बुधवार, 15 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

दुहन्त्योऽभिययुः काश्चिद् दोहं हित्वा समुत्सुकाः ।

पयोऽधिश्रित्य संयावं अनुद्वास्यापरा ययुः ॥ ५ ॥

परिवेषयन्त्यस्तद्धित्वा पाययन्त्यः शिशून् पयः ।

शुश्रूषन्त्यः पतीन् काश्चिद् अश्नन्त्योऽपास्य भोजनम् ॥ ६ ॥

लिम्पन्त्यः प्रमृजन्त्योऽन्या अञ्जन्त्यः काश्च लोचने ।

व्यत्यस्तवस्त्राभरणाः काश्चित् कृष्णान्तिकं ययुः ॥ ७ ॥

ता वार्यमाणाः पतिभिः पितृभिः भ्रातृबन्धुभिः ।

गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः ॥ ८ ॥

अन्तर्गृहगताः काश्चिद् गोप्योऽलब्धविनिर्गमाः ।

कृष्णं तद्‍भावनायुक्ता दध्युर्मीलितलोचनाः ॥ ९ ॥

दुःसहप्रेष्ठविरह तीव्रतापधुताशुभाः ।

ध्यानप्राप्ताच्युताश्लेष निर्वृत्या क्षीणमङ्‌गलाः ॥ १० ॥

तमेव परमात्मानं जारबुद्ध्यापि सङ्‌गताः ।

जहुर्गुणमयं देहं सद्यः प्रक्षीणबन्धनाः ॥ ११ ॥

 

वंशीध्वनि सुनकर जो गोपियाँ दूध दुह रही थीं, वे अत्यन्त उत्सुकतावश दूध दुहना छोडक़र चल पड़ीं। जो चूल्हेपर दूध औंटा रही थीं वे उफनता हुआ दूध छोडक़र और जो लपसी पका रही थीं वे पकी हुई लपसी बिना उतारे ही ज्यों-की-त्यों छोडक़र चल दीं ॥ ५ ॥ जो भोजन परस रही थीं वे परसना छोडक़र, जो छोटे-छोटे बच्चोंको दूध पिला रही थीं वे दूध पिलाना छोडक़र, जो पतियोंकी सेवा-शुश्रूषा कर रही थीं वे सेवा-शुश्रूषा छोडक़र और जो स्वयं भोजन कर रही थीं वे भोजन करना छोडक़र अपने कृष्णप्यारेके पास चल पड़ीं ॥ ६ ॥ कोई-कोई गोपी अपने शरीरमें अङ्गराग, चन्दन और उबटन लगा रही थीं और कुछ आँखोंमें अंजन लगा रही थीं। वे उन्हें छोडक़र तथा उलटे-पलटे वस्त्र धारणकर श्रीकृष्णके पास पहुँचनेके लिये चल पड़ीं ॥ ७ ॥ पिता और पतियोंने, भाई और जाति-बन्धुओंने उन्हें रोका, उनकी मङ्गलमयी प्रेमयात्रामें विघ्र डाला। परंतु वे इतनी मोहित हो गयी थीं कि रोकनेपर भी न रुकीं, न रुक सकीं। रुकतीं कैसे? विश्वविमोहन श्रीकृष्णने उनके प्राण, मन और आत्मा सब कुछका अपहरण जो कर लिया था ॥ ८ ॥ परीक्षित्‌ ! उस समय कुछ गोपियाँ घरोंके भीतर थीं। उन्हें बाहर निकलनेका मार्ग ही न मिला। तब उन्होंने अपने नेत्र मूँद लिये और बड़ी तन्मयतासे श्रीकृष्णके सौन्दर्य, माधुर्य और लीलाओंका ध्यान करने लगीं ॥ ९ ॥ परीक्षित्‌ ! अपने परम प्रियतम श्रीकृष्णके असह्य विरहकी तीव्र वेदनासे उनके हृदयमें इतनी व्यथाइतनी जलन हुई कि उनमें जो कुछ अशुभ संस्कारोंका लेशमात्र अवशेष था, वह भस्म हो गया। इसके बाद तुरंत ही ध्यान लग गया। ध्यानमें उनके सामने भगवान्‌ श्रीकृष्ण प्रकट हुए। उन्होंने मन-ही-मन बड़े प्रेमसे, बड़े आवेग से उनका आलिङ्गन किया। उस समय उन्हें इतना सुख, इतनी शान्ति मिली कि उनके सब-के-सब पुण्यके संस्कार एक साथ ही क्षीण हो गये ॥ १० ॥ परीक्षित्‌ ! यद्यपि उनका उस समय श्रीकृष्णके प्रति जारभाव भी था; तथापि कहीं सत्य वस्तु भी भावकी अपेक्षा रखती है ? उन्होंने जिनका आलिङ्गन किया, चाहे किसी भी भावसे किया हो, वे स्वयं परमात्मा ही तो थे। इसलिये उन्होंने पाप और पुण्यरूप कर्मके परिणामसे बने हुए गुणमय शरीरका परित्याग कर दिया। (भगवान्‌ की लीलामें सम्मिलित होनेके योग्य दिव्य अप्राकृत शरीर प्राप्त कर लिया।) इस शरीरसे भोगे जानेवाले कर्मबन्धन तो ध्यानके समय ही छिन्न-भिन्न हो चुके थे ॥ ११ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) उनतीसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

