मंगलवार, 7 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

श्रीपत्‍न्य ऊचुः ।

मैवं विभोऽर्हति भवान्गदितुं नृशंसं

सत्यं कुरुष्व निगमं तव पादमूलम् ।

प्राप्ता वयं तुलसिदाम पदावसृष्टं

केशैर्निवोढुमतिलङ्‌घ्य समस्तबन्धून् ॥ २९ ॥

गृह्णन्ति नो न पतयः पितरौ सुता वा

न भ्रातृबन्धुसुहृदः कुत एव चान्ये ।

तस्माद् भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो

नान्या भवेद् गतिररिन्दम तद् विधेहि ॥ ३० ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

पतयो नाभ्यसूयेरन् पितृभ्रातृसुतादयः ।

लोकाश्च वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते ॥ ३१ ॥

न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यङ्‌गसङ्‌गो नृणामिह ।

तन्मनो मयि युञ्जाना अचिरान् मामवाप्स्यथ ॥ ३२ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युक्ता द्विजपत्‍न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः ।

ते चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन् ॥ ३३ ॥

तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवन्तं यथाश्रुतम् ।

हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम् ॥ ३४ ॥

भगवानपि गोविन्दः तेनैवान्नेन गोपकान् ।

चतुर्विधेनाशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभुः ॥ ३५ ॥

एवं लीलानरवपुः नृलोकमनुशीलयन् ।

रेमे गोगोपगोपीनां रमयन्रूपवाक्कृतैः ॥ ३६ ॥

 

ब्राह्मणपत्नियों ने कहाअन्तर्यामी श्यामसुन्दर ! आपकी यह बात निष्ठुरता से पूर्ण है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान्‌ को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे- सम्बन्धियों की आज्ञाका उल्लङ्घन करके आपके चरणों में इसलिये आयी हैं कि आपके चरणोंसे गिरी हुई तुलसी की माला अपने केशों में धारण करें ॥ २९ ॥ स्वामी ! अब हमारे पति-पुत्र, माता- पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे ! अब हम आपके चरणों में आ पड़ी हैं। हमें और किसी का सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरों की शरण में न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये ॥ ३० ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहादेवियो ! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धुकोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे हैं ॥ ३१ ॥ देवियो ! इस संसारमें मेरा अङ्ग-सङ्ग ही मनुष्योंमें मेरी प्रीति या अनुरागका कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी ॥ ३२ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशालामें लौट गयीं। उन ब्राह्मणोंने अपनी स्त्रियोंमें तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया ॥ ३३ ॥ उन स्त्रियोंमेंसे एकको आनेके समय ही उसके पतिने बलपूर्वक रोक लिया था। इसपर उस ब्राह्मणपत्नीने भगवान्‌के वैसे ही स्वरूपका ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनोंसे सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान्‌का आलिङ्गन करके उसने कर्मके द्वारा बने हुए अपने शरीरको छोड़ दिया—(शुद्धसत्त्वमय दिव्य शरीर से उसने भगवान्‌ की सन्निधि प्राप्त कर ली) ॥ ३४ ॥ इधर भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्राह्मणियोंके लाये हुए उस चार प्रकारके अन्नसे पहले ग्वालबालोंको भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णने मनुष्यकी-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मोंसे गौएँ, ग्वालबाल और गोपियोंको आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरसका आस्वादन करके आनन्दित हुए ॥ ३६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



