शनिवार, 20 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

धेनुकासुर का उद्धार और

ग्वालबालों को कालियनाग के विष से बचाना

 

श्रीदामा नाम गोपालो रामकेशवयोः सखा

सुबलस्तोककृष्णाद्या गोपाः प्रेम्णेदमब्रुवन् ॥ २० ॥

राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण

इतोऽविदूरे सुमहद्वनं तालालिसङ्कुलम् ॥ २१ ॥

फलानि तत्र भूरीणि पतन्ति पतितानि च

सन्ति किन्त्ववरुद्धानि धेनुकेन दुरात्मना ॥ २२ ॥

सोऽतिवीर्योऽसुरो राम हे कृष्ण खररूपधृक्

आत्मतुल्यबलैरन्यैर्ज्ञातिभिर्बहुभिर्वृतः ॥ २३ ॥

तस्मात्कृतनराहाराद्भीतैर्नृभिरमित्रहन्

न सेव्यते पशुगणैः पक्षिसङ्घैर्विवर्जितम् ॥ २४ ॥

विद्यन्तेऽभुक्तपूर्वाणि फलानि सुरभीणि च

एष वै सुरभिर्गन्धो विषूचीनोऽवगृह्यते ॥ २५ ॥

प्रयच्छ तानि नः कृष्ण गन्धलोभितचेतसाम्

वाञ्छास्ति महती राम गम्यतां यदि रोचते ॥ २६ ॥

एवं सुहृद्वचः श्रुत्वा सुहृत्प्रियचिकीर्षया

प्रहस्य जग्मतुर्गोपैर्वृतौ तालवनं प्रभू ॥ २७ ॥

बलः प्रविश्य बाहुभ्यां तालान्सम्परिकम्पयन्

फलानि पातयामास मतङ्गज इवौजसा ॥ २८ ॥

फलानां पततां शब्दं निशम्यासुररासभः

अभ्यधावत्क्षितितलं सनगं परिकम्पयन् ॥ २९ ॥

समेत्य तरसा प्रत्यग्द्वाभ्यां पद्भ्यां बलं बली

निहत्योरसि काशब्दं मुञ्चन्पर्यसरत्खलः ॥ ३० ॥

पुनरासाद्य संरब्ध उपक्रोष्टा पराक्स्थितः

चरणावपरौ राजन्बलाय प्राक्षिपद्रुषा ॥ ३१ ॥

स तं गृहीत्वा प्रपदोर्भ्रामयित्वैकपाणिना

चिक्षेप तृणराजाग्रे भ्रामणत्यक्तजीवितम् ॥ ३२ ॥

तेनाहतो महातालो वेपमानो बृहच्छिराः

पार्श्वस्थं कम्पयन्भग्नः स चान्यं सोऽपि चापरम् ॥ ३३ ॥

बलस्य लीलयोत्सृष्ट खरदेहहताहताः

तालाश्चकम्पिरे सर्वे महावातेरिता इव ॥ ३४ ॥

नैतच्चित्रं भगवति ह्यनन्ते जगदीश्वरे

ओतप्रोतमिदं यस्मिंस्तन्तुष्वङ्ग यथा पटः ॥ ३५ ॥

ततः कृष्णं च रामं च ज्ञातयो धेनुकस्य ये

क्रोष्टारोऽभ्यद्रवन्सर्वे संरब्धा हतबान्धवाः ॥ ३६ ॥

तांस्तानापततः कृष्णो रामश्च नृपलीलया

गृहीतपश्चाच्चरणान्प्राहिणोत्तृणराजसु ॥ ३७ ॥

फलप्रकरसङ्कीर्णं दैत्यदेहैर्गतासुभिः

रराज भूः सतालाग्रैर्घनैरिव नभस्तलम् ॥ ३८ ॥

तयोस्तत्सुमहत्कर्म निशम्य विबुधादयः

मुमुचुः पुष्पवर्षाणि चक्रुर्वाद्यानि तुष्टुवुः ॥ ३९ ॥

अथ तालफलान्यादन्मनुष्या गतसाध्वसाः

तृणं च पशवश्चेरुर्हतधेनुककानने ॥ ४० ॥

 