रासलीलाका आरम्भ

 

श्रीशुक उवाच -

भगवान् अपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः ।

वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः ॥ १ ॥

तदोडुराजः ककुभः करैर्मुखं

प्राच्या विलिम्पन्नरुणेन शन्तमैः ।

स चर्षणीनामुदगाच्छुचो मृजन्

प्रियः प्रियाया इव दीर्घदर्शनः ॥ २ ॥

दृष्ट्वा कुमुद्वन्तं अखण्डमण्डलं

रमाननाभं नवकुङ्‌कुमारुणम् ।

वनं च तत्कोमलगोभी रञ्जितं

जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् ॥ ३ ॥

निशम्य गीतां तदनङ्‌गवर्धनं

व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः ।

आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः

स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ॥ ४ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! शरद् ऋतु थी। उसके कारण बेला, चमेली आदि सुगन्धित पुष्प खिलकर महँ-महँ महँक रहे थे। भगवान्‌ ने चीरहरणके समय गोपियोंको जिन रात्रियोंका संकेत किया था वे सब-की-सब पुञ्जीभूत होकर एक ही रात्रिके रूपमें उल्लसित हो रही थीं। भगवान्‌ ने उन्हें देखा, देखकर दिव्य बनाया। गोपियाँ तो चाहती ही थीं। अब भगवान्‌ने भी अपनी अचिन्त्य महाशक्ति योगमायाके सहारे उन्हें निमित्त बनाकर रसमयी रासक्रीडा करनेका संकल्प किया। अमना होनेपर भी उन्होंने अपने प्रेमियोंकी इच्छा पूर्ण करनेके लिये मन स्वीकार किया ॥ १ ॥ भगवान्‌ के संकल्प करते ही चन्द्रदेव ने प्राची दिशाके मुखमण्डलपर अपने शीतल किरणरूपी करकमलोंसे लालिमाकी रोली-केसर मल दी, जैसे बहुत दिनोंके बाद अपनी प्राणप्रिया पत्नीके पास आकर उसके प्रियतम पतिने उसे आनन्दित करनेके लिये ऐसा किया हो ! इस प्रकार चन्द्रदेवने उदय होकर न केवल पूर्वदिशाका, प्रत्युत संसारके समस्त चर-अचर प्राणियोंका सन्तापजो दिनमें शरत्कालीन प्रखर सूर्य-रश्मियोंके कारण बढ़ गया थादूर कर दिया ॥ २ ॥ उस दिन चन्द्रदेवका मण्डल अखण्ड था। पूर्णिमाकी रात्रि थी। वे नूतन केसरके समान लाल-लाल हो रहे थे, कुछ सङ्कोचमिश्रित अभिलाषासे युक्त जान पड़ते थे। उनका मुखमण्डल लक्ष्मीजीके समान मालूम हो रहा था। उनकी कोमल किरणोंसे सारा वन अनुरागके रंगमें रँग गया था। वनके कोने-कोनेमें उन्होंने अपनी चाँदनीके द्वारा अमृतका समुद्र उड़ेल दिया था। भगवान्‌ श्रीकृष्णने अपने दिव्य उज्ज्वल रसके उद्दीपनकी पूरी सामग्री उन्हें और उस वनको देखकर अपनी बाँसुरीपर व्रजसुन्दरियों- के मनको हरण करनेवाली कामबीज क्ली.की अस्पष्ट एवं मधुर तान छेड़ी ॥ ३ ॥ भगवान्‌ का वह वंशीवादन भगवान्‌ के प्रेमको, उनके मिलनकी लालसाको अत्यन्त उकसानेवालाबढ़ानेवाला था। यों तो श्यामसुन्दरने पहलेसे ही गोपियोंके मनको अपने वशमें कर रखा था। अब तो उनके मनकी सारी वस्तुएँभय, सङ्कोच, धैर्य, मर्यादा आदिकी वृत्तियाँ भीछीन लीं। वंशीध्वनि सुनते ही उनकी विचित्र गति हो गयी। जिन्होंने एक साथ साधना की थी श्रीकृष्णको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये, वे गोपियाँ भी एक-दूसरे को सूचना न देकरयहाँ तक कि एक-दूसरे से अपनी चेष्टा को छिपाकर जहाँ वे थे, वहाँ के लिये चल पड़ीं। परीक्षित्‌ ! वे इतने वेग से चली थीं कि उनके कानों के कुण्डल झोंके खा रहे थे ॥ ४ ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



