शुक्रवार, 26 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अठारहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

प्रलम्बासुर-उद्धार

 

श्रीशुक उवाच

अथ कृष्णः परिवृतो ज्ञातिभिर्मुदितात्मभिः

अनुगीयमानो न्यविशद्व्रजं गोकुलमण्डितम् ॥ १ ॥

व्रजे विक्रीडतोरेवं गोपालच्छद्ममायया

ग्रीष्मो नामर्तुरभवन्नातिप्रेयाञ्छरीरिणाम् ॥ २ ॥

स च वृन्दावनगुणैर्वसन्त इव लक्षितः

यत्रास्ते भगवान्साक्षाद्रा मेण सह केशवः ॥ ३ ॥

यत्र निर्झरनिर्ह्राद निवृत्तस्वनझिल्लिकम्

शश्वत्तच्छीकरर्जीष द्रुममण्डलमण्डितम् ॥ ४ ॥

सरित्सरःप्रस्रवणोर्मिवायुना

कह्लारकञ्जोत्पलरेणुहारिणा

न विद्यते यत्र वनौकसां दवो

निदाघवह्न्यर्कभवोऽतिशाद्वले ॥ ५ ॥

अगाधतोयह्रदिनीतटोर्मिभि-

र्द्रवत्पुरीष्याः पुलिनैः समन्ततः

न यत्र चण्डांशुकरा विषोल्बणा

भुवो रसं शाद्वलितं च गृह्णते ॥ ६ ॥

वनं कुसुमितं श्रीमन्नदच्चित्रमृगद्विजम्

गायन्मयूरभ्रमरं कूजत्कोकिलसारसम् ॥ ७ ॥

क्रीडिष्यमाणस्तत्क्र्ष्णो भगवान्बलसंयुतः

वेणुं विरणयन्गोपैर्गोधनैः संवृतोऽविशत् ॥ ८ ॥

प्रवालबर्हस्तबक स्रग्धातुकृतभूषणाः

रामकृष्णादयो गोपा ननृतुर्युयुधुर्जगुः ॥ ९ ॥

कृष्णस्य नृत्यतः केचिज्जगुः केचिदवादयन्

वेणुपाणितलैः शृङ्गैः प्रशशंसुरथापरे ॥ १० ॥

गोपजातिप्रतिच्छन्ना देवा गोपालरूपिणौ

ईडिरे कृष्णरामौ च नटा इव नटं नृप ॥ ११ ॥

भ्रमणैर्लङ्घनैः क्षेपैरास्फोटनविकर्षणैः

चिक्रीडतुर्नियुद्धेन काकपक्षधरौ क्वचित् ॥ १२ ॥

क्वचिन्नृत्यत्सु चान्येषु गायकौ वादकौ स्वयम्

शशंसतुर्महाराज साधु साध्विति वादिनौ ॥ १३ ॥

क्वचिद्बिल्वैः क्वचित्कुम्भैः क्वचामलकमुष्टिभिः ॥

अस्पृश्यनेत्रबन्धाद्यैः क्वचिन्मृगखगेहया ॥ १४ ॥

क्वचिच्च दर्दुरप्लावैर्विविधैरुपहासकैः

कदाचित्स्यन्दोलिकया कर्हिचिन्नृपचेष्टया ॥ १५ ॥

एवं तौ लोकसिद्धाभिः क्रीडाभिश्चेरतुर्वने

नद्यद्रि द्रोणिकुञ्जेषु काननेषु सरःसु च ॥ १६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब आनन्दित स्वजन सम्बन्धियोंसे घिरे हुए एवं उनके मुखसे अपनी कीर्तिका गान सुनते हुए श्रीकृष्णने गोकुलमण्डित गोष्ठमें प्रवेश किया ॥ १ ॥ इस प्रकार अपनी योगमायासे ग्वालका-सा वेष बनाकर राम और श्याम व्रजमें क्रीडा कर रहे थे। उन दिनों ग्रीष्म ऋतु थी। यह शरीरधारियोंको बहुत प्रिय नहीं है ॥ २ ॥ परंतु वृन्दावनके स्वाभाविक गुणोंसे वहाँ वसन्तकी ही छटा छिटक रही थी। इसका कारण था, वृन्दावनमें परम मधुर भगवान्‌ श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और बलरामजी निवास जो करते थे ॥ ३ ॥ झींगुरोंकी तीखी झंकार झरनोंके मधुर झर-झरमें छिप गयी थी। उन झरनोंसे सदा-सर्वदा बहुत ठंडी जलकी फुहियाँ उड़ा करती थीं, जिनसे वहाँके वृक्षोंकी हरियाली देखते ही बनती थी ॥ ४ ॥ जिधर देखिये, हरी-हरी दूबसे पृथ्वी हरी-हरी हो रही है। नदी, सरोवर एवं झरनोंकी लहरोंका स्पर्श करके जो वायु चलती थी उसमें लाल-पीले-नीले तुरंतके खिले हुए, देरके खिले हुए कह्लार, उत्पल आदि अनेकों प्रकारके कमलोंका पराग मिला हुआ होता था। इस शीतल, मन्द और सुगन्ध वायुके कारण वनवासियोंको गर्मीका किसी प्रकारका क्लेश नहीं सहना पड़ता था। न दावाग्रिका ताप लगता था और न तो सूर्यका घाम ही ॥ ५ ॥ नदियोंमें अगाध जल भरा हुआ था। बड़ी-बड़ी लहरें उनके तटोंको चूम जाया करती थीं। वे उनके पुलिनोंसे टकरातीं और उन्हें स्वच्छ बना जातीं। उनके कारण आस-पासकी भूमि गीली बनी रहती और सूर्यकी अत्यन्त उग्र तथा तीखी किरणें भी वहाँकी पृथ्वी और हरी-भरी घासको नहीं सुखा सकती थीं; चारों ओर हरियाली छा रही थी ॥ ६ ॥ उस वनमें वृक्षोंकी पाँत-की- पाँत फूलोंसे लद रही थी। जहाँ देखिये, वहींसे सुन्दरता फूटी पड़ती थी। कहीं रंग-बिरंगे पक्षी चहक रहे हैं, तो कहीं तरह-तरहके हरिन चौकड़ी भर रहे हैं। कहीं मोर कूक रहे हैं, तो कहीं भौंरे गुंजार कर रहे हैं। कहीं कोयलें कुहक रही हैं, तो कहीं सारस अलग ही अपना अलाप छेड़े हुए हैं ॥ ७ ॥ ऐसा सुन्दर वन देखकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलरामजीने उसमें विहार करनेकी इच्छा की। आगे-आगे गौएँ चलीं, पीछे-पीछे ग्वालबाल और बीचमें अपने बड़े भाईके साथ बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण ॥ ८ ॥

 

राम, श्याम और ग्वालबालों ने नव पल्लवों, मोरपंखके गुच्छों, सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंके हारों और गेरू आदि रंगीन धातुओंसे अपनेको भाँति-भाँतिसे सजा लिया। फिर कोई आनन्दमें मग्र होकर नाचने लगा, तो कोई ताल ठोंककर कुश्ती लडऩे लगा और किसी-किसीने राग अलापना शुरू कर दिया ॥ ९ ॥ जिस समय श्रीकृष्ण नाचने लगते, उस समय कुछ ग्वालबाल गाने लगते और कुछ बाँसुरी तथा सिंगी बजाने लगते। कुछ हथेलीसे ही ताल देते, तो कुछ वाह-वाहकरने लगते ॥ १० ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय नट जैसे अपने नायक की प्रशंसा करते हैं, वैसे ही देवतालोग ग्वालबालों का रूप धारण करके वहाँ आते और गोपजातिमें जन्म लेकर छिपे हुए बलराम और श्रीकृष्णकी स्तुति करने लगते ॥ ११ ॥ घुँघराली अलकोंवाले श्याम और बलराम कभी एक- दूसरेका हाथ पकडक़र कुम्हार के चाककी तरह चक्कर काटतेघुमरी-परेता खेलते। कभी एक- दूसरेसे अधिक फाँद जानेकी इच्छासे कूदतेकूँड़ी डाकते, कभी कहीं होड़ लगाकर ढेले फेंकते, तो कभी ताल ठोंक-ठोंककर रस्साकसी करतेएक दल दूसरे दलके विपरीत रस्सी पकडक़र खींचता और कभी कहीं एक-दूसरेसे कुश्ती लड़ते-लड़ाते। इस प्रकार तरह-तरहके खेल खेलते ॥ १२ ॥ कहीं-कहीं जब दूसरे ग्वालबाल नाचने लगते तो श्रीकृष्ण और बलरामजी गाते या बाँसुरी, सिंगी आदि बजाते। और महाराज ! कभी-कभी वे वाह-वाहकहकर उनकी प्रशंसा भी करने लगते ॥ १३ ॥ कभी एक-दूसरे पर बेल, जायफल या आँवले के फल हाथमें लेकर फेंकते। कभी एक-दूसरेकी आँख बंद करके छिप जाते और वह पीछेसे ढूँढ़ताइस प्रकार आँखमिचौनी खेलते। कभी एक-दूसरेको छूनेके लिये बहुत दूर-दूरतक दौड़ते रहते और कभी पशु-पक्षियोंकी चेष्टाओंका अनुकरण करते ॥ १४ ॥ कहीं मेढकोंकी तरह फुदक-फुदककर चलते, तो कभी मुँह बना-बनाकर एक-दूसरेकी हँसी उड़ाते। कहीं रस्सियोंसे वृक्षोंपर झूला डालकर झूलते, तो कभी दो बालकोंको खड़ा कराकर उनकी बाँहोंके बलपर ही लटकने लगते। कभी किसी राजाकी नकल करने लगते ॥ १५ ॥ इस प्रकार राम और श्याम वृन्दावनकी नदी, पर्वत, घाटी, कुञ्ज, वन और सरोवरोंमें वे सभी खेल खेलते, जो साधारण बच्चे संसारमें खेला करते हैं ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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गुरुवार, 25 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

