मंगलवार, 30 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

वेणुगीत

 

कृष्णं निरीक्ष्य वनितोत्सवरूपशीलं

श्रुत्वा च तत्क्वणितवेणु विविक्तगीतम् ।

देव्यो विमानगतयः स्मरनुन्नसारा

भ्रश्यत् प्रसूनकबरा मुमुहुर्विनीव्यः ॥ १२ ॥

गावश्च कृष्णमुखनिर्गतवेणुगीत

पीयूषमुत्तभितकर्णपुटैः पिबन्त्यः ।

शावाः स्नुतस्तनपयःकवलाः स्म तस्थुः

गोविन्दमात्मनि दृशाश्रुकलाः स्पृशन्त्यः ॥ १३ ॥

प्रायो बताम्ब विहगा मुनयो वनेऽस्मिन्

कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम् ।

आरुह्य ये द्रुमभुजान् रुचिरप्रवालान्

श्रृण्वत्यमीलितदृशो विगतान्यवाचः ॥ १४ ॥

नद्यस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीतम्

आवर्तलक्षित मनोभवभग्नवेगाः ।

आलिङ्‌गनस्थगितमूर्मिभुजैर्मुरारेः

गृह्णन्ति पादयुगलं कमलोपहाराः ॥ १५ ॥

दृष्ट्वाऽऽतपे व्रजपशून् सह रामगोपैः

सञ्चारयन्तमनु वेणुमुदीरयन्तम् ।

प्रेमप्रवृद्ध उदितः कुसुमावलीभिः

सख्युर्व्यधात् स्ववपुषाम्बुद आतपत्रम् ॥ १६ ॥

 

अरी सखी ! हरिनियों की तो बात ही क्या हैस्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनन्दित करनेवाले सौन्दर्य और शीलके खजाने श्रीकृष्णको देखती हैं और बाँसुरीपर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनती हैं, तब उनके चित्र- विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैंमूर्च्छित हो जाती हैं। यह कैसे मालूम हुआ सखी ? सुनो तो, जब उनके हृदयमें श्रीकृष्णसे मिलने की तीव्र आकाङ्क्षा जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं; उन्हें इस बातका भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियोंमें गुँथे हुए फूल पृथ्वीपर गिर रहे हैं। यहाँतक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीनपर गिर जाती है ॥ १२ ॥ अरी सखी ! तुम देवियोंकी बात क्या कह रही हो, इन गौओंको नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुखसे बाँसुरीमें स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानोंके दोने सँभाल लेती हैंखड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीतका रस लेने लगती हैं ? ऐसा क्यों होता है सखी ? अपने नेत्रोंके द्वारसे श्यामसुन्दरको हृदयमें ले जाकर वे उन्हें वहीं विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिङ्गन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू छलकने लगते हैं ! और उनके बछड़े, बछड़ोंकी तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायोंके थनोंसे अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं, तब मुँहमें लिया हुआ दूधका घूँट न उगल पाते हैं और न निगल पाते हैं। उनके हृदयमें भी होता है भगवान्‌ का संस्पर्श और नेत्रोंमें छलकते होते हैं आनन्दके आँसू। वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं ॥ १३ ॥ अरी सखी ! गौएँ और बछड़े तो हमारी घरकी वस्तु हैं। उनकी बात तो जाने ही दो। वृन्दावनके पक्षियोंको तुम नहीं देखती हो ! उन्हें पक्षी कहना ही भूल है ! सच पूछो तो उनमेंसे अधिकांश बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हैं। वे वृन्दावनके सुन्दर-सुन्दर वृक्षोंकी नयी और मनोहर कोंपलोंवाली डालियोंपर चुपचाप बैठ जाते हैं और आँखें बंद नहीं करते, निॢनमेष नयनोंसे श्रीकृष्णकी रूप-माधुरी तथा प्यारभरी चितवन देख-देखकर निहाल होते रहते हैं, तथा कानोंसे अन्य सब प्रकारके शब्दोंको छोडक़र केवल उन्हींकी मोहनी वाणी और वंशीका त्रिभुवनमोहन संगीत सुनते रहते हैं। मेरी प्यारी सखी ! उनका जीवन कितना धन्य है ! ॥ १४ ॥

 

अरी सखी ! देवता, गौओं और पक्षियोंकी बात क्यों करती हो ? वे तो चेतन हैं। इन जड नदियोंको नहीं देखतीं ? इनमें जो भँवर दीख रहे हैं, उनसे इनके हृदयमें श्यामसुन्दरसे मिलनेकी तीव्र आकाङ्क्षाका पता चलता है ? उसके वेगसे ही तो इनका प्रवाह रुक गया है। इन्होंने भी प्रेमस्वरूप श्रीकृष्णकी वंशीध्वनि सुन ली है। देखो, देखो ! ये अपनी तरङ्गोंके हाथोंसे उनके चरण पकडक़र कमलके फूलोंका उपहार चढ़ा रही हैं और उनका आलिङ्गन कर रही हैं; मानो उनके चरणोंपर अपना हृदय ही निछावर कर रही हैं ॥ १५ ॥ अरी सखी ! ये नदियाँ तो हमारी पृथ्वीकी, हमारे वृन्दावनकी वस्तुएँ हैं; तनिक इन बादलोंको भी देखो ! जब वे देखते हैं कि व्रजराजकुमार श्रीकृष्ण और बलरामजी ग्वालबालोंके साथ धूपमें गौएँ चरा रहे हैं और साथ-साथ बाँसुरी भी बजाते जा रहे हैं, तब उनके हृदयमें प्रेम उमड़ आता है। वे उनके ऊपर मँडऱाने लगते हैं और वे श्यामघन अपने सखा घनश्यामके ऊपर अपने शरीरको ही छाता बनाकर तान देते हैं। इतना ही नहीं सखी ! वे जब उनपर नन्हीं-नन्हीं फुहियोंकी वर्षा करने लगते हैं, तब ऐसा जान पड़ता है कि वे उनके ऊपर सुन्दर-सुन्दर श्वेत कुसुम चढ़ा रहे हैं। नहीं सखी, उनके बहाने वे तो अपना जीवन ही निछावर कर देते हैं ! ॥ १६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 29 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वेणुगीत

