंभुजः ।

जन्तवो न सदैकत्र दैवाधीनास्तदाऽऽसते ॥ १८ ॥

भुवि भौमानि भूतानि यथा यान्ति अपयान्ति च ।

नायमात्मा तथैतेषु विपर्येति यथैव भूः ॥ १९ ॥

यथानेवंविदो भेदो यत आत्मविपर्ययः ।

देहयोगवियोगौ च संसृतिर्न निवर्तते ॥ २० ॥

तस्माद्‍भद्रे स्वतनयान् मया व्यापादितानपि ।

मानुशोच यतः सर्वः स्वकृतं विन्दतेऽवशः ॥ २१ ॥

यावद्धतोऽस्मि हन्तास्मीति आत्मानं मन्यतेऽस्वदृक् ।

तावत् तद् अभिमान्यज्ञो बाध्यबाधकतामियात् ॥ २२ ॥

क्षमध्वं मम दौरात्म्यं साधवो दीनवत्सलाः ।

इत्युक्त्वाश्रुमुखः पादौ श्यालः स्वस्रोः अथाग्रहीत् ॥ २३ ॥

मोचयामास निगडात् विश्रब्धः कन्यकागिरा ।

देवकीं वसुदेवं च दर्शयन् आत्मसौहृदम् ॥ २४ ॥

भ्रातुः समनुतप्तस्य क्षान्त्वा रोषं च देवकी ।

व्यसृजत् वसुदेवश्च प्रहस्य तमुवाच ह ॥ २५ ॥

एवमेतन्महाभाग यथा वदसि देहिनाम् ।

अज्ञानप्रभवाहंधीः स्वपरेति भिदा यतः ॥ २६ ॥

शोकहर्षभयद्वेष लोभमोहमदान्विताः ।

मिथो घ्नन्तं न पश्यन्ति भावैर्भावं पृथग्दृशः ॥ २७ ॥



श्रीशुकदेव जी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! कन्या को अपनी गोद में छिपाकर देवकीजी ने अत्यन्त दीनता के साथ रोते-रोते याचना की । परंतु कंस बड़ा दुष्ट था । उसने देवकीजी को झिडक़कर उनके हाथसे वह कन्या छीन ली ॥ ७ ॥ अपनी उस नन्ही-सी नवजात भानजी के पैर पकडक़र कंसने उसे बड़े जोरसे एक चट्टानपर दे मारा । स्वार्थने उसके हृदयसे सौहार्दको समूल उखाड़ फेंका था ॥ ८ ॥ परंतु श्रीकृष्णकी वह छोटी बहिन साधारण कन्या तो थी नहीं, देवी थी; उसके हाथसे छूटकर तुरंत आकाशमें चली गयी और अपने बड़े-बड़े आठ हाथोंमें आयुध लिये हुए दीख पड़ी ॥ ९ ॥ वह दिव्य माला, वस्त्र, चन्दन और मणिमय आभूषणोंसे विभूषित थी । उसके हाथोंमें धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शङ्ख, चक्र और गदाये आठ आयुध थे ॥ १० ॥ सिद्ध, चारण, गन्धर्व, अप्सरा, किन्नर और नागगण बहुत-सी भेंटकी सामग्री समर्पित करके उसकी स्तुति कर रहे थे । उस समय देवीने कंससे यह कहा॥ ११ ॥ रे मूर्ख ! मुझे मारनेसे तुझे क्या मिलेगा ? तेरे पूर्वजन्मका शत्रु तुझे मारनेके लिये किसी स्थानपर पैदा हो चुका है । अब तू व्यर्थ निर्दोष बालकोंकी हत्या न किया कर॥ १२ ॥ कंससे इस प्रकार कहकर भगवती योगमाया वहाँसे अन्तर्धान हो गयीं और पृथ्वीके अनेक स्थानोंमें विभिन्न नामोंसे प्रसिद्ध हुर्ईं ॥ १३ ॥

