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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
श्रीमद्भागवतमहापुराण
दशम
स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)
यज्ञपत्नियों
पर कृपा
श्रीपत्न्य
ऊचुः ।
मैवं
विभोऽर्हति भवान्गदितुं नृशंसं
सत्यं
कुरुष्व निगमं तव पादमूलम् ।
प्राप्ता
वयं तुलसिदाम पदावसृष्टं
केशैर्निवोढुमतिलङ्घ्य
समस्तबन्धून् ॥ २९ ॥
गृह्णन्ति
नो न पतयः पितरौ सुता वा
न
भ्रातृबन्धुसुहृदः कुत एव चान्ये ।
तस्माद्
भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो
नान्या
भवेद् गतिररिन्दम तद् विधेहि ॥ ३० ॥
श्रीभगवानुवाच
-
पतयो
नाभ्यसूयेरन् पितृभ्रातृसुतादयः ।
लोकाश्च
वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते ॥ ३१ ॥
न
प्रीतयेऽनुरागाय ह्यङ्गसङ्गो नृणामिह ।
तन्मनो
मयि युञ्जाना अचिरान् मामवाप्स्यथ ॥ ३२ ॥
श्रीशुक
उवाच -
इत्युक्ता
द्विजपत्न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः ।
ते
चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन् ॥ ३३ ॥
तत्रैका
विधृता भर्त्रा भगवन्तं यथाश्रुतम् ।
हृदोपगुह्य
विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम् ॥ ३४ ॥
भगवानपि
गोविन्दः तेनैवान्नेन गोपकान् ।
चतुर्विधेनाशयित्वा
स्वयं च बुभुजे प्रभुः ॥ ३५ ॥
एवं
लीलानरवपुः नृलोकमनुशीलयन् ।
रेमे
गोगोपगोपीनां रमयन्रूपवाक्कृतैः ॥ ३६ ॥
ब्राह्मणपत्नियों
ने कहा—अन्तर्यामी श्यामसुन्दर ! आपकी यह बात निष्ठुरता से पूर्ण है। आपको ऐसी
बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान् को प्राप्त हो
जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह
वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे- सम्बन्धियों की आज्ञाका उल्लङ्घन करके
आपके चरणों में इसलिये आयी हैं कि आपके चरणोंसे गिरी हुई तुलसी की माला अपने केशों
में धारण करें ॥ २९ ॥ स्वामी ! अब हमारे पति-पुत्र, माता-
पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे;
फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे ! अब हम आपके चरणों में
आ पड़ी हैं। हमें और किसी का सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरों की शरण में न
जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये ॥ ३० ॥
भगवान्
श्रीकृष्णने कहा—देवियो ! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धु—कोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे।
उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा।
इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी
हो। देखो न, ये देवता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे हैं ॥ ३१ ॥
देवियो ! इस संसारमें मेरा अङ्ग-सङ्ग ही मनुष्योंमें मेरी प्रीति या अनुरागका कारण
नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें
बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी ॥ ३२ ॥
श्रीशुकदेवजी
कहते हैं—परीक्षित् ! जब भगवान्ने इस प्रकार कहा, तब वे
ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशालामें लौट गयीं। उन ब्राह्मणोंने अपनी स्त्रियोंमें तनिक
भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया ॥ ३३ ॥ उन
स्त्रियोंमेंसे एकको आनेके समय ही उसके पतिने बलपूर्वक रोक लिया था। इसपर उस
ब्राह्मणपत्नीने भगवान्के वैसे ही स्वरूपका ध्यान किया, जैसा
कि बहुत दिनोंसे सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब
मन-ही-मन भगवान्का आलिङ्गन करके उसने कर्मके द्वारा बने हुए अपने शरीरको छोड़
दिया—(शुद्धसत्त्वमय दिव्य शरीर से उसने भगवान् की सन्निधि
प्राप्त कर ली) ॥ ३४ ॥ इधर भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मणियोंके लाये हुए उस चार
प्रकारके अन्नसे पहले ग्वालबालोंको भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया
॥ ३५ ॥ परीक्षित् ! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान् श्रीकृष्णने मनुष्यकी-सी लीला
की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी
तथा कर्मोंसे गौएँ, ग्वालबाल और गोपियोंको आनन्दित किया और
स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरसका आस्वादन करके आनन्दित हुए ॥ ३६ ॥
शेष
आगामी पोस्ट में --
गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण (विशिष्टसंस्करण) पुस्तककोड 1535 से