मंगलवार, 14 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

वरुणलोक से नन्दजी को छुड़ाकर लाना

 

श्रीशुक उवाच -

एवं प्रसादितः कृष्णो भगवान् ईश्वरेश्वरः ।

आदायागात् स्वपितरं बन्धूनां चावहन् मुदम् ॥ ९ ॥

नन्दस्त्वतीन्द्रियं दृष्ट्वा लोकपालमहोदयम् ।

कृष्णे च सन्नतिं तेषां ज्ञातिभ्यो विस्मितोऽब्रवीत् ॥ १० ॥

ते चौत्सुक्यधियो राजन् मत्वा गोपास्तमीश्वरम् ।

अपि नः स्वगतिं सूक्ष्मां उपाधास्यदधीश्वरः ॥ ११ ॥

इति स्वानां स भगवान् विज्ञायाखिलदृक् स्वयम् ।

सङ्‌कल्पसिद्धये तेषां कृपयैतदचिन्तयत् ॥ १२ ॥

जनो वै लोक एतस्मिन् अविद्याकामकर्मभिः ।

उच्चावचासु गतिषु न वेद स्वां गतिं भ्रमन् ॥ १३ ॥

इति सञ्चिन्त्य भगवान् महाकारुणिको हरिः ।

दर्शयामास लोकं स्वं गोपानां तमसः परम् ॥ १४ ॥

सत्यं ज्ञानमनन्तं यद् ब्रह्म ज्योतिः सनातनम् ।

यद्धि पश्यन्ति मुनयो गुणापाये समाहिताः ॥ १५ ॥

ते तु ब्रह्मह्रदं नीता मग्नाः कृष्णेन चोद्‌धृताः ।

ददृशुर्ब्रह्मणो लोकं यत्राक्रूरोऽध्यगात् पुरा ॥ १६ ॥

नन्दादयस्तु तं दृष्ट्वा परमानन्दनिवृताः ।

कृष्णं च तत्रच्छन्दोभिः स्तूयमानं सुविस्मिताः ॥ १७ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण ब्रह्मा आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं। लोकपाल वरुणने इस प्रकार उनकी स्तुति करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद भगवान्‌ अपने पिता नन्दजीको लेकर व्रजमें चले आये और व्रजवासी भाई-बन्धुओंको आनन्दित किया ॥ ९ ॥ नन्द- बाबाने वरुणलोकमें लोकपालके इन्द्रियातीत ऐश्वर्य और सुख-सम्पत्तिको देखा तथा यह भी देखा कि वहाँके निवासी उनके पुत्र श्रीकृष्णके चरणोंमें झुक-झुककर प्रणाम कर रहे हैं। उन्हें बड़ा विस्मय हुआ। उन्होंने व्रजमें आकर अपने जाति-भाइयोंको सब बातें कह सुनायीं ॥ १० ॥ परीक्षित्‌! भगवान्‌के प्रेमी गोप यह सुनकर ऐसा समझने लगे कि अरे, ये तो स्वयं भगवान्‌ हैं। तब उन्होंने मन-ही-मन बड़ी उत्सुकतासे विचार किया कि क्या कभी जगदीश्वर भगवान्‌ श्रीकृष्ण हमलोगोंको भी अपना वह मायातीत स्वधाम, जहाँ केवल इनके प्रेमी-भक्त ही जा सकते हैं, दिखलायेंगे ॥ ११ ॥ परीक्षित्‌! भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं सर्वदर्शी हैं। भला, उनसे यह बात कैसे छिपी रहती? वे अपने आत्मीय गोपोंकी यह अभिलाषा जान गये और उनका संकल्प सिद्ध करनेके लिये कृपासे भरकर इस प्रकार सोचने लगे ॥ १२ ॥ इस संसारमें जीव अज्ञानवश शरीरमें आत्मबुद्धि करके भाँति-भाँतिकी कामना और उनकी पूर्तिके लिये नाना प्रकारके कर्म करता है। फिर उनके फलस्वरूप देवता, मनुष्य, पशु पक्षी आदि ऊँची-नीची योनियोंमें भटकता फिरता है, अपनी असली गतिकोआत्मस्वरूपको नहीं पहचान पाता ॥ १३ ॥ परमदयालु भगवान्‌ श्रीकृष्णने इस प्रकार सोचकर उन गोपोंको मायान्धकारसे अतीत अपना परमधाम दिखलाया ॥ १४ ॥ भगवान्‌ने पहले उनको उस ब्रह्मका साक्षात्कार करवाया जिसका स्वरूप सत्य, ज्ञान, अनन्त, सनातन और ज्योति:स्वरूप है तथा समाधिनिष्ठ गुणातीत पुरुष ही जिसे देख पाते हैं ॥ १५ ॥ जिस जलाशयमें अक्रूर को भगवान्‌ ने अपना स्वरूप दिखलाया था, उसी ब्रह्मस्वरूप ब्रह्मह्रद में भगवान्‌ उन गोपों को ले गये। वहाँ उन लोगों ने उसमें डुबकी लगायी। वे ब्रह्मह्रदमें  प्रवेश कर गये। तब भगवान्‌ ने उसमेंसे उनको निकालकर अपने परमधाम का दर्शन कराया ॥ १६ ॥ उस दिव्य भगवत्स्वरूप लोक को देखकर नन्द आदि गोप परमानन्द में मग्न हो गये। वहाँ उन्होंने देखा कि सारे वेद मूर्तिमान् होकर भगवान्‌ श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे हैं। यह देखकर वे सब-के-सब परम विस्मित हो गये ॥ १७ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) अट्ठाईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