बलरामजी और श्रीकृष्णके सखाओंमें एक प्रधान गोप बालक थे श्रीदामा । एक दिन उन्होंने तथा सुबल और स्तोककृष्ण (छोटे कृष्ण) आदि ग्वालबालोंने श्याम और रामसे बड़े प्रेमके साथ कहा॥ २० ॥ हमलोगोंको सर्वदा सुख पहुँचानेवाले बलरामजी ! आपके बाहु-बलकी तो कोई थाह ही नहीं है । हमारे मनमोहन श्रीकृष्ण ! दुष्टोंको नष्ट कर डालना तो तुम्हारा स्वभाव ही है । यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक बड़ा भारी वन है । बस, उसमें पाँत-के-पाँत ताडक़े वृक्ष भरे पड़े हैं ॥ २१ ॥ वहाँ बहुत-से ताडक़े फल पक-पककर गिरते रहते हैं और बहुत-से पहलेके गिरे हुए भी हैं । परंतु वहाँ धेनुक नामका एक दुष्ट दैत्य रहता है । उसने उन फलोंपर रोक लगा रखी है ॥ २२ ॥ बलरामजी और भैया श्रीकृष्ण ! वह दैत्य गधेके रूपमें रहता है । वह स्वयं तो बड़ा बलवान है ही, उसके साथी और भी बहुत-से उसीके समान बलवान् दैत्य उसी रूपमें रहते हैं ॥ २३ ॥ मेरे शत्रुघाती भैया ! उस दैत्यने अबतक न जाने कितने मनुष्य खा डाले हैं । यही कारण है कि उसके डरके मारे मनुष्य उसका सेवन नहीं करते और पशु-पक्षी भी उस जंगलमें नहीं जाते ॥ २४ ॥ उसके फल हैं तो बड़े सुगन्धित, परंतु हमने कभी नहीं खाये । देखो न, चारों ओर उन्हींकी मन्द-मन्द सुगन्ध फैल रही है । तनिक-सा ध्यान देनेसे उसका रस मिलने लगता है ॥ २५ ॥ श्रीकृष्ण ! उनकी सुगन्धसे हमारा मन मोहित हो गया है और उन्हें पानेके लिये मचल रहा है । तुम हमें वे फल अवश्य खिलाओ । दाऊ दादा ! हमें उन फलोंकी बड़ी उत्कट अभिलाषा है । आपको रुचे तो वहाँ अवश्य चलिये ॥ २६ ॥

 

अपने सखा ग्वालबालोंकी यह बात सुनकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजी दोनों हँसे और फिर उन्हें प्रसन्न करनेके लिये उनके साथ तालवनके लिये चल पड़े ॥ २७ ॥ उस वनमें पहुँचकर बलरामजीने अपनी बाँहोंसे उन ताडक़े पेड़ोंको पकड़ लिया और मतवाले हाथीके बच्चेके समान उन्हें बड़े जोरसे हिलाकर बहुत-से फल नीचे गिरा दिये ॥ २८ ॥ जब गधे के रूपमें रहनेवाले दैत्यने फलोंके गिरनेका शब्द सुना, तब वह पर्वतोंके साथ सारी पृथ्वीको कँपाता हुआ उनकी ओर दौड़ा ॥ २९ ॥ वह बड़ा बलवान् था । उसने बड़े वेगसे बलरामजीके सामने आकर अपने पिछले पैरोंसे उनकी छातीमें दुलत्ती मारी और इसके बाद वह दुष्ट बड़े जोरसे रेंकता हुआ वहाँसे हट गया ॥ ३० ॥ राजन् ! वह गधा क्रोधमें भरकर फिर रेंकता हुआ दूसरी बार बलरामजीके पास पहुँचा और उनकी ओर पीठ करके फिर बड़े क्रोधसे अपने पिछले पैरोंकी दुलत्ती चलायी ॥ ३१ ॥ बलरामजीने अपने एक ही हाथसे उसके दोनों पैर पकड़ लिये और उसे आकाशमें घुमाकर एक ताडक़े पेड़पर दे मारा । घुमाते समय ही उस गधेके प्राणपखेरू उड़ गये थे ॥ ३२ ॥ उसके गिरनेकी चोटसे वह महान् ताडक़ा वृक्षजिसका ऊपरी भाग बहुत विशाल थास्वयं तो तड़तड़ाकर गिर ही पड़ा, सटे हुए दूसरे वृक्षको भी उसने तोड़ डाला । उसने तीसरेको, तीसरेने चौथेकोइस प्रकार एक-दूसरेको गिराते हुए बहुत-से तालवृक्ष गिर पड़े ॥ ३३ ॥ बलरामजीके लिये तो यह एक खेल था । परंतु उनके द्वारा फेंके हुए गधेके शरीरसे चोट खा-खाकर वहाँ सब-के-सब ताड़ हिल गये । ऐसा जान पड़ा, मानो सबको झंझावातने झकझोर दिया हो ॥ ३४ ॥ भगवान्‌ बलराम स्वयं जगदीश्वर हैं । उनमें यह सारा संसार ठीक वैसे ही ओतप्रोत है, जैसे सूतोंमें वस्त्र । तब भला, उनके लिये यह कौन आश्चर्यकी बात है ॥ ३५ ॥ उस समय धेनुकासुरके भाई-बन्धु अपने भाईके मारे जानेसे क्रोधके मारे आगबबूला हो गये । सब-के-सब गधे बलरामजी और श्रीकृष्णपर बड़े वेगसे टूट पड़े ॥ ३६ ॥ राजन् ! उनमेंसे जो-जो पास आया, उसी-उसीको बलरामजी और श्रीकृष्णने खेल-खेलमें ही पिछले पैर पकडक़र तालवृक्षों पर दे मारा ॥ ३७ ॥ उस समय वह भूमि ताडक़े फलों से पट गयी और टूटे हुए वृक्ष तथा दैत्यों के प्राणहीन शरीरोंसे भर गयी । जैसे बादलों से आकाश ढक गया हो, उस भूमिकी वैसी ही शोभा होने लगी ॥ ३८ ॥ बलरामजी और श्रीकृष्णकी यह मङ्गलमयी लीला देखकर देवतागण उनपर फूल बरसाने लगे और बाजे बजा-बजाकर स्तुति करने लगे ॥ ३९ ॥ जिस दिन धेनुकासुर मरा, उसी दिन से लोग निडर होकर उस वन के तालफल खाने लगे तथा पशु भी स्वच्छन्दता के साथ घास चरने लगे॥४० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



