शनिवार, 4 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०७)

 

चीरहरण

 

जब प्रेमी भक्त आत्मविस्मृत हो जाता है, तब उसका दायित्व प्रियतम भगवान्‌ पर होता है। अब मर्यादारक्षा के लिये गोपियोंको तो वस्त्र की आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उन्हें जिस वस्तु की आवश्यकता थी, वह मिल चुकी थी। परंतु श्रीकृष्ण अपने प्रेमीको मर्यादाच्युत नहीं होने देते। वे स्वयं वस्त्र देते हैं और अपनी अमृतमयी वाणीके द्वारा उन्हें विस्मृतिसे जगाकर फिर जगत् में लाते हैं। श्रीकृष्णने कहा—‘गोपियो ! तुम सती साध्वी हो। तुम्हारा प्रेम और तुम्हारी साधना मुझसे छिपी नहीं है। तुम्हारा संकल्प सत्य होगा। तुम्हारा यह संकल्पतुम्हारी यह कामना तुम्हें उस पदपर स्थित करती है, जो निस्सङ्कल्पता और निष्कामताका है। तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण, तुम्हारा समर्पण पूर्ण और आगे आनेवाली शारदीय रात्रियोंमें हमारा रमण पूर्ण होगा। भगवान्‌ ने साधना सफल होनेकी अवधि निर्धारित कर दी। इससे भी स्पष्ट है कि भगवान्‌ श्रीकृष्णमें किसी भी कामविकार की कल्पना नहीं थी। कामी पुरुषका चित्त वस्त्रहीन स्त्रियोंको देखकर एक क्षणके लिये भी कब वशमें रह सकता है।

 

एक बात बड़ीविलक्षण है। भगवान्‌ के सम्मुख जानेके पहले जो वस्त्र समर्पणकी पूर्णतामें बाधक हो रहे थे विक्षेपका काम कर रहे थेवही भगवान्‌ की कृपा, प्रेम, सान्निद्ध्य  और वरदान प्राप्त होनेके पश्चात् प्रसाद’-स्वरूप हो गये। इसका कारण क्या है ? इसका कारण है भगवान्‌ का सम्बन्ध। भगवान्‌ ने अपने हाथसे उन वस्त्रोंको उठाया था और फिर उन्हें अपने उत्तम अङ्ग कंधेपर रख लिया था। नीचेके शरीरमें पहननेकी साडिय़ाँ भगवान्‌ के कंधेपर चढक़रउनका संस्पर्श पाकर कितनी अप्राकृत रसात्मक हो गयीं, कितनी पवित्रकृष्णमय हो गयीं, इसका अनुमान कौन लगा सकता है। असलमें यह संसार तभीतक बाधक और विक्षेपजनक है, जबतक यह भगवान्‌ से सम्बन्ध और भगवान्‌ का प्रसाद नहीं हो जाता। उनके द्वारा प्राप्त होनेपर तो यह बन्धन ही मुक्तिस्वरूप हो जाता है। उनके सम्पर्कमें जाकर माया शुद्ध विद्या बन जाती है। संसार और उसके समस्त कर्म अमृतमय आनन्दरससे परिपूर्ण हो जाते हैं। तब बन्धनका भय नहीं रहता। कोई भी आवरण भगवान्‌के दर्शनसे वञ्चति नहीं रख सकता। नरक नरक नहीं रहता, भगवान्‌ का दर्शन होते रहनेके कारण वह वैकुण्ठ बन जाता है। इसी स्थितिमें पहुँचकर बड़े-बड़े साधक प्राकृत पुरुषके समान आचरण करते हुए-से दीखते हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्णकी अपनी होकर गोपियाँ पुन: वे ही वस्त्र धारण करती हैं अथवा श्रीकृष्ण वे ही वस्त्र धारण कराते हैं; परंतु गोपियोंकी दृष्टिमें अब ये वस्त्र वे वस्त्र नहीं हैं; वस्तुत: वे हैं भी नहींअब तो ये दूसरी वस्तु हो गये हैं। अब तो ये भगवान्‌के पावन प्रसाद हैं, पल-पलपर भगवान्‌का स्मरण करानेवाले भगवान्‌के परम सुन्दर प्रतीक हैं। इसीसे उन्होंने स्वीकार भी किया। उनकी प्रेममयी स्थिति मर्यादाके ऊपर थी, फिर भी उन्होंने भगवान्‌ की इच्छासे मर्यादा स्वीकार की । इस दृष्टिसे विचार करनेपर ऐसा जान पड़ता है कि भगवान्‌ की यह चीरहरण-लीला भी अन्य लीलाओंकी भाँति उच्चतम मर्यादासे परिपूर्ण है।

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीलाओंके सम्बन्धमें केवल वे ही प्राचीन आर्षग्रन्थ प्रमाण हैं, जिनमें उनकी लीलाका वर्णन हुआ है। उनमेंसे एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है, जिसमें श्रीकृष्णकी भगवत्ताका वर्णन न हो। श्रीकृष्ण स्वयं भगवान्‌ हैंयही बात सर्वत्र मिलती है। जो श्रीकृष्णको भगवान्‌ नहीं मानते, यह स्पष्ट है कि वे उन ग्रन्थोंको भी नहीं मानते। और जो उन ग्रन्थोंको ही प्रमाण नहीं मानते, वे उनमें वर्णित लीलाओंके आधारपर श्रीकृष्ण-चरित्रकी समीक्षा करनेका अधिकार भी नहीं रखते। भगवान्‌की लीलाओंको मानवीय चरित्रके समकक्ष रखना शास्त्र-दृष्टिसे एक महान् अपराध है और उसके अनुकरणका तो सर्वथा ही निषेध है। मानवबुद्धिजो स्थूलताओंसे ही परिवेष्टित हैकेवल जडके सम्बन्धमें ही सोच सकती है, भगवान्‌की दिव्य चिन्मयी लीलाके सम्बन्धमें कोई कल्पना ही नहीं कर सकती। वह बुद्धि स्वयं ही अपना उपहास करती है, जो समस्त बुद्धियोंके प्रेरक और बुद्धियोंसे अत्यन्त परे रहनेवाले परमात्माकी दिव्य लीलाको अपनी कसौटीपर कसती है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शुक्रवार, 3 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०६)