कालिय के कालियदह में आने की कथा तथा

भगवान्‌ का व्रजवासियों को दावानल से बचाना

 

कृष्णं ह्रदाद् विनिष्क्रान्तं दिव्यस्रग् गन्धवाससम् ।

महामणिगणाकीर्णं जाम्बूनदपरिष्कृतम् ॥ १३ ॥

उपलभ्योत्थिताः सर्वे लब्धप्राणा इवासवः ।

प्रमोदनिभृतात्मानो गोपाः प्रीत्याभिरेभिरे ॥ १४ ॥

यशोदा रोहिणी नन्दो गोप्यो गोपाश्च कौरव ।

कृष्णं समेत्य लब्धेहा आसन् लब्धमनोरथा ॥ १५ ॥

रामश्चाच्युतमालिङ्‌ग्य जहासास्यानुभाववित् ।

नगो गावो वृषा वत्सा लेभिरे परमां मुदम् ॥ १६ ॥

नन्दं विप्राः समागत्य गुरवः सकलत्रकाः ।

ऊचुस्ते कालियग्रस्तो दिष्ट्या मुक्तस्तवात्मजः ॥ १७ ॥

देहि दानं द्विजातीनां कृष्णनिर्मुक्तिहेतवे ।

नन्दः प्रीतमना राजन् गाः सुवर्णं तदादिशत् ॥ १८ ॥

यशोदापि महाभागा नष्टलब्धप्रजा सती ।

परिष्वज्याङ्‌कमारोप्य मुमोचाश्रुकलां मुहुः ॥ १९ ॥

तां रात्रिं तत्र राजेन्द्र क्षुत्तृड्भ्यां श्रमकर्षिताः ।

ऊषुर्व्रयौकसो गावः कालिन्द्या उपकूलतः ॥ २० ॥

तदा शुचिवनोद्‍भूतो दावाग्निः सर्वतो व्रजम् ।

सुप्तं निशीथ आवृत्य प्रदग्धुमुपचक्रमे ॥ २१ ॥

तत उत्थाय सम्भ्रान्ता दह्यमाना व्रजौकसः ।

कृष्णं ययुस्ते शरणं मायामनुजमीश्वरम् ॥ २२ ॥

कृष्ण कृष्ण महाभाग हे रामामितविक्रम ।

एष घोरतमो वह्निः तावकान् ग्रसते हि नः ॥ २३ ॥

सुदुस्तरान्नः स्वान् पाहि कालाग्नेः सुहृदः प्रभो ।

न शक्नुमः त्वच्चरणं संत्यक्तुं अकुतोभयम् ॥ २४ ॥

इत्थं स्वजनवैक्लव्यं निरीक्ष्य जगदीश्वरः ।

तं अग्निं अपिबत् तीव्रं अनंतोऽनन्त शक्तिधृक् ॥ २५ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इधर भगवान्‌ श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित हो उस कुण्डसे बाहर निकले ॥ १३ ॥ उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणोंको पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपोंका हृदय आनन्दसे भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नतासे अपने कन्हैयाको हृदयसे लगाने लगे ॥ १४ ॥ परीक्षित्‌ ! यशोदारानी, रोहिणीजी, नन्दबाबा, गोपी और गोपसभी श्रीकृष्णको पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया ॥ १५ ॥ बलरामजी तो भगवान्‌का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्णको हृदयसे लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़ेसब-के-सब आनन्दमग्र हो गये ॥ १६ ॥ गोपोंके कुलगुरु ब्राह्मणोंने अपनी पत्नियोंके साथ नन्दबाबाके पास आकर कहा—‘नन्दजी ! तुम्हारे बालकको कालिय नागने पकड़ लिया था। सो छूटकर आ गया। यह बड़े सौभाग्यकी बात है ! ॥ १७ ॥ श्रीकृष्णके मृत्युके मुखसे लौट आनेके उपलक्ष्यमें तुम ब्राह्मणोंको दान करो।परीक्षित्‌ ! ब्राह्मणोंकी बात सुनकर नन्दबाबाको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने बहुत-सा सोना और गौएँ ब्राह्मणोंको दान दीं ॥ १८ ॥ परमसौभाग्यवती देवी यशोदाने भी कालके गालसे बचे हुए अपने लालको गोदमें लेकर हृदयसे चिपका लिया। उनकी आँखोंसे आनन्दके आँसुओंकी बूँदें बार-बार टपकी पड़ती थीं ॥ १९ ॥