शुक्रवार, 19 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)



 ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

धेनुकासुर का उद्धार और

ग्वालबालों को कालियनाग के विष से बचाना

 

श्रीशुक उवाच

एवं वृन्दावनं श्रीमत्कृष्णः प्रीतमनाः पशून्

रेमे सञ्चारयन्नद्रेः सरिद्रोधःसु सानुगः ॥ ९ ॥

क्वचिद्गायति गायत्सु मदान्धालिष्वनुव्रतैः

उपगीयमानचरितः पथि सङ्कर्षणान्वितः ॥ १० ॥

अनुजल्पति जल्पन्तं कलवाक्यैः शुकं क्वचित्

क्वचित्सवल्गु कूजन्तमनुकूजति कोकिलम्

क्वचिच्च कालहंसानामनुकूजति कूजितम्

अभिनृत्यति नृत्यन्तं बर्हिणं हासयन्क्वचित् ॥ ११ ॥

मेघगम्भीरया वाचा नामभिर्दूरगान्पशून्

क्वचिदाह्वयति प्रीत्या गोगोपालमनोज्ञया ॥ १२ ॥

चकोरक्रौञ्चचक्राह्व भारद्वाजांश्च बर्हिणः                                                                             अनुरौति स्म सत्त्वानां भीतवद्व्याघ्रसिंहयोः ॥ १३ ॥