सोमवार, 6 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

गत्वाथ पत्‍नीशालायां दृष्ट्वासीनाः स्वलङ्‌कृताः ।

नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन् ॥ १५ ॥

नमो वो विप्रपत्‍नीभ्यो निबोधत वचांसि नः ।

इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम् ॥ १६ ॥

गाश्चारयन् स गोपालैः सरामो दूरमागतः ।

बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम् ॥ १७ ॥

श्रुत्वाच्युतं उपायातं नित्यं तद्दर्शनोत्सुकाः ।

तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमाः ॥ १८ ॥

चतुर्विधं बहुगुणं अन्नमादाय भाजनैः ।

अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः ॥ १९ ॥

निषिध्यमानाः पतिभिः भ्रातृभिर्बन्धुभिः सुतैः ।

भगवति उत्तमश्लोके दीर्घश्रुत धृताशयाः ॥ २० ॥

यमुनोपवनेऽशोक नवपल्लवमण्डिते ।

विचरन्तं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः ॥ २१ ॥

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह

धातुप्रवालनटवेषमनव्रतांसे ।

विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं

कर्णोत्पलालक कपोलमुखाब्जहासम् ॥ २२ ॥

प्रायःश्रुतप्रियतमोदयकर्णपूरैः

यस्मिन् निमग्नमनसः तं अथाक्षिरंध्रैः ।

अन्तः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं

प्राज्ञं यथाभिमतयो विजहुर्नरेन्द्र ॥ २३ ॥

तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया ।

विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः ॥ २४ ॥

स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम् ।

यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः ॥ २५ ॥

नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शिनः ।

अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा ॥ २६ ॥

प्राणबुद्धिमनःस्वात्म दारापत्यधनादयः ।

यत्सम्पर्कात् प्रिया आसन् ततः को न्वपरः प्रियः ॥ २७ ॥

तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः ।

स्वसत्रं पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिनः ॥ २८ ॥

                                                                                                                                                                                                                                                                              

अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशाला में गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणों की पत्नियाँ सुन्दर- सुन्दर वस्त्र और गहनों से सज-धजकर बैठी हैं। उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही॥ १५ ॥ आप विप्रपत्नियोंको हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँसे थोड़ी ही दूरपर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है ॥ १६ ॥ वे ग्वालबाल और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियोंको भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें॥ १७ ॥ परीक्षित्‌! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनोंसे भगवान्‌ की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बातके लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्णके दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्णके आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं ॥ १८ ॥ उन्होंने बर्तनोंमें अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्यचारों प्रकारकी भोजन सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रोंके रोकते रहनेपर भी अपने प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास जानेके लिये घरसे निकल पड़ींठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्रके लिये। क्यों न हो; न जाने कितने दिनोंसे पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदिका वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणोंपर अपना हृदय निछावर कर दिया था ॥ १९-२० ॥ ब्राह्मणपत्नियोंने जाकर देखा कि यमुनाके तटपर नये-नये कोंपलोंसे शोभायमान अशोक-वनमें ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं ॥ २१ ॥ उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गलेमें वनमाला लटक रही है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट है। अङ्ग-अङ्गमें रंगीन धातुओंसे चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलोंके गुच्छे शरीरमें लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वालबालके कंधेपर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे हैं। कानोंमें कमलके कुण्डल हैं, कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुख कमल मन्द-मन्द मुसकानकी रेखासे प्रफुल्लित हो रहा है ॥ २२ ॥ परीक्षित्‌ ! अबतक अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके गुण और लीलाएँ अपने कानोंसे सुन-सुनकर उन्होंने अपने मनको उन्हींके प्रेमके रंगमें रँग डाला था, उसीमें सराबोर कर दिया था। अब नेत्रोंके मार्गसे उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देरतक वे मन-ही-मन उनका आलिङ्गन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदयकी जलन शान्त कीठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओंकी वृत्तियाँ यह मैं, यह मेराइस भावसे जलती रहती हैं, परंतु सुषुप्ति-अवस्थामें उसके अभिमानी प्राज्ञको पाकर उसीमें लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है ॥ २३ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सबके हृदयकी बात जानते हैं, सबकी बुद्धियोंके साक्षी हैं। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मणपत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रोंके रोकनेपर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयोंकी आशा छोडक़र केवल मेरे दर्शनकी लालसासे ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्दपर हास्यकी तरङ्गें अठखेलियाँ कर रही थीं ॥ २४ ॥ भगवान्‌ने कहा—‘महाभाग्यवती देवियो ! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो। कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें ? तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालोंके योग्य ही है ॥ २५ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसारमें अपनी सच्ची भलाईको समझनेवाले जितने भी बुद्धिमान् पुरुष हैं, वे अपने प्रियतम के समान ही मुझसे प्रेम करते हैं, और ऐसा प्रेम करते हैं, जिस में किसी प्रकार की कामना नहीं रहतीजिसमें किसी प्रकार का व्यवधान, संकोच, छिपाव, दुविधा या द्वैत नहीं होता ॥ २६ ॥ प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधि से प्रिय लगती हैंउस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढक़र और कौन प्यारा हो सकता है ॥ २७ ॥ इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेमका अभिनन्दन करता हूँ। परंतु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपनी यज्ञ- शाला में लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे॥ २८ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