वरुणलोक से नन्दजी को छुड़ाकर लाना

 

श्रीशुक उवाच -

एकादश्यां निराहारः समभ्यर्च्य जनार्दनम् ।

स्नातुं नन्दस्तु कालिन्द्यां द्वादश्यां जलमाविशत् ॥ १ ॥

तं गृहीत्वानयद् भृत्यो वरुणस्यासुरोऽन्तिकम् ।

अवज्ञायासुरीं वेलां प्रविष्टमुदकं निशि ॥ २ ॥

चुक्रुशुस्तमपश्यन्तः कृष्ण रामेति गोपकाः ।

भगवांस्तदुपश्रुत्य पितरं वरुणाहृतम् ।

तदन्तिकं गतो राजन् स्वानामभयदो विभुः ॥ ३ ॥

प्राप्तं वीक्ष्य हृषीकेशं लोकपालः सपर्यया ।

महत्या पूजयित्वाऽऽह तद्दर्शनमहोत्सवः ॥ ४ ॥

 

श्रीवरुण उवाच -

अद्य मे निभृतो देहो अद्यैवार्थोऽधिगतः प्रभो ।

त्वत्पादभाजो भगवन् अवापुः पारमध्वनः ॥ ५ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते ब्रह्मणे परमात्मने ।

न यत्र श्रूयते माया लोकसृष्टिविकल्पना ॥ ६ ॥

अजानता मामकेन मूढेनाकार्यवेदिना ।

आनीतोऽयं तव पिता तद् भवान् क्षन्तुमर्हति ॥ ७ ॥

ममाप्यनुग्रहं कृष्ण कर्तुं अर्हस्यशेषदृक् ।

गोविन्द नीयतामेष पिता ते पितृवत्सल ॥ ८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! नन्दबाबा ने कार्तिक शुक्ल एकादशीका उपवास किया और भगवान्‌की पूजा की तथा उसी दिन रातमें द्वादशी लगनेपर स्नान करनेके लिये यमुना-जलमें प्रवेश किया ॥ १ ॥ नन्दबाबाको यह मालूम नहीं था कि यह असुरोंकी वेला है, इसलिये वे रातके समय ही यमुनाजलमें घुस गये। उस समय वरुणके सेवक एक असुर ने उन्हें पकड़ लिया और वह अपने स्वामीके पास ले गया ॥ २ ॥ नन्दबाबा के खो जाने से व्रज के सारे गोप श्रीकृष्ण ! अब तुम्हीं अपने पिताको ला सकते हो; बलराम ! अब तुम्हारा ही भरोसा है’—इस प्रकार कहते हुए रोने-पीटने लगे। भगवान्‌ श्रीकृष्ण सर्वशक्तिमान् हैं एवं सदासे ही अपने भक्तोंका भय भगाते आये हैं। जब उन्होंने व्रजवासियोंका रोना पीटना सुना और यह जाना कि पिताजीको वरुणका कोई सेवक ले गया है, तब वे वरुणजीके पास गये ॥ ३ ॥ जब लोकपाल वरुणने देखा कि समस्त जगत्के अन्तरिन्द्रिय और बहिरिन्द्रियोंके प्रवर्तक भगवान्‌ श्रीकृष्ण स्वयं ही उनके यहाँ पधारे हैं, तब उन्होंने उनकी बहुत बड़ी पूजा की। भगवान्‌ के दर्शनसे उनका रोम-रोम आनन्दसे खिल उठा। इसके बाद उन्होंने भगवान्‌ से निवेदन किया ॥ ४ ॥

 