क्वचित्क्रीडापरिश्रान्तं गोपोत्सङ्गोपबर्हणम्

स्वयं विश्रमयत्यार्यं पादसंवाहनादिभिः ॥ १४ ॥

नृत्यतो गायतः क्वापि वल्गतो युध्यतो मिथः

गृहीतहस्तौ गोपालान्हसन्तौ प्रशशंसतुः ॥ १५ ॥

क्वचित्पल्लवतल्पेषु नियुद्धश्रमकर्शितः

वृक्षमूलाश्रयः शेते गोपोत्सङ्गोपबर्हणः ॥ १६ ॥

पादसंवाहनं चक्रुः केचित्तस्य महात्मनः

अपरे हतपाप्मानो व्यजनैः समवीजयन् ॥ १७ ॥

अन्ये तदनुरूपाणि मनोज्ञानि महात्मनः

गायन्ति स्म महाराज स्नेहक्लिन्नधियः शनैः ॥ १८ ॥

एवं निगूढात्मगतिः स्वमायया

गोपात्मजत्वं चरितैर्विडम्बयन्

रेमे रमालालितपादपल्लवो

ग्राम्यैः समं ग्राम्यवदीशचेष्टितः ॥ १९ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! इस प्रकार परम सुन्दर वृन्दावनको देखकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण बहुत ही आनन्दित हुए । वे अपने सखा ग्वालबालोंके साथ गोवर्धनकी तराईमें, यमुनातटपर गौओं को चराते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएँ करने लगे ॥ ९ ॥ एक ओर ग्वालबाल भगवान्‌ श्रीकृष्ण के चरित्रों की मधुर तान छेड़े रहते हैं, तो दूसरी ओर बलरामजीके साथ वनमाला पहने हुए श्रीकृष्ण मतवाले भौंरोंकी सुरीली गुनगुनाहट में अपना स्वर मिलाकर मधुर संगीत अलापने लगते हैं ॥ १० ॥ कभी-कभी श्रीकृष्ण कूजते हुए राजहंसोंके साथ स्वयं भी कूजने लगते हैं और कभी नाचते हुए मोरों के साथ स्वयं भी ठुमुक-ठुमुक नाचने लगते हैं और ऐसा नाचते हैं कि मयूर को उपहासास्पद बना देते हैं ॥ ११ ॥ कभी मेघ के समान गम्भीर वाणी से दूर गये हुए पशुओं को उनका नाम ले-लेकर बड़े प्रेम से पुकारते हैं । उनके कण्ठ की मधुर ध्वनि सुनकर गायों और ग्वालबालोंका चित्त भी अपने वशमें नहीं रहता ॥ १२ ॥ कभी चकोर, क्रौंच (कराँकुल), चकवा, भरदूल और मोर आदि पक्षियोंकी-सी बोली बोलते तो कभी बाघ, सिंह आदिकी गर्जना से डरे हुए जीवोंके समान स्वयं भी भयभीतकी-सी लीला करते ॥ १३ ॥ जब बलरामजी खेलते-खेलते थककर किसी ग्वालबालकी गोदके तकियेपर सिर रखकर लेट जाते, तब श्रीकृष्ण उनके पैर दबाने लगते, पंखा झलने लगते और इस प्रकार अपने बड़े भाईकी थकावट दूर करते ॥ १४ ॥ जब ग्वालबाल नाचने-गाने लगते अथवा ताल ठोंक-ठोंककर एक-दूसरेसे कुश्ती लडऩे लगते, तब श्याम और राम दोनों भाई हाथमें हाथ डालकर खड़े हो जाते और हँस-हँसकर वाह-वाहकरते ॥ १५ ॥ कभी-कभी स्वयं श्रीकृष्ण भी ग्वालबालोंके साथ कुश्ती लड़ते-लड़ते थक जाते तथा किसी सुन्दर वृक्षके नीचे कोमल पल्लवोंकी सेजपर किसी ग्वालबाल की गोद में सिर रखकर लेट जाते ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय कोई-कोई पुण्यके मूर्तिमान् स्वरूप ग्वालबाल महात्मा श्रीकृष्णके चरण दबाने लगते और दूसरे निष्पाप बालक उन्हें बड़े-बड़े पत्तों या अँगोछियों से पंखा झलने लगते ॥ १७ ॥ किसी-किसी के हृदयमें प्रेमकी धारा उमड़ आती तो वह धीरे-धीरे उदारशिरोमणि परममनस्वी श्रीकृष्णकी लीलाओंके अनुरूप उनके मनको प्रिय लगनेवाले मनोहर गीत गाने लगता ॥ १८ ॥ भगवान्‌ ने इस प्रकार अपनी योगमायासे अपने ऐश्वर्यमय स्वरूपको छिपा रखा था । वे ऐसी लीलाएँ करते, जो ठीक-ठीक गोपबालकोंकी-सी ही मालूम पड़तीं । स्वयं भगवती लक्ष्मी जिनके चरणकमलोंकी सेवामें संलग्र रहती हैं, वे ही भगवान्‌ इन ग्रामीण बालकोंके साथ बड़े प्रेमसे ग्रामीण खेल खेला करते थे । परीक्षित्‌ ! ऐसा होनेपर भी कभी-कभी उनकी ऐश्वर्यमयी लीलाएँ भी प्रकट हो जाया करतीं ॥ १९ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) पंद्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

धेनुकासुर का उद्धार और

ग्वालबालों को कालियनाग के विष से बचाना

 

श्रीशुक उवाच

ततश्च पौगण्डवयः श्रितौ व्रजे

बभूवतुस्तौ पशुपालसम्मतौ

गाश्चारयन्तौ सखिभिः समं पदैर्-

वृन्दावनं पुण्यमतीव चक्रतुः ॥ १ ॥

तन्माधवो वेणुमुदीरयन्वृतो

गोपैर्गृणद्भिः स्वयशो बलान्वितः

पशून्पुरस्कृत्य पशव्यमाविशद्-

विहर्तुकामः कुसुमाकरं वनम् ॥ २ ॥

तन्मञ्जुघोषालिमृगद्विजाकुलं

महन्मनःप्रख्यपयःसरस्वता

वातेन जुष्टं शतपत्रगन्धिना

निरीक्ष्य रन्तुं भगवान्मनो दधे ॥ ३ ॥

स तत्र तत्रारुणपल्लवश्रिया

फलप्रसूनोरुभरेण पादयोः

स्पृशच्छिखान्वीक्ष्य वनस्पतीन्मुदा

स्मयन्निवाहाग्रजमादिपूरुषः ॥ ४ ॥

 