राजेन्द्र! व्रजवासी और गौएँ सब बहुत ही थक गये थे। ऊपरसे भूख-प्यास भी लग रही थी। इसलिये उस रात वे व्रजमें नहीं गये, वहीं यमुनाजीके तटपर सो रहे ॥ २० ॥ गर्मीके दिन थे, उधरका वन सूख गया था। आधी रातके समय उसमें आग लग गयी। उस आगने सोये हुए व्रजवासियोंको चारों ओरसे घेर लिया और वह उन्हें जलाने लगी ॥ २१ ॥ आगकी आँच लगनेपर व्रजवासी घबड़ाकर उठ खड़े हुए और लीला-मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शरणमें गये ॥ २२ ॥ उन्होंने कहा—‘प्यारे श्रीकृष्ण ! श्यामसुन्दर ! महाभाग्यवान् बलराम ! तुम दोनोंका बल-विक्रम अनन्त है। देखो, देखो, भयङ्कर आग तुम्हारे सगे-सम्बन्धी हम स्वजनोंको जलाना ही चाहती है ॥ २३ ॥ तुममें सब सामर्थ्य है। हम तुम्हारे सुहृद् हैं, इसलिये इस प्रलयकी अपार आग से हमें बचाओ। प्रभो ! हम मृत्युसे नहीं डरते, परंतु तुम्हारे अकुतोभय चरणकमल छोडऩे में हम असमर्थ हैं ॥ २४ ॥ भगवान्‌ अनन्त हैं; वे अनन्त शक्तियोंको धारण करते हैं, उन जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्णने जब देखा कि मेरे स्वजन इस प्रकार व्याकुल हो रहे हैं तब वे उस भयङ्कर आग को पी गये [*] ॥ २५ ॥

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[*] अग्नि-पान

 

१. मैं सबका दाह दूर करनेके लिये ही अवतीर्ण हुआ हूँ। इसलिये यह दाह दूर करना भी मेरा कर्तव्य है।

२. रामावतारमें श्रीजानकीजी को सुरक्षित रखकर अग्नि ने मेरा उपकार किया था। अब उसको अपने मुखमें स्थापित करके उसका सत्कार करना कर्तव्य है।

३. कार्यका कारण में लय होता है। भगवान्‌ के मुख से अग्नि प्रकट हुआमुखाद् अग्निरजायत। इसलिये भगवान्‌ ने उसे मुखमें ही स्थापित किया।

४. मुख के द्वारा अग्नि शान्त करके यह भाव प्रकट किया कि भव-दावाग्नि को शान्त करनेमें भगवान्‌ के मुख-स्थानीय ब्राह्मण ही समर्थ हैं।

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सत्रहवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

कालिय के कालियदह में आने की कथा तथा

भगवान्‌ का व्रजवासियों को दावानल से बचाना

 

श्रीराजोवाच ।

नागालयं रमणकं कस्मात् तत्याज कालियः ।

कृतं किं वा सुपर्णस्य तेनैकेनासमञ्जसम् ॥ १ ॥

 

श्रीशुक उवाच ।

उपहार्यैः सर्पजनैः मासि मासीह यो बलिः ।

वानस्पत्यो महाबाहो नागानां प्राङ्‌निरूपितः ॥ २ ॥

स्वं स्वं भागं प्रयच्छन्ति नागाः पर्वणि पर्वणि ।

गोपीथायात्मनः सर्वे सुपर्णाय महात्मने ॥ ३ ॥

विषवीर्य मदाविष्टः काद्रवेयस्तु कालियः ।

कदर्थीकृत्य गरुडं स्वयं तं बुभुजे बलिम् ॥ ४ ॥

तच्छ्रुत्वा कुपितो राजन् भगवान् भगवत्प्रियः ।

विजिघांसुर्महावेगः कालियं समुपाद्रवत् ॥ ५ ॥

तमापतन्तं तरसा विषायुधः

प्रत्यभ्ययाद् उच्छ्रितनैकमस्तकः ।

दद्‌भिः सुपर्णं व्यदशद् ददायुधः

कराल जिह्रोच्छ्वसितोग्र लोचनः ॥ ६ ॥

तं तार्क्ष्यपुत्रः स निरस्य मन्युमान्

प्रचण्डवेगो मधुसूदनासनः ।

पक्षेण सव्येन हिरण्यरोचिषा

जघान कद्रुसुतमुग्रविक्रमः ॥ ७ ॥

सुपर्णपक्षाभिहतः कालियोऽतीव विह्वलः ।

ह्रदं विवेश कालिन्द्याः तदगम्यं दुरासदम् ॥ ८ ॥

तत्रैकदा जलचरं गरुडो भक्ष्यमीप्सितम् ।

निवारितः सौभरिणा प्रसह्य क्षुधितोऽहरत् ॥ ९ ॥

मीनान् सुदुःखितान् दृष्ट्वा दीनान् मीनपतौ हते ।

कृपया सौभरिः प्राह तत्रत्यक्षेममाचरन् ॥ १० ॥

अत्र प्रविश्य गरुडो यदि मत्स्यान् स खादति ।

सद्यः प्राणैर्वियुज्येत सत्यमेतद् ब्रवीम्यहम् ॥ ११ ॥

तं कालियः परं वेद नान्यः कश्चन लेलिहः ।

अवात्सीद् गरुडाद् भीतः कृष्णेन च विवासितः ॥ १२ ॥

 