 

चीरहरण

 

श्रीकृष्ण गोपियोंके वस्त्रोंके रूपमें उनके समस्त संस्कारोंके आवरण अपने हाथमें लेकर पास ही कदम्बके वृक्षपर चढक़र बैठ गये। गोपियाँ जलमें थीं, वे जलमें सर्वव्यापक सर्वदर्शी भगवान्‌ श्रीकृष्णसे मानो अपनेको गुप्त समझ रही थींवे मानो इस तत्त्वको भूल गयी थीं कि श्रीकृष्ण जलमें ही नहीं हैं, स्वयं जलस्वरूप भी वही हैं। उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्णके सम्मुख जानेमें बाधक हो रहे थे; वे श्रीकृष्णके लिये सब कुछ भूल गयी थीं परंतु अबतक अपनेको नहीं भूली थीं। वे चाहतीं थीं केवल श्रीकृष्णको, परंतु उनके संस्कार बीचमें एक परदा रखना चाहते थे। प्रेम प्रेमी और प्रियतमके बीचमें एक पुष्पका भी परदा नहीं रखना चाहता। प्रेमकी प्रकृति है सर्वथा व्यवधानरहित, अबाध और अनन्त मिलन । जहाँतक अपना सर्वस्वविस्तार चाहे जितना हो, इसकाप्रेमकी ज्वालामें भस्म नहीं कर दिया जाता, वहाँतक प्रेम और समर्पण दोनों ही अपूर्ण रहते हैं। इसी अपूर्णताको दूर करते हुए, ‘शुद्ध भावसे प्रसन्न हुए’ (शुद्धभावप्रसादित:) श्रीकृष्णने कहा कि मुझसे अनन्य प्रेम करनेवाली गोपियो ! एक बार, केवल एक बार अपने सर्वस्वको और अपनेको भी भूलकर मेरे पास आओ तो सही। तुम्हारे हृदयमें जो अव्यक्त त्याग है, उसे एक क्षणके लिये व्यक्त तो करो। क्या तुम मेरे लिये इतना भी नहीं कर सकती हो ?’ गोपियोंने मानो कहा—‘श्रीकृष्ण ! हम अपनेको कैसे भूलें ? हमारी जन्म-जन्मकी धारणाएँ भूलने दें, तब न। हम संसारके अगाध जलमें आकण्ठमग्र हैं। जाड़ेका कष्ट भी है। हम आना चाहनेपर भी नहीं आ पाती हैं। श्यामसुन्दर ! प्राणोंके प्राण ! हमारा हृदय तुम्हारे सामने उन्मुक्त है। हम तुम्हारी दासी हैं। तुम्हारी आज्ञाओंका पालन करेंगी। परंतु हमें निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ।साधककी यह दशाभगवान्‌को चाहना और साथ ही संसारको भी न छोडऩा, संस्कारोंमें ही उलझे रहनामायाके परदेको बनाये रखना, बड़ी द्विविधाकी दशा है। भगवान्‌ यही सिखाते हैं कि संस्कारशून्य होकर, निरावरण होकर, मायाका परदा हटाकर आओ; मेरे पास आओ। अरे, तुम्हारा यह मोहका परदा तो मैंने ही छीन लिया है; तुम अब इस परदेके मोहमें क्यों पड़ी हो ? यह परदा ही तो परमात्मा और जीवके बीचमें बड़ा व्यवधान है; यह हट गया, बड़ा कल्याण हुआ। अब तुम मेरे पास आओ, तभी तुम्हारी चिरसंचित आकाङ्क्षाएँ पूरी हो सकेंगी।परमात्मा श्रीकृष्णका यह आह्वान, आत्माके आत्मा परम प्रियतमके मिलनका यह मधुर आमन्त्रण भगवत्कृपासे जिसके अन्तर्देशमें प्रकट हो जाता है, वह प्रेममें निमग्र होकर सब कुछ छोडक़र, छोडऩा भी भूलकर प्रियतम श्रीकृष्णके चरणोंमें दौड़ आता है । फिर न उसे अपने वस्त्रोंकी सुधि रहती है और न लोगोंका ध्यान ! न वह जगत्को देखता है न अपनेको। यह भगवत्प्रेमका रहस्य है। विशुद्ध और अनन्य भगवत्प्रेममें ऐसा होता ही है।

 