श्रीभगवानुवाच

अहो अमी देववरामरार्चितं

पादाम्बुजं ते सुमनःफलार्हणम्

नमन्त्युपादाय शिखाभिरात्मन-

स्तमोऽपहत्यै तरुजन्म यत्कृतम् ॥ ५ ॥

एतेऽलिनस्तव यशोऽखिललोकतीर्थं

गायन्त आदिपुरुषानुपथं भजन्ते

प्रायो अमी मुनिगणा भवदीयमुख्या

गूढं वनेऽपि न जहत्यनघात्मदैवम् ॥ ६ ॥

नृत्यन्त्यमी शिखिन ईड्य मुदा हरिण्यः

कुर्वन्ति गोप्य इव ते प्रियमीक्षणेन

सूक्तैश्च कोकिलगणा गृहमागताय

धन्या वनौकस इयान्हि सतां निसर्गः ॥ ७ ॥

धन्येयमद्य धरणी तृणवीरुधस्त्वत्

पादस्पृशो द्रुमलताः करजाभिमृष्टाः

नद्योऽद्रयः खगमृगाः सदयावलोकैर्

गोप्योऽन्तरेण भुजयोरपि यत्स्पृहा श्रीः ॥ ८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब बलराम और श्रीकृष्ण ने पौगण्ड-अवस्था में अर्थात् छठे वर्षमें प्रवेश किया था । अब उन्हें गौएँ चरानेकी स्वीकृति मिल गयी । वे अपने सखा ग्वालबालों के साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनमें जाते और अपने चरणों से वृन्दावन को अत्यन्त पावन करते ॥ १ ॥ यह वन गौओं के लिये हरी-हरी घाससे युक्त एवं रंग-बिरंगे पुष्पों की खान हो रहा था । आगे-आगे गौएँ, उनके पीछे-पीछे बाँसुरी बजाते हुए श्यामसुन्दर, तदनन्तर बलराम और फिर श्रीकृष्णके यशका गान करते हुए ग्वालबालइस प्रकार विहार करनेके लिये उन्होंने उस वनमें प्रवेश किया ॥ २ ॥ उस वनमें कहीं तो भौंरे बड़ी मधुर गुंजार कर रहे थे, कहीं झुंड-के-झुंड हरिन चौकड़ी भर रहे थे और कहीं सुन्दर-सुन्दर पक्षी चहक रहे थे । बड़े ही सुन्दर-सुन्दर सरोवर थे, जिनका जल महात्माओं के हृदय के समान स्वच्छ और निर्मल था । उनमें खिले हुए कमलों के सौरभसे सुवासित होकर शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु उस वनकी सेवा कर रही थी । इतना मनोहर था वह वन कि उसे देखकर भगवान्‌ ने मन-ही-मन उसमें विहार करनेका संकल्प किया ॥ ३ ॥ पुरुषोत्तम भगवान्‌ ने देखा कि बड़े-बड़े वृक्ष फल और फूलोंके भारसे झुककर अपनी डालियों और नूतन कोंपलों की लालिमा से उनके चरणोंका स्पर्श कर रहे हैं, तब उन्होंने बड़े आनन्द से कुछ मुसकराते हुए-से अपने बड़े भाई बलरामजी से कहा ॥ ४ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहादेवशिरोमणे ! यों तो बड़े-बड़े देवता आपके चरणकमलोंकी पूजा करते हैं; परंतु देखिये तो, ये वृक्ष भी अपनी डालियोंसे सुन्दर पुष्प और फलोंकी सामग्री लेकर आपके चरणकमलोंमें झुक रहे हैं, नमस्कार कर रहे हैं । क्यों न हो, इन्होंने इसी सौभाग्यके लिये तथा अपना दर्शन एवं श्रवण करनेवालोंके अज्ञानका नाश करनेके लिये ही तो वृन्दावनधाममें वृक्ष-योनि ग्रहण की है । इनका जीवन धन्य है ॥ ५ ॥ आदिपुरुष ! यद्यपि आप इस वृन्दावनमें अपने ऐश्वर्यरूपको छिपाकर बालकोंकी-सी लीला कर रहे हैं, फिर भी आपके श्रेष्ठ भक्त मुनिगण अपने इष्टदेवको पहचानकर यहाँ भी प्राय: भौंरोंके रूपमें आपके भुवन-पावन यशका निरन्तर गान करते हुए आपके भजनमें लगे रहते हैं । वे एक क्षणके लिये भी आपको नहीं छोडऩा चाहते ॥ ६ ॥ भाईजी ! वास्तवमें आप ही स्तुति करने योग्य हैं । देखिये, आपको अपने घर आया देख ये मोर आपके दर्शनोंसे आनन्दित होकर नाच रहे हैं । हरिनियाँ मृगनयनी गोपियोंके समान अपनी प्रेमभरी तिरछी चितवनसे आपके प्रति प्रेम प्रकट कर रही हैं, आपको प्रसन्न कर रही हैं । ये कोयलें अपनी मधुर कुहू-कुहू ध्वनिसे आपका कितना सुन्दर स्वागत कर रही हैं । ये वनवासी होनेपर भी धन्य हैं । क्योंकि सत्पुरुषोंका स्वभाव ही ऐसा होता है कि वे घर आये अतिथिको अपनी प्रिय-से-प्रिय वस्तु भेंट कर देते हैं ॥ ७ ॥ आज यहाँकी भूमि अपनी हरी-हरी घासके साथ आपके चरणोंका स्पर्श प्राप्त करके धन्य हो रही हैं । यहाँके वृक्ष, लताएँ और झाडिय़ाँ आपकी अँगुलियोंका स्पर्श पाकर अपना अहोभाग्य मान रही हैं । आपकी दयाभरी चितवन से नदी, पर्वत, पशु, पक्षीसब कृतार्थ हो रहे हैं और व्रजकी गोपियाँ आपके वक्ष:स्थल का स्पर्श प्राप्त करके, जिसके लिये स्वयं लक्ष्मी भी लालायित रहती हैं, धन्य-धन्य हो रही हैं ॥ ८ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