राजा परीक्षित्‌ने पूछाभगवन् ! कालिय नागने नागोंके निवासस्थान रमणक द्वीपको क्यों छोड़ा था ? और उस अकेले ने ही गरुडजीका कौन-सा अपराध किया था ? ॥ १ ॥

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! पूर्वकाल में गरुडजी को उपहारस्वरूप प्राप्त होनेवाले सर्पों ने यह नियम कर लिया था कि प्रत्येक मास में निर्दिष्ट वृक्षके नीचे गरुडको एक सर्प की भेंट दी जाय ॥ २ ॥ इस नियम के अनुसार प्रत्येक अमावस्या को सारे सर्प अपनी रक्षाके लिये महात्मा गरुडजी को अपना-अपना भाग देते रहते थे [*] ॥ ३ ॥ उन सर्पोंमें कद्रू का पुत्र कालिय नाग अपने विष और बलके घमंडसे मतवाला हो रहा था। उसने गरुडका तिरस्कार करके स्वयं तो बलि देना दूर रहादूसरे साँप जो गरुडको बलि देते, उसे भी खा लेता ॥ ४ ॥ परीक्षित्‌ ! यह सुनकर भगवान्‌के प्यारे पार्षद शक्तिशाली गरुडको बड़ा क्रोध आया। इसलिये उन्होंने कालिय नागको मार डालनेके विचारसे बड़े वेगसे उसपर आक्रमण किया ॥ ५ ॥ विषधर कालिय नागने जब देखा कि गरुड बड़े वेगसे मुझपर आक्रमण करने आ रहे हैं, तब वह अपने एक सौ एक फण फैलाकर डसनेके लिये उनपर टूट पड़ा। उसके पास शस्त्र थे केवल दाँत, इसलिये उसने दाँतोंसे गरुडको डस लिया। उस समय वह अपनी भयावनी जीभें लपलपा रहा था, उसकी साँस लंबी चल रही थी और आँखें बड़ी डरावनी जान पड़ती थीं ॥ ६ ॥ तार्क्ष्यनन्दन गरुड जी विष्णुभगवान्‌ के वाहन हैं और उनका वेग तथा पराक्रम भी अतुलनीय है। कालिय नाग की यह ढिठाई देखकर उनका क्रोध और भी बढ़ गया तथा उन्होंने उसे अपने शरीरसे झटककर फेंक दिया एवं अपने सुनहले बायें पंखसे कालिय नागपर बड़े जोरसे प्रहार किया ॥ ७ ॥ उनके पंखकी चोटसे कालिय नाग घायल हो गया। वह घबड़ाकर वहाँसे भगा और यमुनाजीके इस कुण्डमें चला आया। यमुनाजीका यह कुण्ड गरुडके लिये अगम्य था। साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे ॥ ८ ॥ इसी स्थानपर एक दिन क्षुधातुर गरुडने तपस्वी सौभरि के मना करनेपर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्य को बलपूर्वक पकडक़र खा लिया ॥ ९ ॥ अपने मुखिया मस्त्यराज के मारे जानेके कारण मछलियों को बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरिको बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्डमें रहनेवाले सब जीवोंकी भलाई के लिये गरुडको यह शाप दे दिया ॥ १० ॥ यदि गरुड फिर कभी इस कुण्डमें घुसकर मछलियोंको खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणोंसे हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌ ! महर्षि सौभरि के इस शापकी बात कालिय नाग के सिवा और कोई साँप नहीं जानता था। इसलिये वह गरुडके भयसे वहाँ रहने लगा था और अब भगवान्‌ श्रीकृष्णने उसे निर्भय करके वहाँसे रमणक द्वीप में भेज दिया ॥ १२ ॥

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[*] यह कथा इस प्रकार हैगरुडजीकी माता विनता और सर्पोंकी माता कद्रूमें परस्पर वैर था। माताका वैर स्मरण कर गरुडजी जो सर्प मिलता उसीको खा जाते। इससे व्याकुल होकर सब सर्प ब्रह्माजीकी शरणमें गये। तब ब्रह्माजीने यह नियम कर दिया कि प्रत्येक अमावस्याको प्रत्येक सर्पपरिवार बारी-बारीसे गरुडजीको एक सर्पकी बलि दिया करे।

 

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बुधवार, 24 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

 

कालिय पर कृपा

 

श्रीशुक उवाच ।

इत्याकर्ण्य वचः प्राह भगवान् कार्यमानुषः ।

नात्र स्थेयं त्वया सर्प समुद्रं याहि मा चिरम् ।

स्वज्ञात्यपत्यदाराढ्यो गोनृभिर्भुज्यतां नदी ॥ ६० ॥

य एतत् संस्मरेन् मर्त्यः तुभ्यं मदनुशासनम् ।

कीर्तयन् उभयोः सन्ध्योः न युष्मद् भयमाप्नुयात् ॥ ६१ ॥

योऽस्मिन् स्नात्वा मदाक्रीडे देवादीन् तर्पयेज्जलैः ।

उपोष्य मां स्मरन्नर्चेत् सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ६२ ॥