गोपियाँ आयीं, श्रीकृष्णके चरणोंके पास मूकभावसे खड़ी हो गयीं। उनका मुख लज्जावनत था। यत्किञ्चित् संस्कारशेष श्रीकृष्णके पूर्ण आभिमुख्यमें प्रतिबन्ध हो रहा था। श्रीकृष्ण मुसकराये। उन्होंने इशारेसे कहा—‘इतने बड़े त्यागमें यह संकोच कलङ्क है। तुम तो सदा निष्कलङ्का हो; तुम्हें इसका भी त्याग, त्यागके भावका भी त्यागत्यागकी स्मृतिका भी त्याग करना होगा।गोपियोंकी दृष्टि श्रीकृष्णके मुखकमलपर पड़ी। दोनों हाथ अपने-आप जुड़ गये और सूर्यमण्डलमें विराजमान अपने प्रियतम श्रीकृष्णसे ही उन्होंने प्रेमकी भिक्षा माँगी। गोपियोंके इसी सर्वस्व त्यागने, इसी पूर्ण समर्पणने, इसी उच्चतम आत्मविस्मृतिने उन्हें भगवान्‌ श्रीकृष्णके प्रेमसे भर दिया। वे दिव्य रसके अलौकिक अप्राकृत मधुके अनन्त समुद्रमें डूबने-उतराने लगीं। वे सब कुछ भूल गयीं, भूलनेवालेको भी भूल गयीं, उनकी दृष्टि में अब श्यामसुन्दर थे। बस, केवल श्यामसुन्दर थे।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०५)

 

चीरहरण

 

गोपियों की इस दिव्य लीला का जीवन उच्च श्रेणी के साधक के लिये आदर्श जीवन है। श्रीकृष्ण जीव के एकमात्र प्राप्तव्य साक्षात् परमात्मा हैं। हमारी बुद्धि, हमारी दृष्टि देहतक ही सीमित है। इसलिये हम श्रीकृष्ण और गोपियोंके प्रेमको भी केवल दैहिक तथा कामनाकलुषित समझ बैठते हैं। उस अपार्थिव और अप्राकृत लीलाको इस प्रकृतिके राज्यमें घसीट लाना हमारी स्थूल वासनाओंका हानिकर परिणाम है। जीवका मन भोगाभिमुख वासनाओंसे और तमोगुणी प्रवृत्तियोंसे अभिभूत रहता है । वह विषयोंमें ही इधरसे-उधर भटकता रहता है और अनेकों प्रकारके रोग-शोकसे आक्रान्त रहता है। जब कभी पुण्यकर्मोंके फल उदय होनेपर भगवान्‌की अचिन्त्य अहैतुकी कृपासे विचारका उदय होता है, तब जीव दु:खज्वालासे त्राण पानेके लिये और अपने प्राणोंको शान्तिमय धाममें पहुँचानेके लिये उत्सुक हो उठता है। वह भगवान्‌के लीलाधामोंकी यात्रा करता है, सत्सङ्ग प्राप्त करता है और उसके हृदयकी छटपटी उस आकाङ्क्षाको लेकर, जो अबतक सुप्त थी, जगकर बड़े वेगसे परमात्माकी ओर चल पड़ती है। चिरकालसे विषयोंका ही अभ्यास होनेके कारण बीच-बीचमें विषयोंके संस्कार उसे सताते हैं और बार-बार विक्षेपोंका सामना करना पड़ता है। परंतु भगवान्‌की प्रार्थना, कीर्तन-स्मरण, चिन्तन करते-करते चित्त सरस होने लगता है और धीरे-धीरे उसे भगवान्‌की सन्निधिका अनुभव भी होने लगता है। थोड़ा-सा रसका अनुभव होते ही चित्त बड़े वेगसे अन्तर्देशमें प्रवेश कर जाता है और भगवान्‌ मार्गदर्शकके रूपमें संसार-सागरसे पार ले जानेवाली नावपर केवटके रूपमें अथवा यों कहें कि साक्षात् चित्स्वरूप गुरुदेवके रूपमें प्रकट हो जाते हैं। ठीक उसी क्षण अभाव, अपूर्णता और सीमाका बन्धन नष्ट हो जाता है, विशुद्ध आनन्दविशुद्ध ज्ञानकी अनुभूति होने लगती है।

 

गोपियाँ, जो अभी-अभी साधनसिद्ध होकर भगवान्‌की अन्तरङ्ग लीलामें प्रविष्ट होनेवाली हैं, चिरकालसे श्रीकृष्णके प्राणोंमें अपने प्राण मिला देनेके लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धिलाभके समीप पहुँच चुकी हैं। अथवा जो नित्यसिद्धा होनेपर भी भगवान्‌की इच्छाके अनुसार उनकी दिव्य लीलामें सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनके हृदयके समस्त भावोंके एकान्त ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके हृदयमें बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालनेके लिये साधनामें लगाते हैं। उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियोंसे कितना प्रेम करते हैंयह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है, गद्गद हो जाता है।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



गुरुवार, 2 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

चीरहरण

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण यों तो लीलापुरुषोत्तम हैं; फिर भी जब अपनी लीला प्रकट करते हैं, तब मर्यादा का उल्लङ्घन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं। विधिका अतिक्रमण करके कोई साधनाके मार्गमें अग्रसर नहीं हो सकता। परंतु हृदय की निष्कपटता, सचाई और सच्चा प्रेम विधि के अतिक्रमण को भी शिथिल कर देता है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादाका उल्लङ्घन करके नग्न- स्नान करती थीं। यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान्‌के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था। भगवान्‌ने गोपियोंसे इसका प्रायश्चित्त भी करवाया। जो लोग भगवान्‌के प्रेमके नामपर विधिका उल्लङ्घन करते हैं, उन्हें यह प्रसङ्ग ध्यानसे पढऩा चाहिये और भगवान्‌ शास्त्रविधिका कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये।

 

वैधी भक्तिका पर्यवसान रागात्मिका भक्तिमें है और रागात्मिका भक्ति पूर्ण समर्पणके रूपमें परिणत हो जाती है। गोपियोंने वैधी भक्तिका अनुष्ठान किया, उनका हृदय तो रागात्मिका भक्तिसे भरा हुआ था ही । अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये। चीर-हरणके द्वारा वही कार्य सम्पन्न होता है।