गुरुवार, 18 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१७)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

श्रीशुक उवाच ।
सर्वेषामपि भूतानां नृप स्वात्मैव वल्लभः ।
इतरेऽपत्यवित्ताद्याः तद्वल्लभतयैव हि ॥ ५० ॥
तद् राजेन्द्र यथा स्नेहः स्वस्वकात्मनि देहिनाम् ।
न तथा ममतालम्बि पुत्रवित्तगृहादिषु ॥ ५१ ॥
देहात्मवादिनां पुंसां अपि राजन्यसत्तम ।
यथा देहः प्रियतमः तथा न ह्यनु ये च तम् ॥ ५२ ॥
देहोऽपि ममताभाक् चेत् तर्ह्यसौ नात्मवत् प्रियः ।
यज्जीर्यत्यपि देहेऽस्मिन् जीविताशा बलीयसी ॥ ५३ ॥
तस्मात् प्रियतमः स्वात्मा सर्वेषामपि देहिनाम् ।
तदर्थमेव सकलं जगद् एतत् चराचरम् ॥ ५४ ॥
कृष्णमेनमवेहि त्वं आत्मानं अखिलात्मनाम् ।
जगद्धिताय सोऽप्यत्र देहीवाभाति मायया ॥ ५५ ॥
वस्तुतो जानतामत्र कृष्णं स्थास्नु चरिष्णु च ।
भगवद् रूपमखिलं नान्यद् वस्त्विह किञ्चन ॥ ५६ ॥
सर्वेषामपि वस्तूनां भावार्थो भवति स्थितः ।
तस्यापि भगवान्कृष्णः किं अतद्वस्तु रूप्यताम् ॥ ५७ ॥
समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः ।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं
पदं पदं यद् विपदां न तेषाम् ॥ ५८ ॥
एतत्ते सर्वमाख्यातं यत् पृष्टोऽहमिह त्वया ।
यत् कौमारे हरिकृतं पौगण्डे परिकीर्तितम् ॥ ५९ ॥
एतत्सुहृद्‌भिश्चरितं मुरारेः
अघार्दनं शाद्वलजेमनं च ।
व्यक्तेतरद् रूपमजोर्वभिष्टवं
शृण्वन् गृणन्नेति नरोऽखिलार्थान् ॥ ६० ॥
एवं विहारैः कौमारैः कौमारं जहतुर्व्रजे ।
निलायनैः सेतुबन्धैः मर्कटोत्प्लवनादिभिः ॥ ६१ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंराजन् ! संसार के सभी प्राणी अपने आत्मा से ही सबसे बढक़र प्रेम करते हैं। पुत्रसे, धनसे या और किसीसे जो प्रेम होता हैवह तो इसलिये कि वे वस्तुएँ अपने आत्मा को प्रिय लगती हैं ॥ ५० ॥ राजेन्द्र ! यही कारण है कि सभी प्राणियोंका अपने आत्माके प्रति जैसा प्रेम होता है, वैसा अपने कहलानेवाले पुत्र, धन और गृह आदिमें नहीं होता ॥ ५१ ॥ नृपश्रेष्ठ ! जो लोग देहको ही आत्मा मानते हैं, वे भी अपने शरीरसे जितना प्रेम करते हैं, उतना प्रेम शरीरके सम्बन्धी पुत्र-मित्र आदिसे नहीं करते ॥ ५२ ॥ जब विचारके द्वारा यह मालूम हो जाता है कि यह शरीर मैं नहीं हूँ, यह शरीर मेरा हैतब इस शरीरसे भी आत्माके समान प्रेम नहीं रहता। यही कारण है कि इस देहके जीर्ण-शीर्ण हो जानेपर भी जीनेकी आशा प्रबल रूपसे बनी रहती है ॥ ५३ ॥ इससे यह बात सिद्ध होती है कि सभी प्राणी अपने आत्मासे ही सबसे बढक़र प्रेम करते हैं और उसीके लिये इस सारे चराचर जगत्से भी प्रेम करते हैं ॥ ५४ ॥ इन श्रीकृष्णको ही तुम सब आत्माओंका आत्मा समझो । संसारके कल्याणके लिये ही योगमायाका आश्रय लेकर वे यहाँ देहधारीके समान जान पड़ते हैं ॥ ५५ ॥ जो लोग भगवान्‌ श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपको जानते हैं, उनके लिये तो इस जगत्में जो कुछ भी चराचर पदार्थ हैं, अथवा इससे परे परमात्मा, ब्रह्म, नारायण आदि जो भगवत्स्वरूप हैं, सभी श्रीकृष्णस्वरूप ही हैं । श्रीकृष्णके अतिरिक्त और कोई प्राकृत-अप्राकृत वस्तु है ही नहीं ॥ ५६ ॥ सभी वस्तुओंका अन्तमि रूप अपने कारणमें स्थित होता है। उस कारणके भी परम कारण हैं भगवान्‌ श्रीकृष्ण । तब भला बताओ, किस वस्तुको श्रीकृष्णसे भिन्न बतलायें ॥ ५७ ॥ जिन्होंने पुण्यकीर्ति मुकुन्द मुरारीके पदपल्लव की नौका का आश्रय लिया है,जो कि सत्पुरुषों का सर्वस्व है,उनके लिये यह भव-सागर बछड़े के खुर के गढ़े के समान है । उन्हें परमपदकी प्राप्ति हो जाती है और उनके लिये विपत्तियों का निवासस्थानयह संसार नहीं रहता ॥ ५८ ॥
परीक्षित्‌ ! तुमने मुझसे पूछा था कि भगवान्‌ के पाँचवें वर्षकी लीला ग्वालबालों ने छठे वर्ष में कैसे कही, उसका सारा रहस्य मैंने तुम्हें बतला दिया ॥ ५९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण की ग्वालबालों के साथ वनक्रीड़ा, अघासुर को मारना, हरी-हरी घास से युक्त भूमिपर बैठकर भोजन करना, अप्राकृत- रूपधारी बछड़ों और ग्वालबालों का प्रकट होना और ब्रह्माजी के द्वारा की हुई इस महान् स्तुति को जो मनुष्य सुनता और कहता हैउस-उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है ॥ ६० ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार श्रीकृष्ण और बलराम ने कुमार-अवस्था के अनुरूप आँखमिचौनी, सेतुबन्धन, बंदरों की भाँति उछलना-कूदना आदि अनेकों लीलाएँ करके अपनी कुमार-अवस्था व्रजमें ही त्याग दी ॥ ६१ ॥