 

श्रीगोप्य ऊचुः ।

अक्षण्वतां फलमिदं न परं विदामः

सख्यः पशूननु विवेशयतोर्वयस्यैः ।

वक्त्रं व्रजेशसुतयोरनवेणुजुष्टं

यैर्वा निपीतमनुरक्त-कटाक्षमोक्षम् ॥ ७ ॥

चूतप्रवालबर्हस्तबक् उत्पलाब्ज

मालानुपृक्तपरिधान विचित्रवेशौ ।

मध्ये विरेजतुरलं पशुपालगोष्ठ्यां

रङ्‌गे यथा नटवरौ क्व च गायमानौ ॥ ८ ॥

गोप्यः किमाचरदयं कुशलं स्म वेणुः

दामोदराधरसुधामपि गोपिकानाम् ।

भुङ्‌क्ते स्वयं यदवशिष्टरसं ह्रदिन्यो

हृष्यत्त्वचोऽश्रु मुमुचुस्तरवो यथाऽऽर्याः ॥ ९ ॥

वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कीर्तिं

यद् देवकीसुतपदाम्बु जलब्धलक्ष्मि ।

गोविन्दवेणुमनु मत्तमयूरनृत्यं

प्रेक्ष्याद्रिसान्ववरतान्यसमस्तसत्त्वम् ॥ १० ॥

धन्याः स्म मूढमतयोऽपि हरिण्य एता

या नन्दनन्दनमुपात्त विचित्रवेशम् ।

आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसाराः

पूजां दधुर्विरचितां प्रणयावलोकैः ॥ ११ ॥

 

गोपियाँ आपसमें बातचीत करने लगींअरी सखी ! हमने तो आँखवालोंके जीवनकी और उनकी आँखोंकी बस, यहीइतनी ही सफलता समझी है; और तो हमें कुछ मालूम ही नहीं है। वह कौन-सा लाभ है ? वह यही है कि जब श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर बलराम ग्वाल- बालोंके साथ गायोंको हाँककर वनमें ले जा रहे हों या लौटाकर व्रजमें ला रहे हों, उन्होंने अपने अधरोंपर मुरली धर रखी हो और प्रेमभरी तिरछी चितवनसे हमारी ओर देख रहे हों, उस समय हम उनकी मुख-माधुरीका पान करती रहें ॥ ७ ॥ अरी सखी ! जब वे आमकी नयी कोंपलें, मोरोंके पंख, फूलोंके गुच्छे, रंग-बिरंगे कमल और कुमुदकी मालाएँ धारण कर लेते हैं, श्रीकृष्णके साँवरे शरीरपर पीताम्बर और बलरामके गोरे शरीरपर नीलाम्बर फहराने लगता है, तब उनका वेष बड़ा ही विचित्र बन जाता है। ग्वालबालोंकी गोष्ठीमें वे दोनों बीचोबीच बैठ जाते हैं और मधुर संगीतकी तान छेड़ देते हैं। मेरी प्यारी सखी ! उस समय ऐसा जान पड़ता है मानो दो चतुर नट रंग-मञ्चपर अभिनय कर रहे हों। मैं क्या बताऊँ कि उस समय उनकी कितनी शोभा होती है ॥ ८ ॥ अरी गोपियो ! यह वेणु पुरुष जातिका होनेपर भी पूर्वजन्ममें न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियोंकी अपनी सम्पत्तिदामोदरके अधरोंकी सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगोंके लिये थोड़ा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा। इस वेणुको अपने रससे सींचने- वाली ह्रदिनियाँ आज कमलोंके मिस रोमाञ्चित हो रही हैं और अपने वंशमें भगवत्प्रेमी सन्तानोंको देखकर श्रेष्ठ पुरुषोंके समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोडक़र आँखोंसे आनन्दाश्रु बहा रहे हैं ॥ ९ ॥

 

अरी सखी ! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोकतक पृथ्वीकी कीर्तिका विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्णके चरणकमलोंके चिह्नोंसे यह चिह्नित हो रहा है ! सखि ! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी मुरली बजाते हैं, तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वतकी चोटियोंपर विचरनेवाले सभी पशु-पक्षी चुपचापशान्त होकर खड़े रह जाते हैं। अरी सखी ! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, तब मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशीकी तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगोंके साथ नन्दनन्दनके पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखोंसे उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमलके समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्णके चरणोंपर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्णकी प्रेमभरी चितवनके द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।वास्तवमें उनका जीवन धन्य है ! (हम वृन्दावनकी गोपी होनेपर भी इस प्रकार उनपर अपनेको निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घरवाले कुढऩे लगते हैं। कितनी विडम्बना है !) ॥ १०-११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वेणुगीत