 

गोपियोंने जिनके लिये लोक-परलोक, स्वार्थ-परमार्थ, जाति-कुल, पुरजन-परिजन और गुरुजनोंकी परवा नहीं की, जिनकी प्राप्तिके लिये ही उनका यह महान् अनुष्ठान है, जिनके चरणोंमें उन्होंने अपना सर्वस्व निछावर कर रखा है, जिनसे निरावरण मिलनकी ही एकमात्र अभिलाषा है, उन्हीं निरावरण रसमय भगवान्‌ श्रीकृष्णके सामने वे निरावरण भावसे न जा सकेंक्या यह उनकी साधनाकी अपूर्णता नहीं है ? है, अवश्य है और यह समझकर ही गोपियाँ निरावरणरूपसे उनके सामने गयीं।

 

श्रीकृष्ण चराचर प्रकृतिके एकमात्र अधीश्वर हैं; समस्त क्रियाओंके कर्ता, भोक्ता और साक्षी भी वही हैं। ऐसा एक भी व्यक्त या अव्यक्त पदार्थ नहीं है, जो बिना किसी परदेके उनके सामने न हो। वही सर्वव्यापक, अन्तर्यामी हैं। गोपियोंके, गोपोंके और निखिल विश्वके वही आत्मा हैं। उन्हें स्वामी, गुरु, पिता, माता, सखा, पति आदिके रूपमें मानकर लोग उन्हींकी उपासना करते हैं। गोपियाँ उन्हीं भगवान्‌को जान-बूझकर कि यही भगवान्‌ हैंयही योगेश्वरेश्वर, क्षराक्षरातीत पुरुषोत्तम हैंपतिके रूपमें प्राप्त करना चाहती थीं। श्रीमद्भागवतके दशम स्कन्धका श्रद्धाभावसे पाठ कर जानेपर यह बात बहुत ही स्पष्ट हो जाती है कि गोपियाँ श्रीकृष्णके वास्तविक स्वरूपको जानती थीं, पहचानती थीं। वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत और श्रीकृष्णके अन्तर्धान हो जानेपर गोपियोंके अन्वेषणमें यह बात कोई भी देख-सुन-समझ सकता है। जो लोग भगवान्‌को भगवान्‌ मानते हैं, उनसे सम्बन्ध रखते हैं, स्वामी-सुहृद् आदिके रूपमें उन्हें मानते हैं, उनके हृदयमें गोपियोंके इस लोकोत्तर माधुर्यसम्बन्ध और उसकी साधनाके प्रति शङ्का ही कैसे हो सकती है।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

चीरहरण

 

तासां विज्ञाय भगवान् स्वपादस्पर्शकाम्यया ।

धृतव्रतानां सङ्‌कल्पं आह दामोदरोऽबलाः ॥ २४ ॥

सङ्‌कल्पो विदितः साध्व्यो भवतीनां मदर्चनम् ।

मयानुमोदितः सोऽसौ सत्यो भवितुमर्हति ॥ २५ ॥

न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते ।

भर्जिता क्वथिता धाना प्रायो बीजाय नेशते ॥ २६ ॥

याताबला व्रजं सिद्धा मयेमा रंस्यथा क्षपाः ।

यदुद्दिश्य व्रतमिदं चेरुरार्यार्चनं सतीः ॥ २७ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने देखा कि उन कुमारियों ने उनके चरणकमलों के स्पर्श की कामना से ही व्रत धारण किया है और उनके जीवनका यही एकमात्र संकल्प है। तब गोपियोंके प्रेमके अधीन होकर ऊखलतकमें बँध जानेवाले भगवान्‌ ने उनसे कहा॥ २४ ॥ मेरी परम प्रेयसी कुमारियो ! मैं तुम्हारा यह संकल्प जानता हूँ कि तुम मेरी पूजा करना चाहती हो। मैं तुम्हारी इस अभिलाषाका अनुमोदन करता हूँ, तुम्हारा यह संकल्प सत्य होगा। तुम मेरी पूजा कर सकोगी ॥ २५ ॥ जिन्होंने अपना मन और प्राण मुझे समर्पित कर रखा है, उनकी कामनाएँ उन्हें सांसारिक भोगों की ओर ले जाने में समर्थ नहीं होतीं; ठीक वैसे ही, जैसे भुने या उबाले हुए बीज फिर अङ्कुर के रूप में उगनेके योग्य नहीं रह जाते ॥ २६ ॥ इसलिये कुमारियो ! अब तुम अपने-अपने घर लौट जाओ। तुम्हारी साधना सिद्ध हो गयी है। तुम आनेवाली शरद् ऋतु की रात्रियों में मेरे साथ विहार करोगी। सतियो ! इसी उद्देश्यसे तो तुमलोगों ने यह व्रत और कात्यायनी देवी की पूजा की थी’ [*] ॥ २७ ॥