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां
संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)



॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौदहवाँ अध्याय..(पोस्ट१६)

ब्रह्माजी के द्वारा भगवान्‌ की स्तुति

इत्यभिष्टूय भूमानं त्रिः परिक्रम्य पादयोः ।
नत्वाभीष्टं जगद्धाता स्वधाम प्रत्यपद्यत ॥ ४१ ॥
ततोऽनुज्ञाप्य भगवान् स्वभुवं प्रागवस्थितान् ।
वत्सान् पुलिनमानिन्ये यथापूर्वसखं स्वकम् ॥ ४२ ॥
एकस्मिन्नपि यातेऽब्दे प्राणेशं चान्तराऽऽत्मनः ।
कृष्णमायाहता राजन् क्षणार्धं मेनिरेऽर्भकाः ॥ ४३ ॥
किं किं न विस्मरन्तीह मायामोहितचेतसः ।
यन्मोहितं जगत्सर्वं अभीक्ष्णं विस्मृतात्मकम् ॥ ४४ ॥
ऊचुश्च सुहृदः कृष्णं स्वागतं तेऽतिरंहसा ।
नैकोऽप्यभोजि कवल एहीतः साधु भुज्यताम् ॥ ४५ ॥
ततो हसन् हृषीकेशोऽभ्यवहृत्य सहार्भकैः ।
दर्शयंश्चर्माजगरं न्यवर्तत वनाद् व्रजम् ॥ ४६ ॥
बर्हप्रसून नवधातुविचित्रिताङ्‌गः
प्रोद्दामवेणुदलशृङ्‌गरवोत्सवाढ्यः ।
वत्सान् गृणन्ननुगगीत पवित्रकीर्तिः
गोपीदृगुत्सवदृशिः प्रविवेश गोष्ठम् ॥ ४७ ॥
अद्यानेन महाव्यालो यशोदानन्दसूनुना ।
हतोऽविता वयं चास्माद् इति बाला व्रजे जगुः ॥ ४८ ॥

