गुरुवार, 9 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

देहानुच्चावचाञ्जन्तुः प्राप्योत् सृजति कर्मणा ।

शत्रुर्मित्रमुदासीनः कर्मैव गुरुरीश्वरः ॥ १७ ॥

तस्मात् संपूजयेत्कर्म स्वभावस्थः स्वकर्मकृत् ।

अन्जसा येन वर्तेत तदेवास्य हि दैवतम् ॥ १८ ॥

आजीव्यैकतरं भावं यस्त्वन्यमुपजीवति ।

न तस्माद् विन्दते क्षेमं जारान्नार्यसती यथा ॥ १९ ॥

वर्तेत ब्रह्मणा विप्रो राजन्यो रक्षया भुवः ।

वैश्यस्तु वार्तया जीवेत् शूद्रस्तु द्विजसेवया ॥ २० ॥

कृषिवाणिज्यगोरक्षा कुसीदं तूर्यमुच्यते ।

वार्ता चतुर्विधा तत्र वयं गोवृत्तयोऽनिशम् ॥ २१ ॥

सत्त्वं रजस्तम इति स्थित्युत्पत्त्यन्तहेतवः ।

रजसोत्पद्यते विश्वं अन्योन्यं विविधं जगत् ॥ २२ ॥

रजसा चोदिता मेघा वर्षन्त्यम्बूनि सर्वतः ।

प्रजास्तैरेव सिध्यन्ति महेन्द्रः किं करिष्यति ॥ २३ ॥

न नः पुरोजनपदा न ग्रामा न गृहा वयम् ।

नित्यं वनौकसस्तात वनशैलनिवासिनः ॥ ॥

तस्माद्‍गवां ब्राह्मणानां अद्रेश्चारभ्यतां मखः ।

य इंद्रयागसंभाराः तैरयं साध्यतां मखः ॥ २५ ॥

पच्यन्तां विविधाः पाकाः सूपान्ताः पायसादयः ।

संयावापूपशष्कुल्यः सर्वदोहश्च गृह्यताम् ॥ २६ ॥

हूयन्तामग्नयः सम्यग् ब्राह्मणैर्ब्रह्मवादिभिः ।

अन्नं बहुगुणं तेभ्यो देयं वो धेनुदक्षिणाः ॥ २७ ॥

अन्येभ्यश्चाश्वचाण्डाल पतितेभ्यो यथार्हतः ।

यवसं च गवां दत्त्वा गिरये दीयतां बलिः ॥ २८ ॥

स्वलङ्‌कृता भुक्तवन्तः स्वनुलिप्ताः सुवाससः ।

प्रदक्षिणां च कुरुत गोविप्रानलपर्वतान् ॥ २९ ॥

एतन्मम मतं तात क्रियतां यदि रोचते ।

अयं गोब्राह्मणाद्रीणां मह्यं च दयितो मखः ॥ ३० ॥

 

जीव अपने कर्मों के अनुसार उत्तम और अधम शरीरों को ग्रहण करता और छोड़ता रहता है। अपने कर्मोंके अनुसार ही यह शत्रु है, यह मित्र है, यह उदासीन है’—ऐसा व्यवहार करता है। कहाँतक कहूँ, कर्म ही गुरु है और कर्म ही ईश्वर ॥ १७ ॥ इसलिये पिताजी ! मनुष्यको चाहिये कि पूर्व संस्कारोंके अनुसार अपने वर्ण तथा आश्रमके अनुकूल धर्मोंका पालन करता हुआ कर्मका ही आदर करे। जिसके द्वारा मनुष्यकी जीविका सुगमतासे चलती है, वही उसका इष्टदेव होता है ॥ १८ ॥ जैसे अपने विवाहित पतिको छोडक़र जार पतिका सेवन करनेवाली व्यभिचारिणी स्त्री कभी शान्तिलाभ नहीं करती, वैसे ही जो मनुष्य अपनी आजीविका चलानेवाले एक देवताको छोडक़र किसी दूसरेकी उपासना करते हैं, उससे उन्हें कभी सुख नहीं मिलता ॥ १९ ॥ ब्राह्मण वेदोंके अध्ययन-अध्यापनसे, क्षत्रिय पृथ्वी- पालनसे, वैश्य वार्ता वृत्तिसे और शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवासे अपनी जीविकाका निर्वाह करें ॥ २० ॥ वैश्योंकी वार्तावृत्ति चार प्रकारकी हैकृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और ब्याज लेना। हमलोग उन चारोंमेंसे एक केवल गोपालन ही सदासे करते आये हैं ॥ २१ ॥ पिताजी ! इस संसारकी स्थिति, उत्पत्ति और अन्तके कारण क्रमश: सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण हैं। यह विविध प्रकारका सम्पूर्ण जगत् स्त्री-पुरुषके संयोगसे रजोगुणके द्वारा उत्पन्न होता है ॥ २२ ॥ उसी रजोगुणकी प्रेरणासे मेघगण सब कहीं जल बरसाते हैं। उसीसे अन्न और अन्नसे ही सब जीवोंकी जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्रका क्या लेना-देना है ? वह भला, क्या कर सकता है ? ॥ २३ ॥