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[*] चीर-हरणके प्रसंगको लेकर कई तरहकी शङ्काएँ की जाती हैं, अतएव इस सम्बन्धमें कुछ विचार करना आवश्यक है। वास्तवमें बात यह है कि सच्चिदानन्दघन भगवान्‌की दिव्य मधुर रसमयी लीलाओंका रहस्य जाननेका सौभाग्य बहुत थोड़े लोगोंको होता है। जिस प्रकार भगवान्‌ चिन्मय हैं, उसी प्रकार उनकी लीला भी चिन्मयी ही होती है। सच्चिदानन्द रसमय-साम्राज्यके जिस परमोन्नत स्तरमें यह लीला हुआ करती है। उसकी ऐसी विलक्षणता है कि कई बार तो ज्ञान-विज्ञानस्वरूप विशुद्ध चेतन परम ब्रह्ममें भी उसका प्राकट्य नहीं होता और इसीलिये ब्रह्म-साक्षात्कार को प्राप्त महात्मा लोग भी इस लीला-रसका समास्वादन नहीं कर पाते। भगवान्‌की इस परमोज्ज्वल दिव्य-रस-लीलाका यथार्थ प्रकाश तो भगवान्‌की स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्ति नित्यनिकुञ्जेश्वरी श्रीवृषभानुनन्दिनी श्रीराधाजी और तदङ्गभूता प्रेममयी गोपियोंके ही हृदयमें होता है और वे ही निरावरण होकर भगवान्‌ की इस परम अन्तरङ्ग रसमयी लीलाका समास्वादन करती हैं।

 

यों तो भगवान्‌ के जन्म-कर्मकी सभी लीलाएँ दिव्य होती हैं, परंतु व्रजकी लीला, व्रजमें निकुञ्जलीला और निकुञ्जमें भी केवल रसमयी गोपियोंके साथ होनेवाली मधुर लीला तो दिव्यातिदिव्य और सर्वगुह्यतम है। यह लीला सर्वसाधारणके सम्मुख प्रकट नहीं है, अन्तरङ्ग लीला है और इसमें प्रवेशका अधिकार केवल श्रीगोपीजनोंको ही है अस्तु,

दशम स्कन्धके इक्कीसवें अध्यायमें ऐसा वर्णन आया है कि भगवान्‌ की रूप-माधुरी, वंशीध्वनि और प्रेममयी लीलाएँ देख-सुनकर गोपियाँ मुग्ध हो गयीं। बाईसवें अध्यायमें उसी प्रेमकी पूर्णता प्राप्त करनेके लिये वे साधनमें लग गयी हैं। इसी अध्यायमें भगवान्‌ ने आकर उनकी साधना पूर्ण की है। यही चीर-हरणका प्रसङ्ग है।

 

गोपियाँ क्या चाहती थीं, यह बात उनकी साधनासे स्पष्ट है। वे चाहती थींश्रीकृष्णके प्रति पूर्ण आत्मसमर्पण, श्रीकृष्णके साथ इस प्रकार घुल-मिल जाना कि उनका रोम-रोम, मन-प्राण, सम्पूर्ण आत्मा केवल श्रीकृष्णमय हो जाय। शरत्-कालमें उन्होंने श्रीकृष्णकी वंशीध्वनिकी चर्चा आपसमें की थी, हेमन्तके पहले ही महीनेमें अर्थात् भगवान्‌के विभूतिस्वरूप मार्गशीर्षमें उनकी साधना प्रारम्भ हो गयी। विलम्ब उनके लिये असह्य था। जाड़ेके दिनमें वे प्रात:काल ही यमुना-स्नानके लिये जातीं, उन्हें शरीरकी परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिनें एक साथ ही जातीं, उनमें ईष्र्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वरसे श्रीकृष्णका नामकीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जातिवालोंका भय नहीं था। वे घरमें भी हविष्यान्नका ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्णके लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करती थीं। अपने इस कार्यको सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं। एक वाक्यमेंउन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान्‌के चरणोंमें सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणोंके स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो वस्तुत: उनके स्वामी थे ही। परंतु लीलाकी दृष्टिसे उनके समर्पणमें थोड़ी कमी थी। वे निरावरणरूपसे श्रीकृष्णके सामने नहीं जा रही थीं, उनमें थोड़ी झिझक थी; उनकी यही झिझक दूर करनेके लियेउनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करनेके लिये उनका आवरण भङ्ग कर देनेकी आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरूरी था और यही काम भगवान्‌ श्रीकृष्णने किया। इसीके लिये वे योगेश्वरोंके ईश्वर भगवान्‌ अपने मित्र ग्वालबालोंके साथ यमुनातटपर पधारे थे।

 

साधक अपनी शक्ति से, अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करनेवाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है, जब भगवान्‌ स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करनेवाले को भी स्वीकार करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य हैपूर्ण समर्पण की तैयारी। उसे पूर्ण तो भगवान्‌ ही करते हैं।

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



बुधवार, 1 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

चीरहरण

 

श्रीभगवानुवाच ।

भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ ।

अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीच्छन्तु शुचिस्मिताः ॥ १६ ॥