श्रीराजोवाच ।
ब्रह्मन् परोद्‍भवे कृष्णे इयान्प्रेमा कथं भवेत् ।
योऽभूतपूर्वस्तोकेषु स्वोद्‍भवेष्वपि कथ्यताम् ॥ ४९ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! संसारके रचयिता ब्रह्माजीने इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्णकी स्तुति की। इसके बाद उन्होंने तीन बार परिक्रमा करके उनके चरणोंमें प्रणाम किया और फिर अपने गन्तव्य स्थान सत्यलोकमें चले गये ॥ ४१ ॥ ब्रह्माजीने बछड़ों और ग्वालबालोंको पहले ही यथास्थान पहुँचा दिया था। भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्रह्माजीको विदा कर दिया और बछड़ोंको लेकर यमुनाजीके पुलिनपर आये, जहाँ वे अपने सखा ग्वालबालोंको पहले छोड़ गये थे ॥ ४२ ॥ परीक्षित्‌ ! अपने जीवनसर्वस्वप्राणवल्लभ श्रीकृष्णके वियोगमें यद्यपि एक वर्ष बीत गया था, तथापि उन ग्वालबालोंको वह समय आधे क्षणके समान जान पड़ा। क्यों न हो, वे भगवान्‌की विश्वविमोहिनी योगमायासे मोहित जो हो गये थे ॥ ४३ ॥ जगत्के सभी जीव उसी मायासे मोहित होकर शास्त्र और आचार्योंके बार-बार समझानेपर भी अपने आत्माको निरन्तर भूले हुए हैं। वास्तवमें उस मायाकी ऐसी ही शक्ति है। भला, उससे मोहित होकर जीव यहाँ क्या-क्या नहीं भूल जाते हैं ? ॥ ४४ ॥
परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णको देखते ही ग्वालबालोंने बड़ी उतावलीसे कहा—‘भाई ! तुम भले आये। स्वागत है, स्वागत ! अभी तो हमने तुम्हारे बिना एक कौर भी नहीं खाया है। आओ, इधर आओ; आनन्दसे भोजन करो॥ ४५ ॥ तब हँसते हुए भगवान्‌ने ग्वालबालों के साथ भोजन किया और उन्हें अघासुर के शरीर का ढाँचा दिखाते हुए वनसे व्रज में लौट आये ॥ ४६ ॥ श्रीकृष्ण के सिरपर मोरपंखका मनोहर मुकुट और घुँघराले बालोंमें सुन्दर-सुन्दर महँ-महँ महँकते हुए पुष्प गुँथ रहे थे। नयी-नयी रंगीन धातुओंसे श्याम शरीरपर चित्रकारी की हुई थी। वे चलते समय रास्तेमें उच्च स्वरसे कभी बाँसुरी, कभी पत्ते और कभी सिंगी बजाकर वाद्योत्सवमें मग्र हो रहे हैं, पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्तिका गान करते जा रहे हैं। कभी वे नाम ले-लेकर अपने बछड़ोंको पुकारते, तो कभी उनके साथ लाड़-लड़ाने लगते। मार्गके दोनों ओर गोपियाँ खड़ी हैं; जब वे कभी तिरछे नेत्रोंसे उनकी नजरमें नजर मिला देते हैं, तब गोपियाँ आनन्द-मुग्ध हो जाती हैं। इस प्रकार भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गोष्ठ में प्रवेश किया ॥ ४७ ॥ परीक्षित्‌ ! उसी दिन बालकों ने व्रज में जाकर कहा कि आज यशोदा मैया के लाड़ले नन्दनन्दन ने वन में एक बड़ा भारी अजगर मार डाला है और उससे हमलोगों की रक्षा की है॥ ४८ ॥
राजा परीक्षित्‌ ने कहाब्रह्मन् ! व्रजवासियों के लिये श्रीकृष्ण अपने पुत्र नहीं थे, दूसरे के पुत्र थे। फिर उनका श्रीकृष्णके प्रति इतना प्रेम कैसे हुआ ? ऐसा प्रेम तो उनका अपने बालकों पर भी पहले कभी नहीं हुआ था ! आप कृपा करके बतलाइये, इसका क्या कारण है ? ॥ ४९ ॥

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...