 

श्रीशुक उवाच ।

इत्थं शरत् स्वच्छजलं पद्माकरसुगन्धिना ।

न्यविशद् वायुना वातं स गोगोपालकोऽच्युतः ॥ १ ॥

कुसुमितवनराजिशुष्मिभृङ्‌ग

द्विजकुलघुष्टसरःसरिन्महीध्रम् ।

मधुपतिरवगाह्य चारयन् गाः

सहपशुपालबलश्चुकूज वेणुम् ॥ २ ॥

तद् व्रजस्त्रिय आश्रुत्य वेणुगीतं स्मरोदयम् ।

काश्चित् परोक्षं कृष्णस्य स्वसखीभ्योऽन्ववर्णयन् ॥ ३ ॥

तद् वर्णयितुमारब्धाः स्मरन्त्यः कृष्णचेष्टितम् ।

नाशकन् स्मरवेगेन विक्षिप्तमनसो नृप ॥ ४ ॥

बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं ।

बिभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम् ।

रन्ध्रान् वेणोरधरसुधयापूरयन् गोपवृन्दैः ।

वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः ॥ ५ ॥

इति वेणुरवं राजन् सर्वभूतमनोहरम् ।

श्रुत्वा व्रजस्त्रियः सर्वा वर्णयन्त्योऽभिरेभिरे ॥ ६ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शरद् ऋतुके कारण वह वन बड़ा सुन्दर हो रहा था। जल निर्मल था और जलाशयोंमें खिले हुए कमलोंकी सुगन्धसे सनकर वायु मन्द-मन्द चल रही थी। भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गौओं और ग्वालबालोंके साथ उस वनमें प्रवेश किया ॥ १ ॥ सुन्दर-सुन्दर पुष्पोंसे परिपूर्ण हरी-हरी वृक्ष-पंक्तियोंमें मतवाले भौंरे स्थान-स्थानपर गुनगुना रहे थे और तरह- तरहके पक्षी झुंड-के-झुंड अलग-अलग कलरव कर रहे थे, जिससे उस वनके सरोवर, नदियाँ और पर्वतसब-के-सब गूँजते रहते थे। मधुपति श्रीकृष्णने बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ उसके भीतर घुसकर गौओंको चराते हुए अपनी बाँसुरीपर बड़ी मधुर तान छेड़ी ॥ २ ॥ श्रीकृष्णकी वह वंशीध्वनि भगवान्‌ के प्रति प्रेमभावको, उनके मिलनकी आकाङ्क्षाको जगानेवाली थी। (उसे सुनकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे परिपूर्ण हो गया) वे एकान्तमें अपनी सखियोंसे उनके रूप, गुण और वंशीध्वनिके प्रभावका वर्णन करने लगीं ॥ ३ ॥ व्रजकी गोपियोंने वंशीध्वनिका माधुर्य आपसमें वर्णन करना चाहा तो अवश्य; परंतु वंशीका स्मरण होते ही उन्हें श्रीकृष्णकी मधुर चेष्टाओंकी, प्रेमपूर्ण चितवन, भौंहोंके इशारे और मधुर मुसकान आदिकी याद हो आयी। उनकी भगवान्‌से मिलनेकी आकाङ्क्षा और भी बढ़ गयी। उनका मन हाथसे निकल गया। वे मन-ही-मन वहाँ पहुँच गयीं, जहाँ श्रीकृष्ण थे। अब उनकी वाणी बोले कैसे ? वे उसके वर्णनमें असमर्थ हो गयीं ॥ ४ ॥ (वे मन-ही-मन देखने लगीं कि) श्रीकृष्ण ग्वालबालोंके साथ वृन्दावनमें प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिरपर मयूरपिच्छ है और कानोंपर कनेरके पीले-पीले पुष्प; शरीरपर सुनहला पीताम्बर और गलेमें पाँच प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी बनी वैजयन्ती माला है। रंगमञ्चपर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरीके छिद्रोंको वे अपने अधरामृतसे भर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्तिका गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठसे भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिह्नोंसे और भी रमणीय बन गया है ॥ ५ ॥ परीक्षित्‌ ! यह वंशीध्वनि जड, चेतनसमस्त भूतोंका मन चुरा लेती है। गोपियोंने उसे सुना और सुनकर उसका वर्णन करने लगीं। वर्णन करते-करते वे तन्मय हो गयीं और श्रीकृष्णको पाकर आलिङ्गन करने लगीं ॥ ६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 28 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वर्षा और शरद् ऋतु का वर्णन

 