वरुणजीने कहाप्रभो ! आज मेरा शरीर धारण करना सफल हुआ। आज मुझे सम्पूर्ण पुरुषार्थ प्राप्त हो गया। क्योंकि आज मुझे आपके चरणोंकी सेवाका शुभ अवसर प्राप्त हुआ है। भगवन् ! जिन्हें भी आपके चरणकमलोंकी सेवाका सुअवसर मिला, वे भवसागरसे पार हो गये ॥ ५ ॥ आप भक्तोंके भगवान्‌, वेदान्तियों के ब्रह्म और योगियों के परमात्मा हैं। आपके स्वरूपमें विभिन्न लोकसृष्टियों की कल्पना करनेवाली माया नहीं हैऐसा श्रुति कहती है। मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ६ ॥ प्रभो ! मेरा यह सेवक बड़ा मूढ़ और अनजान है। वह अपने कर्तव्यको भी नहीं जानता। वही आपके पिताजीको ले आया है, आप कृपा करके उसका अपराध क्षमा कीजिये ॥ ७ ॥ गोविन्द ! मैं जानता हूँ कि आप अपने पिताके प्रति बड़ा प्रेमभाव रखते हैं। ये आपके पिता हैं। इन्हें आप ले जाइये। परंतु भगवन् ! आप सबके अन्तर्यामी, सबके साक्षी हैं। इसलिये विश्वविमोहन श्रीकृष्ण! आप मुझ दासपर भी कृपा कीजिये ॥ ८ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से



सोमवार, 13 जुलाई 2020

श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)


॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०२)

 

श्रीकृष्ण का अभिषेक

 

श्रीभगवानुवाच -

मया तेऽकारि मघवन् मखभङ्‌गोऽनुगृह्णता ।

मदनुस्मृतये नित्यं मत्तस्येन्द्रश्रिया भृशम् ॥ १५ ॥

मामैश्वर्यश्रीमदान्धो दण्डपाणिं न पश्यति ।

तं भ्रंशयामि सम्पद्‍भ्यो यस्य चेच्छाम्यनुग्रहम् ॥ १६ ॥

गम्यतां शक्र भद्रं वः क्रियतां मेऽनुशासनम् ।

स्थीयतां स्वाधिकारेषु युक्तैर्वः स्तम्भवर्जितैः ॥ १७ ॥

अथाह सुरभिः कृष्णं अभिवन्द्य मनस्विनी ।

स्वसन्तानैरुपामन्त्र्य गोपरूपिणमीश्वरम् ॥ १८ ॥

 

सुरभिरुवाच -

कृष्ण कृष्ण महायोगिन् विश्वात्मन् विश्वसम्भव ।

भवता लोकनाथेन सनाथा वयमच्युत ॥ १९ ॥

त्वं नः परमकं दैवं त्वं न इन्द्रो जगत्पते ।

भवाय भव गोविप्र देवानां ये च साधवः ॥ २० ॥

इन्द्रं नस्त्वाभिषेक्ष्यामो ब्रह्मणा चोदिता वयम् ।

अवतीर्णोऽसि विश्वात्मम् भूमेर्भारापनुत्तये ॥ २१ ॥

 

श्रीशुक उवाच -

एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभिः पयसात्मनः ।

जलैराकाशगङ्‌गाया ऐरावतकरोद्‌धृतैः ॥ २२ ॥

इन्द्रः सुरर्षिभिः साकं चोदितो देवमातृभिः ।

अभ्यसिञ्चत दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात् ॥ २३ ॥

तत्रागतास्तुम्बुरुनारदादयो

गन्धर्वविद्याधरसिद्धचारणाः ।

जगुर्यशो लोकमलापहं हरेः

सुराङ्‌गनाः संननृतुर्मुदान्विताः ॥ २४ ॥

तं तुष्टुवुर्देवनिकायकेतवो

व्यवाकिरन् चाद्‍भुतपुष्पवृष्टिभिः ।

लोकाः परां निर्वृतिमाप्नुवंस्त्रयो

गावस्तदा गामनयन् पयोद्रुताम् ॥ २५ ॥

नानारसौघाः सरितो वृक्षा आसन् मधुस्रवाः ।

अकृष्टपच्यौषधयो गिरयोऽबिभ्रदुन्मणीन् ॥ २६ ॥

कृष्णेऽभिषिक्त एतानि सत्त्वानि कुरुनन्दन ।

निर्वैराण्यभवंस्तात क्रूराण्यपि निसर्गतः ॥ २७ ॥

इति गोगोकुलपतिं गोविन्दमभिषिच्य सः ।

अनुज्ञातो ययौ शक्रो वृतो देवादिभिर्दिवम् ॥ २८ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब देवराज इन्द्रने भगवान्‌ श्रीकृष्णकी इस प्रकार स्तुति की, तब उन्होंने हँसते हुए मेघके समान गम्भीर वाणीसे इन्द्रको सम्बोधन करके कहा॥ १४ ॥