श्रीगोप ऊचुः -

राम राम महाबाहो कृष्ण दुष्टनिबर्हण ।

एषा वै बाधते क्षुत् नः तच्छान्तिं कर्तुमर्हथः ॥ १ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इति विज्ञापितो गोपैः भगवान् देवकीसुतः ।

भक्ताया विप्रभार्यायाः प्रसीदन् इदमब्रवीत् ॥ २ ॥

प्रयात देवयजनं ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः ।

सत्रं आङ्‌गिरसं नाम ह्यासते स्वर्गकाम्यया ॥ ३ ॥

तत्र गत्वौदनं गोपा याचतास्मद् विसर्जिताः ।

कीर्तयन्तो भगवत आर्यस्य मम चाभिधाम् ॥ ४ ॥

इत्यादिष्टा भगवता गत्वा याचन्त ते तथा ।

कृताञ्जलिपुटा विप्रान् दण्डवत् पतिता भुवि ॥ ५ ॥

हे भूमिदेवाः श्रृणुत कृष्णस्यादेशकारिणः ।

प्राप्ताञ्जानीत भद्रं वो गोपान् नो रामचोदितान् ॥ ६ ॥

गाश्चारयतौ अविदूर ओदनं

रामाच्युतौ वो लषतो बुभुक्षितौ ।

तयोर्द्विजा ओदनमर्थिनोर्यदि

श्रद्धा च वो यच्छत धर्मवित्तमाः ॥ ७ ॥

दीक्षायाः पशुसंस्थायाः सौत्रामण्याश्च सत्तमाः ।

अन्यत्र दीक्षितस्यापि नान्नमश्नन् हि दुष्यति ॥ ८ ॥

इति ते भगवद् याच्ञां शृण्वन्तोऽपि न शुश्रुवुः ।

क्षुद्राशा भूरिकर्माणो बालिशा वृद्धमानिनः ॥ ९ ॥

देशः कालः पृथग् द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः ।

देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ १० ॥

तं ब्रह्म परमं साक्षाद् भगवन्तं अधोक्षजम् ।

मनुष्यदृष्ट्या दुष्प्रज्ञा मर्त्यात्मानो न मेनिरे ॥ ११ ॥

न ते यदोमिति प्रोचुः न नेति च परन्तप ।

गोपा निराशाः प्रत्येत्य तथोचुः कृष्णरामयोः ॥ १२ ॥

तदुपाकर्ण्य भगवान् प्रहस्य जगदीश्वरः ।

व्याजहार पुनर्गोपान् दर्शयँलौकिकीं गतिम् ॥ १३ ॥

मां ज्ञापयत पत्‍नीभ्यः ससङ्‌कर्षणमागतम् ।

दास्यन्ति काममन्नं वः स्निग्धा मय्युषिता धिया ॥ १४ ॥

 

ग्वालबालों ने कहानयनाभिराम बलराम ! तुम बड़े पराक्रमी हो। हमारे चित्तचोर श्याम- सुन्दर ! तुमने बड़े-बड़े दुष्टों का संहार किया है। उन्हीं दुष्टों के समान यह भूख भी हमें सता रही है। अत: तुम दोनों इसे भी बुझानेका कोई उपाय करो ॥ १ ॥

 