देवीकी यह बात सुनकर कंसको असीम आश्चर्य हुआ । उसने उसी समय देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और बड़ी नम्रतासे उनसे कहा॥ १४ ॥ मेरी प्यारी बहिन और बहनोईजी ! हाय-हाय, मैं बड़ा पापी हूँ । राक्षस जैसे अपने ही बच्चोंको मार डालता है, वैसे ही मैंने तुम्हारे बहुत-से लडक़े मार डाले । इस बातका मुझे बड़ा खेद है [*] ॥ १५ ॥ मैं इतना दुष्ट हूँ कि करुणाका तो मुझमें लेश भी नहीं है । मैंने अपने भाई-बन्धु और हितैषियों तक का त्याग कर दिया। पता नहीं, अब मुझे किस नरक में जाना पड़ेगा । वास्तव में तो मैं ब्रह्मघाती के समान जीवित होनेपर भी मुर्दा ही हूँ ॥ १६ ॥ केवल मनुष्य ही झूठ नहीं बोलते, विधाता भी झूठ बोलते हैं । उसीपर विश्वास करके मैंने अपनी बहिनके बच्चे मार डाले। ओह ! मैं कितना पापी हूँ ॥ १७ ॥ तुम दोनों महात्मा हो । अपने पुत्रोंके लिये शोक मत करो । उन्हें तो अपने कर्मका ही फल मिला है । सभी प्राणी प्रारब्धके अधीन हैं । इसीसे वे सदा-सर्वदा एक साथ नहीं रह सकते ॥ १८ ॥ जैसे मिट्टीके बने हुए पदार्थ बनते और बिगड़ते रहते हैं, परंतु मिट्टीमें कोई अदल-बदल नहीं होतीवैसे ही शरीरका तो बनना-बिगडऩा होता ही रहता है; परंतु आत्मापर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता ॥ १९ ॥ जो लोग इस तत्त्वको नहीं जानते, वे इस अनात्मा शरीरको ही आत्मा मान बैठते हैं । यही उलटी बुद्धि अथवा अज्ञान है । इसीके कारण जन्म और मृत्यु होते हैं । और जबतक यह अज्ञान नहीं मिटता, तबतक सुख-दु:खरूप संसारसे छुटकारा नहीं मिलता ॥ २० ॥ मेरी प्यारी बहिन ! यद्यपि मैंने तुम्हारे पुत्रोंको मार डाला है, फिर भी तुम उनके लिये शोक न करो । क्योंकि सभी प्राणियोंको विवश होकर अपने कर्मोंका फल भोगना पड़ता है ॥ २१ ॥ अपने स्वरूपको न जाननेके कारण जीव जबतक यह मानता रहता है कि मैं मारनेवाला हूँ या मारा जाता हूँ’, तबतक शरीरके जन्म और मृत्युका अभिमान करनेवाला वह अज्ञानी बाध्य और बाधक-भावको प्राप्त होता है । अर्थात् वह दूसरोंको दु:ख देता है और स्वयं दु:ख भोगता है ॥२२॥ मेरी यह दुष्टता तुम दोनों क्षमा करो; क्योंकि तुम बड़े ही साधुस्वभाव और दीनोंके रक्षक हो ।ऐसा कहकर कंसने अपनी बहिन देवकी और वसुदेवजीके चरण पकड़ लिये । उसकी आँखोंसे आँसू बह-बहकर मुँहतक आ रहे थे ॥ २३ ॥ इसके बाद उसने योगमायाके वचनोंपर विश्वास करके देवकी और वसुदेवको कैदसे छोड़ दिया और वह तरह-तरहसे उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट करने लगा ॥ २४ ॥ जब देवकीजीने देखा कि भाई कंसको पश्चात्ताप हो रहा है, तब उन्होंने उसे क्षमा कर दिया । वे उसके पहले अपराधोंको भूल गयीं और वसुदेवजीने हँसकर कंससे कहा॥ २५ ॥ मनस्वी कंस ! आप जो कहते हैं, वह ठीक वैसा ही है । जीव अज्ञानके कारण ही शरीर आदिको मैंमान बैठते हैं । इसीसे अपने परायेका भेद हो जाता है ॥ २६ ॥ और यह भेददृष्टि हो जानेपर तो वे शोक, हर्ष, भय, द्वेष, लोभ, मोह और मदसे अन्धे हो जाते हैं । फिर तो उन्हें इस बातका पता ही नहीं रहता कि सबके प्रेरक भगवान्‌ ही एक भावसे दूसरे भावका, एक वस्तुसे दूसरी वस्तुका नाश करा रहे हैं॥ २७ ॥

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[*] जिनके गर्भ में भगवान्‌ ने निवास किया, जिन्हें भगवान्‌ के दर्शन हुए, उन देवकी-वसुदेव के दर्शनका ही यह फल है कि कंसके हृदयमें विनय, विचार, उदारता आदि सद्गुणोंका उदय हो गया । परंतु जबतक वह उनके सामने रहा तभीतक ये सद्गुण रहे । दुष्ट मन्त्रियोंके बीचमें जाते ही वह फिर ज्यों-का-त्यों हो गया ।



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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौथा अध्याय..(पोस्ट०१)