ततो जलाशयात् सर्वा दारिकाः शीतवेपिताः ।

पाणिभ्यां योनिमाच्छाद्य प्रोत्तेरुः शीतकर्शिताः ॥ १७ ॥

भगवानाहता वीक्ष्य शुद्ध भावप्रसादितः ।

स्कन्धे निधाय वासांसि प्रीतः प्रोवाच सस्मितम् ॥ १८ ॥

यूयं विवस्त्रा यदपो धृतव्रता

व्यगाहतैतत् तदु देवहेलनम् ।

बद्ध्वाञ्जलिं मूर्ध्न्यपनुत्तयेंऽहसः

कृत्वा नमोऽधो वसनं प्रगृह्यताम् ॥ १९ ॥

इत्यच्युतेनाभिहितं व्रजाबला

मत्वा विवस्त्राप्लवनं व्रतच्युतिम् ।

तत्पूर्तिकामास्तदशेषकर्मणां

साक्षात्कृतं नेमुरवद्यमृग् यतः ॥ २० ॥

तास्तथावनता दृष्ट्वा भगवान् देवकीसुतः ।

वासांसि ताभ्यः प्रायच्छत् कत्करुणस्तेन तोषितः ॥ २१ ॥

दृढं प्रलब्धास्त्रपया च हापिताः

प्रस्तोभिताः क्रीडनवच्च कारिताः ।

वस्त्राणि चैवापहृतान्यथाप्यमुं

ता नाभ्यसूयन् प्रियसङ्‌गनिर्वृताः ॥ २२ ॥

परिधाय स्ववासांसि प्रेष्ठसङ्‌गमसज्जिताः ।

गृहीतचित्ता नो चेलुः तस्मिन् लज्जायितेक्षणाः ॥ २३ ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने कहाकुमारियो ! तुम्हारी मुसकान पवित्रता और प्रेमसे भरी है। देखो, जब तुम अपनेको मेरी दासी स्वीकार करती हो और मेरी आज्ञाका पालन करना चाहती हो तो यहाँ आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो ॥ १६ ॥ परीक्षित्‌ ! वे कुमारियाँ ठंडसे ठिठुर रही थीं, काँप रही थीं। भगवान्‌ की ऐसी बात सुनकर वे अपने दोनों हाथोंसे गुप्त अङ्गोंको छिपाकर यमुनाजीसे बाहर निकलीं। उस समय ठंड उन्हें बहुत ही सता रही थी ॥ १७ ॥ उनके इस शुद्ध भावसे भगवान्‌ बहुत ही प्रसन्न हुए। उनको अपने पास आयी देखकर उन्होंने गोपियोंके वस्त्र अपने कंधेपर रख लिये और बड़ी प्रसन्नतासे मुसकराते हुए बोले॥ १८ ॥ अरी गोपियो ! तुमने जो व्रत लिया था, उसे अच्छी तरह निभाया हैइसमें सन्देह नहीं। परंतु इस अवस्थामें वस्त्रहीन होकर तुमने जलमें स्नान किया है, इससे तो जलके अधिष्ठातृदेवता वरुणका तथा यमुनाजीका अपराध हुआ है। अत: अब इस दोषकी शान्तिके लिये तुम अपने हाथ जोडक़र सिरसे लगाओ और उन्हें झुककर प्रणाम करो, तदनन्तर अपने-अपने वस्त्र ले जाओ ॥ १९ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्णकी बात सुनकर उन व्रजकुमारियोंने ऐसा ही समझा कि वास्तवमें वस्त्रहीन होकर स्नान करनेसे हमारे व्रतमें त्रुटि आ गयी। अत: उसकी निर्विघ्र पूर्तिके लिये उन्होंने समस्त कर्मोंके साक्षी श्रीकृष्णको नमस्कार किया। क्योंकि उन्हें नमस्कार करनेसे ही सारी त्रुटियों और अपराधोंका मार्जन हो जाता है ॥ २० ॥ जब यशोदानन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने देखा कि सब-की-सब कुमारियाँ मेरी आज्ञाके अनुसार प्रणाम कर रही हैं, तब वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उनके हृदयमें करुणा उमड़ आयी और उन्होंने उनके वस्त्र दे दिये ॥ २१ ॥ प्रिय परीक्षित्‌ ! श्रीकृष्णने कुमारियोंसे छलभरी बातें की, उनका लज्जा-संकोच छुड़ाया, हँसी की और उन्हें कठपुतलियोंके समान नचाया; यहाँतक कि उनके वस्त्रतक हर लिये। फिर भी वे उनसे रुष्ट नहीं हुर्ईं, उनकी इन चेष्टाओंको दोष नहीं माना, बल्कि अपने प्रियतमके सङ्ग से वे और भी प्रसन्न हुर्ईं ॥ २२ ॥ परीक्षित्‌ ! गोपियोंने अपने-अपने वस्त्र पहन लिये। परंतु श्रीकृष्णने उनके चित्तको इस प्रकार अपने वशमें कर रखा था कि वे वहाँसे एक पग भी न चल सकीं। अपने प्रियतमके समागमके लिये सजकर वे उन्हींकी ओर लजीली चितवनसे निहारती रहीं ॥ २३ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

चीरहरण

 