श्रीशुकदेवजीने कहापरीक्षित्‌ ! जब ग्वालबालोंने देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने मथुराकी अपनी भक्त ब्राह्मणपत्नियोंपर अनुग्रह करनेके लिये यह बात कही॥ २ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! यहाँसे थोड़ी ही दूरपर वेदवादी ब्राह्मण स्वर्गकी कामनासे आङ्गिरस नामका यज्ञ कर रहे हैं। तुम उनकी यज्ञशालामें जाओ ॥ ३ ॥ ग्वालबालो ! मेरे भेजनेसे वहाँ जाकर तुमलोग मेरे बड़े भाई भगवान्‌ श्रीबलरामजीका और मेरा नाम लेकर कुछ थोड़ा-सा भातभोजनकी सामग्री माँग लाओ॥ ४ ॥ जब भगवान्‌ने ऐसी आज्ञा दी, तब ग्वालबाल उन ब्राह्मणोंकी यज्ञशालामें गये और उनसे भगवान्‌की आज्ञाके अनुसार ही अन्न माँगा। पहले उन्होंने पृथ्वीपर गिरकर दण्डवत्-प्रणाम किया और फिर हाथ जोडक़र कहा॥ ५ ॥ पृथ्वीके मूर्तिमान् देवता ब्राह्मणो ! आपका कल्याण हो! आपसे निवेदन है कि हम व्रजके ग्वाले हैं। भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामकी आज्ञासे हम आपके पास आये हैं। आप हमारी बात सुनें ॥ ६ ॥ भगवान्‌ बलराम और श्रीकृष्ण गौएँ चराते हुए यहाँसे थोड़े ही दूरपर आये हुए हैं। उन्हें इस समय भूख लगी है और वे चाहते हैं कि आपलोग उन्हें थोड़ा-सा भात दे दें। ब्राह्मणो ! आप धर्मका मर्म जानते हैं। यदि आपकी श्रद्धा हो, तो उन भोजनार्थियोंके लिये कुछ भात दे दीजिये ॥ ७ ॥ सज्जनो! जिस यज्ञदीक्षामें पशुबलि होती है, उसमें और सौत्रामणी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका अन्न नहीं खाना चाहिये। इनके अतिरिक्त और किसी भी समय किसी भी यज्ञमें दीक्षित पुरुषका भी अन्न खानेमें कोई दोष नहीं है ॥ ८ ॥ परीक्षित्‌! इस प्रकार भगवान्‌के अन्न माँगनेकी बात सुनकर भी उन ब्राह्मणोंने उसपर कोई ध्यान नहीं दिया। वे चाहते थे स्वर्गादि तुच्छ फल और उनके लिये बड़े-बड़े कर्मोंमें उलझे हुए थे। सच पूछो तो वे ब्राह्मण ज्ञानकी दृष्टिसे थे बालक ही, परंतु अपनेको बड़ा ज्ञानवृद्ध मानते थे ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌! देश, काल अनेक प्रकारकी सामग्रियाँ, भिन्न-भिन्न कर्मोंमें विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्-ब्रह्मा आदि यज्ञ करानेवाले, अग्रि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्मइन सब रूपोंमें एकमात्र भगवान्‌ ही प्रकट हो रहे हैं ॥ १० ॥ वे ही इन्द्रियातीत परब्रह्म भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं ग्वालबालोंके द्वारा भात माँग रहे हैं। परंतु इन मूर्खोंने, जो अपनेको शरीर ही माने बैठे हैं, भगवान्‌को भी एक साधारण मनुष्य ही माना और उनका सम्मान नहीं किया ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌! जब उन ब्राह्मणोंने हाँया ना’—कुछ नहीं कहा, तब ग्वालबालोंकी आशा टूट गयी; वे लौट आये और वहाँकी सब बात उन्होंने श्रीकृष्ण तथा बलरामसे कह दी ॥ १२ ॥ उनकी बात सुनकर सारे जगत्के स्वामी भगवान्‌ श्रीकृष्ण हँसने लगे। उन्होंने ग्वालबालोंको समझाया कि संसारमें असफलता तो बार-बार होती ही है, उससे निराश नहीं होना चाहिये; बार-बार प्रयत्न करते रहनेसे सफलता मिल ही जाती है।फिर उनसे कहा॥ १३ ॥ मेरे प्यारे ग्वालबालो ! इस बार तुमलोग उनकी पत्नियों के पास जाओ और उनसे कहो कि राम और श्याम यहाँ आये हैं। तुम जितना चाहोगे उतना भोजन वे तुम्हें देंगी। वे मुझसे बड़ा प्रेम करती हैं। उनका मन सदा-सर्वदा मुझमें लगा रहता है॥ १४ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



रविवार, 5 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट१०)

 

चीरहरण

 