 

पिताजी ! न तो हमारे पास किसी देशका राज्य है और न तो बड़े-बड़े नगर ही हमारे अधीन हैं। हमारे पास गाँव या घर भी नहीं हैं। हम तो सदाके वनवासी हैं, वन और पहाड़ ही हमारे घर हैं ॥ २४ ॥ इसलिये हमलोग गौओं, ब्राह्मणों और गिरिराजका यजन करनेकी तैयारी करें। इन्द्र- यज्ञके लिये जो सामग्रियाँ इकट्ठी की गयी हैं, उन्हींसे इस यज्ञका अनुष्ठान होने दें ॥ २५ ॥ अनेकों प्रकारके पकवानखीर, हलवा, पूआ, पूरी आदिसे लेकर मूँगकी दालतक बनाये जायँ। व्रजका सारा दूध एकत्र कर लिया जाय ॥ २६ ॥ वेदवादी ब्राह्मणोंके द्वारा भलीभाँति हवन करवाया जाय तथा उन्हें अनेकों प्रकारके अन्न, गौएँ और दक्षिणाएँ दी जायँ ॥ २७ ॥ और भी, चाण्डाल, पतित तथा कुत्तों तक को यथायोग्य वस्तुएँ देकर गायों को चारा दिया जाय और फिर गिरिराज को भोग लगाया जाय ॥ २८ ॥ इसके बाद खूब प्रसाद खा-पीकर, सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर गहनोंसे सज-सजा लिया जाय और चन्दन लगाकर गौ, ब्राह्मण, अग्रि तथा गिरिराज गोवर्धनकी प्रदक्षिणा की जाय ॥ २९ ॥ पिताजी ! मेरी तो ऐसी ही सम्मति है। यदि आपलोगोंको रुचे, तो ऐसा ही कीजिये। ऐसा यज्ञ गौ, ब्राह्मण और गिरिराजको तो प्रिय होगा ही; मुझे भी बहुत प्रिय है ॥ ३० ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

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बुधवार, 8 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीनन्द उवाच -

पर्जन्यो भगवान् इन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तयः ।

तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पयः ॥ ८ ॥

तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् ।

द्रव्यैस्तद् रेतसा सिद्धैः यजन्ते क्रतुभिर्नराः ॥ ९ ॥

तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।

पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्यः फलभावनः ॥ १० ॥

य एनं विसृजेत् धर्मं परम्पर्यागतं नरः ।

कामाल्लोभात् भयाद् द्वेषात् स वै नाप्नोति शोभनम् ॥ ११ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।

इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशवः ॥ १२ ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

कर्मणा जायते जन्तुः कर्मणैव विलीयते ।

सुखं दुःखं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥ १३ ॥

अस्ति चेदीश्वरः कश्चित् फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।

कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तुः प्रभुर्हि सः ॥ १४ ॥

किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम् ।

अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम् ॥ १५ ॥

स्वभावतन्त्रो हि जनः स्वभावमनुवर्तते ।

स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥ १६ ॥

 

नन्दबाबाने कहाबेटा ! भगवान्‌ इन्द्र वर्षा करनेवाले मेघोंके स्वामी हैं। ये मेघ उन्हींके अपने रूप हैं। वे समस्त प्राणियोंको तृप्त करनेवाला एवं जीवनदान करनेवाला जल बरसाते हैं ॥ ८ ॥ मेरे प्यारे पुत्र ! हम और दूसरे लोग भी उन्हीं मेघपति भगवान्‌ इन्द्रकी यज्ञोंके द्वारा पूजा किया करते हैं। जिन सामग्रियोंसे यज्ञ होता है, वे भी उनके बरसाये हुए शक्तिशाली जलसे ही उत्पन्न होती हैं ॥ ९ ॥ उनका यज्ञ करनेके बाद जो कुछ बच रहता है, उसी अन्नसे हम सब मनुष्य अर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्गकी सिद्धिके लिये अपना जीवन निर्वाह करते हैं। मनुष्योंके खेती आदि प्रयत्नोंके फल देनेवाले इन्द्र ही हैं ॥ १० ॥ यह धर्म हमारी कुलपरम्परासे चला आया है। जो मनुष्य काम, लोभ, भय अथवा द्वेषवश ऐसे परम्परागत धर्मको छोड़ देता है, उसका कभी मङ्गल नहीं होता ॥ ११ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! ब्रह्मा, शङ्कर आदिके भी शासन करनेवाले केशव भगवान्‌ने नन्दबाबा और दूसरे व्रजवासियोंकी बात सुनकर इन्द्रको क्रोध दिलानेके लिये अपने पिता नन्दबाबासे कहा ॥ १२ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहापिताजी ! प्राणी अपने कर्मके अनुसार ही पैदा होता और कर्मसे ही मर जाता है। उसे उसके कर्मके अनुसार ही सुख-दु:ख, भय और मङ्गल के निमित्तों की प्राप्ति होती है ॥ १३ ॥ यदि कर्मोंको ही सब कुछ न मानकर उनसे भिन्न जीवोंके कर्मका फल देनेवाला ईश्वर माना भी जाय, तो वह कर्म करनेवालोंको ही उनके कर्मके अनुसार फल दे सकता है। कर्म न करनेवालोंपर उसकी प्रभुता नहीं चल सकती ॥ १४ ॥ जब सभी प्राणी अपने-अपने कर्मोंका ही फल भोग रहे हैं तब हमें इन्द्रकी क्या आवश्यकता है ? पिताजी ! जब वे पूर्वसंस्कारके अनुसार प्राप्त होनेवाले मनुष्योंके कर्म-फलको बदल ही नहीं सकतेतब उनसे प्रयोजन ? ॥ १५ ॥ मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व-संस्कारों) के अधीन है। वह उसीका अनुसरण करता है। यहाँतक कि देवता, असुर, मनुष्य आदिको लिये हुए यह सारा जगत् स्वभावमें ही स्थित है ॥ १६ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) चौबीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