श्रीशुक उवाच -

हेमन्ते प्रथमे मासि नन्दव्रजकुमारिकाः ।

चेरुर्हविष्यं भुञ्जानाः कात्यायन्यर्चनव्रतम् ॥ १ ॥

आप्लुत्याम्भसि कालिन्द्या जलान्ते चोदितेऽरुणे ।

कृत्वा प्रतिकृतिं देवीं आनर्चुः नृप सैकतीम् ॥ २ ॥

गन्धैर्माल्यैः सुरभिभिः बलिभिर्धूपदीपकैः ।

उच्चावचैश्चोपहारैः प्रवालफल तण्डुलैः ॥ ३ ॥

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।

नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।

इति मन्त्रं जपन्त्यस्ताः पूजां चक्रुः कुमारिकाः ॥ ४ ॥

एवं मासं व्रतं चेरुः कुमार्यः कृष्णचेतसः ।

भद्रकालीं समानर्चुः भूयान्नन्दसुतः पतिः ॥ ५ ॥

ऊषस्युत्थाय गोत्रैः स्वैरन्योन्या बद्धबाहवः ।

कृष्णं उच्चैर्जगुर्यान्त्यः कालिन्द्यां स्नातुमन्वहम् ॥ ६ ॥

नद्याः कदाचिदागत्य तीरे निक्षिप्य पूर्ववत् ।

वासांसि कृष्णं गायन्त्यो विजह्रुः सलिले मुदा ॥ ७ ॥

भगवान् तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वरः ।

वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्मसिद्धये ॥ ८ ॥

तासां वासांस्युपादाय नीपमारुह्य सत्वरः ।

हसद्‌भिः प्रहसन् बालैः परिहासमुवाच ह ॥ ९ ॥

अत्रागत्याबलाः कामं स्वं स्वं वासः प्रगृह्यताम् ।

सत्यं ब्रवाणि नो नर्म यद्यूयं व्रतकर्शिताः ॥ १० ॥

न मयोदितपूर्वं वा अनृतं तदिमे विदुः ।

एकैकशः प्रतीच्छध्वं सहैवेति सुमध्यमाः ॥ ११ ॥

तस्य तत् क्ष्वेलितं दृष्ट्वा गोप्यः प्रेमपरिप्लुताः ।

व्रीडिताः प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययुः ॥ १२ ॥

एवं ब्रुवति गोविन्दे नर्मणाऽऽक्षिप्तचेतसः ।

आकण्ठमग्नाः शीतोदे वेपमानास्तमब्रुवन् ॥ १३ ॥

मानयं भोः कृथास्त्वां तु नन्दगोपसुतं प्रियम् ।

जानीमोऽङ्‌ग व्रजश्लाघ्यं देहि वासांसि वेपिताः ॥ १४ ॥

श्यामसुन्दर ते दास्यः करवाम तवोदितम् ।

देहि वासांसि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवाम हे ॥ १५ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! अब हेमन्त ऋतु आयी। उसके पहले ही महीनेमें अर्थात् मार्गशीर्षमें नन्दबाबाके व्रजकी कुमारियाँ कात्यायनी देवीकी पूजा और व्रत करने लगीं। वे केवल हविष्यान्न ही खाती थीं ॥ १ ॥ राजन् ! वे कुमारी कन्याएँ पूर्व दिशाका क्षितिज लाल होते-होते यमुनाजलमें स्नान कर लेतीं और तटपर ही देवीकी बालुकामयी मूर्ति बनाकर सुगन्धित चन्दन, फूलोंके हार, भाँति-भाँतिके नैवेद्य, धूप-दीप, छोटी-बड़ी भेंटकी सामग्री, पल्लव, फल और चावल आदिसे उनकी पूजा करतीं ॥ २-३ ॥ साथ ही हे कात्यायनी ! हे महामाये ! हे महायोगिनी ! हे सबकी एकमात्र स्वामिनी ! आप नन्दनन्दन श्रीकृष्णको हमारा पति बना दीजिये। देवि ! हम आपके चरणोंमें नमस्कार करती हैं।’—इस मन्त्रका जप करती हुए वे कुमारियाँ देवीकी आराधना करतीं ॥ ४ ॥ इस प्रकार उन कुमारियोंने, जिनका मन श्रीकृष्णपर निछावर हो चुका था, इस संकल्पके साथ एक महीनेतक भद्रकालीकी भलीभाँति पूजा की कि नन्दनन्दन श्यामसुन्दर ही हमारे पति हों॥ ५ ॥ वे प्रतिदिन उषाकालमें ही नाम ले-लेकर एक-दूसरी सखीको पुकार लेतीं और परस्पर हाथ-में-हाथ डालकर ऊँचे स्वरसे भगवान्‌ श्रीकृष्णकी लीला तथा नामोंका गान करती हुई यमुनाजलमें स्नान करनेके लिये जातीं ॥ ६ ॥

 

एक दिन सब कुमारियोंने प्रतिदिनकी भाँति यमुनाजीके तटपर जाकर अपने-अपने वस्त्र उतार दिये और भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुणोंका गान करती हुई बड़े आनन्दसे जल-क्रीडा करने लगीं ॥ ७ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण सनकादि योगियों और शङ्कर आदि योगेश्वरोंके भी ईश्वर हैं। उनसे गोपियोंकी अभिलाषा छिपी न रही। वे उनका अभिप्राय जानकर अपने सखा ग्वालबालोंके साथ उन कुमारियोंकी साधना सफल करनेके लिये यमुना तटपर गये ॥ ८ ॥ उन्होंने अकेले ही उन गोपियोंके सारे वस्त्र उठा लिये और बड़ी फुर्तीसे वे एक कदम्बके वृक्षपर चढ़ गये। साथी ग्वाल- बाल ठठा-ठठाकर हँसने लगे और स्वयं श्रीकृष्ण भी हँसते हुए गोपियोंसे हँसीकी बात कहने लगे ॥ ९ ॥ अरी कुमारियो ! तुम यहाँ आकर इच्छा हो तो अपने-अपने वस्त्र ले जाओ। मैं तुमलोगोंसे सच-सच कहता हूँ। हँसी बिलकुल नहीं करता। तुमलोग व्रत करते-करते दुबली हो गयी हो ॥ १० ॥ ये मेरे सखा ग्वालबाल जानते हैं कि मैंने कभी कोई झूठी बात नहीं कही है। सुन्दरियो ! तुम्हारी इच्छा हो तो अलग-अलग आकर अपने-अपने वस्त्र ले लो, या सब एक साथ ही आओ। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं है॥ ११ ॥

 