एवं वनं तद् वर्षिष्ठं पक्वखर्जुर जम्बुमत् ।

गोगोपालैर्वृतो रन्तुं सबलः प्राविशद् हरिः ॥ २५ ॥

धेनवो मन्दगामिन्य ऊधोभारेण भूयसा ।

ययुर्भगवताऽऽहूता द्रुतं प्रीत्या स्नुतस्तनीः ॥ २६ ॥

वनौकसः प्रमुदिता वनराजीर्मधुच्युतः ।

जलधारा गिरेर्नादाद् आसन्ना ददृशे गुहाः ॥ २७ ॥

क्वचिद् वनस्पतिक्रोडे गुहायां चाभिवर्षति ।

निर्विश्य भगवान् रेमे कन्दमूलफलाशनः ॥ २८ ॥

दध्योदनं समानीतं शिलायां सलिलान्तिके ।

सम्भोजनीयैर्बुभुजे गोपैः सङ्‌कर्षणान्वितः ॥ २९ ॥

शाद्वलोपरि संविश्य चर्वतो मीलितेक्षणान् ।

तृप्तान् वृषा वत्सतरान् गाश्च स्वोधोभरश्रमाः ॥ ३० ॥

प्रावृट्‌श्रियं च तां वीक्ष्य सर्वभूतमुदावहाम् ।

भगवान् पूजयांचक्रे आत्मशक्त्युपबृंहिताम् ॥ ३१ ॥

एवं निवसतोस्तस्मिन् रामकेशवयोर्व्रजे ।

शरत् समभवद् व्यभ्रा स्वच्छाम्ब्वपरुषानिला ॥ ३२ ॥

शरदा नीरजोत्पत्त्या नीराणि प्रकृतिं ययुः ।

भ्रष्टानामिव चेतांसि पुनर्योगनिषेवया ॥ ३३ ॥

व्योम्नोऽब्भ्रं भूतशाबल्यं भुवः पङ्‌कमपां मलम् ।

शरत् जहाराश्रमिणां कृष्णे भक्तिर्यथाशुभम् ॥ ३४ ॥

सर्वस्वं जलदा हित्वा विरेजुः शुभ्रवर्चसः ।

यथा त्यक्तैषणाः शान्ता मुनयो मुक्तकिल्बिषाः ॥ ३५ ॥

गिरयो मुमुचुस्तोयं क्वचिन्न मुमुचुः शिवम् ।

यथा ज्ञानामृतं काले ज्ञानिनो ददते न वा ॥ ३६ ॥

नैवाविदन् क्षीयमाणं जलं गाधजलेचराः ।

यथाऽऽयुरन्वहं क्षय्यं नरा मूढाः कुटुम्बिनः ॥ ३७ ॥

गाधवारिचरास्तापं अविन्दन् शरदर्कजम् ।

यथा दरिद्रः कृपणः कुटुम्ब्यविजितेन्द्रियः ॥ ३८ ॥

शनैः शनैर्जहुः पङ्‌कं स्थलान्यामं च वीरुधः ।

यथाहंममतां धीराः शरीराद् विष्वनात्मसु ॥ ३९ ॥

निश्चलाम्बुरभूत् तूष्णीं समुद्रः शरदागमे ।

आत्मनि उपरते सम्यङ्‌ मुनिर्व्युपरतागमः ॥ ४० ॥

केदारेभ्यस्त्वपोऽगृह्णन् कर्षका दृढसेतुभिः ।

यथा प्राणैः स्रवज्ज्ञानं तन्निरोधेन योगिनः ॥ ४१ ॥

शरदर्कांशुजांस्तापान् भूतानां उडुपोऽहरत् ।

देहाभिमानजं बोधो मुकुन्दो व्रजयोषिताम् ॥ ४२ ॥

खमशोभत निर्मेघं शरद् विमलतारकम् ।

सत्त्वयुक्तं यथा चित्तं शब्दब्रह्मार्थदर्शनम् ॥ ४३ ॥

अखण्डमण्डलो व्योम्नि रराजोडुगणैः शशी ।

यथा यदुपतिः कृष्णो वृष्णिचक्रावृतो भुवि ॥ ४४ ॥

आश्लिष्य समशीतोष्णं प्रसून वनमारुतम् ।

जनास्तापं जहुर्गोप्यो न कृष्णहृतचेतसः ॥ ४५ ॥

गावो मृगाः खगा नार्यः पुष्पिण्यः शरदाभवन् ।

अन्वीयमानाः स्ववृषैः फलैरीशक्रिया इव ॥ ४६ ॥

उदहृष्यन् वारिजानि सूर्योत्थाने कुमुद्‌ विना ।

राज्ञा तु निर्भया लोका यथा दस्यून् विना नृप ॥ ४७ ॥

पुरग्रामेष्वाग्रयणैः इन्द्रियैश्च महोत्सवैः ।

बभौ भूः पक्वसस्याढ्या कलाभ्यां नितरां हरेः ॥ ४८ ॥

वणिङ्‌मुनि नृपस्नाता निर्गम्यार्थान् प्रपेदिरे ।

वर्षरुद्धा यथा सिद्धाः स्वपिण्डान् काल आगते ॥ ४९ ॥

 