 

श्रीभगवान्‌ ने कहाइन्द्र ! तुम ऐश्वर्य और धन सम्पत्तिके मदसे पूरे-पूरे मतवाले हो रहे थे। इसलिये तुमपर अनुग्रह करके ही मैंने तुम्हारा यज्ञ भङ्ग किया है। यह इसलिये कि अब तुम मुझे नित्य-निरन्तर स्मरण रख सको ॥ १५ ॥ जो ऐश्वर्य और धन-सम्पत्तिके मदसे अंधा हो जाता है, वह यह नहीं देखता कि मैं कालरूप परमेश्वर हाथमें दण्ड लेकर उसके सिरपर सवार हूँ। मैं जिसपर अनुग्रह करना चाहता हूँ, उसे ऐश्वर्यभ्रष्ट कर देता हूँ ॥ १६ ॥ इन्द्र ! तुम्हारा मङ्गल हो। अब तुम अपनी राजधानी अमरावतीमें जाओ और मेरी आज्ञाका पालन करो। अब कभी घमंड न करना। नित्य-निरन्तर मेरी सन्निधिका, मेरे संयोगका अनुभव करते रहना और अपने अधिकारके अनुसार उचित रीतिसे मर्यादाका पालन करना ॥ १७ ॥

 

परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ इस प्रकार आज्ञा दे ही रहे थे कि मनस्विनी कामधेनु ने अपनी सन्तानों के साथ गोपवेषधारी परमेश्वर श्रीकृष्णकी वन्दना की और उनको सम्बोधित करके कहा॥ १८ ॥

 

कामधेनुने कहासच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप महायोगीयोगेश्वर हैं। आप स्वयं विश्व हैं, विश्वके परमकारण हैं, अच्युत हैं। सम्पूर्ण विश्वके स्वामी आपको अपने रक्षकके रूपमें प्राप्तकर हम सनाथ हो गयीं ॥ १९ ॥ आप जगत्के स्वामी हैं। परंतु हमारे तो परम पूजनीय आराध्यदेव ही हैं। प्रभो ! इन्द्र त्रिलोकीके इन्द्र हुआ करें, परंतु हमारे इन्द्र तो आप ही हैं। अत: आप ही गौ, ब्राह्मण, देवता और साधुजनों की रक्षाके लिये हमारे इन्द्र बन जाइये ॥ २० ॥ हम गौएँ ब्रह्माजी की प्रेरणासे आपको अपना इन्द्र मानकर अभिषेक करेंगी। विश्वात्मन् ! आपने पृथ्वीका भार उतारनेके लिये ही अवतार धारण किया है ॥ २१ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर कामधेनुने अपने दूधसे और देवमाताओंकी प्रेरणासे देवराज इन्द्रने ऐरावतकी सूँडके द्वारा लाये हुए आकाशगङ्गा के जलसे देवर्षियोंके साथ यदुनाथ श्रीकृष्णका अभिषेक किया और उन्हें गोविन्दनामसे सम्बोधित किया ॥ २२-२३ ॥ उस समय वहाँ नारद, तुम्बुरु आदि गन्धर्व, विद्याधर, सिद्ध और चारण पहलेसे ही आ गये थे। वे समस्त संसारके पाप-तापको मिटा देनेवाले भगवान्‌के लोकमलापह यशका गान करने लगे और अप्सराएँ आनन्दसे भरकर नृत्य करने लगीं ॥ २४ ॥ मुख्य-मुख्य देवता भगवान्‌ की स्तुति करके उनपर नन्दनवनके दिव्य पुष्पोंकी वर्षा करने लगे। तीनों लोकोंमें परमानन्दकी बाढ़ आ गयी और गौओंके स्तनों से आप-ही-आप इतना दूध गिरा कि पृथ्वी गीली हो गयी ॥ २५ ॥ नदियोंमें विविध रसोंकी बाढ़ आ गयी। वृक्षोंसे मधुधारा बहने लगी। बिना जोते-बोये पृथ्वीमें अनेकों प्रकारकी ओषधियाँ, अन्न पैदा हो गये। पर्वतोमें छिपे हुए मणि-माणिक्य स्वयं ही बाहर निकल आये ॥ २६ ॥ परीक्षित्‌ ! भगवान्‌ श्रीकृष्ण का अभिषेक होनेपर जो जीव स्वभावसे ही क्रूर हैं, वे भी वैरहीन हो गये, उनमें भी परस्पर मित्रता हो गयी ॥ २७ ॥ इन्द्र ने इस प्रकार गौ और गोकुल के स्वामी श्रीगोविन्द का अभिषेक किया और उनसे अनुमति प्राप्त होनेपर देवता, गन्धर्व आदि के साथ स्वर्गकी यात्रा की ॥ २८ ॥