कंस के हाथ से छूटकर योगमाया का
आकाश में जाकर भविष्यवाणी करना

श्रीशुक उवाच ।
बहिरन्तःपुरद्वारः सर्वाः पूर्ववदावृताः ।
ततो बालध्वनिं श्रुत्वा गृहपालाः समुत्थिताः ॥ १ ॥
ते तु तूर्णं उपव्रज्य देवक्या गर्भजन्म तत् ।
आचख्युः भोजराजाय यदुद्विग्नः प्रतीक्षते ॥ २ ॥
स तल्पात् तूर्णमुत्थाय कालोऽयमिति विह्वलः ।
सूतीगृहं अगात् तूर्णं प्रस्खलन् मुक्तमूर्धजः ॥ ३ ॥
तं आह भ्रातरं देवी कृपणा करुणं सती ।
स्नुषेयं तव कल्याण स्त्रियं मा हन्तुमर्हसि ॥ ४ ॥
बहवो हिंसिता भ्रातः शिशवः पावकोपमाः ।
त्वया दैवनिसृष्टेन पुत्रिकैका प्रदीयताम् ॥ ५ ॥
नन्वहं ते ह्यवरजा दीना हतसुता प्रभो ।
दातुमर्हसि मन्दाया अङ्‌गेमां चरमां प्रजाम् ॥ ६ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब वसुदेवजी लौट आये, तब नगरके बाहरी और भीतरी सब दरवाजे अपने-आप ही पहलेकी तरह बंद हो गये । इसके बाद नवजात शिशु के रोने की ध्वनि सुनकर द्वारपालोंकी नींद टूटी ॥ १ ॥ वे तुरंत भोजराज कंसके पास गये और देवकी को सन्तान होनेकी बात कही । कंस तो बड़ी आकुलता और घबराहटके साथ इसी बातकी प्रतीक्षा कर रहा था ॥ २ ॥ द्वारपालोंकी बात सुनते ही वह झटपट पलँग से उठ खड़ा हुआ और बड़ी शीघ्रतासे सूतिकागृहकी ओर झपटा । इस बार तो मेरे कालका ही जन्म हुआ है, यह सोचकर वह विह्वल हो रहा था और यही कारण है कि उसे इस बातका भी ध्यान न रहा कि उसके बाल बिखरे हुए हैं । रास्तेमें कई जगह वह लडख़ड़ाकर गिरते-गिरते बचा ॥ ३ ॥ बंदीगृहमें पहुँचनेपर सती देवकीने बड़े दु:ख और करुणाके साथ अपने भाई कंससे कहा—‘मेरे हितैषी भाई ! यह कन्या तो तुम्हारी पुत्रवधू के समान है । स्त्रीजाति की है; तुम्हें स्त्रीकी हत्या कदापि नहीं करनी चाहिये ॥ ४ ॥ भैया ! तुमने दैववश मेरे बहुतसे अग्नि के समान तेजस्वी बालक मार डाले । अब केवल यही एक कन्या बची है, इसे तो मुझे दे दो ॥ ५ ॥ अवश्य ही मैं तुम्हारी छोटी बहिन हूँ । मेरे बहुत से बच्चे मर गये हैं, इसलिये मैं अत्यन्त दीन हूँ । मेरे प्यारे और समर्थ भाई ! तुम मुझ मन्दभागिनी को यह अन्तिम सन्तान अवश्य दे दो॥ ६ ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
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शुक्रवार, 8 मई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट१२)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य

मघोनि वर्षत्यसकृत् यमानुजा
गंभीर तोयौघ जवोर्मि फेनिला ।
भयानकावर्त शताकुला नदी
मार्गं ददौ सिन्धुरिव श्रियः पतेः ॥ ५० ॥
नन्दव्रजं शौरिरुपेत्य तत्र तान्
गोपान् प्रसुप्तान् उपलभ्य निद्रया ।
सुतं यशोदाशयने निधाय तत्
सुतां उपादाय पुनर्गृहान् अगात् ॥ ५१ ॥
देवक्याः शयने न्यस्य वसुदेवोऽथ दारिकाम् ।
प्रतिमुच्य पदोर्लोहं आस्ते पूर्ववदावृतः ॥ ५२ ॥
यशोदा नन्दपत्‍नी च जातं परमबुध्यत ।
न तल्लिङ्गं परिश्रान्ता निद्रयापगतस्मृतिः ॥ ५३ ॥