वर्षा ऋतुमें वृन्दावन इसी प्रकार शोभायमान और पके हुए खजूर तथा जामुनोंसे भर रहा था। उसी वनमें विहार करनेके लिये श्याम और बलरामने ग्वालबाल और गौओंके साथ प्रवेश किया ॥ २५ ॥ गौएँ अपने थनोंके भारी भारके कारण बहुत ही धीरे-धीरे चल रही थीं। जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण उनका नाम लेकर पुकारते, तब वे प्रेमपरवश होकर जल्दी-जल्दी दौडऩे लगतीं। उस समय उनके थनोंसे दूधकी धारा गिरती जाती थी ॥ २६ ॥ भगवान्‌ने देखा कि वनवासी भील और भीलनियाँ आनन्दमग्र हैं। वृक्षोंकी पंक्तियाँ मधुधारा उँड़ेल रही हैं। पर्वतोंसे झर-झर करते हुए झरने झर रहे हैं। उनकी आवाज बड़ी सुरीली जान पड़ती है और साथ ही वर्षा होनेपर छिपनेके लिये बहुत-सी गुफाएँ भी हैं ॥ २७ ॥ जब वर्षा होने लगती, तब श्रीकृष्ण कभी किसी वृक्षकी गोदमें या खोडऱमें जा छिपते। कभी-कभी किसी गुफामें ही जा बैठते और कभी कन्दमूल-फल खाकर ग्वालबालोंके साथ खेलते रहते ॥ २८ ॥ कभी जलके पास ही किसी चट्टानपर बैठ जाते और बलरामजी तथा ग्वालबालोंके साथ मिलकर घरसे लाया हुआ दही-भात दाल-शाक आदिके साथ खाते ॥ २९ ॥ वर्षा ऋतुमें बैल, बछड़े और थनोंके भारी भारसे थकी हुई गौएँ थोड़ी ही देरमें भरपेट घास चर लेतीं और हरी-हरी घासपर बैठकर ही आँख मूँदकर जुगाली करती रहतीं। वर्षा ऋतुकी सुन्दरता अपार थी। वह सभी प्राणियोंको सुख पहुँचा रही थी। इसमें सन्देह नहीं कि वह ऋतु, गाय, बैल, बछड़ेसब-के-सब भगवान्‌की लीलाके ही विलास थे। फिर भी उन्हें देखकर भगवान्‌ बहुत प्रसन्न होते और बार-बार उनकी प्रशंसा करते ॥ ३०-३१ ॥

इस प्रकार श्याम और बलराम बड़े आनन्दसे व्रजमें निवास कर रहे थे। इसी समय वर्षा बीतनेपर शरद् ऋतु आ गयी। अब आकाशमें बादल नहीं रहे, जल निर्मल हो गया, वायु बड़ी धीमी गतिसे चलने लगी ॥ ३२ ॥ शरद् ऋतुमें कमलोंकी उत्पत्तिसे जलाशयोंके जलने अपनी सहज स्वच्छता प्राप्त कर लीठीक वैसे ही, जैसे योगभ्रष्ट पुरुषोंका चित्त फिरसे योगका सेवन करनेसे निर्मल हो जाता है ॥ ३३ ॥ शरद् ऋतुने आकाशके बादल, वर्षा-कालके बढ़े हुए जीव, पृथ्वीकी कीचड़ और जलके मटमैलेपनको नष्ट कर दियाजैसे भगवान्‌ की भक्ति ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासियोंके सब प्रकारके कष्टों और अशुभोंका झटपट नाश कर देती है ॥ ३४ ॥ बादल अपने सर्वस्व जलका दान करके उज्ज्वल कान्तिसे सुशोभित होने लगेठीक वैसे ही, जैसे लोक-परलोक, स्त्री-पुत्र और धन-सम्पत्तिसम्बन्धी चिन्ता और कामनाओंका परित्याग कर देनेपर संसारके बन्धनसे छूटे हुए परम शान्त संन्यासी शोभायमान होते हैं ॥ ३५ ॥ अब पर्वतोंसे कहीं-कहीं झरने झरते थे और कहीं-कहीं वे अपने कल्याणकारी जलको नहीं भी बहाते थेजैसे ज्ञानी पुरुष समयपर अपने अमृतमय ज्ञानका दान किसी अधिकारीको कर देते हैं और किसी-किसीको नहीं भी करते ॥ ३६ ॥ छोटे-छोटे गड्ढोंमें भरे हुए जलके जलचर यह नहीं जानते कि इस गड्ढेका जल दिन-पर-दिन सूखता जा रहा हैजैसे कुटुम्बके भरण-पोषणमें भूले हुए मूढ़ यह नहीं जानते कि हमारी आयु क्षण-क्षण क्षीण हो रही है ॥ ३७ ॥ थोड़े जलमें रहनेवाले प्राणियोंको शरत्कालीन सूर्यकी प्रखर किरणोंसे बड़ी पीड़ा होने लगीजैसे अपनी इन्द्रियोंके वशमें रहनेवाले कृपण एवं दरिद्र कुटुम्बीको तरह-तरहके ताप सताते ही रहते हैं ॥ ३८ ॥ पृथ्वी धीरे-धीरे अपना कीचड़ छोडऩे लगी और घास-पात धीरे-धीरे अपनी कचाई छोडऩे लगेठीक वैसे ही, जैसे विवेकसम्पन्न साधक धीरे-धीरे शरीर आदि अनात्म पदार्थोंमेंसे यह मैं हूँ और यह मेरा हैयह अहंता और ममता छोड़ देते हैं ॥ ३९ ॥ शरद् ऋतुमें समुद्रका जल स्थिर, गम्भीर और शान्त हो गयाजैसे मनके नि:संकल्प हो जानेपर आत्माराम पुरुष कर्मकाण्डका झमेला छोडक़र शान्त हो जाता है ॥ ४० ॥ किसान खेतोंकी मेड़ मजबूत करके जलका बहना रोकने लगे-जैसे योगीजन अपनी इन्द्रियोंको विषयोंकी ओर जानेसे रोककर, प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञानकी रक्षा करते हैं ॥ ४१ ॥ शरद् ऋतुमें दिनके समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगोंको बहुत कष्ट होता; परंतु चन्द्रमा रात्रिके समय लोगोंका सारा सन्ताप वैसे ही हर लेतेजैसे देहाभिमानसे होनेवाले दु:खको ज्ञान और भगवद्विरहसे होनेवाले गोपियोंके दु:खको श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं ॥ ४२ ॥ जैसे वेदोंके अर्थको स्पष्टरूपसे जाननेवाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद् ऋतुमें रातके समय मेघोंसे रहित निर्मल आकाश तारोंकी ज्योतिसे जगमगाने लगा ॥ ४३ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे पृथ्वीतलमें यदुवंशियोंके बीच यदुपति भगवान्‌ श्रीकृष्णकी शोभा होती है, वैसे ही आकाशमें तारोंके बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा ॥ ४४ ॥ फूलोंसे लदे हुए वृक्ष और लताओंमें होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम। उस वायुके स्पर्शसे सब लोगोंकी जलन तो मिट जाती, परंतु गोपियोंकी जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथमें नहीं था, श्रीकृष्णने उसे चुरा लिया था ॥ ४५ ॥ शरद् ऋतुमें गौएँ, हरिनियाँ, चिडिय़ाँ और नारियाँ ऋतुमतीसन्तानोत्पत्तिकी कामनासे युक्त हो गयीं तथा साँड़, हरिन, पक्षी और पुरुष उनका अनुसरण करने लगेठीक वैसे ही, जैसे समर्थ पुरुषके द्वारा की हुई क्रियाओंका अनुसरण उनके फल करते हैं ॥ ४६ ॥ परीक्षित्‌ ! जैसे राजाके शुभागमनसे डाकू चोरोंके सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदयके कारण कुमुदिनी (कुँई या कोर्ईं) के अतिरिक्त और सभी प्रकारके कमल खिल गये ॥ ४७ ॥ उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवोंमें नवान्नप्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे। खेतोमें अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान्‌ श्रीकृष्ण तथा बलरामजीकी उपस्थितिसे अत्यन्त सुशोभित होने लगी ॥ ४८ ॥ साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आनेपर अपने देव आदि शरीरोंको प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा और स्नातकजो वर्षाके कारण एक स्थानपर रुके हुए थेवहाँसे चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काजमें लग गये ॥ ४९ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां

दशमस्कन्धे पूर्वार्धे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वर्षा और शरद् ऋतु का वर्णन

 

श्रीशुक उवाच ।

तयोस्तदद्‍भुतं कर्म दावाग्नेर्मोक्षमात्मनः ।

गोपाः स्त्रीभ्यः समाचख्युः प्रलम्बवधमेव च ॥ १ ॥

गोपवृद्धाश्च गोप्यश्च तदुपाकर्ण्य विस्मिताः ।

मेनिरे देवप्रवरौ कृष्णरामौ व्रजं गतौ ॥ २ ॥

ततः प्रावर्तत प्रावृट् सर्वसत्त्वसमुद्‍भवा ।

विद्योतमानपरिधिः विस्फूर्जित नभस्तला ॥ ३ ॥

सान्द्रनीलाम्बुदैर्व्योम सविद्युत् स्तनयित्‍नुभिः ।

अस्पष्टज्योतिः आच्छन्नं ब्रह्मेव सगुणं बभौ ॥ ४ ॥

अष्टौ मासान् निपीतं यद् भूम्याश्चोदमयं वसु ।

स्वगोभिर्मोक्तुमारेभे पर्जन्यः काल आगते ॥ ५ ॥

तडिद्वन्तो महामेघाः चण्ड श्वसन वेपिताः ।

प्रीणनं जीवनं ह्यस्य मुमुचुः करुणा इव ॥ ६ ॥

तपःकृशा देवमीढा आसीद् वर्षीयसी मही ।

यथैव काम्यतपसः तनुः सम्प्राप्य तत्फलम् ॥ ७ ॥

निशामुखेषु खद्योताः तमसा भान्ति न ग्रहाः ।

यथा पापेन पाखण्डा न हि वेदाः कलौ युगे ॥ ८ ॥

श्रुत्वा पर्जन्यनिनदं मण्डुकाः व्यसृजन् गिरः ।

तूष्णीं शयानाः प्राग् यद्वद् ब्राह्मणा नियमात्यये ॥ ९ ॥

आसन् उत्पथवाहिन्यः क्षुद्रनद्योऽनुशुष्यतीः ।

पुंसो यथास्वतंत्रस्य देहद्रविण सम्पदः ॥ १० ॥

हरिता हरिभिः शष्पैः इन्द्रगोपैश्च लोहिता ।

उच्छिलीन्ध्रकृतच्छाया नृणां श्रीरिव भूरभूत् ॥ ११ ॥

क्षेत्राणि शष्यसम्पद्‌भिः कर्षकाणां मुदं ददुः ।

मानिनां उनुतापं वै दैवाधीनं अजानताम् ॥ १२ ॥

जलस्थलौकसः सर्वे नववारिनिषेवया ।

अबिभ्रन् रुचिरं रूपं यथा हरिनिषेवया ॥ १३ ॥

सरिद्‌भी सङ्‌गतः सिन्धुः चुक्षोभ श्वसनोर्मिमान् ।

अपक्वयोगिनश्चित्तं कामाक्तं गुणयुग् यथा ॥ १४ ॥

गिरयो वर्षधाराभिः हन्यमाना न विव्यथुः ।

अभिभूयमाना व्यसनैः यथा अधोक्षजचेतसः ॥ १५ ॥

मार्गा बभूवुः सन्दिग्धाः तृणैश्छन्ना ह्यसंस्कृताः ।

नाभ्यस्यमानाः श्रुतयो द्विजैः कालहता इव ॥ १६ ॥

लोकबन्धुषु मेघेषु विद्युतश्चलसौहृदाः ।

स्थैर्यं न चक्रुः कामिन्यः पुरुषेषु गुणिष्विव ॥ १७ ॥

धनुर्वियति माहेन्द्रं निर्गुणं च गुणिन्यभात् ।

व्यक्ते गुणव्यतिकरे अगुणवान् पुरुषो यथा ॥ १८ ॥

न रराजोडुपश्छन्नः स्वज्योत्स्नाराजितैर्घनैः ।

अहंमत्या भासितया स्वभासा पुरुषो यथा ॥ १९ ॥

मेघागमोत्सवा हृष्टाः प्रत्यनन्दन् शिखण्डिनः ।

गृहेषु तप्ता निर्विण्णा यथाच्युतजनागमे ॥ २० ॥

पीत्वापः पादपाः पद्‌भिः आसन्नानात्ममूर्तयः ।

प्राक् क्षामास्तपसा श्रान्ता यथा कामानुसेवया ॥ २१ ॥

सरःस्वशान्तरोधःसु न्यूषुरङ्‌गापि सारसाः ।

गृहेष्वशान्तकृत्येषु ग्राम्या इव दुराशयाः ॥ २२ ॥

जलौघैर्निरभिद्यन्त सेतवो वर्षतीश्वरे ।

पाषण्डिनामसद्वादैः वेदमार्गाः कलौ यथा ॥ २३ ॥

व्यमुञ्चन् वान्वायुभिर्नुन्ना भूतेभ्योऽथामृतं घनाः ।

यथाऽऽशिषो विश्पतयः काले काले द्विजेरिताः ॥ २४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! ग्वालबालों ने घर पहुँचकर अपनी मा, बहिन आदि स्त्रियों से श्रीकृष्ण और बलराम ने जो कुछ अद्भुत कर्म किये थेदावानल से उनको बचाना, प्रलम्ब को मारना इत्यादिसबका वर्णन किया ॥ १ ॥ बड़े-बड़े बूढ़े गोप और गोपियाँ भी राम और श्यामकी अलौकिक लीलाएँ सुनकर विस्मित हो गयीं। वे सब ऐसा मानने लगे कि श्रीकृष्ण और बलरामके वेषमें कोई बहुत बड़े देवता ही व्रजमें पधारे हैं॥ २ ॥