इन्द्रयज्ञ-निवारण

 

श्रीशुक उवाच -

भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुतः ।

अपश्यत् निवसन् गोपान् इन्द्रयागकृतोद्यमान् ॥ १ ॥

तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शनः ।

प्रश्रयावनतोऽपृच्छत् वृद्धान् नन्दपुरोगमान् ॥ २ ॥

कथ्यतां मे पितः कोऽयं सम्भ्रमो व उपागतः ।

किं फलं कस्य चोद्देशः केन वा साध्यते मखः ॥ ३ ॥

एतद्‍ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पितः ।

न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ॥ ४ ॥

अस्त्यस्व-परदृष्टीनां अमित्रोदास्तविद्विषाम् ।

उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥ ५ ॥

ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।

विदुषः कर्मसिद्धिः स्यात् तथा नाविदुषो भवेत् ॥ ६ ॥

तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारितः ।

अथ वा लौकिकस्तन्मे पृच्छतः साधु भण्यताम् ॥ ७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण बलरामजी के साथ वृन्दावन में रहकर अनेकों प्रकारकी लीलाएँ कर रहे थे। उन्होंने एक दिन देखा कि वहाँके सब गोप इन्द्र-यज्ञ करनेकी तैयारी कर रहे हैं ॥ १ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण सबके अन्तर्यामी और सर्वज्ञ हैं। उनसे कोई बात छिपी नहीं थी, वे सब जानते थे। फिर भी विनयावनत होकर उन्होंने नन्दबाबा आदि बड़े-बूढ़े गोपोंसे पूछा॥ २ ॥ पिताजी ! आपलोगोंके सामने यह कौन-सा बड़ा भारी काम, कौन-सा उत्सव आ पहुँचा है ? इसका फल क्या है ? किस उद्देश्यसे, कौन लोग, किन साधनोंके द्वारा यह यज्ञ किया करते हैं ? पिताजी ! आप मुझे यह अवश्य बतलाइये ॥ ३ ॥ आप मेरे पिता हैं और मैं आपका पुत्र। ये बातें सुनने के लिये मुझे बड़ी उत्कण्ठा भी है। पिताजी ! जो संत पुरुष सबको अपनी आत्मा मानते हैं, जिनकी दृष्टि में अपने और पराये का भेद नहीं है, जिनका न कोई मित्र है, न शत्रु और न उदासीनउनके पास छिपाने की तो कोई बात होती ही नहीं। परंतु यदि ऐसी स्थिति न हो, तो रहस्यकी बात शत्रुकी भाँति उदासीनसे भी नहीं कहनी चाहिये। मित्र तो अपने समान ही कहा गया है, इसलिये उससे कोई बात छिपायी नहीं जाती ॥ ४-५ ॥ यह संसारी मनुष्य समझे-बेसमझे अनेकों प्रकारके कर्मोंका अनुष्ठान करता है। उनमें से समझ-बूझकर करनेवाले पुरुषों के कर्म जैसे सफल होते हैं, वैसे बेसमझ के नहीं ॥ ६ ॥ अत: इस समय आपलोग जो क्रियायोग करने जा रहे हैं, वह सुहृदों के साथ विचारितशास्त्रसम्मत है अथवा लौकिक ही हैमैं यह सब जानना चाहता हूँ; आप कृपा करके स्पष्टरूप से बतलाइये॥ ७ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 7 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०४)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