भगवान्‌ की यह हँसी-मसखरी देखकर गोपियोंका हृदय प्रेमसे सराबोर हो गया। वे तनिक सकुचाकर एक दूसरीकी ओर देखने और मुसकराने लगीं। जलसे बाहर नहीं निकलीं ॥ १२ ॥ जब भगवान्‌ने हँसी-हँसीमें यह बात कही, तब उनके विनोदसे कुमारियोंका चित्त और भी उनकी ओर ङ्क्षखच गया। वे ठंढे पानीमें कण्ठतक डूबी हुई थीं और उनका शरीर थर-थर काँप रहा था। उहेंने श्रीकृष्णसे कहा॥ १३ ॥ प्यारे श्रीकृष्ण ! तुम ऐसी अनीति मत करो । हम जानती हैं कि तुम नन्दबाबा के लाड़ले लाल हो। हमारे प्यारे हो। सारे व्रजवासी तुम्हारी सराहना करते रहते हैं । देखो, हम जाड़े के मारे ठिठुर रही हैं। तुम हमें हमारे वस्त्र दे दो ॥ १४ ॥ प्यारे श्यामसुन्दर ! हम तुम्हारी दासी हैं। तुम जो कुछ कहोगे, उसे हम करनेको तैयार हैं। तुम तो धर्म का मर्म भलीभाँति जानते हो। हमें कष्ट मत दो। हमारे वस्त्र हमें दे दो; नहीं तो हम जाकर नन्दबाबा से कह देंगी॥ १५ ॥

 

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मंगलवार, 30 जून 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) इक्कीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

वेणुगीत

 

पूर्णाः पुलिन्द्य उरुगायपदाब्जराग

श्रीकुङ्‌कुमेन दयितास्तनमण्डितेन ।

तद्दर्शनस्मररुजस्तृणरूषितेन

लिम्पन्त्य आननकुचेषु जहुस्तदाधिम् ॥ १७ ॥

हन्तायमद्रिरबला हरिदासवर्यो

यद् रामकृष्णचरणस्परशप्रमोदः ।

मानं तनोति सहगोगणयोस्तयोर्यत्

पानीयसूयवस कन्दरकन्दमूलैः ॥ १८ ॥

गा गोपकैरनुवनं नयतोरुदार

वेणुस्वनैः कलपदैस्तनुभृत्सु सख्यः ।

अस्पन्दनं गतिमतां पुलकस्तरुणां

निर्योगपाशकृत लक्षणयोर्विचित्रम् ॥ १९ ॥

एवंविधा भगवतो या वृन्दावनचारिणः ।

वर्णयन्त्यो मिथो गोप्यः क्रीडास्तन्मयतां ययुः ॥ २० ॥

 

अरी भटू ! हम तो वृन्दावनकी इन भीलनियोंको ही धन्य और कृतकृत्य मानती हैं। ऐसा क्यों सखी ? इसलिये कि इनके हृदयमें बड़ा प्रेम है। जब ये हमारे कृष्ण-प्यारेको देखती हैं, तब इनके हृदयमें भी उनसे मिलनेकी तीव्र आकाङ्क्षा जाग उठती है। इनके हृदयमें भी प्रेमकी व्याधि लग जाती है। उस समय ये क्या उपाय करती हैं, यह भी सुन लो। हमारे प्रियतमकी प्रेयसी गोपियाँ अपने वक्ष:स्थलोंपर जो केसर लगाती हैं, वह श्यामसुन्दरके चरणोंमें लगी होती है और वे जब वृन्दावनके घास-पात पर चलते हैं, तब उनमें भी लग जाती है। ये सौभाग्यवती भीलनियाँ उन्हें उन तिनकोंपरसे छुड़ाकर अपने स्तनों और मुखोंपर मल लेती हैं और इस प्रकार अपने हृदयकी प्रेम- पीड़ा शान्त करती हैं ॥ १७ ॥ अरी गोपियो ! यह गिरिराज गोवद्र्धन तो भगवान्‌के भक्तोंमें बहुत ही श्रेष्ठ है। धन्य हैं इसके भाग्य ! देखती नहीं हो, हमारे प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण और नयनाभिराम बलरामके चरणकमलोंका स्पर्श प्राप्त करके यह कितना आनन्दित रहता है। इसके भाग्यकी सराहना कौन करे ? यह तो उन दोनोंकाग्वालबालों और गौओंका बड़ा ही सत्कार करता है। स्नान-पानके लिये झरनोंका जल देता है, गौओंके लिये सुन्दर हरी-हरी घास प्रस्तुत करता है विश्राम करनेके लिये कन्दराएँ और खानेके लिये कन्द मूल-फल देता है। वास्तवमें यह धन्य है ! ॥ १८ ॥ अरी सखी ! इन साँवरे-गोरे किशोरोंकी तो गति ही निराली है। जब वे सिरपर नोवना (दुहते समय गायके पैर बाँधनेकी रस्सी) लपेटकर और कंधोंपर फंदा (भागनेवाली गायोंको पकडऩेकी रस्सी) रखकर गायोंको एक वनसे दूसरे वनमें हाँककर ले जाते हैं, साथमें ग्वालबाल भी होते हैं और मधुर-मधुर संगीत गाते हुए बाँसुरीकी तान छेड़ते हैं, उस समय मनुष्योंकी तो बात ही क्या, अन्य शरीरधारियोंमें भी चलनेवाले चेतन पशु-पक्षी और जड नदी आदि तो स्थिर हो जाते हैं तथा अचल-वृक्षोंको भी रोमाञ्च हो आता है। जादूभरी वंशीका और क्या चमत्कार सुनाऊँ ? ॥ १९ ॥

परीक्षित्‌ ! वृन्दावनविहारी श्रीकृष्णकी ऐसी-ऐसी एक नहीं, अनेक लीलाएँ हैं। गोपियाँ प्रतिदिन आपसमें उनका वर्णन करतीं और तन्मय हो जातीं। भगवान्‌की लीलाएँ उनके हृदयमें स्फुरित होने लगतीं ॥ २० ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - पाँचवा अध्याय..(पोस्ट१२) विदुरजीका प्रश्न  और मैत्रेयजीका सृष्टिक्रमवर्णन तत्...