 

इति श्रीमद्‍भागवते महापुराणे पारमहंस्यां

संहितायां दशमस्कन्धे पूर्वार्धे सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

 

हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से

 



श्रीमद्भागवतमहापुराण दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) – सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥

 

श्रीमद्भागवतमहापुराण

दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध) सत्ताईसवाँ अध्याय..(पोस्ट०१)

 

श्रीकृष्ण का अभिषेक

 

श्रीशुक उवाच -

गोवर्धने धृते शैले आसाराद् रक्षिते व्रजे ।

गोलोकादाव्रजज् कृष्णं सुरभिः शक्र एव च ॥ १ ॥

विविक्त उपसङ्‌गम्य व्रीडीतः कृतहेलनः ।

पस्पर्श पादयोरेनं किरीटेनार्कवर्चसा ॥ २ ॥

दृष्टश्रुतानुभावोऽस्य कृष्णस्यामिततेजसः ।

नष्टत्रिलोकेशमद इदमाह कृताञ्जलिः ॥ ३ ॥

 

इन्द्र उवाच -

विशुद्धसत्त्वं तव धाम शान्तं

तपोमयं ध्वस्तरजस्तमस्कम् ।

मायामयोऽयं गुणसम्प्रवाहो

न विद्यते ते ग्रहणानुबन्धः ॥ ४ ॥

कुतो नु तद्धेतव ईश तत्कृता

लोभादयो येऽबुधलिन्गभावाः ।

तथापि दण्डं भगवान्बिभर्ति

धर्मस्य गुप्त्यै खलनिग्रहाय ॥ ५ ॥

पिता गुरुस्त्वं जगतामधीशो

दुरत्ययः काल उपात्तदण्डः ।

हिताय स्वेच्छातनुभिः समीहसे

मानं विधुन्वन् जगदीशमानिनाम् ॥ ६ ॥

ये मद्विधाज्ञा जगदीशमानिनः

त्वां वीक्ष्य कालेऽभयमाशु तन्मदम् ।

हित्वाऽऽर्यमार्गं प्रभजन्त्यपस्मया

ईहा खलानामपि तेऽनुशासनम् ॥ ७ ॥

स त्वं ममैश्वर्यमदप्लुतस्य

कृतागसस्तेऽविदुषः प्रभावम् ।

क्षन्तुं प्रभोऽथार्हसि मूढचेतसो

मैवं पुनर्भून्मतिरीश मेऽसती ॥ ८ ॥

तवावतारोऽयमधोक्षजेह

भुवो भराणां उरुभारजन्मनाम् ।

चमूपतीनामभवाय देव

भवाय युष्मत् चरणानुवर्तिनाम् ॥ ९ ॥

नमस्तुभ्यं भगवते पुरुषाय महात्मने ।

वासुदेवाय कृष्णाय सात्वतां पतये नमः ॥ १० ॥

स्वच्छन्दोपात्तदेहाय विशुद्धज्ञानमूर्तये ।

सर्वस्मै सर्वबीजाय सर्वभूतात्मने नमः ॥ ११ ॥

मयेदं भगवन् गोष्ठ नाशायासारवायुभिः ।

चेष्टितं विहते यज्ञे मानिना तीव्रमन्युना ॥ १२ ॥

त्वयेशानुगृहीतोऽस्मि ध्वस्तस्तम्भो वृथोद्यमः ।

ईश्वरं गुरुमात्मानं त्वामहं शरणं गतः ॥ १३ ॥

 

श्रीशुकदेवजी कहते हैंपरीक्षित्‌ ! जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन  को धारण करके मूसलधार वर्षा से व्रज को बचा लिया, तब उनके पास गोलोक से कामधेनु (बधाई देनेके लिये) और स्वर्ग से देवराज इन्द्र (अपने अपराध को क्षमा कराने के लिये) आये ॥ १ ॥ भगवान्‌ का तिरस्कार करने के कारण इन्द्र बहुत ही लज्जित थे। इसलिये उन्होंने एकान्त-स्थान में भगवान्‌ के पास जाकर अपने सूर्यके समान तेजस्वी मुकुटसे उनके चरणोंका स्पर्श किया ॥ २ ॥ परम तेजस्वी भगवान्‌ श्रीकृष्णका प्रभाव देख-सुनकर इन्द्रका यह घमंड जाता रहा कि मैं ही तीनों लोकोंका स्वामी हूँ। अब उन्होंने हाथ जोडक़र उनकी स्तुति की ॥ ३ ॥

 