अथानुस्मृत्य विप्रास्ते अन्वतप्यन् कृतागसः ।

यद् विश्वेश्वरयोर्याच्ञां अहन्म नृविडम्बयोः ॥ ३७ ॥

दृष्ट्वा स्त्रीणां भगवति कृष्णे भक्तिमलौकिकीम् ।

आत्मानं च तया हीनं अनुतप्ता व्यगर्हयन् ॥ ३८ ॥

धिग्जन्म नः त्रिवृत् विद्यां धिग् व्रतं धिग् बहुज्ञताम् ।

धिक्कुलं धिक् क्रियादाक्ष्यं विमुखा ये त्वधोक्षजे ॥ ३९ ॥

नूनं भगवतो माया योगिनामपि मोहिनी ।

यस् वयं गुरवो नृणां स्वार्थे मुह्यामहे द्विजाः ॥ ४० ॥

अहो पश्यत नारीणां अपि कृष्णे जगद्‍गुरौ ।

दुरन्तभावं योऽविध्यन् मृत्युपाशान् गृहाभिधान् ॥ ४१ ॥

नासां द्विजातिसंस्कारो न निवासो गुरावपि ।

न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न क्रियाः शुभाः ॥ ४२ ॥

तथापि ह्युत्तमःश्लोके कृष्णे योगेश्वरेश्वरे ।

भक्तिर्दृढा न चास्माकं संस्कारादिमतामपि ॥ ४३ ॥

ननु स्वार्थविमूढानां प्रमत्तानां गृहेहया ।

अहो नः स्मारयामास गोपवाक्यैः सतां गतिः ॥ ४४ ॥

अन्यथा पूर्णकामस्य कैवल्याद्यशिषां पतेः ।

ईशितव्यैः किमस्माभिः ईशस्यैतद् विडम्बनम् ॥ ४५ ॥

हित्वान्यान् भजते यं श्रीः पादस्पर्शाशया सकृत् ।

स्वात्मदोषापवर्गेण तद्याच्ञा जनमोहिनी ॥ ४६ ॥

देशः कालः पृथग्द्रव्यं मंत्रतंत्रर्त्विजोऽग्नयः ।

देवता यजमानश्च क्रतुर्धर्मश्च यन्मयः ॥ ४७ ॥

स एष भगवान् साक्षाद् विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः ।

जातो यदुष्वित्याश्रृण्म ह्यपि मूढा न विद्महे ॥ ४८ ॥

अहो वयं धन्यतमा येषां नस्तादृशीः स्त्रियः ।

भक्त्या यासां मतिर्जाता अस्माकं निश्चला हरौ ॥ ४९ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते कृष्णायाकुण्ठमेधसे ।

यन्मायामोहितधियो भ्रमामः कर्मवर्त्मसु ॥ ५० ॥

स वै न आद्यः पुरुषः स्वमायामोहितात्मनाम् ।

अविज्ञतानुभावानां क्षन्तुमर्हत्यतिक्रमम् ॥ ५१ ॥

इति स्वाघमनुस्मृत्य कृष्णे ते कृतहेलनाः ।

दिदृक्षवोऽप्यच्युतयोः कंसाद्‍भीता न चाचलन् ॥ ५२ ॥

 