द्वीपं रमणकं हित्वा ह्रदमेतमुपाश्रितः ।

यद् भयात्स सुपर्णस्त्वां नाद्यान्मत्पाद लाञ्छितम् ॥ ६३ ॥

 

श्रीऋषिरुवाच ।

एवमुक्तो भगवता कृष्णेनाद्‌भुतकर्मणा ।

तं पूजयामास मुदा नागपत्‍न्यश्च सादरम् ॥ ६४ ॥

दिव्याम्बरस्रङ्‌ मणिभिः परार्ध्यैरपि भूषणैः ।

दिव्यगन्धानुलेपैश्च महत्योत्पलमालया ॥ ६५ ॥

पूजयित्वा जगन्नाथं प्रसाद्य गरुडध्वजम् ।

ततः प्रीतोऽभ्यनुज्ञातः परिक्रम्याभिवन्द्य तम् ॥ ६६ ॥

सकलत्रसुहृत्पुत्रो द्वीपमब्धेर्जगाम ह ।

तदैव सामृतजला यमुना निर्विषाभवत् ।

अनुग्रहाद् भगवतः क्रीडामानुषरूपिणः ॥ ६७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंकालियनाग की बात सुनकर लीला-मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा—‘सर्प ! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जातिभाई, पुत्र और स्त्रियोंके साथ शीघ्र ही यहाँसे समुद्रमें चला जा। अब गौएँ और मनुष्य यमुना-जलका उपभोग करें ॥ ६० ॥ जो मनुष्य दोनों समय तुझको दी हुई मेरी इस आज्ञाका स्मरण तथा कीर्तन करे, उसे साँपोंसे कभी भय न हो ॥ ६१ ॥ मैंने इस कालियदहमें क्रीड़ा की है। इसलिये जो पुरुष इसमें स्नान करके जलसे देवता और पितरोंका तर्पण करेगा, एवं उपवास करके मेरा स्मरण करता हुआ मेरी पूजा करेगावह सब पापोंसे मुक्त हो जायगा ॥ ६२ ॥ मैं जानता हूँ कि तू गरुडके भयसे रमणक द्वीप छोडक़र इस दहमें आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नोंसे अङ्कित हो गया है। इसलिये जा, अब गरुड तुझे खायेंगे नहीं ॥ ६३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंभगवान्‌ श्रीकृष्णकी एक-एक लीला अद्भुत है। उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियोंने आनन्दसे भरकर बड़े आदरसे उनकी पूजा की ॥ ६४ ॥ उन्होंने दिव्य वस्त्र, पुष्पमाला, मणि, बहुमूल्य आभूषण, दिव्य गन्ध, चन्दन और अति उत्तम कमलोंकी मालासे जगत्के स्वामी गरुडध्वज भगवान्‌ श्रीकृष्णका पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद बड़े प्रेम और आनन्दसे उनकी परिक्रमा की, वन्दना की और उनसे अनुमति ली। तब अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवोंके साथ रमणक द्वीपकी, जो समुद्रमें सर्पोंके रहनेका एक स्थान है, यात्रा की। लीला-मनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णकी कृपासे यमुनाजीका जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृतके समान मधुर हो गया ॥ ६५६७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे षोडशोऽध्यायः ॥ १६ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

 

कालिय पर कृपा

 

त्वं ह्यस्य जन्मस्थितिसंयमान् प्रभो

गुणैरनीहोऽकृत कालशक्तिधृक् ।

तत्तत् स्वभावान् प्रतिबोधयन् सतः

समीक्षयामोघविहार ईहसे ॥ ४९ ॥

तस्यैव तेऽमूस्तनवस्त्रिलोक्यां

शान्ता अशान्ता उत मूढयोनयः ।

शान्ताः प्रियास्ते ह्यधुनावितुं सतां

स्थातुश्च ते धर्मपरीप्सयेहतः ॥ ५० ॥

अपराधः सकृद् भर्त्रा सोढव्यः स्वप्रजाकृतः ।

क्षन्तुमर्हसि शान्तात्मम् मूढस्य त्वामजानतः ॥ ५१ ॥

अनुगृह्णीष्व भगवन् प्राणांस्त्यजति पन्नगः ।

स्त्रीणां नः साधुशोच्यानां पतिः प्राणः प्रदीयताम् ॥ ५२ ॥

विधेहि ते किङ्‌करीणां अनुष्ठेयं तवाज्ञया ।

यच्छ्रद्धयानुतिष्ठन् वै मुच्यते सर्वतो भयात् ॥ ५३ ॥

 