श्रीशुक उवाच ।

इत्यादिष्टा भगवता लब्धकामाः कुमारिकाः ।

ध्यायन्त्यस्तत् पदाम्भोजं कृच्छ्रात् निर्विविशुर्व्रजम् ॥ २८ ॥

अथ गोपैः परिवृतो भगवान् देवकीसुतः ।

वृन्दावनाद् गतो दूरं चारयन् गाः सहाग्रजः ॥ २९ ॥

निदघार्कातपे तिग्मे छायाभिः स्वाभिरात्मनः ।

आतपत्रायितान् वीक्ष्य द्रुमानाह व्रजौकसः ॥ ३० ॥

हे स्तोककृष्ण हे अंशो श्रीदामन् सुबलार्जुन ।

विशालर्षभ तेजस्विन् देवप्रस्थ वरूथप ॥ ३१ ॥

पश्यतैतान् महाभागान् परार्थैकान्तजीवितान् ।

वातवर्षातपहिमान् सहन्तो वारयन्ति नः ॥ ३२ ॥

अहो एषां वरं जन्म सर्व प्राण्युपजीवनम् ।

सुजनस्येव येषां वै विमुखा यान्ति नार्थिनः ॥ ३३ ॥

पत्रपुष्पफलच्छाया मूलवल्कलदारुभिः ।

गन्धनिर्यासभस्मास्थि तोक्मैः कामान् वितन्वते ॥ ३४ ॥

एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु ।

प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेय एवाचरेत् सदा ॥ ३५ ॥

इति प्रवालस्तबक फलपुष्पदलोत्करैः ।

तरूणां नम्रशाखानां मध्यतो यमुनां गतः ॥ ३६ ॥

तत्र गाः पाययित्वापः सुमृष्टाः शीतलाः शिवाः ।

ततो नृप स्वयं गोपाः कामं स्वादु पपुर्जलम् ॥ ३७ ॥

तस्या उपवने कामं चारयन्तः पशून् नृप ।

कृष्णरामौ उवुपागम्य क्षुधार्ता इदमब्रवन् ॥ ३८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌! भगवान्‌ की यह आज्ञा पाकर वे कुमारियाँ भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणकमलोंका ध्यान करती हुई जानेकी इच्छा न होनेपर भी बड़े कष्टसे व्रजमें गयीं। अब उनकी सारी कामनाएँ पूर्ण हो चुकी थीं ॥ २८ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! एक दिन भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजी और ग्वालबालोंके साथ गौएँ चराते हुए वृन्दावनसे बहुत दूर निकल गये ॥ २९ ॥ ग्रीष्म ऋतु थी। सूर्यकी किरणें बहुत ही प्रखर हो रही थीं। परंतु घने-घने वृक्ष भगवान्‌ श्रीकृष्णके ऊपर छत्तेका काम कर रहे थे। भगवान्‌ श्रीकृष्णने वृक्षोंको छाया करते देख स्तोककृष्ण, अंशु, श्रीदामा, सुबल, अर्जुन, विशाल, ऋषभ, तेजस्वी, देवप्रस्थ और वरूथप आदि ग्वालबालोंको सम्बोधन करके कहा॥ ३०-३१ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! देखो, ये वृक्ष कितने भाग्यवान् हैं ! इनका सारा जीवन केवल दूसरोंकी भलाई करनेके लिये ही है। ये स्वयं तो हवाके झोंके, वर्षा, धूप और पालासब कुछ सहते हैं, परंतु हमलोगोंकी उनसे रक्षा करते हैं ॥ ३२ ॥ मैं कहता हूँ कि इन्हींका जीवन सबसे श्रेष्ठ है। क्योंकि इनके द्वारा सब प्राणियोंको सहारा मिलता है, उनका जीवन-निर्वाह होता है। जैसे किसी सज्जन पुरुषके घरसे कोई याचक खाली हाथ नहीं लौटता, वैसे ही इन वृक्षोंसे भी सभीको कुछ-न-कुछ मिल ही जाता है ॥ ३३ ॥ ये अपने पत्ते, फूल, फल, छाया, जड़, छाल, लकड़ी, गन्ध, गोंद, राख, कोयला, अङ्कुर और कोंपलोंसे भी लोगोंकी कामना पूर्ण करते हैं ॥ ३४ ॥ मेरे प्यारे मित्रो ! संसारमें प्राणी तो बहुत हैं; परंतु उनके जीवनकी सफलता इतनेमें ही है कि जहाँतक हो सके अपने धनसे, विवेक- विचारसे, वाणीसे और प्राणोंसे भी ऐसे ही कर्म किये जायँ, जिनसे दूसरोंकी भलाई हो ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! दोनों ओरके वृक्ष नयी-नयी कोंपलों, गुच्छों, फल-फूलों और पत्तोंसे लद रहे थे। उनकी डालियाँ पृथ्वीतक झुकी हुई थीं। इस प्रकार भाषण करते हुए भगवान्‌ श्रीकृष्ण उन्हींके बीचसे यमुना-तटपर निकल आये ॥ ३६ ॥ राजन् ! यमुनाजीका जल बड़ा ही मधुर, शीतल और स्वच्छ था। उन लोगोंने पहले गौओंको पिलाया और इसके बाद स्वयं भी जी भरकर स्वादु जलका पान किया ॥ ३७ ॥ परीक्षित्‌ ! जिस समय वे यमुनाजीके तटपर हरे-भरे उपवनमें बड़ी स्वतन्त्रतासे अपनी गौएँ चरा रहे थे, उसी समय कुछ भूखे ग्वालोंने भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलरामजीके पास आकर यह बात कही॥ ३८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥ २२ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०९)

