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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ
अध्याय..(पोस्ट०७)
चीरहरण
जब
प्रेमी भक्त आत्मविस्मृत हो जाता है, तब उसका दायित्व
प्रियतम भगवान् पर होता है। अब मर्यादारक्षा के लिये गोपियोंको तो वस्त्र की
आवश्यकता नहीं थी। क्योंकि उन्हें जिस वस्तु की आवश्यकता थी, वह मिल चुकी थी। परंतु श्रीकृष्ण अपने प्रेमीको मर्यादाच्युत नहीं होने
देते। वे स्वयं वस्त्र देते हैं और अपनी अमृतमयी वाणीके द्वारा उन्हें विस्मृतिसे
जगाकर फिर जगत् में लाते हैं। श्रीकृष्णने कहा—‘गोपियो ! तुम
सती साध्वी हो। तुम्हारा प्रेम और तुम्हारी साधना मुझसे छिपी नहीं है। तुम्हारा
संकल्प सत्य होगा। तुम्हारा यह संकल्प—तुम्हारी यह कामना
तुम्हें उस पदपर स्थित करती है, जो निस्सङ्कल्पता और
निष्कामताका है। तुम्हारा उद्देश्य पूर्ण, तुम्हारा समर्पण
पूर्ण और आगे आनेवाली शारदीय रात्रियोंमें हमारा रमण पूर्ण होगा। भगवान् ने साधना
सफल होनेकी अवधि निर्धारित कर दी। इससे भी स्पष्ट है कि भगवान् श्रीकृष्णमें किसी
भी कामविकार की कल्पना नहीं थी। कामी पुरुषका चित्त वस्त्रहीन स्त्रियोंको देखकर
एक क्षणके लिये भी कब वशमें रह सकता है।
एक
बात बड़ी—विलक्षण है। भगवान् के सम्मुख जानेके पहले जो वस्त्र समर्पणकी पूर्णतामें
बाधक हो रहे थे विक्षेपका काम कर रहे थे—वही भगवान् की कृपा,
प्रेम, सान्निद्ध्य और वरदान प्राप्त होनेके पश्चात् ‘प्रसाद’-स्वरूप हो गये। इसका कारण क्या है ? इसका कारण है भगवान् का सम्बन्ध। भगवान् ने अपने हाथसे उन वस्त्रोंको
उठाया था और फिर उन्हें अपने उत्तम अङ्ग कंधेपर रख लिया था। नीचेके शरीरमें
पहननेकी साडिय़ाँ भगवान् के कंधेपर चढक़र—उनका संस्पर्श पाकर
कितनी अप्राकृत रसात्मक हो गयीं, कितनी पवित्र—कृष्णमय हो गयीं, इसका अनुमान कौन लगा सकता है।
असलमें यह संसार तभीतक बाधक और विक्षेपजनक है, जबतक यह
भगवान् से सम्बन्ध और भगवान् का प्रसाद नहीं हो जाता। उनके द्वारा प्राप्त
होनेपर तो यह बन्धन ही मुक्तिस्वरूप हो जाता है। उनके सम्पर्कमें जाकर माया शुद्ध
विद्या बन जाती है। संसार और उसके समस्त कर्म अमृतमय आनन्दरससे परिपूर्ण हो जाते
हैं। तब बन्धनका भय नहीं रहता। कोई भी आवरण भगवान्के दर्शनसे वञ्चति नहीं रख
सकता। नरक नरक नहीं रहता, भगवान् का दर्शन होते रहनेके कारण
वह वैकुण्ठ बन जाता है। इसी स्थितिमें पहुँचकर बड़े-बड़े साधक प्राकृत पुरुषके
समान आचरण करते हुए-से दीखते हैं। भगवान् श्रीकृष्णकी अपनी होकर गोपियाँ पुन: वे
ही वस्त्र धारण करती हैं अथवा श्रीकृष्ण वे ही वस्त्र धारण कराते हैं; परंतु गोपियोंकी दृष्टिमें अब ये वस्त्र वे वस्त्र नहीं हैं; वस्तुत: वे हैं भी नहीं—अब तो ये दूसरी वस्तु हो गये
हैं। अब तो ये भगवान्के पावन प्रसाद हैं, पल-पलपर भगवान्का
स्मरण करानेवाले भगवान्के परम सुन्दर प्रतीक हैं। इसीसे उन्होंने स्वीकार भी
किया। उनकी प्रेममयी स्थिति मर्यादाके ऊपर थी, फिर भी
उन्होंने भगवान् की इच्छासे मर्यादा स्वीकार की । इस दृष्टिसे विचार करनेपर ऐसा
जान पड़ता है कि भगवान् की यह चीरहरण-लीला भी अन्य लीलाओंकी भाँति उच्चतम
मर्यादासे परिपूर्ण है।
भगवान्
श्रीकृष्णकी लीलाओंके सम्बन्धमें केवल वे ही प्राचीन आर्षग्रन्थ प्रमाण हैं, जिनमें उनकी लीलाका वर्णन हुआ है। उनमेंसे एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं है,
जिसमें श्रीकृष्णकी भगवत्ताका वर्णन न हो। श्रीकृष्ण ‘स्वयं भगवान् हैं’ यही बात सर्वत्र मिलती है। जो
श्रीकृष्णको भगवान् नहीं मानते, यह स्पष्ट है कि वे उन
ग्रन्थोंको भी नहीं मानते। और जो उन ग्रन्थोंको ही प्रमाण नहीं मानते, वे उनमें वर्णित लीलाओंके आधारपर श्रीकृष्ण-चरित्रकी समीक्षा करनेका
अधिकार भी नहीं रखते। भगवान्की लीलाओंको मानवीय चरित्रके समकक्ष रखना
शास्त्र-दृष्टिसे एक महान् अपराध है और उसके अनुकरणका तो सर्वथा ही निषेध है।
मानवबुद्धि—जो स्थूलताओंसे ही परिवेष्टित है—केवल जडके सम्बन्धमें ही सोच सकती है, भगवान्की
दिव्य चिन्मयी लीलाके सम्बन्धमें कोई कल्पना ही नहीं कर सकती। वह बुद्धि स्वयं ही
अपना उपहास करती है, जो समस्त बुद्धियोंके प्रेरक और
बुद्धियोंसे अत्यन्त परे रहनेवाले परमात्माकी दिव्य लीलाको अपनी कसौटीपर कसती है।
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से