उन दिनों बार-बार वर्षा होती रहती थी, इससे यमुनाजी बहुत बढ़ गयी थीं[*] । उनका प्रवाह गहरा और तेज हो गया था । तरल तरङ्गोंके कारण जलपर फेन-ही-फेन हो रहा था । सैकड़ों भयानक भँवर पड़ रहे थे । जैसे सीतापति भगवान्‌ श्रीरामजीको समुद्रने मार्ग दे दिया था, वैसे ही यमुनाजीने भगवान्‌ को मार्ग दे दिया[$] ॥ ५० ॥ वसुदेवजीने नन्दबाबाके गोकुलमें जाकर देखा कि सब-के-सब गोप नींदसे अचेत पड़े हुए हैं । उन्होंने अपने पुत्रको यशोदाजीकी शय्यापर सुला दिया और उनकी नवजात कन्या लेकर वे बंदीगृहमें लौट आये ॥ ५१ ॥ जेलमें पहुँचकर वसुदेवजीने उस कन्या को देवकीकी शय्यापर सुला दिया और अपने पैरोंमें बेडिय़ाँ डाल लीं तथा पहलेकी तरह वे बंदीगृहमें बंद हो गये ॥ ५२ ॥ उधर नन्दपत्नी यशोदाजीको इतना तो मालूम हुआ कि कोई सन्तान हुई है, परंतु वे यह न जान सकीं कि पुत्र है या पुत्री । क्योंकि एक तो उन्हें बड़ा परिश्रम हुआ था और दूसरे योगमाया ने उन्हें अचेत कर दिया था[#] ॥ ५३ ॥
..........................................
[*] १. श्रीकृष्ण शिशुको अपनी ओर आते देखकर यमुनाजीने विचार कियाअहा ! जिनके चरणोंकी धूलि सत्पुरुषोंके मानस-ध्यानका विषय है, वे ही आज मेरे तटपर आ रहे हैं । वे आनन्द और प्रेमसे भर गयीं, आँखोंसे इतने आँसू निकले कि बाढ़ आ गयी ।
२. मुझे यमराजकी बहिन समझकर श्रीकृष्ण अपनी आँख न फेर लें, इसलिये वे अपने विशाल जीवनका प्रदर्शन करने लगीं ।
३. ये गोपालन के लिये गोकुलमें जा रहे हैं, ये सहस्र-सहस्र लहरियाँ गौएँ ही तो हैं । ये उन्हींके समान इनका भी पालन करें ।
४. एक कालियनाग तो मुझमें पहलेसे ही हैं, यह दूसरे शेषनाग आ रहे हैं । अब मेरी क्या गति होगीयह सोचकर यमुनाजी अपने थपेड़ोंसे उनका निवारण करनेके लिये बढ़ गयीं ।

[$] १. एकाएक यमुनाजीके मनमें विचार आया कि मेरे अगाध जलको देखकर कहीं श्रीकृष्ण यह न सोच लें कि मैं इसमें खेलूँगा कैसे, इसलिये वे तुरंत कहीं कण्ठभर, कहीं नाभिभर और कहीं घुटनोंतक जलवाली हो गयीं ।
२. जैसे दुखी मनुष्य दयालु पुरुषके सामने अपना मन खोलकर रख देता है, वैसे ही कालियनागसे त्रस्त अपने हृदयका दु:ख निवेदन कर देनेके लिये यमुनाजीने भी अपना दिल खोलकर श्रीकृष्णके सामने रख दिया ।
३. मेरी नीरसता देखकर श्रीकृष्ण कहीं जलक्रीडा करना और पटरानी बनाना अस्वीकार न कर दें, इसलिये वे उच्छृङ्खलता छोडक़र बड़ी विनयसे अपने हृदयकी संकोचपूर्ण रसरीति प्रकट करने लगीं ।
४. जब इन्होंने सूर्यवंशमें रामावतार ग्रहण किया, तब मार्ग न देनेपर चन्द्रमाके पिता समुद्रको बाँध दिया था । अब ये चन्द्रवंशमें प्रकट हुए हैं और मैं सूर्यकी पुत्री हूँ । यदि मैं इन्हें मार्ग न दूँगी तो ये मुझे भी बाँध देंगे । इस डरसे मानो यमुनाजी दो भागोंमें बँट गयीं ।
५. सत्पुरुष कहते हैं कि हृदयमें भगवान्‌के आ जानेपर अलौकिक सुख होता है । मानो उसीका उपभोग करनेके लिये यमुनाजीने भगवान्‌ को अपने भीतर ले लिया ।
६. मेरा नाम कृष्णा, मेरा जल कृष्ण, मेरे बाहर श्रीकृष्ण हैं । फिर मेरे हृदयमें ही उनकी स्फूर्ति क्यों न हो ? ऐसा सोचकर मार्ग देनेके बहाने यमुनाजीने श्रीकृष्णको अपने हृदयमें ले लिया ।