परीक्षित्‌ ! इधर जब ब्राह्मणोंको यह मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण तो स्वयं भगवान्‌ हैं, तब उन्हें बड़ा पछतावा हुआ। वे सोचने लगे कि जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण और बलराम की आज्ञा का उल्लङ्घन करके हमने बड़ा भारी अपराध किया है। वे तो मनुष्यकी-सी लीला करते हुए भी परमेश्वर ही हैं ॥ ३७ ॥ जब उन्होंने देखा कि हमारी पत्नियोंके हृदयमें तो भगवान्‌ का अलौकिक प्रेम है और हमलोग उससे बिलकुल रीते हैं, तब वे पछता-पछताकर अपनी निन्दा करने लगे ॥ ३८ ॥ वे कहने लगेहाय ! हम भगवान्‌ श्रीकृष्ण से विमुख हैं। बड़े ऊँचे कुलमें हमारा जन्म हुआ, गायत्री ग्रहण करके हम द्विजाति हुए, वेदाध्ययन करके हमने बड़े-बड़े यज्ञ किये; परंतु वह सब किस कामका ? धिक्कार है ! धिक्कार है !! हमारी विद्या व्यर्थ गयी, हमारे व्रत बुरे सिद्ध हुए। हमारी इस बहुज्ञता को धिक्कार है ! ऊँचे वंशमें जन्म लेना, कर्मकाण्ड में निपुण होना किसी काम न आया। इन्हें बार-बार धिक्कार है ॥ ३९ ॥ निश्चय ही, भगवान्‌ की माया बड़े-बड़े योगियोंको भी मोहित कर लेती है। तभी तो हम कहलाते हैं मनुष्योंके गुरु और ब्राह्मण, परंतु अपने सच्चे स्वार्थ और परमार्थके विषयमें बिलकुल भूले हुए हैं ॥ ४० ॥ कितने आश्चर्यकी बात है ! देखो तो सहीयद्यपि ये स्त्रियाँ हैं, तथापि जगद्गुरु भगवान्‌ श्रीकृष्णमें इनका कितना अगाध प्रेम है, अखण्ड अनुराग है ! उसीसे इन्होंने गृहस्थीकी वह बहुत बड़ी फाँसी भी काट डाली, जो मृत्युके साथ भी नहीं कटती ॥ ४१ ॥ इनके न तो द्विजाति के योग्य यज्ञोपवीत आदि संस्कार हुए हैं और न तो इन्होंने गुरुकुल में ही निवास किया है। न इन्होंने तपस्या की है और न तो आत्मा के सम्बन्धमें ही कुछ विवेक-विचार किया है। उनकी बात तो दूर रही, इनमें न तो पूरी पवित्रता है और न तो शुभकर्म ही ॥ ४२ ॥ फिर भी समस्त योगेश्वरोंके ईश्वर पुण्यकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके चरणोंमें इनका दृढ़ प्रेम है। और हमने अपने संस्कार किये हैं, गुरुकुलमें निवास किया है, तपस्या की है, आत्मानुसन्धान किया है, पवित्रताका निर्वाह किया है तथा अच्छे-अच्छे कर्म किये हैं; फिर भी भगवान्‌ के चरणों में हमारा प्रेम नहीं है ॥ ४३ ॥ सच्ची बात यह है कि हमलोग गृहस्थी के काम-धंधों में मतवाले हो गये थे, अपनी भलाई और बुराई को बिलकुल भूल गये थे। अहो, भगवान्‌ की कितनी कृपा है ! भक्तवत्सल प्रभुने ग्वालबालों को भेजकर उनके वचनों से हमें चेतावनी दी, अपनी याद दिलायी ॥ ४४ ॥ भगवान्‌ स्वयं पूर्णकाम हैं और कैवल्यमोक्षपर्यन्त जितनी भी कामनाएँ होती हैं, उनको पूर्ण करनेवाले हैं। यदि हमें सचेत नहीं करना होता तो उनका हम-सरीखे क्षुद्र जीवोंसे प्रयोजन ही क्या हो सकता था ? अवश्य ही उन्होंने इसी उद्देश्यसे माँगनेका बहाना बनाया। अन्यथा उन्हें माँगनेकी भला क्या आवश्यकता थी ? ॥ ४५ ॥ स्वयं लक्ष्मी अन्य सब देवताओंको छोडक़र और अपनी चञ्चलता, गर्व आदि दोषोंका परित्याग कर केवल एक बार उनके चरणकमलोंका स्पर्श पानेके लिये सेवा करती रहती हैं। वे ही प्रभु किसीसे भोजनकी याचना करें, यह लोगोंको मोहित करनेके लिये नहीं तो और क्या है ? ॥ ४६ ॥ देश, काल, पृथक्-पृथक् सामग्रियाँ, उन-उन कर्मों में विनियुक्त मन्त्र, अनुष्ठानकी पद्धति, ऋत्विज्, अग्रि, देवता, यजमान, यज्ञ और धर्मसब भगवान्‌के ही स्वरूप हैं ॥ ४७ ॥ वे ही योगेश्वरोंके भी ईश्वर भगवान्‌ विष्णु स्वयं श्रीकृष्णके रूपमें यदुवंशियोंमें अवतीर्ण हुए हैं, यह बात हमने सुन रखी थी; परंतु हम इतने मूढ़ हैं कि उन्हें पहचान न सके ॥ ४८ ॥ यह सब होनेपर भी हम धन्यातिधन्य हैं, हमारे अहोभाग्य हैं। तभी तो हमें वैसी पत्नियाँ प्राप्त हुई हैं। उनकी भक्तिसे हमारी बुद्धि भी भगवान्‌ श्रीकृष्ण के अविचल प्रेमसे युक्त हो गयी है ॥ ४९ ॥ प्रभो ! आप अचिन्त्य और अनन्त ऐश्वर्योंके स्वामी हैं ! श्रीकृष्ण ! आपका ज्ञान अबाध है। आपकी ही मायासे हमारी बुद्धि मोहित हो रही है और हम कर्मोंके पचड़े में भटक रहे हैं। हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ ५० ॥ वे आदि पुरुषोत्तम भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमारे इस अपराधको क्षमा करें। क्योंकि हमारी बुद्धि उनकी मायासे मोहित हो रही है और हम उनके प्रभावको न जाननेवाले अज्ञानी हैं ॥५१ ॥

 

परीक्षित्‌ ! उन ब्राह्मणोंने श्रीकृष्णका तिरस्कार किया था। अत: उन्हें अपने अपराधकी स्मृतिसे बड़ा पश्चात्ताप हुआ और उनके हृदयमें श्रीकृष्ण-बलरामके दर्शनकी बड़ी इच्छा भी हुई; परंतु कंसके डरके मारे वे उनका दर्शन करने न जा सके ॥ ५२ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०३)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

श्रीपत्‍न्य ऊचुः ।

मैवं विभोऽर्हति भवान्गदितुं नृशंसं

सत्यं कुरुष्व निगमं तव पादमूलम् ।

प्राप्ता वयं तुलसिदाम पदावसृष्टं

केशैर्निवोढुमतिलङ्‌घ्य समस्तबन्धून् ॥ २९ ॥

गृह्णन्ति नो न पतयः पितरौ सुता वा

न भ्रातृबन्धुसुहृदः कुत एव चान्ये ।

तस्माद् भवत्प्रपदयोः पतितात्मनां नो

नान्या भवेद् गतिररिन्दम तद् विधेहि ॥ ३० ॥

 