प्रभो ! यद्यपि कर्तापन न होनेके कारण आप कोई भी कर्म नहीं करते, निष्क्रिय हैंतथापि अनादि कालशक्तिको स्वीकार करके प्रकृतिके गुणोंके द्वारा आप इस विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकी लीला करते हैं। क्योंकि आपकी लीलाएँ अमोघ हैं। आप सत्यसङ्कल्प हैं। इसलिये जीवोंके संस्काररूपसे छिपे हुए स्वभावोंको अपनी दृष्टिसे जाग्रत् कर देते हैं ॥ ४९ ॥ त्रिलोकीमें तीन प्रकारकी योनियाँ हैंसत्त्वगुणप्रधान शान्त, रजोगुणप्रधान अशान्त और तमोगुणप्रधान मूढ़। वे सब-की-सब आपकी लीलामूर्तियाँ हैं। फिर भी इस समय आपको सत्त्वगुणप्रधान शान्तजन ही विशेष प्रिय हैं। क्योंकि आपका यह अवतार और ये लीलाएँ साधुजनोंकी रक्षा तथा धर्मकी रक्षा एवं विस्तारके लिये ही हैं ॥ ५० ॥ शान्तात्मन् ! स्वामीको एक बार अपनी प्रजाका अपराध सह लेना चाहिये। यह मूढ़ है, आपको पहचानता नहीं है, इसलिये इसे क्षमा कर दीजिये ॥ ५१ ॥ भगवन् ! कृपा कीजिये; अब यह सर्प मरने ही वाला है। साधुपुरुष सदासे ही हम अबलाओंपर दया करते आये हैं। अत: आप हमें हमारे प्राणस्वरूप पतिदेवको दे दीजिये ॥ ५२ ॥ हम आपकी दासी हैं। हमें आप आज्ञा दीजिये, आपकी क्या सेवा करें ? क्योंकि जो श्रद्धाके साथ आपकी आज्ञाओंका पालनआपकी सेवा करता है, वह सब प्रकारके भयोंसे छुटकारा पा जाता है ॥ ५३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌के चरणोंकी ठोकरोंसे कालिय नागके फण छिन्न-भिन्न हो गये थे। वह बेसुध हो रहा था। जब नागपत्नियोंने इस प्रकार भगवान्‌की स्तुति की, तब उन्होंने दया करके उसे छोड़ दिया ॥ ५४ ॥ धीरे-धीरे कालियनागकी इन्द्रियों और प्राणोंमें कुछ-कुछ चेतना आ गयी। वह बड़ी कठिनतासे श्वास लेने लगा और थोड़ी देरके बाद बड़ी दीनतासे हाथ जोडक़र भगवान्‌ श्रीकृष्णसे इस प्रकार बोला ॥ ५५ ॥

 

[कालिय नागने कहा—]नाथ ! हम जन्मसे ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनोंके बाद भी बदला लेनेवालेबड़े क्रोधी जीव हैं। जीवोंके लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसीके कारण संसारके लोग नाना प्रकारके दुराग्रहोंमें फँस जाते हैं ॥ ५६ ॥ विश्वविधाता ! आपने ही गुणोंके भेदसे इस जगत्  में नाना प्रकारके स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियोंका निर्माण किया है ॥ ५७ ॥ भगवन् ! आपकी ही सृष्टिमें हम सर्प भी हैं। हम जन्मसे ही बड़े क्रोधी होते हैं। हम इस मायाके चक्करमें स्वयं मोहित हो रहे हैं। फिर अपने प्रयत्नसे इस दुस्त्यज मायाका त्याग कैसे करें ॥ ५८ ॥ आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस मायाके कारण हैं। अब आप अपनी इच्छासेजैसा ठीक समझेंकृपा कीजिये या दण्ड दीजिये ॥ ५९ ॥

 

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




मंगलवार, 23 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सोलहवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

कालिय पर कृपा

 

नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने ।

भूतावासाय भूताय पराय परमात्मने ॥ ३९ ॥

ज्ञानविज्ञाननिधये ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये ।

अगुणायाविकाराय नमस्तेऽप्राकृताय च ॥ ४० ॥

कालाय कालनाभाय कालावयवसाक्षिणे ।

विश्वाय तदुपद्रष्ट्रे तत्कर्त्रे विश्वहेतवे ॥ ४१ ॥

भूतमात्रेन्द्रियप्राण मनोबुद्ध्याशयात्मने ।

त्रिगुणेनाभिमानेन गूढस्वात्मानुभूतये ॥ ४२ ॥

नमोऽनन्ताय सूक्ष्माय कूटस्थाय विपश्चिते ।

नानावादानुरोधाय वाच्यवाचक शक्तये ॥ ४३ ॥

नमः प्रमाणमूलाय कवये शास्त्रयोनये ।

प्रवृत्ताय निवृत्ताय निगमाय नमो नमः ॥ ४४ ॥

नमः कृष्णाय रामाय वसुदेवसुताय च ।

प्रद्युम्नायानिरुद्धाय सात्वतां पतये नमः ॥ ४५ ॥

नमो गुणप्रदीपाय गुणात्मच्छादनाय च ।

गुणवृत्त्युपलक्ष्याय गुणद्रष्टे स्वसंविदे ॥ ४६ ॥

अव्याकृतविहाराय सर्वव्याकृतसिद्धये ।

हृषीकेश नमस्तेऽस्तु मुनये मौनशीलिने ॥ ४७ ॥

परावरगतिज्ञाय सर्वाध्यक्षाय ते नमः ।

अविश्वाय च विश्वाय तद्द्रष्टेऽस्य च हेतवे ॥ ४८ ॥

 