इसके बाद वर्षा ऋतुका शुभागमन हुआ। इस ऋतुमें सभी प्रकारके प्राणियोंकी बढ़ती हो जाती है। उस समय सूर्य और चन्द्रमापर बार-बार प्रकाशमय मण्डल बैठने लगे। बादल, वायु, चमक, कडक़ आदिसे आकाश क्षुब्ध-सा दीखने लगा ॥ ३ ॥ आकाशमें नीले और घने बादल घिर आते, बिजली कौंधने लगती, बार-बार गड़-गड़ाहट सुनायी पड़ती; सूर्य, चन्द्रमा और तारे ढके रहते। इससे आकाशकी ऐसी शोभा होती, जैसे ब्रह्मस्वरूप होनेपर भी गुणोंसे ढक जानेपर जीवकी होती है ॥ ४ ॥ सूर्यने राजाकी तरह पृथ्वीरूप प्रजासे आठ महीनेतक जलका कर ग्रहण किया था, अब समय आनेपर वे अपनी किरण-करोंसे फिर उसे बाँटने लगे ॥ ५ ॥ जैसे दयालु पुरुष जब देखते हैं कि प्रजा बहुत पीडि़त हो रही है, तब वे दयापरवश होकर अपने जीवन-प्राणतक निछावर कर देते हैंवैसे ही बिजलीकी चमकसे शोभायमान घनघोर बादल तेज हवाकी प्रेरणासे प्राणियोंके कल्याणके लिये अपने जीवनस्वरूप जलको बरसाने लगे ॥ ६ ॥ जेठ-आषाढक़ी गर्मीसे पृथ्वी सूख गयी थी। अब वर्षाके जलसे सिंचकर वह फिर हरी-भरी हो गयीजैसे सकामभावसे तपस्या करते समय पहले तो शरीर दुर्बल हो जाता है, परंतु जब उसका फल मिलता है, तब हृष्ट-पुष्ट हो जाता है ॥ ७ ॥ वर्षाके सायंकालमें बादलोंसे घना अँधेरा छा जानेपर ग्रह और तारोंका प्रकाश तो नहीं दिखलायी पड़ता, परंतु जुगनू चमकने लगते हैंजैसे कलियुग में पापकी प्रबलता हो जानेसे पाखण्ड मतोंका प्रचार हो जाता है और वैदिक सम्प्रदाय लुप्त हो जाते हैं ॥ ८ ॥ जो मेढक पहले चुपचाप सो रहे थे, अब वे बादलोंकी गरज सुनकर टर्र-टर्र करने लगेजैसे नित्य-नियमसे निवृत्त होनेपर गुरुके आदेशानुसार ब्रह्मचारी लोग वेदपाठ करने लगते हैं ॥ ९ ॥ छोटी-छोटी नदियाँ, जो जेठ-आषाढ़में बिलकुल सूखनेको आ गयी थीं, वे अब उमड़-घुमडक़र अपने घेरेसे बाहर बहने लगींजैसे अजितेन्द्रिय पुरुषके शरीर और धन सम्पत्तियोंका कुमार्गमें उपयोग होने लगता है ॥ १० ॥ पृथ्वीपर कहीं-कहीं हरी-हरी घासकी हरियाली थी, तो कहीं-कहीं बीरबहूटियोंकी लालिमा और कहीं-कहीं बरसाती छत्तों (सफेद कुकुरमुत्तों) के कारण वह सफेद मालूम देती थी। इस प्रकार उसकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो किसी राजाकी रंग-बिरंगी सेना हो ॥ ११ ॥ सब खेत अनाजोंसे भरे-पूरे लहलहा रहे थे। उन्हें देखकर किसान तो मारे आनन्दके फूले न समाते थे, परंतु सब कुछ प्रारब्धके अधीन हैयह बात न जाननेवाले धनियोंके चित्तमें बड़ी जलन हो रही थी कि अब हम इन्हें अपने पंजेमें कैसे रख सकेंगे ॥ १२ ॥ नये बरसाती जलके सेवनसे सभी जलचर और थलचर प्राणियोंकी सुन्दरता बढ़ गयी थी, जैसे भगवान्‌की सेवा करनेसे बाहर और भीतरके दोनों ही रूप सुघड़ हो जाते हैं ॥ १३ ॥ वर्षा-ऋतुमें हवाके झोकोंसे समुद्र एक तो यों ही उत्ताल तरङ्गोंसे युक्त हो रहा था, अब नदियोंके संयोगसे वह और भी क्षुब्ध हो उठाठीक वैसे ही जैसे वासनायुक्त योगीका चित्त विषयोंका सम्पर्क होनेपर कामनाओंके उभारसे भर जाता है ॥ १४ ॥ मूसलधार वर्षाकी चोट खाते रहनेपर भी पर्वतोंको कोई व्यथा नहीं होती थीजैसे दु:खोंकी भरमार होनेपर भी उन पुरुषोंको किसी प्रकारकी व्यथा नहीं होती, जिन्होंने अपना चित्त भगवान्‌को ही समर्पित कर रखा है ॥ १५ ॥ जो मार्ग कभी साफ नहीं किये जाते थे, वे घाससे ढक गये और उनको पहचानना कठिन हो गयाजैसे जब द्विजाति वेदोंका अभ्यास नहीं करते, तब कालक्रमसे वे उन्हें भूल जाते हैं ॥ १६ ॥ यद्यपि बादल बड़े लोकोपकारी हैं, फिर भी बिजलियाँ उनमें स्थिर नहीं रहतींठीक वैसे ही, जैसे चपल अनुरागवाली कामिनी स्त्रियाँ गुणी पुरुषोंके पास भी स्थिरभावसे नहीं रहतीं ॥ १७ ॥ आकाश मेघोंके गर्जन-तर्जनसे भर रहा था। उसमें निर्गुण (बिना डोरीके) इन्द्र-धनुषकी वैसी ही शोभा हुई, जैसी सत्त्व-रज आदि गुणोंके क्षोभसे होनेवाले विश्वके बखेड़ेमें निर्गुण ब्रह्मकी ॥ १८ ॥ यद्यपि चन्द्रमा की उज्ज्वल चाँदनी से बादलों का पता चलता था, फिर भी उन बादलों ने ही चन्द्रमाको ढककर शोभाहीन भी बना दिया थाठीक वैसे ही, जैसे पुरुषके आभाससे आभासित होनेवाला अहंकार ही उसे ढककर प्रकाशित नहीं होने देता ॥ १९ ॥ बादलोंके शुभागमनसे मोरोंका रोम-रोम खिल रहा था, वे अपनी कुहक और नृत्यके द्वारा आनन्दोत्सव मना रहे थेठीक वैसे ही, जैसे गृहस्थीके जंजालमें फँसे हुए लोग, जो अधिकतर तीनों तापोंसे जलते और घबराते रहते हैं, भगवान्‌ के भक्तोंके शुभागमनसे आनन्दमग्न हो जाते हैं ॥ २० ॥ जो वृक्ष जेठ-आषाढ़में सूख गये थे, वे अब अपनी जड़ोंसे जल पीकर पत्ते, फूल तथा डालियोंसे खूब सज-धज गयेजैसे सकामभावसे तपस्या करनेवाले पहले तो दुर्बल हो जाते हैं, परंतु कामना पूरी होनेपर मोटे-तगड़े हो जाते हैं ॥ २१ ॥ परीक्षित्‌ ! तालाबोंके तट काँटेकीचड़ और जलके बहावके कारण प्राय: अशान्त ही रहते थे, परंतु सारस एक क्षणके लिये भी उन्हें नहीं छोड़ते थेजैसे अशुद्ध हृदयवाले विषयी पुरुष काम-धंधोंकी झंझटसे कभी छुटकारा नहीं पाते, फिर भी घरोंमें ही पड़े रहते हैं ॥ २२ ॥ वर्षा ऋतुमें इन्द्रकी प्रेरणासे मूसलधार वर्षा होती है, इससे नदियोंके बाँध और खेतोंकी मेड़ें टूट-फूट जाती हैंजैसे कलियुगमें पाखण्डियोंके तरह तरह के मिथ्या मतवादोंसे वैदिक मार्गकी मर्यादा ढीली पड़ जाती है ॥ २३ ॥ वायुकी प्रेरणासे घने बादल प्राणियोंके लिये अमृतमय जलकी वर्षा करने लगते हैंजैसे ब्राह्मणोंकी प्रेरणासे धनीलोग समय-समयपर दानके द्वारा प्रजाकी अभिलाषाएँ पूर्ण करते हैं ॥ २४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट११)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट११) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन पान...