श्रीभगवानुवाच -

पतयो नाभ्यसूयेरन् पितृभ्रातृसुतादयः ।

लोकाश्च वो मयोपेता देवा अप्यनुमन्वते ॥ ३१ ॥

न प्रीतयेऽनुरागाय ह्यङ्‌गसङ्‌गो नृणामिह ।

तन्मनो मयि युञ्जाना अचिरान् मामवाप्स्यथ ॥ ३२ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

इत्युक्ता द्विजपत्‍न्यस्ता यज्ञवाटं पुनर्गताः ।

ते चानसूयवः स्वाभिः स्त्रीभिः सत्रमपारयन् ॥ ३३ ॥

तत्रैका विधृता भर्त्रा भगवन्तं यथाश्रुतम् ।

हृदोपगुह्य विजहौ देहं कर्मानुबन्धनम् ॥ ३४ ॥

भगवानपि गोविन्दः तेनैवान्नेन गोपकान् ।

चतुर्विधेनाशयित्वा स्वयं च बुभुजे प्रभुः ॥ ३५ ॥

एवं लीलानरवपुः नृलोकमनुशीलयन् ।

रेमे गोगोपगोपीनां रमयन्रूपवाक्कृतैः ॥ ३६ ॥

 

ब्राह्मणपत्नियों ने कहाअन्तर्यामी श्यामसुन्दर ! आपकी यह बात निष्ठुरता से पूर्ण है। आपको ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। श्रुतियाँ कहती हैं कि जो एक बार भगवान्‌ को प्राप्त हो जाता है, उसे फिर संसार में नहीं लौटना पड़ता। आप अपनी यह वेदवाणी सत्य कीजिये। हम अपने समस्त सगे- सम्बन्धियों की आज्ञाका उल्लङ्घन करके आपके चरणों में इसलिये आयी हैं कि आपके चरणोंसे गिरी हुई तुलसी की माला अपने केशों में धारण करें ॥ २९ ॥ स्वामी ! अब हमारे पति-पुत्र, माता- पिता, भाई-बन्धु और स्वजन-सम्बन्धी हमें स्वीकार नहीं करेंगे; फिर दूसरों की तो बात ही क्या है। वीरशिरोमणे ! अब हम आपके चरणों में आ पड़ी हैं। हमें और किसी का सहारा नहीं है। इसलिये अब हमें दूसरों की शरण में न जाना पड़े, ऐसी व्यवस्था कीजिये ॥ ३० ॥

 

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहादेवियो ! तुम्हारे पति-पुत्र, माता-पिता, भाई-बन्धुकोई भी तुम्हारा तिरस्कार नहीं करेंगे। उनकी तो बात ही क्या, सारा संसार तुम्हारा सम्मान करेगा। इसका कारण है। अब तुम मेरी हो गयी हो, मुझसे युक्त हो गयी हो। देखो न, ये देवता मेरी बातका अनुमोदन कर रहे हैं ॥ ३१ ॥ देवियो ! इस संसारमें मेरा अङ्ग-सङ्ग ही मनुष्योंमें मेरी प्रीति या अनुरागका कारण नहीं है। इसलिये तुम जाओ, अपना मन मुझमें लगा दो। तुम्हें बहुत शीघ्र मेरी प्राप्ति हो जायगी ॥ ३२ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ने इस प्रकार कहा, तब वे ब्राह्मणपत्नियाँ यज्ञशालामें लौट गयीं। उन ब्राह्मणोंने अपनी स्त्रियोंमें तनिक भी दोषदृष्टि नहीं की। उनके साथ मिलकर अपना यज्ञ पूरा किया ॥ ३३ ॥ उन स्त्रियोंमेंसे एकको आनेके समय ही उसके पतिने बलपूर्वक रोक लिया था। इसपर उस ब्राह्मणपत्नीने भगवान्‌के वैसे ही स्वरूपका ध्यान किया, जैसा कि बहुत दिनोंसे सुन रखा था। जब उसका ध्यान जम गया, तब मन-ही-मन भगवान्‌का आलिङ्गन करके उसने कर्मके द्वारा बने हुए अपने शरीरको छोड़ दिया—(शुद्धसत्त्वमय दिव्य शरीर से उसने भगवान्‌ की सन्निधि प्राप्त कर ली) ॥ ३४ ॥ इधर भगवान्‌ श्रीकृष्णने ब्राह्मणियोंके लाये हुए उस चार प्रकारके अन्नसे पहले ग्वालबालोंको भोजन कराया और फिर उन्होंने स्वयं भी भोजन किया ॥ ३५ ॥ परीक्षित्‌ ! इस प्रकार लीलामनुष्य भगवान्‌ श्रीकृष्णने मनुष्यकी-सी लीला की और अपने सौन्दर्य, माधुर्य, वाणी तथा कर्मोंसे गौएँ, ग्वालबाल और गोपियोंको आनन्दित किया और स्वयं भी उनके अलौकिक प्रेमरसका आस्वादन करके आनन्दित हुए ॥ ३६ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