[#] भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने इस प्रसङ्ग में यह प्रकट किया कि जो मुझे प्रेमपूर्वक अपने हृदयमें धारण करता है, उसके बन्धन खुल जाते हैं, जेल से छुटकारा मिल जाता है, बड़े-बड़े फाटक टूट जाते हैं, पहरेदारों का पता नहीं चलता, भव-नदीका जल सूख जाता है, गोकुल (इन्द्रिय-समुदाय) की वृत्तियाँ लुप्त हो जाती हैं और माया हाथ में आ जाती है ।

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां
दशमस्कन्धे पूर्वार्धे कृष्णजन्मनि तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

शेष आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तीसरा अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तीसरा अध्याय..(पोस्ट११)

भगवान्‌ श्रीकृष्ण का प्राकट्य

श्रीशुक उवाच ।
इत्युक्त्वासीत् हरिः तूष्णीं भगवान् आत्ममायया ।
पित्रोः संपश्यतोः सद्यो बभूव प्राकृतः शिशुः ॥ ४६ ॥
ततश्च शौरिः भगवत्प्रचोदितः
सुतं समादाय स सूतिकागृहात् ।
यदा बहिर्गन्तुमियेष तर्ह्यजा
या योगमायाजनि नन्दजायया ॥ ४७ ॥
तया हृतप्रत्यय सर्ववृत्तिषु
द्वाःस्थेषु पौरेष्वपि शायितेष्वथ ।
द्वारस्तु सर्वाः पिहिता दुरत्यया
बृहत् कपाटायस कीलश्रृंखलैः ॥ ४८ ॥
ताः कृष्णवाहे वसुदेव आगते
स्वयं व्यवर्यन्त यथा तमो रवेः ।
ववर्ष पर्जन्य उपांशुगर्जितः
शेषोऽन्वगाद् वारि निवारयन् फणैः ॥ ४९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ इतना कहकर चुप हो गये । अब उन्होंने अपनी योगमाया से पिता-माता के देखते-देखते तुरंत एक साधारण शिशु का रूप धारण कर लिया ॥ ४६ ॥ तब वसुदेवजीने भगवान्‌ की प्रेरणा से अपने पुत्र को लेकर सूतिकागृह से बाहर निकलने की इच्छा की । उसी समय नन्दपत्नी यशोदाके गर्भसे उस योगमायाका जन्म हुआ, जो भगवान्‌की शक्ति होनेके कारण उनके समान ही जन्म-रहित है ॥ ४७ ॥ उसी योगमायाने द्वारपाल और पुरवासियोंकी समस्त इन्द्रिय वृत्तियोंकी चेतना हर ली, वे सब-के-सब अचेत होकर सो गये । बंदीगृहके सभी दरवाजे बंद थे । उनमें बड़े-बड़े किवाड़, लोहेकी जंजीरें और ताले जड़े हुए थे । उनके बाहर जाना बड़ा ही कठिन था; परंतु वसुदेवजी भगवान्‌ श्रीकृष्णको गोदमें लेकर ज्यों ही उनके निकट पहुँचे, त्यों ही वे सब दरवाजे आप-से-आप खुल गये [*] । ठीक वैसे ही, जैसे सूर्योदय होते ही अन्धकार दूर हो जाता है । उस समय बादल धीरे-धीरे गरजकर जलकी फुहारें छोड़ रहे थे । इसलिये शेषजी अपने फनों से जल को रोकते हुए भगवान्‌ के पीछे-पीछे चलने लगे [#] ॥ ४८-४९ ॥
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[*] जिनके नाम-श्रवणमात्रसे असंख्य जन्मार्जित प्रारब्ध-बन्धन ध्वस्त हो जाते हैं, वे ही प्रभु जिसकी गोदमें आ गये, उसकी हथकड़ी-बेड़ी खुल जाय, इसमें क्या आश्चर्य है ?

[#] बलरामजीने विचार किया कि मैं बड़ा भाई बना तो क्या, सेवा ही मेरा मुख्य धर्म है । इसलिये वे अपने शेषरूपसे श्रीकृष्णके छत्र बनकर जलका निवारण करते हुए चले । उन्होंने सोचा कि यदि मेरे रहते मेरे स्वामीको वर्षासे कष्ट पहुँचा तो मुझे धिक्कार है । इसलिये उन्होंने अपना सिर आगे कर दिया । अथवा उन्होंने यह सोचा कि ये विष्णुपद (आकाश) वासी मेघ परोपकारके लिये अध:पतित होना स्वीकार कर लेते हैं, इसलिये बलिके समान सिरसे वन्दनीय हैं ।

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट०९)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट०९) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन देव...