 

चीरहरण

 

श्रीकृष्ण आठ-नौ वर्षके थे, उनमें कामोत्तेजना नहीं हो सकती और नग्रस्नानकी कुप्रथाको नष्ट करनेके लिये उन्होंने चीरहरण कियायह उत्तर सम्भव होनेपर भी मूलमें आये हुए कामऔर रमणशब्दोंसे कई लोग भडक़ उठते हैं। यह केवल शब्दकी पकड़ है, जिसपर महात्मालोग ध्यान नहीं देते। श्रुतियोंमें और गीतामें भी अनेकों बार काम’ ‘रमणऔर रतिआदि शब्दोंका प्रयोग हुआ है; परंतु वहाँ उनका अश्लील अर्थ नहीं होता। गीतामें तो धर्माविरुद्ध कामको परमात्माका स्वरूप बतलाया गया है। महापुरुषोंका आत्मरमण, आत्ममिथुन और आत्मरति प्रसिद्ध ही है। ऐसी स्थितिमें केवल कुछ शब्दोंको देखकर भडक़ना विचारशील पुरुषोंका काम नहीं है। जो श्रीकृष्णको केवल मनुष्य समझते हैं उन्हें रमण और रति शब्दका अर्थ केवल क्रीडा अथवा खिलवाड़ समझना चाहिये, जैसा कि व्याकरणके अनुसार ठीक है—‘रमु क्रीडायाम्

 

दृष्टिभेदसे श्रीकृष्णकी लीला भिन्न-भिन्न रूपमें दीख पड़ती है। अध्यात्मवादी श्रीकृष्णको आत्माके रूपमें देखते हैं और गोपियोंको वृत्तियोंके रूपमें। वृत्तियोंका आवरण नष्ट हो जाना ही चीरहरण-लीलाहै और उनका आत्मामें रम जाना ही रासहै। इस दृष्टिसे भी समस्त लीलाओंकी संगति बैठ जाती है। भक्तोंकी दृष्टिसे गोलोकाधिपति पूर्णतम पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्णका यह सब नित्यलीला-विलास है और अनादिकालसे अनन्तकालतक यह नित्य चलता रहता है। कभी- कभी भक्तोंपर कृपा करके वे अपने नित्य धाम और नित्य सखा-सहचरियोंके साथ लीला-धाममें प्रकट होकर लीला करते हैं और भक्तोंके स्मरण-चिन्तन तथा आनन्दमङ्गलकी सामग्री प्रकट करके पुन: अन्तर्धान हो जाते हैं। साधकोंके लिये किस प्रकार कृपा करके भगवान्‌ अन्तर्मलको और अनादिकालसे सञ्चित संस्कारपटको विशुद्ध कर देते हैं, यह बात भी इस चीरहरण-लीलासे प्रकट होती है। भगवान्‌की लीला रहस्यमयी है, उसका तत्त्व केवल भगवान्‌ ही जानते हैं और उनकी कृपासे उनकी लीलामें प्रविष्ट भाग्यवान् भक्त कुछ-कुछ जानते हैं। यहाँ तो शास्त्रों और संतोंकी वाणीके आधारपर ही कुछ लिखनेकी धृष्टता की गयी है।

 

-----हनुमानप्रसाद पोद्दार

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



शनिवार, 4 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)


 

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) बाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०८)

 

चीरहरण

 