सोमवार, 6 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) तेईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

यज्ञपत्नियों पर कृपा

 

गत्वाथ पत्‍नीशालायां दृष्ट्वासीनाः स्वलङ्‌कृताः ।

नत्वा द्विजसतीर्गोपाः प्रश्रिता इदमब्रुवन् ॥ १५ ॥

नमो वो विप्रपत्‍नीभ्यो निबोधत वचांसि नः ।

इतोऽविदूरे चरता कृष्णेनेहेषिता वयम् ॥ १६ ॥

गाश्चारयन् स गोपालैः सरामो दूरमागतः ।

बुभुक्षितस्य तस्यान्नं सानुगस्य प्रदीयताम् ॥ १७ ॥

श्रुत्वाच्युतं उपायातं नित्यं तद्दर्शनोत्सुकाः ।

तत्कथाक्षिप्तमनसो बभूवुर्जातसम्भ्रमाः ॥ १८ ॥

चतुर्विधं बहुगुणं अन्नमादाय भाजनैः ।

अभिसस्रुः प्रियं सर्वाः समुद्रमिव निम्नगाः ॥ १९ ॥

निषिध्यमानाः पतिभिः भ्रातृभिर्बन्धुभिः सुतैः ।

भगवति उत्तमश्लोके दीर्घश्रुत धृताशयाः ॥ २० ॥

यमुनोपवनेऽशोक नवपल्लवमण्डिते ।

विचरन्तं वृतं गोपैः साग्रजं ददृशुः स्त्रियः ॥ २१ ॥

श्यामं हिरण्यपरिधिं वनमाल्यबर्ह

धातुप्रवालनटवेषमनव्रतांसे ।

विन्यस्तहस्तमितरेण धुनानमब्जं

कर्णोत्पलालक कपोलमुखाब्जहासम् ॥ २२ ॥

प्रायःश्रुतप्रियतमोदयकर्णपूरैः

यस्मिन् निमग्नमनसः तं अथाक्षिरंध्रैः ।

अन्तः प्रवेश्य सुचिरं परिरभ्य तापं

प्राज्ञं यथाभिमतयो विजहुर्नरेन्द्र ॥ २३ ॥

तास्तथा त्यक्तसर्वाशाः प्राप्ता आत्मदिदृक्षया ।

विज्ञायाखिलदृग्द्रष्टा प्राह प्रहसिताननः ॥ २४ ॥

स्वागतं वो महाभागा आस्यतां करवाम किम् ।

यन्नो दिदृक्षया प्राप्ता उपपन्नमिदं हि वः ॥ २५ ॥

नन्वद्धा मयि कुर्वन्ति कुशलाः स्वार्थदर्शिनः ।

अहैतुक्यव्यवहितां भक्तिमात्मप्रिये यथा ॥ २६ ॥

प्राणबुद्धिमनःस्वात्म दारापत्यधनादयः ।

यत्सम्पर्कात् प्रिया आसन् ततः को न्वपरः प्रियः ॥ २७ ॥

तद् यात देवयजनं पतयो वो द्विजातयः ।

स्वसत्रं पारयिष्यन्ति युष्माभिर्गृहमेधिनः ॥ २८ ॥

                                                                                                                                                                                                                                                                              