इन्द्रने कहाभगवन् ! आपका स्वरूप परम शान्त, ज्ञानमय, रजोगुण तथा तमोगुणसे रहित एवं विशुद्ध अप्राकृत सत्त्वमय है। यह गुणोंके प्रवाहरूपसे प्रतीत होनेवाला प्रपञ्च केवल मायामय है। क्योंकि आपका स्वरूप न जाननेके कारण ही आपमें इसकी प्रतीति होती है ॥ ४ ॥ जब आपका सम्बन्ध अज्ञान और उसके कारण प्रतीत होनेवाले देहादिसे है ही नहीं, फिर उन देह आदिकी प्राप्तिके कारण तथा उन्हींसे होनेवाले लोभ-क्रोध आदि दोष तो आपमें हो ही कैसे सकते हैं ? प्रभो ! इन दोषोंका होना तो अज्ञानका लक्षण है। इस प्रकार यद्यपि अज्ञान और उससे होनेवाले जगत्से आपका कोई सम्बन्ध नहीं है, फिर भी धर्मकी रक्षा और दुष्टोंका दमन करनेके लिये आप अवतार ग्रहण करते हैं और निग्रह-अनुग्रह भी करते हैं ॥ ५ ॥ आप जगत् के पिता, गुरु और स्वामी हैं। आप जगत् का नियन्त्रण करनेके लिये दण्ड धारण किये हुए दुस्तर काल हैं। आप अपने भक्तों की लालसा पूर्ण करने के लिये स्वच्छन्दता से लीला-शरीर प्रकट करते हैं और जो लोग हमारी तरह अपने को ईश्वर मान बैठते हैं, उनका मान मर्दन करते हुए अनेकों प्रकार की लीलाएँ करते हैं ॥ ६ ॥ प्रभो ! जो मेरे-जैसे अज्ञानी और अपने को जगत् का  ईश्वर माननेवाले हैं, वे जब देखते हैं कि बड़े-बड़े भयके अवसरों पर भी आप निर्भय रहते हैं, तब वे अपना घमंड छोड़ देते हैं और गर्वरहित होकर संतपुरुषों के द्वारा सेवित भक्तिमार्गका आश्रय लेकर आपका भजन करते हैं। प्रभो ! आपकी एक-एक चेष्टा दुष्टोंके लिये दण्डविधान है ॥ ७ ॥ प्रभो ! मैंने ऐश्वर्य के मद से चूर होकर आपका अपराध किया है। क्योंकि मैं आपकी शक्ति और प्रभावके सम्बन्धमें बिलकुल अनजान था। परमेश्वर ! आप कृपा करके मुझ मूर्ख अपराधीका यह अपराध क्षमा करें और ऐसी कृपा करें कि मुझे फिर कभी ऐसे दुष्ट अज्ञानका शिकार न होना पड़े ॥८॥ स्वयंप्रकाश, इन्द्रियातीत परमात्मन् ! आपका यह अवतार इसलिये हुआ है कि जो असुर सेनापति केवल अपना पेट पालने में ही लग रहे हैं और पृथ्वी के लिये बड़े भारी भार के कारण बन रहे हैं, उनका वध करके उन्हें मोक्ष दिया जाय, और जो आपके चरणों के सेवक हैंआज्ञाकारी भक्तजन हैं, उनका अभ्युदय होउनकी रक्षा हो ॥ ९ ॥ भगवन् ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। आप सर्वान्तर्यामी पुरुषोत्तम तथा सर्वात्मा वासुदेव हैं। आप यदुवंशियोंके एकमात्र स्वामी, भक्तवत्सल एवं सबके चित्तको आकर्षित करनेवाले हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ १० ॥ आपने जीवोंके समान कर्मवश होकर नहीं, स्वतन्त्रतासे अपने भक्तोंकी तथा अपनी इच्छाके अनुसार शरीर स्वीकार किया है। आपका यह शरीर भी विशुद्धज्ञानस्वरूप है। आप सब कुछ हैं, सबके कारण हैं और सबके आत्मा हैं। मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ ११ ॥ भगवन् ! मेरे अभिमानका अन्त नहीं है और मेरा क्रोध भी बहुत ही तीव्र, मेरे वशके बाहर है। जब मैंने देखा कि मेरा यज्ञ तो नष्ट कर दिया गया, तब मैंने मूसलधार वर्षा और आँधीके द्वारा सारे व्रजमण्डलको नष्ट कर देना चाहा ॥ १२ ॥ परंतु प्रभो ! आपने मुझपर बहुत ही अनुग्रह किया। मेरी चेष्टा व्यर्थ होनेसे मेरे घमंडकी जड़ उखड़ गयी। आप मेरे स्वामी हैं, गुरु हैं और मेरे आत्मा हैं। मैं आपकी शरणमें हूँ ॥ १३ ॥

 

शेष आगामी पोस्ट में --

गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भागवतमहापुराण  (विशिष्टसंस्करण)  पुस्तककोड 1535 से




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