हृदय और बुद्धिके सर्वथा विपरीत होनेपर भी यदि थोड़ी देरके लिये मान लें कि श्रीकृष्ण भगवान्‌ नहीं थे या उनकी यह लीला मानवी थी तो भी तर्क और युक्तिके सामने ऐसी कोई बात नहीं टिक पाती, जो श्रीकृष्णके चरित्रमें लाञ्छन हो। श्रीमद्भागवतका पारायण करनेवाले जानते हैं कि व्रजमें श्रीकृष्णने केवल ग्यारह वर्षकी अवस्थातक ही निवास किया था। यदि रासलीलाका समय दसवाँ वर्ष मानें, तो नवें वर्षमें ही चीरहरण लीला हुई थी। इस बातकी कल्पना भी नहीं हो सकती कि आठ-नौ वर्षके बालकमें कामोत्तेजना हो सकती है। गाँवकी गँवारिन ग्वालिनें, जहाँ वर्तमानकालकी नागरिक मनोवृत्ति नहीं पहुँच पायी है, एक आठ-नौ वर्षके बालकसे अवैध सम्बन्ध करना चाहें और उसके लिये साधना करेंयह कदापि सम्भव नहीं दीखता। उन कुमारी गोपियोंके मनमें कलुषित वृत्ति थी, यह वर्तमान कलुषित मनोवृत्तिकी उट्टङ्कना है। आजकल जैसे गाँवकी छोटी-छोटी लड़कियाँ राम’-सा वर और लक्ष्मण’-सा देवर पानेके लिये देवी- देवताओंकी पूजा करती हैं, वैसे ही उन कुमारियोंने भी परम सुन्दर परम मधुर श्रीकृष्णको पानेके लिये देवी-पूजन और व्रत किये थे। इसमें दोषकी कौन-सी बात है ?

 

आजकी बात निराली है। भोगप्रधान देशोंमें तो नग्नसम्प्रदाय और नग्न स्नान के क्लब भी बने हुए हैं ! उनकी दृष्टि इन्द्रिय-तृप्तितक ही सीमित है। भारतीय मनोवृत्ति इस उत्तेजक एवं मलिन व्यापारके विरुद्ध है। नग्रस्नान एक दोष है, जो कि पशुत्वको बढ़ानेवाला है। शास्त्रोंमें इसका निषेध है, ‘न नग्न: स्नायात्’—यह शास्त्रकी आज्ञा है। श्रीकृष्ण नहीं चाहते थे कि गोपियाँ शास्त्रके विरुद्ध आचरण करें। केवल लौकिक अनर्थ ही नहींभारतीय ऋषियोंका वह सिद्धान्त, जो प्रत्येक वस्तुमें पृथक्-पृथक् देवताओंका अस्तित्व मानता है, इस नग्नस्नान को देवताओंके विपरीत बतलाता है। श्रीकृष्ण जानते थे कि इससे वरुण देवताका अपमान होता है। गोपियाँ अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये जो तपस्या कर रही थीं, उसमें उनका नग्रस्नान अनिष्ट फल देनेवाला था और इस प्रथाके प्रभातमें ही यदि इसका विरोध न कर दिया जाय तो आगे चलकर इसका विस्तार हो सकता है; इसलिये श्रीकृष्णने अलौकिक ढंगसे निषेध कर दिया।

 

गाँवोंकी ग्वालिनोंको इस प्रथाकी बुराई किस प्रकार समझायी जाय, इसके लिये भी श्रीकृष्णने एक मौलिक उपाय सोचा। यदि वे गोपियोंके पास जाकर उन्हें देवतावादकी फिलासफी समझाते, तो वे सरलतासे नहीं समझ सकती थीं। उन्हें तो इस प्रथाके कारण होनेवाली विपत्तिका प्रत्यक्ष अनुभव करा देना था। और विपत्तिका अनुभव करानेके पश्चात् उन्होंने देवताओंके अपमानकी बात भी बता दी तथा अञ्जलि बाँधकर क्षमा-प्रार्थनारूप प्रायश्चित्त भी करवाया। महापुरुषोंमें उनकी बाल्यावस्थामें भी ऐसी प्रतिभा देखी जाती है।

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-छठा अध्याय..(पोस्ट०३)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ श्रीमद्भागवतमहापुराण  तृतीय स्कन्ध - छठा अध्याय..(पोस्ट०३) विराट् शरीर की उत्पत्ति स्मरन्विश्वसृजामीशो विज्ञापितं ...