प्रभो ! हम आपको प्रणाम करती हैं। आप अनन्त एवं अचिन्त्य ऐश्वर्यके नित्य निधि हैं। आप सबके अन्त:करणोंमें विराजमान होनेपर भी अनन्त हैं। आप समस्त प्राणियों और पदार्थोंके आश्रय तथा सब पदार्थोंके रूपमें भी विद्यमान हैं। आप प्रकृतिसे परे स्वयं परमात्मा हैं ॥ ३९ ॥ आप सब प्रकारके ज्ञान और अनुभवोंके खजाने हैं। आपकी महिमा और शक्ति अनन्त है। आपका स्वरूप अप्राकृतदिव्य चिन्मय है, प्राकृतिक गुणों एवं विकारोंका आप कभी स्पर्श ही नहीं करते। आप ही ब्रह्म हैं, हम आपको नमस्कार कर रही हैं ॥ ४० ॥ आप प्रकृतिमें क्षोभ उत्पन्न करनेवाले काल हैं, कालशक्तिके आश्रय हैं और कालके क्षण-कल्प आदि समस्त अवयवोंके साक्षी हैं। आप विश्वरूप होते हुए भी उससे अलग रहकर उसके द्रष्टा हैं। आप उसके बनानेवाले निमित्तकारण तो हैं ही, उसके रूपमें बननेवाले उपादानकारण भी हैं ॥ ४१ ॥ प्रभो ! पञ्चभूत, उनकी तन्मात्राएँ, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि और इन सबका खजाना चित्तये सब आप ही हैं। तीनों गुण और उनके कार्योंमें होनेवाले अभिमानके द्वारा आपने अपने साक्षात्कारको छिपा रखा है ॥ ४२ ॥ आप देश, काल और वस्तुओंकी सीमासे बाहर-अनन्त हैं। सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म और कार्य-कारणोंके समस्त विकारोंमें भी एकरस, विकाररहित और सर्वज्ञ हैं। ईश्वर हैं कि नहीं हैं, सर्वज्ञ हैं कि अल्पज्ञ इत्यादि अनेक मतभेदोंके अनुसार आप उन-उन मतवादियोंको उन्हीं-उन्हीं रूपोंमें दर्शन देते हैं। समस्त शब्दोंके अर्थके रूपमें तो आप हैं ही, शब्दोंके रूपमें भी हैं तथा उन दोनोंका सम्बन्ध जोडऩेवाली शक्ति भी आप ही हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४३ ॥ प्रत्यक्ष अनुमान आदि जितने भी प्रमाण हैं, उनको प्रमाणित करनेवाले मूल आप ही हैं। समस्त शास्त्र आपसे ही निकले हैं और आपका ज्ञान स्वत:सिद्ध है। आप ही मनको लगानेकी विधिके रूपमें और उसको सब कहींसे हटा लेनेकी आज्ञाके रूपमें प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग हैं। इन दोनोंके मूल वेद भी स्वयं आप ही हैं। हम आपको बार-बार नमस्कार करती हैं ॥ ४४ ॥ आप शुद्धसत्त्वमय वसुदेवके पुत्र वासुदेव, सङ्कर्षण एवं प्रद्युम्र और अनिरुद्ध भी हैं। इस प्रकार चतुव्र्यूहके रूपमें आप भक्तों तथा यादवोंके स्वामी हैं। श्रीकृष्ण ! हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४५ ॥ आप अन्त:करण और उसकी वृत्तियोंके प्रकाशक हैं और उन्हींके द्वारा अपने-आपको ढक रखते हैं। उन अन्त:करण और वृत्तियोंके द्वारा ही आपके स्वरूपका कुछ-कुछ संकेत भी मिलता है। आप उन गुणों और उनकी वृत्तियोंके साक्षी तथा स्वयंप्रकाश हैं। हम आपको नमस्कार करती हैं ॥ ४६ ॥ आप मूलप्रकृतिमें नित्य विहार करते रहते हैं। समस्त स्थूल और सूक्ष्म जगत्की सिद्धि आपसे ही होती है। हृषीकेश ! आप मननशील आत्माराम हैं। मौन ही आपका स्वभाव है। आपको हमारा नमस्कार है ॥ ४७ ॥ आप स्थूल, सूक्ष्म समस्त गतियोंके जाननेवाले तथा सबके साक्षी हैं। आप नामरूपात्मक विश्व- प्रपञ्चके निषेधकी अवधि तथा उसके अधिष्ठान होनेके कारण विश्वरूप भी हैं। आप विश्व के अध्यास तथा अपवाद के साक्षी हैं एवं अज्ञान के द्वारा उसकी सत्यत्वभ्रान्ति एवं स्वरूपज्ञान के द्वारा उसकी आत्यन्तिक निवृत्ति के भी कारण हैं । आपको हमारा नमस्कार है ॥४८ ॥

 

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