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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
धेनुकासुर
का उद्धार और
ग्वालबालों
को कालियनाग के विष से बचाना
श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयोः सखा
सुबलस्तोककृष्णाद्या
गोपाः प्रेम्णेदमब्रुवन् ॥ २० ॥
राम
राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण
इतोऽविदूरे
सुमहद्वनं तालालिसङ्कुलम् ॥ २१ ॥
फलानि
तत्र भूरीणि पतन्ति पतितानि च
सन्ति
किन्त्ववरुद्धानि धेनुकेन दुरात्मना ॥ २२ ॥
सोऽतिवीर्योऽसुरो
राम हे कृष्ण खररूपधृक्
आत्मतुल्यबलैरन्यैर्ज्ञातिभिर्बहुभिर्वृतः
॥ २३ ॥
तस्मात्कृतनराहाराद्भीतैर्नृभिरमित्रहन्
न
सेव्यते पशुगणैः पक्षिसङ्घैर्विवर्जितम् ॥ २४ ॥
विद्यन्तेऽभुक्तपूर्वाणि
फलानि सुरभीणि च
एष
वै सुरभिर्गन्धो विषूचीनोऽवगृह्यते ॥ २५ ॥
प्रयच्छ
तानि नः कृष्ण गन्धलोभितचेतसाम्
वाञ्छास्ति
महती राम गम्यतां यदि रोचते ॥ २६ ॥
एवं
सुहृद्वचः श्रुत्वा सुहृत्प्रियचिकीर्षया
प्रहस्य
जग्मतुर्गोपैर्वृतौ तालवनं प्रभू ॥ २७ ॥
बलः
प्रविश्य बाहुभ्यां तालान्सम्परिकम्पयन्
फलानि
पातयामास मतङ्गज इवौजसा ॥ २८ ॥
फलानां
पततां शब्दं निशम्यासुररासभः
अभ्यधावत्क्षितितलं
सनगं परिकम्पयन् ॥ २९ ॥
समेत्य
तरसा प्रत्यग्द्वाभ्यां पद्भ्यां बलं बली
निहत्योरसि
काशब्दं मुञ्चन्पर्यसरत्खलः ॥ ३० ॥
पुनरासाद्य
संरब्ध उपक्रोष्टा पराक्स्थितः
चरणावपरौ
राजन्बलाय प्राक्षिपद्रुषा ॥ ३१ ॥
स
तं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना
चिक्षेप
तृणराजाग्रे भ्रामणत्यक्तजीवितम् ॥ ३२ ॥
तेनाहतो
महातालो वेपमानो बृहच्छिराः
पार्श्वस्थं
कम्पयन्भग्नः स चान्यं सोऽपि चापरम् ॥ ३३ ॥
बलस्य
लीलयोत्सृष्ट खरदेहहताहताः
तालाश्चकम्पिरे
सर्वे महावातेरिता इव ॥ ३४ ॥
नैतच्चित्रं
भगवति ह्यनन्ते जगदीश्वरे
ओतप्रोतमिदं
यस्मिंस्तन्तुष्वङ्ग यथा पटः ॥ ३५ ॥
ततः
कृष्णं च रामं च ज्ञातयो धेनुकस्य ये
क्रोष्टारोऽभ्यद्रवन्सर्वे
संरब्धा हतबान्धवाः ॥ ३६ ॥
तांस्तानापततः
कृष्णो रामश्च नृपलीलया
गृहीतपश्चाच्चरणान्प्राहिणोत्तृणराजसु
॥ ३७ ॥
फलप्रकरसङ्कीर्णं
दैत्यदेहैर्गतासुभिः
रराज
भूः सतालाग्रैर्घनैरिव नभस्तलम् ॥ ३८ ॥
तयोस्तत्सुमहत्कर्म
निशम्य विबुधादयः
मुमुचुः
पुष्पवर्षाणि चक्रुर्वाद्यानि तुष्टुवुः ॥ ३९ ॥
अथ
तालफलान्यादन्मनुष्या गतसाध्वसाः
तृणं
च पशवश्चेरुर्हतधेनुककानने ॥ ४० ॥
बलरामजी
और श्रीकृष्णके सखाओंमें एक प्रधान गोप बालक थे श्रीदामा । एक दिन उन्होंने तथा
सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) आदि ग्वालबालोंने श्याम और रामसे बड़े प्रेमके
साथ कहा—
॥ २० ॥ ‘हमलोगोंको सर्वदा सुख पहुँचानेवाले
बलरामजी ! आपके बाहु-बलकी तो कोई थाह ही नहीं है । हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण !
दुष्टोंको नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है । यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक
बड़ा भारी वन है । बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताडक़े वृक्ष भरे
पड़े हैं ॥ २१ ॥ वहाँ बहुत-से ताडक़े फल पक-पककर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहलेके
गिरे हुए भी हैं । परंतु वहाँ धेनुक नामका एक दुष्ट दैत्य रहता है । उसने उन
फलोंपर रोक लगा रखी है ॥ २२ ॥ बलरामजी और भैया श्रीकृष्ण ! वह दैत्य गधेके रूपमें
रहता है । वह स्वयं तो बड़ा बलवान है ही, उसके साथी और भी
बहुत-से उसीके समान बलवान् दैत्य उसी रूपमें रहते हैं ॥ २३ ॥ मेरे शत्रुघाती भैया
! उस दैत्यने अबतक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं । यही कारण है कि उसके डरके
मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगलमें नहीं जाते ॥ २४ ॥
उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परंतु हमने कभी नहीं खाये ।
देखो न, चारों ओर उन्हींकी मन्द-मन्द सुगन्ध फैल रही है ।
तनिक-सा ध्यान देनेसे उसका रस मिलने लगता है ॥ २५ ॥ श्रीकृष्ण ! उनकी सुगन्धसे
हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पानेके लिये मचल रहा है । तुम हमें वे फल
अवश्य खिलाओ । दाऊ दादा ! हमें उन फलोंकी बड़ी उत्कट अभिलाषा है । आपको रुचे तो
वहाँ अवश्य चलिये ॥ २६ ॥
अपने
सखा ग्वालबालोंकी यह बात सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे और फिर
उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उनके साथ तालवनके लिये चल पड़े ॥ २७ ॥ उस वनमें
पहुँचकर बलरामजीने अपनी बाँहोंसे उन ताडक़े पेड़ोंको पकड़ लिया और मतवाले हाथीके
बच्चेके समान उन्हें बड़े जोरसे हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये ॥ २८ ॥ जब गधे के
रूपमें रहनेवाले दैत्यने फलोंके गिरनेका शब्द सुना, तब वह
पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको कँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा ॥ २९ ॥ वह बड़ा बलवान् था ।
उसने बड़े वेगसे बलरामजीके सामने आकर अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें दुलत्ती
मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोरसे रेंकता हुआ वहाँसे हट गया ॥ ३० ॥ राजन् ! वह
गधा क्रोधमें भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलरामजीके पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ
करके फिर बड़े क्रोधसे अपने पिछले पैरोंकी दुलत्ती चलायी ॥ ३१ ॥ बलरामजीने अपने एक
ही हाथसे उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाशमें घुमाकर एक ताडक़े पेड़पर दे मारा
। घुमाते समय ही उस गधेके प्राणपखेरू उड़ गये थे ॥ ३२ ॥ उसके गिरनेकी चोटसे वह
महान् ताडक़ा वृक्ष—जिसका ऊपरी भाग बहुत विशाल था—स्वयं तो तड़तड़ाकर गिर ही पड़ा, सटे हुए दूसरे
वृक्षको भी उसने तोड़ डाला । उसने तीसरेको, तीसरेने चौथेको—इस प्रकार एक-दूसरेको गिराते हुए बहुत-से तालवृक्ष गिर पड़े ॥ ३३ ॥
बलरामजीके लिये तो यह एक खेल था । परंतु उनके द्वारा फेंके हुए गधेके शरीरसे चोट
खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हिल गये । ऐसा जान पड़ा, मानो
सबको झंझावातने झकझोर दिया हो ॥ ३४ ॥ भगवान् बलराम स्वयं जगदीश्वर हैं । उनमें यह
सारा संसार ठीक वैसे ही ओतप्रोत है, जैसे सूतोंमें वस्त्र ।
तब भला, उनके लिये यह कौन आश्चर्यकी बात है ॥ ३५ ॥ उस समय
धेनुकासुरके भाई-बन्धु अपने भाईके मारे जानेसे क्रोधके मारे आगबबूला हो गये ।
सब-के-सब गधे बलरामजी और श्रीकृष्णपर बड़े वेगसे टूट पड़े ॥ ३६ ॥ राजन् ! उनमेंसे
जो-जो पास आया, उसी-उसीको बलरामजी और श्रीकृष्णने खेल-खेलमें
ही पिछले पैर पकडक़र तालवृक्षों पर दे मारा ॥ ३७ ॥ उस समय वह भूमि ताडक़े फलों से पट
गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरोंसे भर गयी । जैसे बादलों से
आकाश ढक गया हो, उस भूमिकी वैसी ही शोभा होने लगी ॥ ३८ ॥
बलरामजी और श्रीकृष्णकी यह मङ्गलमयी लीला देखकर देवतागण उनपर फूल बरसाने लगे और
बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे ॥ ३९ ॥ जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता
के साथ घास चरने लगे॥४० ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से