अबकी बार ग्वालबाल पत्नीशाला में गये। वहाँ जाकर देखा तो ब्राह्मणों की पत्नियाँ सुन्दर- सुन्दर वस्त्र और गहनों से सज-धजकर बैठी हैं। उन्होंने द्विजपत्नियों को प्रणाम करके बड़ी नम्रता से यह बात कही॥ १५ ॥ आप विप्रपत्नियोंको हम नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारी बात सुनें। भगवान्‌ श्रीकृष्ण यहाँसे थोड़ी ही दूरपर आये हुए हैं और उन्होंने ही हमें आपके पास भेजा है ॥ १६ ॥ वे ग्वालबाल और बलरामजीके साथ गौएँ चराते हुए इधर बहुत दूर आ गये हैं। इस समय उन्हें और उनके साथियोंको भूख लगी है। आप उनके लिये कुछ भोजन दे दें॥ १७ ॥ परीक्षित्‌! वे ब्राह्मणियाँ बहुत दिनोंसे भगवान्‌ की मनोहर लीलाएँ सुनती थीं। उनका मन उनमें लग चुका था। वे सदा-सर्वदा इस बातके लिये उत्सुक रहतीं कि किसी प्रकार श्रीकृष्णके दर्शन हो जायँ। श्रीकृष्णके आनेकी बात सुनते ही वे उतावली हो गयीं ॥ १८ ॥ उन्होंने बर्तनोंमें अत्यन्त स्वादिष्ट और हितकर भक्ष्य, भोज्य, लेह्य और चोष्यचारों प्रकारकी भोजन सामग्री ले ली तथा भाई-बन्धु, पति-पुत्रोंके रोकते रहनेपर भी अपने प्रियतम भगवान्‌ श्रीकृष्णके पास जानेके लिये घरसे निकल पड़ींठीक वैसे ही, जैसे नदियाँ समुद्रके लिये। क्यों न हो; न जाने कितने दिनोंसे पवित्रकीर्ति भगवान्‌ श्रीकृष्णके गुण, लीला, सौन्दर्य और माधुर्य आदिका वर्णन सुन-सुनकर उन्होंने उनके चरणोंपर अपना हृदय निछावर कर दिया था ॥ १९-२० ॥ ब्राह्मणपत्नियोंने जाकर देखा कि यमुनाके तटपर नये-नये कोंपलोंसे शोभायमान अशोक-वनमें ग्वालबालोंसे घिरे हुए बलरामजीके साथ श्रीकृष्ण इधर-उधर घूम रहे हैं ॥ २१ ॥ उनके साँवले शरीरपर सुनहला पीताम्बर झिलमिला रहा है। गलेमें वनमाला लटक रही है। मस्तकपर मोरपंखका मुकुट है। अङ्ग-अङ्गमें रंगीन धातुओंसे चित्रकारी कर रखी है। नये-नये कोंपलोंके गुच्छे शरीरमें लगाकर नटका-सा वेष बना रखा है। एक हाथ अपने सखा ग्वालबालके कंधेपर रखे हुए हैं और दूसरे हाथसे कमलका फूल नचा रहे हैं। कानोंमें कमलके कुण्डल हैं, कपोलोंपर घुँघराली अलकें लटक रही हैं और मुख कमल मन्द-मन्द मुसकानकी रेखासे प्रफुल्लित हो रहा है ॥ २२ ॥ परीक्षित्‌ ! अबतक अपने प्रियतम श्यामसुन्दरके गुण और लीलाएँ अपने कानोंसे सुन-सुनकर उन्होंने अपने मनको उन्हींके प्रेमके रंगमें रँग डाला था, उसीमें सराबोर कर दिया था। अब नेत्रोंके मार्गसे उन्हें भीतर ले जाकर बहुत देरतक वे मन-ही-मन उनका आलिङ्गन करती रहीं और इस प्रकार उन्होंने अपने हृदयकी जलन शान्त कीठीक वैसे ही, जैसे जाग्रत् और स्वप्न-अवस्थाओंकी वृत्तियाँ यह मैं, यह मेराइस भावसे जलती रहती हैं, परंतु सुषुप्ति-अवस्थामें उसके अभिमानी प्राज्ञको पाकर उसीमें लीन हो जाती हैं और उनकी सारी जलन मिट जाती है ॥ २३ ॥

 

प्रिय परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ सबके हृदयकी बात जानते हैं, सबकी बुद्धियोंके साक्षी हैं। उन्होंने जब देखा कि ये ब्राह्मणपत्नियाँ अपने भाई-बन्धु और पति-पुत्रोंके रोकनेपर भी सब सगे-सम्बन्धियों और विषयोंकी आशा छोडक़र केवल मेरे दर्शनकी लालसासे ही मेरे पास आयी हैं, तब उन्होंने उनसे कहा। उस समय उनके मुखारविन्दपर हास्यकी तरङ्गें अठखेलियाँ कर रही थीं ॥ २४ ॥ भगवान्‌ने कहा—‘महाभाग्यवती देवियो ! तुम्हारा स्वागत है। आओ, बैठो। कहो, हम तुम्हारा क्या स्वागत करें ? तुमलोग हमारे दर्शनकी इच्छासे यहाँ आयी हो, यह तुम्हारे-जैसे प्रेमपूर्ण हृदयवालोंके योग्य ही है ॥ २५ ॥ इसमें सन्देह नहीं कि संसारमें अपनी सच्ची भलाईको समझनेवाले जितने भी बुद्धिमान् पुरुष हैं, वे अपने प्रियतम के समान ही मुझसे प्रेम करते हैं, और ऐसा प्रेम करते हैं, जिस में किसी प्रकार की कामना नहीं रहतीजिसमें किसी प्रकार का व्यवधान, संकोच, छिपाव, दुविधा या द्वैत नहीं होता ॥ २६ ॥ प्राण, बुद्धि, मन, शरीर, स्वजन, स्त्री, पुत्र और धन आदि संसारकी सभी वस्तुएँ जिसके लिये और जिसकी सन्निधि से प्रिय लगती हैंउस आत्मासे, परमात्मासे, मुझ श्रीकृष्णसे बढक़र और कौन प्यारा हो सकता है ॥ २७ ॥ इसलिये तुम्हारा आना उचित ही है। मैं तुम्हारे प्रेमका अभिनन्दन करता हूँ। परंतु अब तुमलोग मेरा दर्शन कर चुकीं। अब अपनी यज्ञ- शाला में लौट जाओ। तुम्हारे पति ब्राह्मण गृहस्थ हैं। वे तुम्हारे साथ मिलकर ही अपना यज्ञ पूर्ण कर सकेंगे॥ २८ ॥

 

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श्रीमद्भागवतमहापुराण तृतीय स्कन्ध-पांचवां अध्याय..(पोस्ट१२)

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